महाकवि भवभूति - 13 रामगोपाल तिवारी द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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महाकवि भवभूति - 13

महाकवि भवभूति 13

भवभूति का कन्नौज प्रस्थान

श्रेष्ठः परमहंसानां महर्षीणां यथाडि.गराः।

यथाथर््ानामा भगवान् यस्य ज्ञाननिधिर्गुरुः।।

यह प्रसिद्ध श्लोक ध्यान में आते ही महाराज यशोवर्मा सोचने लगे- महाकवि भवभूति गुरुदेव ज्ञाननिधि के शिष्य हैं। आज यह विद्याविहार उन्हीं के कारण सम्पूर्ण देश में शिक्षा का केन्द्र बना हुआ है। विद्याविहार के मंच पर कालप्रियनाथ के यात्रा उत्सव में महावीरचरितम् के मंचन से सिद्ध है कि यहाँ नागवंश के समय से ही यह परम्परा रही है। जिस दिन से यात्रोत्सव शुरू हुआ होगा, यह मंच भी उसी समय निर्मित किया गया होगा। इसका अर्थ है यह मंच इसी मंदिर का समकालीन निर्माण है।

विद्याविहार की प्रगति की चिन्ता शुरू हो गयी। इसके रख-रखाव की चिन्ता इससे पहले मुझे क्यों नहीं हुई? यह सोचकर वे मन ही मन पश्चाताप करने लगे। इसी समय पद्मावती के राजा उनके समक्ष उपस्थित हुये। उन्होंने अभिवादन के बाद पूछा- ‘महाराज को यहाँ आकर कोई कष्ट तो नहीं हुआ?’

यशोवर्मा ने कहा- ‘नहीं राजन, बस आपके विद्याविहार की चिन्ता हो रही है। इस नगर का गौरव है तो गुरुदेव ज्ञाननिधि का यह विद्याविहार।’

ठीक इसी समय महाकवि भवभूति, आचार्य शर्मा और महाशिल्पी वेदराम भी वहाँ उपस्थित हो गये। वे विद्याविहार की बात यशोवर्मा के मुख से सुन चुके थे। आचार्य शर्मा ने अपना प्रस्ताव महाराज के समक्ष रखने में देर नहीं की, बोले- ‘महाराज, हम सभी चाहते हैं कि विद्याविहार की उचित व्यवस्था करके ही आप यहाँ से प्रस्थान करें।’

यह सुनकर वे महाराज के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। यशोवर्मा बोले- ‘राजन आप हमें जो धन कर के रूप में देते हैं, अब आप हमें न दिया करें। वह धन विद्याविहार के लिये आप देते रहें, जिससे विद्याविहार आर्थिक संकट में न पड़े और अर्थाभाव से उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न न हो।’

राजा वसुभूति नेे उनके इस कार्य सराहना की- ‘कन्नौज नरेश ने यह उचित ही निर्णय लिया है। श्रीमान् ने यह आदेश देकर मुझे भी कर्तव्य बोध करा दिया।’

यह कहकर राज वसुभूति एक क्षण तक चुप रह गये। सभी की चुप्पी देखकर पुनः बोले- ‘विद्याविहार की प्रगति अब रुकने वाली नहीं है।’

भवभूति बोले- ‘राजन, हम यदि इसके प्रभाव को स्थिर ही रख सके तो यही पर्याप्त है।’

आचार्य शर्मा ने भावुकतापूर्ण शब्द कहे- ‘हमारे कन्नौज नरेश मर्मस्पर्शी कवि भी हैं। अब हमें आपकी उदारता का परिचय भी मिल गया है।’

महाराज यशोवर्मा ने सहजता से कहा- ‘हम महाकवि भवभूति को कन्नौज ले जा रहे हैं। हम यहाँ आये हैं तो उन्हें साथ लेकर ही जायेंगे।’

यह आदेश सुनकर कोई क्या कहता, सभी चुप ही रहे। राजा वसुभूति बोले- ‘महाकवि इन दिनों प्रवर आचार्य के पद पर आसीन हैं। अब विद्याविहार की व्यवस्था कौन देखेगा ? परम्परा के अनुसार विरिष्ठताक्रम में यह दायित्व महाकवि भवभूति पर ही निर्भर है।’

महाराज यशोवर्मा महाकवि की ओर देखने लगे, भवभूति समझ गये कि उत्तर उन्हें ही देना है, यह सोचकर बोले- ‘इस कार्य के लिये आचार्य शर्मा को नियुक्त किया जाना उपयुक्त होगा। इनकी अनुपस्थिति में महाशिल्पी वेदराम जी प्रवर आचार्य का कार्य करेंगे।’

महाशिल्पी ने भवभूति के पुत्र गणेश की याद दिलाते हुये कहा- ‘हम आपके सुपुत्र गणेश और आपकी पुत्रवधू ऋचा को यहाँ से जाने नहीं देंगे। विद्याविहार का कुछ दायित्व उन पर भी रहेगा।’ यह सुनकर भवभूति चुप ही रहे। सभी समझ गये इस विषय पर महाकवि की मौन स्वीकृृति है।

महाराज यशोवर्मा ने कहा- ‘हमने सुना है महाकवि ने उत्तररामचरितम् भी लिखा है। उसके मंचन की व्यवस्था हम कन्नौज में कर देंगे। उसके प्रदर्शन के समय आप सभी सादर आमंत्रित हैं। इसके निर्धारित तिथि आदि सूचना यथासमय यहाँ भेज दी जावेगी।’

महाराज यशोवर्मा की बात सुनकर महाकवि भवभूति सोचने लगे। यह नाटक कालप्रियनाथ के यात्रा उत्सव को ध्यान में रखकर लिखा गया है। काश !इसका मंचन यहीं हो पाता। लेकिन महाराज के आदेश का पालन तो अब करना ही पड़ेगा। भवभूति को विचारमग्न देख महाराजा बोले- ‘महाकवि, आप किसी प्रकार यहाँ की चिन्ता न करें। आप अपने साथ अपनी सहधर्मिणी को तो ले ही चल रहे हैं। अरे! यहाँ का परिवेश तो इतना मनमोहक है कि यहाँ से जाने का हमारा भी मन नहीं हो रहा है। लेकिन कन्नौज की व्यवस्थाएँ हमारी विवशता है। अतः हमें आज ही यहाँ से निकलना है। महाकवि आप शीघ्र ही तैयार होकर उपस्थित हो जायें। हम आपके लिये अलग रथ आदि व्यवस्था करके लाये हैं।’

यह चर्चा शीघ्र ही नगरभर में फैल गई कि महाकवि भवभूति कन्नौज जा रहे हैं। दुर्गा सूचना पाकर विचित्र स्थिति में घिर गईं। न तो वह पुत्र और पुत्रवधू का मोह छोड़ पा रही थी और न ही भवभूति के बिना यहाँ रहने में खुद को वेबस पा रही थी। बडे भारी मन से दुर्गा ने भी महाकवि के साथ ही जाने का निर्णय लिया। कुछ ही समय मंे रथ दरवाजे पर आ गया। भवभूति सोचने लगे- विदर्भ के परित्याग में कष्ट नहीं हुआ था। लेकिन आज पद्मावती को छोड़ने में मानसिक कष्ट हो रहा है। आचार्य शर्मा और महाशिल्पी भी उन्हें विदा करने के लिये आ गये। महाकवि ने दोनों मित्रों से कहा- ‘यहाँ के विद्याविहार का कार्य तो गणेश और ऋचा देखते रहेंगे। आप लोग तो मेरे साथ चलें।’

यह सुनकर महाशिल्पी ने अपने अन्तस् में छिपी बात कही, बोले- मैनंे इसी धरती पर जन्म लिया है, यही का अन्न-जल खा-पीकर बड़ा हुआ हूँ। यहीं की सेवा में लगा रहना चाहता हूँ। और यहीं की मिट्टी में मिल जाना चाहता हूँ। इसलिये मैं तो किसी भी हालत में इस नगर को छोड़ने वाला नहीं हूंँ। आप चाहें तो आचार्य शर्मा को साथ लिये जायें।’

