अरमान दुल्हन के - 12 एमके कागदाना द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अरमान दुल्हन के - 12

अरमान दुल्हन के भाग-12

सुरेश पार्वती से कविता को ले जाने की इजाज़त मांगता है। पार्वती चाहती थी कि सरजू कविता को भेज दे तो ठीक रहेगा। ताकि वह एक बार फिर सरजू और कविता पर ऊंगली उठा सके। मगर सरजू भी कोई ऐसा काम करना नहीं चाहता था जिससे मां को नाराज होने का मौका मिले। सरजू ने सुरेश से स्पष्ट कह दिया था । मैं मां की मर्जी के बिना कविता को जाने की इजाज़त नहीं दे सकता। अंतिम फैसला मां का या स्वयं कविता का होगा। मैं कविता को भी रूकने के लिए बाध्य नहीं करूंगा।
पार्वती के लिए अजीब परिस्थिति हो चुकी थी। उसे भय था कि मैने कविता को नहीं भेजा और ये भी नहीं गई तो? सावन में हम दोनों इकट्ठी रहेंगी तो कहीं मैं मर ना जाऊँ! इसी ऊहापोह में पार्वती ने आखिरकार इजाजत देना ही मुनासिब समझा।
इजाजत पाकर कविता की आंखों में चमक आ जाती है। वह खुश थी चलो एक महीने तो इस जेल से छुटकारा मिलेगा।
कविता अपने भाई के साथ मायके आ जाती है। रामदे कविता से उसके ससुराल के बारे में पूछती है।
"आंए कविता तेरै सासरै आळे ठीक सैं के? तन्नै तंग तो ना करते!"
"ना मां सारे ठीक सैं, मेरी सासू थोड़ी सी अजीब सी सै। सरजू घणा आच्छया सै। तैं चिंता मत ना करै मां।तेरा जमाई कति हीरा सै।"कविता ने मां को दिलासा देकर निश्चित कर दिया।
सावन के झूले बागों में पड़ चुके थे। वह सहेलियों संग झूला झुलती और सावन के गीत गाती है

"कड़वी कचरी हे मां मेरी कचकची जी
हे री कोए कड़वे सासड़ के बोल
ब्होते दुहेला( बूरा) हे मां मेरा सासरा री
मीठी कचरी है मां मेरी पकपकी जी
हे री कोए मीठे मायड़ के बोल
ब्होतए सुहेला (अच्छा) मेरा मायका जी
माय रंगाई हे मां मेरी चुन्दड़ी री
अल्यां तो पल्यां हे मां मेरी घुँघरू री
हे री कोए बीच बीचाळै दादर मोर
ब्होते सुहेला मां मेरा मायका जी
सास रंगाया हे मां मेरा पीलिया जी
अल्यां तो पल्यां हे मां मेरी छेकले (जूते) जी
हे री कोए बीच सासड़ के बोल
ब्होते दुहेला हे मां मेरा सासरा री
ओढूँ तो बाजै हे मां मेरी घुँघरू री
चालूँ तो बोलैं हे मां मेरी मोर री
ब्होत ए सुहेला मां मेरा मायका जी
ओढूँ तो चिमकै हे मां मेरी छेकले जी
हे री कोए खटकै छाती में बोल
ब्होते दुहेला हे मां मेरा सासरा री
सासरे में बहुअड़ (बहू)हे मां मेरी न्यू रह्वै जी
हे री कोए रंधै(पकै) कढ़ाई में तेल
ब्होते दुहेला हे मां मेरा सासरा री
पीहर में बेटी हे मां मेरी न्यूं रह्वै जी
हे री कोए घिलड़ी में रम रह्या घी ए जी
ब्होते सुहेला मेरा मायका जी"

वह गीत गाते गाते भावविभोर हो जाती है उसकी आंखों से आंसू टपक पड़ते हैं। सखियां उसकी आंखों में आंसू देखकर पूछती हैं।
"आं ए बेबे तैं रोई क्यातैं(क्यों)?"
"किम्मे नै ए उसकी याद आग्गी थी।" और अपने दर्द को छिपाने की चेष्टा करती है।
"आहा!जिजै की याद आग्गी बेबे नै!" सहेलियों ने चुटकी ली।
वह शरमा कर दोनों हाथों से मुहं छिपा लेती है।
एक महीना कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। वह सरजू को तो बहुत याद करती थी मगर सास के नाम से ही चिढ़ होने लगी थी। वह ससुराल जाने की सोचकर ही डरने लगी थी।
इधर सरजू अपनी मां से कविता को लाने की इजाज़त मांगता है। मगर पार्वती ने तो मानो कसम ही खा ली हो। वह हर बात पर बस एक ही राग अलापती थी।
"मन्नै ना बेरा तु जाणै अर तेरा काम जाणै।"
सरजू को भी मां के इन शब्दों से चिढ़ होने लगी थी। उसने समझदारी दिखाते हुए कविता को लाने में ही भलाई समझी। कविता के लिए भी विकट संकट था। ससुराल में जाते ही फिर वही समस्या होंगी। मगर कोई समाधान भी तो नहीं है।वह न चाहते हुए भी ससुराल लौट आई।
समय बीतता गया ।कविता के भाई बीच में दो - तीन बार लेने आए।किंतु पार्वती रटा रटया जवाब दे देती।
"मन्नै ना बेरा ये जाणै अर इणका काम जाणै!"
कविता को भी अब सास के ऐसे डायलॉग की आदत हो चुकी थी।
दीवाली पर फिर भाई लेने आ गया। इस बार कविता ने मायके जाने का फैसला कर लिया था।
इधर सास ने तो रटा- रटाया डायलॉग बोला।उधर कविता ने फैसला सुना दिया।
"ठीक सै मां ईब्ब मैं जाणु अर मेरा काम जाणै! मैं तड़कै ए जां सूं।"
कविता के मुहं से इस तरह की बात सुनकर पार्वती एकदम चौंक गई।
उसे कविता से ऐसी अपेक्षा नहीं थी।

क्रमशः
एमके कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा