Ludo (Part 1) Abhishek द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Ludo (Part 1)

शाम होने को आयी थी | दोपहर से कभी तेज तो कभी हलकी हो रही बारिश अब थम चुकी थी | विनायक बाबू सुहानी शाम का मजा लेने बारिश थमते ही तुरंत अपने बिल्डिंग की छत पर पहुँच गए | आसमान अब साफ़ था | एक तरफ सूरज की लौ धीमे धीमे मद्धम होते हुए बुझती जा रही थी, दूसरी तरफ चाँद अपनी पूरी ताकत से जलने की कोशिश करते हुए सूरज की कमी पूरी करने को तैयार हो रहा था | विनायक बाबू ने प्रकृति की ये तस्वीर अपनी आँखों में कैद करते हुए एक ठंडी सांस भरी | एक छोटी सी मुस्कान उनके चेहरे पर तैर गयी | उनको अपने गाँव की याद आ गयी थी |

विनायक बाबू लगभग पिछले ४ महीने से अपने बेटे, बहु और 21 साल के पोते अभिजीत के साथ गुरूग्राम में रुके हुए थे | विनायक बाबू के दृष्टिकोण से देखा जाए तो तो रुके हुए कि जगह फंसे हुए कहना ज्यादा बेहतर होगा | बहु-बेटे के बहुत कहने पर विनायक बाबू इस साल उनके साथ होली मानाने गुरुग्राम आ गये थे | लेकिन कोरोना के कारण हुए लॉकडाउन के चक्कर में उनको वापस अपने गाँव जाने का अवसर ही नहीं मिल पा रहा था | हालांकि अब लॉकडाउन खुल चुका था, लेकिन उनकी उम्र में संक्रमण का खतरा अधिक होने की वजह से उनको गाँव वापस जाने की इजाज़त नहीं मिल रही थी |

वैसे पहले तो लोग पर्व-त्यौहार मनाने शहरों से अपने गाँव जाय करते थे, लेकिन ऐसा उस ज़माने में होता था जब पूरा परिवार गाँव में रहा करता था, और परिवार के इक्का दुक्का लोग पढ़ाई या नौकरी के कारण बाहर किसी बड़े शहर में रह रहे होते थे | अब वो दौर है जब पूरा परिवार किसी शहर में बसा हुआ होता है, और घर के एक दो बड़े बूढ़े अकेले अपने गाँव में पड़े मिलते हैं | हालांकि उनके अकेले रहने का मक़सद पढ़ाई या कोई नौकरी नहीं होती बल्कि अपनी मिट्टी से कुछ ऐसा लगाव होता है जो आज की पीढ़ी के लिए समझना शायद थोड़ा मुश्किल है | जिस पीढ़ी के लिए शहरों में रहना आज़ादी है क्यूंकि वहाँ गाँव-समाज के पुराने रूढ़िवादी नियम-कानून नहीं हैं, कुछ पहनने ओढ़ने की पाबंदियां नहीं हैं, वक़्त बिताने के लिए हज़ारों संसाधन हैं, उसी दौर में खत्म होती हुई एक पीढ़ी विनायक बाबू की भी थी जो अल्प संसाधनों, पाबंदियों और पुराने नियम-कानून वाले गाँव-समाज में ही अपनी आज़ादी की उड़ान भरती थी |

विनायक बाबू को भी उनके बहु-बेटे अपने साथ रहने के लिए समझा-समझा कर थक चुके थे, लेकिन विनायक बाबू कभी गुरूग्राम आ कर रहने को राज़ी नहीं हुए | भले ही शहर में स्वास्थ्य की सुविधाएं थीं, उनके बच्चे थे, बेहतर खान-पान और देख-भाल थी, लेकिन शहर में अपने मित्रों के साथ शिव भंडारी की चाय पीने और चौराहे पर वाले हनुमान मंदिर के चबूतरे पर ताश खेलने की सुविधा कहाँ थी ! बच्चों की बात रखने के लिए विनायक बाबू साल में एक बार दिल्ली जा कर एम्स में चेक-अप करवा लिया करते, हफ्ते-दो हफ्ते परिवार के साथ गुरुग्राम में रहते, फिर वापस लौट आते | बीटा भी अपनी पत्नी और बच्चे के साथ समय निकाल कर साल में एक बार हफ्ते भर के लिए गाँव आ जाया करता था | जब अभिजीत छोटा था, तब विनायक बाबू अपनी पत्नी संग उसे अपने साथ गाँव में ही रखते थे | बहु और बीटा उस वक़्त खुद को शहर में सेटल करने की कश्मकश में लगे रहते थे | जब सब सेटल हो गया तब तक विनायक बाबू को अभिजीत की आदत पड़ चुकी थी | उन्होंने बेटे से अभिजीत को अपने साथ ही रहने देने की इच्छा ज़ाहिर की, लेकिन गाँव में पढाई-लिखाई की अच्छी सुविधा ना होने की वजह से उन्हें अभिजीत को उसके माँ-बाप के साथ बाहर शहर ही भेजना पड़ा | गाँव में बस विनायक बाबू और उनकी पत्नी रह गए थे | जब तक उनकी पत्नी जीवित थीं, तब तक बेटे ने उन्हें अपने साथ आ कर रहने पर उतना जोर नहीं दिया क्यूंकि उस वक़्त दंपति को एक-दुसरे का सहारा था | लेकिन 5 साल पहले पत्नी के गुज़र जाने पर अकेले हो जाने के बावजूद भी विनायक बाबू ने शहर का रुख नहीं किया | वो प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के बहुत पहले से ही आत्मनिर्भर बन चुके थे | अपने खाने-पीने से लेकर घर और बाग़-बगीचे की देखभाल सब वो स्वयं करते थे | गाँव का खानपान भी कुछ ऐसा था कि 73 वर्ष की आयु में भी बिना बहुत मुश्किल के इतना कुछ कर पाना उनके लिए संभव था |

जब अंधेरा ढलने लगा तो विनायक बाबू छत से नीचे लौट आये | जो इंसान सारा दिन अपने गाँव में एक छोर पर मौजूद रेलवे स्टेशन से लेकर दूसरे छोर पर स्थित बाज़ार तक इधर से उधर बेवजह घूमा करता था, उसे आज अपनी सोसाइटी के गेट से बाहर निकले तकरीबन 4 महीने हो गए थे | हालात ठीक नहीं थे, समस्या गंभीर थी, विनायक बाबू ना जी चाहते हुए भी ये बात समझते थे | इसलिए सालों से यहां रहने को राज़ी ना होने वाला आदमी इस बार बिना किसी ज़िद के चुपचाप महीनों से यहीं बैठा था | घर से बाहर के कामकाज़ भी उनका बेटा खुद ही देख लेता था, सो इस बहाने भी उनको बाहर जाने का मौका नहीं मिलता | अभी कुछ दिनों पहले ही सुधरते सँभलते हालातों के बीच विनायक बाबू को छत तक घूम आने की इजाज़त मिली तो ऐसा लगा मानो किसी बरसों के क़ैदी को रिहाई मिल गयी हो | दिन भर घर में बैठे बैठे उकता जाने वाले विनायक बाबू के लिए सूरज की तपिश काम होते ही सांझ हो जाती थी | वो जेठ-आषाढ़ की तपती गर्मी में भी शाम 4:30-5:00 तक ही छत पर पहुँच जाते और सूरज को पूरी तरह अलविदा कह चाँद की आरती उतार कर ही नीचे आते |

नीचे पहुंचने पर विनायक बाबू ने देखा कि अभिजीत हमेशा की ही तरह हॉल में सोफे पर पड़ा हुआ अपना मोबाइल चलाने में व्यस्त था | विनायक बाबू शुरुआत में उसे इतना मोबाइल ना इस्तेमाल करने के लिए काफी बार ज्ञान दे चुके थे, लेकिन चिकनी मिटटी के घड़े अभिजीत को समझाते-समझाते अंत में वो खुद ही समझ गए कि उसको कुछ भी कहना बेकार है | इसलिए अब वो उसे इस बात के लिए नहीं टोका करते थे |

हाथ मुँह धो कर विनायक बाबू भी हॉल में ही अभिजीत के बगल में बैठ काट टीवी देखने लगे | थोड़ी मुश्किल से ही सही लेकिन अंततः उन्होंने स्मार्ट टीवी चलाना सीख ही लिया था | ज्यादा प्रोग्राम तो उनकी पसंद के आते नहीं थे, सो 10-20 मिनट कभी-कभार थोड़ी बहुत न्यूज़ तो कभी कुछ धार्मिक कार्यक्रम देख लिया करते थे | फिर थोड़ी ही देर में उससे उबकर, फ़ालतू समाचार और धार्मिक कार्यक्रमों में तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर दिखाने के लिए टीवी वालों को गरियाते हुए अपने कमरे में चले जाते थे | कमरे में जा कर कुछ मैगजीन्स, किताबें या अखबार पलटते, फिर वहाँ से भी उबकर अखबार और मैगजीन्स वालों को समाज-संस्कृति खराब करने वाली चीज़ें छापने के लिए कोसते हुए वापस हॉल में आकर टीवी चालू कर देते | रोज उनकी यही साइकिल चलती थी | बहु-बेटे के पास काम की वजह से बात करने का इतना वक़्त तो होता नहीं था, अभिजीत भी फ़ोन, पढ़ाई और गेम्स ही उलझा रहता था | खुद विनायक बाबू के पास भी कहने को कुछ नहीं होता था | नया कुछ जीवन में घट नहीं रहा था जो किसी को बताते, पुरानी बातें पहले ही सबको वो इतनी बार सुना चुके थे कि कोई भी किस्सा शुरू करने से पहले ही सबको उसका अंत पता होता था | इसलिए वो भी अधिकतर चुप ही रहा करते थे |

अभी विनायक बाबू टीवी वालों को गालियां देने का अपना प्रोग्राम चालू करने ही वाले थे कि अभिजीत अचानक किसी बात पर चीख पड़ा |