महाकवि भवभूति - 15 रामगोपाल तिवारी द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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महाकवि भवभूति - 15

महाकवि भवभूति 15

संवेदनाओं का संदेशवाहक

संदेश से जीवन में समग्रता बनी रहती है। जीवन के विकास में संदेश की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में इसका मूल्य और अधिक बढ़ जाता है। संदेश वाहक पद्मावती नगरी को देखने की उत्कण्ठा लिये कन्नौज से रवाना हो गया। उन सभी बातों को सहेजकर रखने लगा जो उसने पद्मावती के बारे में सुन रखी थी। महाराज यशोवर्मा अपनी राज्यसभा में पद्मावती की प्रशंसा करते हुये तृप्त नहीं होते। प्रकृति के सुरम्य दृश्य पद्मावती की धरती ने अपने अन्तस् में छुपा रखे हैं। उन्हें देखने का आज यह अवसर हाथ आया है। वहाँ जाकर लम्बे समय तक रहूँगा। सुना है विद्याविहार भी वहाँ का एक दर्शनीय स्थल है। वहाँ का नाट्यमंच आम जनता के लिये बनाया गया है। कैसा होगा वह नाट्य मंच जहाँ आम जनता और राजा-महाराजा एक साथ बैठकर नाटक का आनन्द लेते होंगे। यदि इतना सुन्दर स्थान न होता तो भवभूति जैसे महाकवि इसे अपनी कर्मस्थली के रूप में स्वीकार न करते। वे वहाँ अपने पुत्र और पुत्रवधु को छोड़कर आये हैं। वे कश्मीर गये हैं, लेकिन उनका चित्त पद्मावती में ही विचरण करता रहेगा।

ये कवि लोग भी बड़े ही विचित्र विचारों वाले होते हैं, इनका अपना अलग ही संसार होता है। ये कल्पना के सरोवर में लहरों की तरह भावों की सतह को छूने के प्रयास करते रहते हैं। कभी-कभी अमूल्य रत्न हाथ आ जाते हैं और कभी-कभी जीवन भर भटकन ही हाथ लगती हैं। मैं भी कैेसा संदेश वाहक हूँ, मेरा काम तो संदेश पहुंँचाना है। मैं हूँ कि रचनाकार और समीक्षक बना जा रहा हूँ। कोई रचनाकारों की समीक्षा करता है, मैं हूँ कि जहाँ जाता हूँ वहाँ की धारणाओं एवं संस्कृति का मूल्याँकन करने में लग जाता हूँ। वहाँ के लोग कैसे रहते हैं? कैसे भोजन करते हैं? कैसे वस्त्र पहनते हेैं? जगह-जगह, तरह-तरह की वस्तुओं को देखना परखना, मुझे बहुत ही अच्छा लगाता है। इसी कारण तो मैंने संदेश वाहक का कार्य स्वीकार किया है। संदेश वाहक जितना विश्वासपात्र होता है, उतना दूसरा शायद कोई नहीं होता। संदेश वाहकों को हमेशा कष्टों को गले लगाकर, हँसकर जीवन जीना पड़ता है।

इस तरह जाने क्या-क्या सोचते हुये वह पद्मावती नगरी में पहुँच गया। सिन्ध और पारा नदी का संगम सामने था। वह सोचने लगा- जैसा सुना था वैसा ही पाया। यह बड़ा ही मनोरम स्थल है, यहाँ पर्याप्त जलधारा है। नावों के आने-जाने का दृश्य मन को मोहित कर रहा है। जैसे ही संदेश वाहक इस ओर आने के लिये नाँव में बैठा, नाँव में बैठे यात्रियों के पूछने पर ज्ञात हो गया कि ये कन्नौज से आये हैं।

किसी ने पूछा-‘ हमारे महाकवि कब आ रहें हैं?

यह प्रश्न सुनकर वह गुमसुम सोचता रहा, फिर धीमे स्वर में बोला- ‘वे कश्मीर चले गये हैं। शायद वे कभी न लौट पायें।’

किसी अन्य नेे पूछ लिया- ‘ये क्या कहते हो भैया! हम तुम्हारे हाथ जोड़ते हैं, तुम तो हमारे महाकवि को बुलाकर वापस ले आओ।’

दूसरा बोला- ‘इस जानकारी से तो पहले ही अच्छे थे। हम भ्रम में तो बने रहते थे कि वे यहाँ जरूर आयेंगे। भैया तुम हमारा ये भ्रम न तोड़ो, सच-सच कहो। वे यहाँ कब आ रहे हैं?’

वह समझ गया उन्हें समझाना बहुत कठिन है। अतः वह उन्हें समझाने के लिये क्या कहे, क्या न कहे। यही सोचकर साँत्वना देने के लिये बोला- ‘जब मैं लौटकर यहाँ से कन्नौज जाऊँगा, वहाँ से कश्मीर समाचार भिजवा दूँगा। वे यहाँ अवश्य आयेंगे।’

यह सुनकर उन्हें आत्मसंतोष हुआ। एक बोला- ‘देखना वे यहाँ जरूर आयेंगे। वे घुमने-फिरने चाहे जहाँ जायें लेकिन लौटकर यहीं आयेंगे।’

तीसरा अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुये बोेला- ‘मेरा दृढ़ विश्वास है कि वे यहाँ के बिना कहीं रह ही नहीं सकते।’ बातों ही बातों में नाव इस पार लग चुकी थी। वह संदेश वाहक सीधे भवभूति के पुत्र गणेश का निवास पूछकर उनके घर की ओर चल दिया।

कुछ समय में ही यह खबर सारे नगर में फैल गयी। नगर का प्रत्येक व्यक्ति यह जानने को उत्सुक था कि महाकवि यहाँ कब आ रहे हैं?

यहाँ आदर सत्कार की परम्परा प्राचीनकाल से कुछ अलग ही रही है। संदेश वाहक से गणेश ने पूछा- ‘भैया, क्या नाम बतलाया आपने अपना।’

उत्तर मिला-‘ देवीराम।’

कुछ ही देर में तो गणेश का पूरा बैठक कक्ष खचाखच भर चुका था।

आचार्य शर्मा ने पूछा- ‘हमारे मित्र ने हमें क्या संदेश भेजा है?’

प्रश्न के उत्तर में देवीराम ने कहा- ‘वे कश्यप ऋषि की तपोभूमि के दर्शनार्थ कश्मीर प्रस्थान कर गये हैं।’

महाशिल्पी ने बीच में ही पूछा- ‘वे कब तक लौटेंगे, कुछ कहा है?’

देवीराम ने उत्तर दिया-‘ ‘बहुत ही लम्बी यात्रा है। कुछ कहा नहीं कहा जा सकता। लौटेंगे या नहीं। सुना है वहाँ के राजदरबार में उनका बड़ा मान-सम्मान है।’

बहन सुमंगला भी समाचार जानने के लिये वहाँ आ पहंँची थी। आते ही बोली-‘ सुना है राजाधिराज ललितादित्य साहित्यकारों एवं कवियों का बड़ा सम्मान करते हैं। ’

यह सुनकर देवीराम ने कहा- ‘हाँ सुना तो मैंने भी यही है।’

अब पार्वतीनन्दन बिना बोले न रह सके, बोले-‘मैं जानता था दक्षिण पथ से वे जब यहाँ तक आये हैं तो वे किसी न किसी दिन कश्मीर भी अवश्य ही जायेंगे। उन्हें वहाँ जाने का अवसर मिल गया, फिर वे मानने वाले नहीं थे। अरे! भैया हमारी समधिन जी ने हमारे लिये कुछ कहा है कि नहीं?’

यह सुनकर देवीराम ने उत्तर दिया- ‘उन्होंने ही मुझे यहाँ भेजा है। यदि वे आज्ञा न देतीं तो मैं यहाँ आप लोगों के दर्शन करने न आ पाता।’

दर्शन की बात सुनकर सुमंगला बोली- ‘अब यहाँ आये हैं तो कालप्रियनाथ के दर्शन अवश्य कीजियेगा।’

यह बात सुनकर बोला-‘ भगवान कालप्रियनाथ के दर्शन तो करूँगा ही। साथ ही विद्याविहार भी देखना चाहूँगा।’

आचार्य शर्मा कहने लगे- ‘बातें ही बातें करते रहोगे या इनको कुछ खिलाओगे पिलाओगे भी। लम्बी यात्रा के बाद आये हैं, इन्हें अब आराम करने दो। फिर बैठकर बातें करेंगे।’ यह कहते हुये आचार्य शर्मा उठ खड़े हुये। वे उठे तो महाशिल्पी, सुमंगला सहित आदि सभी उठकर वहाँ से प्रस्थान करने को उद्वत हो गये। कुछ ही समय में बैठक खाली हो गयी। बेमन से पार्वतीनन्दन और रामदेवी भी चल दिये। समाचार सुनकर गणेश और ऋचा बड़े ही निराश हो गये। बारम्बार पिताश्री के कार्यकलाप, उनकी बातें, उनके सिद्धान्त और उनका व्यवहार आदि याद आने लगे।

दूसरे दिन प्रातः ही गणेश संदेशवाहक देवीराम केा लेकर भगवान कालप्रियनाथ के दर्शन करने को निकल पड़े। पहले सिन्धु के पावन जल से स्नान किया। पात्र में जल भरकर कालप्रियनाथ का अभिषेक करने मंदिर की ओर चल पड़े। प्रतिदिन की तरह यहाँ बहुत भीड़ थी। मंदिर के बाहर प्रसाद-पुष्प आदि की दुकानें लगी थीं। गणेश और देवीराम भी प्रसाद और पुष्प लेकर मंदिर के अन्दर पहुँच गये। सामने भगवान कालप्रियनाथ विराजमान थे। उस पिण्डी से सुन्दर आकृति वाला सर्प लिपटा था। मन मोहक दृश्य देखकर गणेश देवीराम से बोला-‘-इस पिण्ड से नाग के लिपटे होने से नाग राजाओं की याद दिला रहा है। यह नागवंश के काल की घरोहर है।’ देवीराम ने भक्ति भाव से कालप्रियनाथ का अभिषेक किया। पुष्प अर्पित किये, प्रसाद चढ़ाया और वे मंदिर से वाहर निकल आये। आचार्य शर्मा और महाशिल्पी दोनों ही मंदिर के बाहर उनकी प्रतिक्षा कर रहे थे। उन्हें देख आचार्य शर्मा बोले-‘चलिये विद्याविहार चलते हैं।’

विद्याविहार की व्यवस्था को देखते हुये वे सीधे नाट्यमंच पर पहुँच गये। वहाँ विद्यार्थियों की अनायास भीड़ को देखकर आचार्य शर्मा ने एक विद्यार्थी को रोककर पूछा-‘आज हमें आप लोगों को कोई सूचना भी नहीं देनी है फिर ये छात्र यहाँ एकत्रित क्यों हैं।’

प्रश्न सुनकर वह छात्र बोला- ‘आज सूचना आपको नहीं देनी है, पर हम छात्रों को आपसे सूचना प्राप्त करना है।’

यह सुनकर महाशिल्पी वेदराम ने पूछ लिया-‘ आज किस विषय पर सूचना प्राप्त करना चाहते हैं ?’

किसी दूसरे छात्र ने मर्यादित उत्तर दिया- ‘महाकवि के बारे में सूचना प्राप्त करनी थी। वे यहाँ कब तक आ रहे हैं?’

अब तक पार्वतीनन्दन भी यहाँ आ चुके थे। छात्रों की यह बात उन्होंने सुन ली थी। वे बोले-‘‘जिस तरह हमें संदेश वाहक से मिलने की व्यग्रता थी। उसी तरह ये छात्र भी उनसे मिलने व्यग्र हैं। पहले छात्रों की समस्याओं का समाधान करें। ’

गणेश को कहना पड़ा- ‘महाकवि ने विद्याविहार के विद्यार्थियों के लिये क्या संदेश भेजा है?’

बातें स्पष्ट हो गई थीं। आचार्य शर्मा देवीराम को साथ लेकर मंच पर पहुँच गये। छात्र पंक्ति बनाकर अपने अपने विहार में निश्चित स्थान पर मंच के आसपास खड़े हो गये। जिससे हर बार की तरह अनुशासन बना रहे।

अब आचार्य शर्मा ने उॅचे स्वर में कहा- ‘आप लोग महाकवि के सन्देश को सुनने के लिये एकत्रित हुये हैं। उनका सदेश संदेशवाहक देवीराम जी स्वयं आप लोगों को प्रसारित करेंगे।’

देवीराम ने कहना प्रारंभ किया- ‘आप लोग अपने विद्याविहार के गुरुदेव महाकवि भवभूति के बारे में जानने के लिये व्यग्र दिखाई दे रह हैं। यह देखकर मुझे बहुत आनन्द आ रहा है। इससे मुझे लग है कि उन्हें आप लोग कितना प्यार करते हैं! प्यार एक तरफ से नहीं होता, यह दोनों ओर की तरंगें हैं। आप लोग महाकवि से जितना प्यार करते हैं सच मानिये महाकवि भवभूति एवं माताश्री दुर्गा भी, आप लोगों से उतना ही प्यार करते है। जब कश्मीर नरेश राजाधिराज के सलाहकार मित्रशर्मा ने उनसे कश्मीर चलने के लिये कहा तो उन्होंने साफ-साफ मना कर दिया था। उन्होंने कह दिया- ‘वे पद्मावती के लिये वापस लौट जाना चाहते हैं। लेकिन आप लोगों को ज्ञात होगा, हमारे महाकवि कश्यप गोत्रीय है। कश्मीर में कश्यप ऋषि की तपोभूमि है। वे अपने ऋषि की तपोभूमि के दर्शन करने के लिये व्यग्र हो उठे। संभव है तपस्थली देखने के बाद वे लौट आयें। उनका तो यहाँ के निवासियों को यही एक संदेश है कि सब अपने-अपने कर्तव्य का पालन करते रहें। उन्हें विद्याविहार की चिन्ता सदैव सताती रहती है। कैसे होंगे हमारे विद्यार्थी? अध्ययन कैसा चल रहा होगा? उन्हें अपने मित्र आचार्य शर्मा जो आज के इस विद्याविहार के आचार्य प्रवर है एवं महाशिल्पी वेदराम, पुत्र गणेश, पुत्रवधु ऋचा पर उन्हें पूरा विश्वास है कि ये लोग आप लोगों की निरंतर सेवा कर रहे होंगे। अब मैं जब भी वापस जाऊँगा, आप लोग अपना संदेश मेरे द्वारा उन तक पहँुचा सकते हैं। मेरा काम ही संदेश लाना और ले जाना है। मेरे लिये कश्मीर कोई दूर नहीं है। मैंने कन्याकुमारी की पैदल यात्रा की है। अब आप लोगों का संदेश लेकर कश्मीर भी जा सकता हूँ, लेकिन आप लोग जो संदेश उन्हें भेजना चाहते हैं, वे सब जानते हैं, सर्वज्ञ हैं। आपके मन की तरंगें उन तक पहुँच रही हैं इसलिये मेरे वहाँ जाने की शायद आवश्यकता नहीं है। मैं तो सोचता हँू अब कभी कहीं नहीं जाऊँ। आप लोगों के मध्य अपना शेष जीवन व्यतीत करूँ। उन्होंने आप सभी लोगों के लिये मुझे यहाँ भेजकर अपना दुलार पहंँुचाया है। आप सभी लोग उसे स्वीकार करें और अपने-अपने अध्ययन में लग जायें। हम उनके लक्ष्य में व्यवधान नहीं बनना चाहते। हम यही कामना करते रहें, वे जहाँ भी रहें आनन्द से रहें- जय भारत। सभी के मुँह से निकला- जय भारत जननी। संदेश जान सभी छात्र अपनी-अपनी अध्ययनशाला में चले गये।

विद्याविहार की चित्रवीथिका में पार्वतीनन्दन, आचार्य शर्मा महाशिल्पी की बैठक जमी थी। साथ में संदेशवाहक देवीराम भी था। महाशिल्पी ने पार्वतीनन्दन से कहा- ‘आपको हमारी दुर्गा भाभी की अब भी बहुत याद आती है।’

वे समझ गये महाशिल्पी व्यंग्य भाव में हैं। इसलिये बोले- ‘याद आना ही चाहिए। समधिन तो समधिन होती है। समानता का भाव आने से हँसी-दिल्लगी का भाव भी आ जाता है। आखिर हमने उन्हंे अपनी बच्ची दी है। आप क्या सोचते हैं वे हमें याद नहीं करती होंगी ?’

आचार्य शर्मा बोले-‘ याद क्यों नहीं करती होंगी, एक पल के लिये भी आपको भूल नहीं पाती होंगी। अब तो उन्हें पुराने दिन भी याद आते होंगे।’

महाशिल्पी कहने लगे- ‘देखा, चिंगारी तो दोनों ओर जल रही है। यह बात नहीं है तो उस दिन अपने हाथ से इन्हें मोदक क्यों खिलाया और ये महाराज भी उनसे मिलने कन्नौज गये थे।’

पार्वतीनन्दन ने मुस्कुराते हुये स्वीकार किया- ‘इसमें आप लोगों को क्या आपत्ति है!’

आचार्य शर्मा को कहना पड़ा- ‘आपत्ति तो महाकवि को होना चाहिये। हमें क्या परेशानी है, हमें तो लग रहा है, आपके डर से ही वे यहाँ न आकर, दुर्गा भाभी को लेकर कश्मीर भाग गये हैं। जिससे फिर कोई चक्कर न हो जायें।’

महाशिल्पी ने बात थपथपाई- ‘निश्चित ही यही बात है। मैं तो सोच भी नहीं पाया कि वे इतनी दूर क्यों चले गये।’

देवीराम इन प्रसंगों को समझने का प्रयास कर रहा था पर उसके पल्ले कुछ-कुछ ही पड़ रहा था। इतना स्वस्थ और सुन्दर हँसी-मजाक, उसने कहीं देखा था तो बस यहीं। वह विद्यार्थियों की व्यग्रता को भी देख चुका था। उसे तब लगा कि वह सारा जीवन यहीं व्यतीत करेगा।

इसी समय प्रतिहारी ने आकर बताया नगर में महाराज वसुभूति नें उन्हें याद किया है। महाशिल्पी को कहना पड़ा- ‘महाराज के पास तो पहले ही जाना चाहिये था। अब देवीराम इसी समय प्रतिहारी के साथ चले जावें।’

यह सुनकर प्रतिहारी ने तुरन्त कहा- ‘आप दोनों महाशयों को भी महाराज ने याद किया है।’

महाशिल्पी सोचने लगे-लो फिर पकड़े गये किन्तु महाराज ने याद किया है तो चलना ही पड़ेगा। यह सोचकर वे महाराज की राजसभा के लिये चल दिये।

पद्मावती के अनुरूप सुसज्जित, महाराज वसुभूति की राजसभा। प्रवेश करते ही शिष्टजनांे ने उनका आदर किया। मर्यादा के अनुसार महाराज वसुभूति ने आचार्य शर्मा आदि सभी का स्वागत किया। उनको समुचित आसनों पर बैठाया। महाराज वसुभूति अपनी व्यग्रता को छिपाये न रख सके। बोले- ‘संदेशवाहक, महाकवि भवभूति ने हमारे लिये भी कोई संदेश भेजा है?’

सभी संदेशवाहक की तरफ देखने लगे। संदेशवाहक को उत्तर देना ही था, बोला- ‘महाराज यशोवर्मा युद्ध में हार गये हैं। वे भी अब राजाधिराज कश्मीर नरेश ललितादित्य के अधीन हो गये हैं। दोनों में संधि भी हो गयी है।’

महाराज वसुभूति ने कहा-‘यह तो हमें ज्ञात हैं, हम तो बस जानना चाहते हैं कि महाकवि ने हमारे लिये क्या संदेश भेजा है?’

यह बात सुनकर देवीराम ने कहा-‘ आप महाराज यशोवर्मा के करदाता भी नहीं हैं, वे स्वयं आपको कर मुक्त कर चुके हैं। आप तो विद्याविहार की प्रगति में सहयोग करते रहे, यही महाकवि का आपके लिये संदेश है।’

यह बात सुनकर महाराज वसुभूति आचार्य शर्मा को संबोधित कर कहने लगे-‘ आचार्य शर्मा कहें, विद्याविहार की प्रगति में हमारी ओर से कोई बाधा है?’

आचार्य शर्मा बोले- ‘कोई बाधा तो नहीं है लेकिन पहले जितने विद्यार्थी सम्पूर्ण भारतवर्ष से यहाँ अध्ययन करने के लिये आते थे, अब वे यहाँ उतने छात्र नहीं आ रहे हैं। छात्रों की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है।’

राज वसुभूति ने कहा- ‘यह तो आपका उत्तरदायित्व है।’

इस पर महाशिल्पी को कहना पड़ा- ‘देश में जगह-जगह विद्याविहार खुल रहे हैं। फिर यहाँ दूर-दूर से लोग क्यों आयेंगे? किसी दिन यह विद्याविहार ही बंद हो जावेगा।’

पार्वतीनन्दन ने कहा-‘ विद्यार्थियों के अभाव में विद्याविहार को बंद कर देना पड़े, लेकिन यहाँ विभिन्न विषयों के अध्ययन की श्रेष्ठ व्यवस्था है, जो सारे भारतवर्ष में कहीं भी नहीं है।’

आचार्य शर्मा ने कहा- ‘यह बात नहीं है सभी विद्याविहार नये-नये शोध में लगे हैं। प्राचीनकाल से ही उज्जैन का विद्याविहार उन्नति पर है। महाकवि भवभूति के यहाँ से जाने के बाद छात्र अध्ययन हेतु उज्जैन जाने लगे हैं।’

महाराज वसुभूति ने प्रश्न उठाया- ‘आप लोग बतायें महाकवि भवभूति को यहाँ कैसे बुलाया जा सकता है?’

उत्तर पार्वतीनन्दन ने दिया- ‘वे अब यहाँ आने वाले नहीं हैं। वे तो वहाँ रहकर साहित्य साधन में रत होंगे। हाँ एक उपाय सूझता है।

सभी ने व्यग्रता से प्रश्न किया- ‘क्या उपाय ?’

उत्तर मिला- ‘भगवान कालप्रियनाथ की यात्रा उत्सव में उनके नाटक उत्तररामचितम् का मंचन करवाया जाये। उसमंे उन्हंे भी आमंत्रित किया जाये। वे एक बार यहाँ आ जावें, फिर हम लोग यहाँ से उन्हें नहीं जाने देंगे।’

सभी के मँुह से निकला- ‘‘पार्वतीनन्दन जी ठीक कहते हैं।’

आचार्य शर्मा ने इस बात को स्वीकार कर लिया- ‘जो नाटक यहाँ के परिवेश में लिखा गया है, उसका मंचन एकबार भी यहाँ न हो, यह उत्तररामरितम् के साथ न्याय नहीं होगा। यात्रा उत्सव के समय उत्तररामचरितम् का मंचन होना ही चाहिए।

मंचन का निश्चय होने पर सभा विसर्जित कर दी गई। सभी को लग रहा था- ‘अब महाकवि भवभूति उत्तररामचरितम् का प्रदर्शन देखने के लिये कश्मीर से यहाँ अवश्य हीआयेंगे।

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