यह बात सुनकर आचार्य शर्मा बोले- ‘मेरा भी इससे जन्म-जन्मान्तर का साथ रहा है। हे प्रभू! यदि आगे भी जन्म मिले तो मैं इसी धरती पर जन्म लेना चाहूँगा। हाँ उत्तररामचिरतम् का प्रदर्शन देखने के लिये वहाँ अवश्य ही उपस्थित होऊँगा।’

भवभूति समझ गये दोनों दृढ़ व्यक्तित्व के धनी हैं। ये अनुनय-विनय से भी मानने वाले नहीं हैं। इसलिये इनसे एकबार विद्याविहार की व्यवस्था का निवेदन और कर दूँ। यही सोचकर महाकवि भवभूति बोले- ‘जो कार्य गुरुदेव मुझे सौंप कर गये हैं, उस कार्य का दायित्व अब आप लोगों पर सौंप कर जा रहा हूँ।’

रथ पर बैठते हुये भवभूति अपनी अश्रुधारा रोक नहीं सके। बोले- ‘बस एक ही निवेदन है कि गुरुदेव के विद्याविहार की सेवा में कोई कमी न रहे। मेरे जाने के बाद गणेश और ऋचा का दायित्व भी आप लोेगोें को ही सौंप रहा हूँ।’

यह सुनकर तो सभी के नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो उठी। दुर्गा ने हिचकियाँ भर भरकर गणेश एवं ऋचा को दुलार दिया। बच्चों को छोड़ने में उसका हृदय अत्यन्त दुःखी था। रक्षक महाराज के चलने की सूचना लेकर आ गया । दुर्गा ने रथ पर बैठने से पहले पद्मावती की धरती की धूल को माथे से लगाया और रथ पर सवार हो गयीं, रथ चल पड़ा। सभी कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे चले, जब रथ दूर निकल गया तो वे विवश हो कर रह गये।

भवभूति दुर्गा से बोले- ‘आप तो पद्मावती की धूल सिर माथे लगाकर रथ पर चढ़ी हैं, हम हैं कि जाने कहाँ खोये रहे। हमारे मन में तो विद्याविहार ही छाया रहा।’

दुर्गा ने उत्तर दिया-‘ पद्मावती नगर ही आपका नहीं है वल्कि उत्तर से दक्षिण तक एवं पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण भारतवर्ष आपका है। विद्याविहार की चिन्ता, पद्मावती की धरती को बारम्बार प्रणाम ही है।’

पत्नी दुर्गा की यह दार्शनिक व्याख्या सुनकर महाकवि भवभूति मन ही मन पश्चाताप करते हुये बोले-‘मैं इतना व्यस्त हो गया, आते वक्त पार्वतीनन्दन एवं सुमंगला जी से भी नहीं मिल पाया।’

यह सुनकर दुर्गा ने सहज में ही कहा- ‘आपकी व्यस्तता का मैं अनुभव कर रही थी। मैं सुमंगला दीदी और समधी पार्वतीनन्दन जी से मिलकर आयी हूँ।’

यह सुनकर गंभीरता को कम करने के लिये भवभूति ने कहा- ‘तुम्हें उन्होंने यहाँ आने से रोका नहीं।’

दुर्गा भी व्यंग्य के भाव में आ गई, बोली- हाँ रोका तो था, कह रहे थे, महाकवि को जाने दीजिये, आपकी सेवा करने के लिये हम तो हैं।’

मैनंे तो कह दिया -‘मैं सेवा का भार ही तो सौंपने आयी हूँ। गणेश और ऋचा का दायित्व अब आपका ही है।’

भवभूति अन्तर्मुखी हो गये, रथ पर सहसा चुप्पी सी छा गई।

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