एक मुट्ठी इश्क़--भाग (९) Saroj Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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एक मुट्ठी इश्क़--भाग (९)


ज्यों ज्यों जीनत़ के प्रसव के दिन करीब आ रहेंं थे,सबका मानसिक तनाव बढ़ता जा रहा था,फात़िमा और इख़लाक, भरपूर कोशिश कर रहे थे कि जच्चा और बच्चा दोनों ही स्वस्थ रहेंं,दोनों ही जीनत़ का खास ख्याल रख रहे थें, दोनों के मन में डर था कि पराई अमानत है,सब कुछ अच्छी तरह से निपट जाए।।
इधर जीनत़ भी अपनी इस हालत को लेकर बहुत संजीदा थी,उसे कभी कभी इस हालत पर तरस भी आता और कभी कभी गुस्सा भी आता,वो कुछ सोच ही नहीं पा रही थी कि अब उसकी जिन्दगी कौन सा मोड़ लेने वाली थी,वो दुनिया वालों से क्या कहेगी कि जो उसे उसके बच्चे का पिता बता रहा है असल मे वो उसका पिता है ही नहीं,वो तो एक जीता-जागता इंसानियत का पुतला है।।
कभी कभी वो सोचती कि इतने अच्छे इंसान हैं, मेरे लिए कितना कुछ कर रहे हैं,मेरा इनसे दूर दूर तक का कोई भी नाता नहीं है फिर भी कितना अपनापन है इनमें,कितनी इंसानियत है,शायद कुछ ऐसे अच्छे लोगों की वजह से इंसानियत जिंदा है और मैं भी।।
वैशाख महीनें का अन्त चल रहा था, गर्मी अब अपनी गर्माहट बढ़ाती जा रही थीं, सुबह से ही मौसम गरम हो जाता था,धूप चढ़ते ही लू के थपेड़े चलने लगते थे,मटकों का पानी खतम होते देर ना लगती,खेंतों मे एक पेड़ महुआ का ,दो पेड़ आम के और एक पेड़ नीम का सब उसके नीचे ही बैठकर दिन बिताते,सब्जियों के नाम पर थोड़ी सी करेले और तोरई की बेलें थी और कुछ भिंडी और हरी मिर्च के पौधे थे।।
तभी फात़िमा सभी के लिए आम का पना बनाकर ले आई और सबसे बोली___
लो,सब एक एक गिलास पुदीना,कच्चा जीरा डाला हुआ आम का पना पी लो,लू नहीं लगेगी क्योंकि गर्मी बहुत हो रही हैं और तू जीनत़ तो खास़तौर पर अपना ख्याल रख,तूने आज ठीक से खाना भी नहीं खाया है, ये पना पी ले,तेरा मन अच्छा हो जाएगा, थोड़ी तरावट भी आ जाएगी।।
ठीक है आपा! लाइए,जीनत़ बोली।।
ऐसे ही गर्मियों के दिन कट रहें थे सब बाहर ही सोते थे अपनी अपनी चारपाई पर क्योंकि अंदर कोठरी में गर्मी बहुत रहती थी,तभी एक रात जीनत़ को प्रसव पीड़ा शुरु हो गई,उसने फौरऩ फात़िमा को आवाज़ लगाई,फात़िमा ने जैसे ही जीनत़ की आवाज़ सुनी अपनी चारपाई से उठकर जीनत़ के पास पहुंची, देखा तो जीनत़ दर्द की वजह़ से पसीनें पसीनें हो गई थीं।
फात़िमा ने फौरऩ इख़लाक को जगाया और दाईमां को बुला लाने को कहा।।
इख़लाक फौरऩ ही दाईमां को बुला लाया, रातभर की प्रसव पीड़ा सहने के बाद सूर्य निकलने से पहले ही जीनत़ ने एक बच्ची को जन्म दिया, तभी दाई मां ने कोठरी से बाहर आकर सबको खुशखबरी सुनाई और बोली, चच्चा और बच्चा दोनों ही सही सलामत हैं, बड़ा सा ईनाम लूंगी।।
इख़लाक खुश होकर बोला, जो लेना हो लेना दाईमां, अभी आप ये गुड़ खाकर मुंह मीठा करो और इख़लाक ने खुश होकर सबका मुंह मीठा कराया, फात़िमा भी बहुत खुश थी कि उसकी मेहनत को अंजाम मिल गया, अच्छा हुआ दोनों सही सलामत हैं और वो भी कोठरी से निकलकर बच्ची को गोद मे लेकर बाहर आई,सबको बच्ची का मुंह दिखाने के लिए।।
बच्ची का मुंह देखकर सब बच्चे बहुत खुश हुए और इख़लाक की तो खुशी के मारें आंखें ही भर आई__
आपा! चलिए आज हम दोनों की जिम्मेदारी निपट गई, ये नन्हा सा फरिश्ता, इंसानियत की मिसाल है,मजहब और जाति कुछ नही होती, सबसे ऊपर अगर होती हैं तो वो इंसानियत होती है।।
सबने मिलकर उस बच्ची का नाम खुश़नुमा रखा,अब असलम,शाहीन और इम्तियाज तीनों बच्चे खुश़नुमा का खास़ ख्याल रखते और जीनत़ ऐसा नहीं हैं कि खुद का बच्चा होने से वो शाहीन और इम्तियाज पर ध्यान नहीं देती थी, वो अब भी उनका पहले कि तरह ही ख्याल रखती क्योंकि शाहीन और इम्तियाज तो जीनत़ को ही अपनी अम्मी समझते थे,कहने को तो परिवार पूरा था लेकिन अब भी उसमें कुछ कमी थी।।
खुश़नुमा का खास़तौर पर इख़लाक ख्याल रखता, वो एक पल को भी उसे रोने ना देता,जीनत़ कुछ कहती तो उससे कहता कि ये भी तो इसी घर की बच्ची है और सारे बच्चों मे सबसे छोटी तो इसका ख्याल तो खासतौर पर रखा जाना चाहिए।।
इख़लाक़ के मुंह से ऐसी बातें सुनकर जीनत़ खुश हो उठती, अब जीनत़ को इख़लाक की हर बात पर भरोसा होने लगा था और उसका भरोसा अब एक मौहब्बत का रूप लेने लगा था,जो दिनोंदिन बस बढ़ता ही जा रहा था,बस दिल की बात दिल में ही थीं,कई बार ये मौहब्बत जीनत़ की आंखें जाहिर तो करतीं, मगर इख़लाक उसे समझ ही नहीं पाता था।।
इधर इख़लाक का भी यही हाल था,जीनत़ का भोलापन और सादगी का वो कायल हो गया था,वो जिस तरह से उसके बच्चों का ख्याल रख रही थी वो काबिलेतारीफ था क्योंकि गैर मजहबी होकर भी उसके अंदर कोई भी गैरों वाली बात ना दिखती,वो इख़लाक को हमेशा अपनी सी लगती,मेरा और उसके बीच कोई भी रिश्ता नहीं हैं लेकिन फिर भी हम एक पाकीज़ा रिश्ते से बंधे हैं, शायद खुद़ा ने हम दोनों को कोई नेक काम करने के लिए मिलाया हैं।।
फात़िमा अब सोच रही थीं कि कैसे दोनों से कहूँ कि निकाह पढ़वा लो और अगर कोई जीनत़ के घर में बचा होता तो वो उसे खोजता हुआ यहाँ जरूर अब तक पहुंच जाता, अब बच्चीं भी एक साल की होने को आई हैं, इस तरह से दोनों का बिना निकाह के एक घर में रहना ठीक नहीं लगता और फिर दुनिया तो यही जानती हैं कि जीनत़ ही इख़लाक की बीवी हैं,लेकिन कौन सा बहाना बनाकर दोनों का निकाह करवाऊँ।।
फागुन माह का समय चल रहा तभी एक रोज़ दोपहर के समय सब खाना खा रहेंं थे,एकाएक पीने का पानी खतम हो गया, तभी जीनत़ बोली,मैं कुएँ से पानी भर लाती हूँ और वो मटका लेकर जैसे ही खेतों मे बने कुएँ पर पानी भरने आई उसने देखा कि किसी के दो बैल खेतों में घुस आए हैं और सब्जियों की क्यारियों को बुरी तरह रौंद कर सब तहस नहस करने पर तुले हुए हैं।
उसने फात़िमा को खेतों से ही आवाज़ दी___
आपा! बैल खेतों को खराब कर रहें हैं जल्दी से बाहर आईए।।
जीनत़ की आवाज़ सुनकर सब बाहर आए और इसी बीच जीनत़ ने एक डंडा उठाया और बैलों को भगाने लगी,तभी उनमें से एक बैल ने जीनत़ को इतनी जोर से अपनी सींगों से धक्का दिया कि वो बहुत दूर जाकर गिरी और बेहोश हो गई,तभी इख़लाक ने आसपास के लोगों को आवाज़ लगाई और उन सब की मदद से बैलों को खेतों से निकाला जा सका।
तब तक फात़िमा ने जीनत़ को बैठाकर पानी के छींटे मारें,जीनत को होश आ गया, लेकिन जीनत़ उठ नहीं पा रही थीं, उसकी कमर और पीठ में जबरदस्त चोट आई थीं।।
अब इख़लाक का पारा सातवें आसमान पर था और उसने जीनत़ की जो खबर ली___
मोहतरमा! आपको किसने कहा था,उन बैलों के साथ जूझने के लिए,आपने आवाज़ लगा दी थी ना!हम सब आ ही रहेंं थे लेकिन नहीं आपको तो अपनी बहादुरी दिखानी थी,आप तो राजा महाराजाओं के खानदान से है ना! युद्ध लड़ना तो आपकी फित़रत हैं, हम सब आपके आगे तो कुछ भी नहीं, आप एक योद्धा जो ठहरीं, अभी कुछ हो जाता तो,हम यहाँ सम्भाल सम्भाल कर फूक फूक कर एक एक कदम रख रहेंं हैं कि आपको कुछ ना हो और आप तो भाई महान हैं, बैल से अकेले ही जूझने पहुंच गईं..वाह..वाह..।।
अब क्या बातें ही सुनाता रहेगा कि इसे गोद में उठाकर अंदर भी ले चलेगा, फात़िमा गुस्से से बोली।।
मैं नहीं उठाता किसी को,क्या मैंने कहा था कि जाकर बैल से कुश्ती लड़ो,इख़लाक बोला।।
तो कैसे जाएगी बेचारी, उठ तो पा नहीं रहीं, चल इसे अंदर ले चल, मै तिल के तेल और हल्दी की मालिश कर देती हूँ, तो जल्दी आराम लग जाएगा,फात़िमा बोली।।
नहीं आपा! रहने दीजिए, मैं नहीं चाहती कि कोई जल्लाद मुझे उठाएं,जीनत़ बोली।।
चल अब उठा भी,फात़िमा फिर इख़लाक से बोली।।
मैं कैसे उठाऊँ, आपा!मै जल्लाद जो ठहरा,इख़लाक बोला।।
अच्छा! चल अब ज्यादा नाटक मत कर,उठाकर ले चल,नहीं तो दर्द बढ़ जाएगा, फात़िमा बोली।।
और इख़लाक ने जीनत़ को अपनी गोद मे उठाकर कोठरी के भीतर पहुंचा दिया।।

क्रमशः___
सरोज वर्मा__