अरमान दुल्हन के - 11 एमके कागदाना द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

श्रेणी
शेयर करे

अरमान दुल्हन के - 11

अरमान दुल्हन के भाग 11

रमेश ने सोचा कुछ लोगों का स्वभाव ही अकड़ वाला होता है ।शायद मौसी का स्वभाव भी ऐसा ही हो। कविता चाय बना लाई और रमेश से बातें करने लगी।
शाम को खाना खाकर रमेश ने सोचा मौसी से थोड़ी बातचीत कर लूं और पूछ लेता हूँ कितने दिन बहन को भेजते हैं । वैसे तो सावन में एक महीना तो भेजेंगे ही। सावन में तो लड़कियां मायके में ही रहती हैं। सरजू, कविता, पार्वती और रमेश सभी बाहर आंगन में कुलर के आगे बैठे थे।

"मौसी कविता नै कितणे दिन भेजोगे?"
"मन्नै ना बेरा (मुझे नहीं पता) , पूछले इणनै ए(इन दोनों से ही पूछ ले) ! ये जाणै अर इनका काम जाणै।" पार्वती ने एक टूक सा जवाब दे दिया था और नाक सुकोड़ते हुए गर्दन दूसरी ओर घुमा ली। रमेश को पार्वती ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया था।
रमेश ने सरजू और कविता की तरफ प्रश्नचित दृष्टि से देखा। किंतु वो दोनों भी असंमजस में थे।

"देखो मौसी जी, आप म्हारै तैं (हमसे) नाराज सो (हो)तो बताओ? यूं बिना बताए हमनै के (कैसे) बेरा पाटैगा ( पता चलेगा) के बात सै?" रमेश ने मौसी के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करते हुए कहा।

"देख बेटा, ये दोनू अपणी मर्जी तैं काम करैं सैं तो ईब्ब बी अपणी मर्जी तैं ए यो इसनै भेज देगा। मेरी के चौधर सै?कर लेगें अपणी मन मर्जी।"
"मौसी थारे घर की बात तो थम जाणो ।मैं तो आपकी मर्जी के बिना कविता नै लेके ना जाऊँ।"
"मां हमनै के मनमर्जी कर ली।किम्मे (कुछ )बात सै तो स्पष्ट बता नै?"सरजू ने पूछा।
"घणा ना बोल तैं, तेरी थोबड़ी पै ( मुंह पर) मारूंगी मैं।"पार्वती ने आंखें तरेर कर सरजू को डपट दिया।
सरजू ने आगे बोलना उचित न समझा और मन मसोसकर रह गया।
पार्वती टस से मस न हुई। रमेश ने भी कविता को साथ ले जाने में असमर्थता जताई। कविता कि मन पहले ही नहीं लग रहा था।भाई के मना करने के बाद वह बहुत निराश हुई और आंखें नम हो गई।उसने आंखों की कोर को साफ किया और गहरी सांस ली।
रमेश बिना कविता के अकेले लौटा तो रामदे को संशय हुआ।
"कविता कित सै रे? रामदे ने प्रश्नचित दृष्टि से देखा।
"मां उनकी रामकहाणी मन्नै तो समझ ना आई। मौसी किम्मे करड़ी करड़ी (नाराज)बौलै थी। मन्नै मौसी तैं बुझी कितणे दिन खातर (के लिए)घालोगे (भेजोगे) कविता नै? न्यु बोली मन्नै ना बेरा इणनै ए पूछ ले! अर कविता तैं बुझी मौसी न्यु करड़ी क्यातैं होरी सै? वा न्यु बोली बेरा ना भाई मैं तो रोजे न्युए देखूँ सूं मेरी सासु नै!" रमेश ने मां को सारी बात बताई।

रामदे को शंका हुई कहीं कविता की सास की नाराजगी दहेज थोड़ा तो नहीं है? उसे चिंता सताती है, कहीं मेरी बेटी के साथ बूरा व्यवहार तो नहीं हो रहा? कहीं कविता गलत कदम तो नहीं उठा लेगी? असंख्य प्रश्न उसके दिमाग में घूम गए।वह बेचैन हो उठी।
एक साल पहले का दृश्य उसके आंखों के सामने तैर गया। पड़ोस की शारदा को उसके ससुराल वालों ने जला कर मार डाला था। शारदा मरते मरते इतना ही बोली थी- "इन्हें छोड़ना मत" और सदा के लिए सबको छोड़कर इस दुनिया से विदा ले गई थी। कम दहेज ले जाने के कारण शारदा को उसके ससुराल वालों ने जला डाला था।रामदे सोचकर ही अंदर तक हिल गई थी ।
"ना ,ना मैं मेरी बेटी गैल.....।"वह बड़बड़ाई।
"के होग्या (क्या हुआ) मां ठीक तो सै! रमेश ने मां को झिंझोड़ा।
"किम्मे नै बेटा मैं ठीक सूं।" रामदे ने आंखों को आंचल से पोंछते हुए कहा।
"तैं चिंता ना कर मां , कविता ठीक सै । मन्नै न्यु लाग्या मौसी थोड़ी अकडू (अहंकारी)टाईप सै। सरजू जी भी ब्होते बढिया सैं।" रमेश ने मां को बेफिक्र रहने को कहा। किंतु एक मां कैसे बेफिक्र हो सकती है।
सावन का महीना लगने वाला था।आषाढ़ मास की चौदस हो चुकी थी।मां ने इस बार सुरेश को कविता को लिवा लाने के लिए भेजा। शादी के पहले सावन में लड़कियां अपने मायके में रहती थीं।इसका कारण था पहले चूल्हे चौकों पर खाना बनाना पड़ता था। घूंघट प्रथा के चलते सावन में लड़कियों को ससुराल में बड़ी दिक्कतें झेलनी पड़ती थी।इस वजह से पहले सावन लड़कियां मायके में ही रहती थी।किंतु बड़े बुजुर्गों का मानना था कि सास बहू सावन में एक साथ रही तो सास की मृत्यु हो जायेगी। इसका कारण था ताकि सास काम के लालच में बहू को मायके जाने से मना न करें।
सुरेश कविता को लेने पहुंचा था। कविता बहुत खुश हुई वह ससुराल में बंधन रह रहकर ऊब सी गई थी। मायके में तो सभी चाचा ताऊओं के घर घूमती रहती थी। ढ़ेर सारी पुस्तकें थी उसके पास, वह पढ़ती रहती थी। मगर यहां न तो पुस्तकें थी और न ही चाचा ताऊओं के घर जाने की इजाज़त थी। सासु मां का सबके साथ छत्तीस का आंकड़ा था। इसलिए किसी के घर जाना मतलब सासु मां को और नाराज करना था । कभी कभी ताऊ ससुर के पोता-पोती आ जाते थे कविता के पास। उनकी पोती चीकू को नई चाची बहुत अच्छी लगती थी। आसपड़ोस के लड़के लड़कियां कविता को भाभी बुलाते थे तो वह भी भाभी बोल देती थी।कविता उसे टोकती -"चीकू मैं तेरी चाची लागूं सूं।"
और वह खिलखिलाकर जोर जोर से हँसने लगती।
एक दिन वह अपने पापा के साथ आई और अपने पापा से बड़ी मासूमियत से बोल पड़ी थी-"पापा,अपणै बी नई भाभी ले आ नै!"
उसकी बात सुनकर सब हँस पड़े थे।

क्रमशः

एमके कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा