दिल बेचारा फ़िल्म रिव्यू
यह दिल बेचारा कहानी का मारा है।
सुशांत सिंह और संजना सांघी को लीड रोल में लेकर आई फ़िल्म दिल बेचारा दूसरी फ़िल्म है जिसका थियेटर रिलीज़ न होकर सीधा वेब रिलीज़ रिलीज़ हुआ। महामारी की परिस्थिति का श्राप कहें या वरदान पर इस माध्यम से फिल्मों के मार्केटिंग व डिस्ट्रीब्यूशन बजेट में काफी कटौती आई होनी चाहिए और साथ ही फ़िल्म बहुत ही किफायती या फिर निशुल्क दर्शकों तक पहुंची है।
मेरे हिसाब से दर्शकों के लिए यह एके बहुत बड़ा पुरस्कार है।
अब आप यह बिल्कुल नहीं कह सकते की मेरे पैसे पानी में डूब गए क्योंकि आपने टिकिट ही कहां खरीदा है।
अब बात करें फ़िल्म की।
सुशांत सिंह को लेकर यह फ़िल्म बहुत चर्चा में है क्योंकि यह सुशांत की मृत्यु से पहले की आखरी फ़िल्म हैं। सुशांत एक्टर के तौर पर एक बड़े वर्ग को आकर्षित कर चुके हैं । हालांकि उनकी गिनती सुपरहिट फिल्में देने वाले कलाकरों में नहीं हुई है। उनकी मासूमियत का एक अलग अंदाज़ रहा और शर्मीले सीधे साधे लड़कों के रोल में बिल्कुल फिट बैठते थे। आप इनकी तुलना अमोल पालेकर जैसे हीरो से करें तो कुछ ज़्यादा नहीं होगा। हालांकि अमोल पालेकर बहुत चुनिंदा फिल्में करने वाले अपने ज़माने के मशहूर एक्टर रहे पर उन्हें भी मुख्य धारा के उन्हीं के समकक्ष एक्टर्स की तुलना में काम कम ही मिला। वह समय था जब राजेश खन्ना, ऋषि कपूर , अमिताभ बच्चन , शत्रुगुन सिन्हा जैसे एक्टर स्क्रीन पर छाए हुए थे। ठीक वैसे ही सुशांत के कार्यकाल में हृतिक रोशन, सलमान खान , शाहरुख खान के अलावा टाइगर श्रॉफ, कार्तिक आर्यन, अंशुमान खुराना, राजकुमार राव, रणबीर कपूर, रणवीर सिंह जैसे एक्टर्स की कड़ी प्रतियोगिता बनी रही। शायद इस जबदस्त स्पर्धा में रास्ता ढूंढना सुशांत को आसम्भव लगा होगा।
फ़िल्म में सुशांत का रोल अच्छा है पर इसे बेहतरीन कहना उचित नहीं होगा। इससे पहले यह कलाकार " छिछोरे" और "धोनी" जैसी सुपर हिट फ़िल्म दे चुका है। फ़िल्म में सुशांत का किरदार मतलब मैनी उर्फ एमेंनुएल राजकुमार जूनियर एक ऐसे नौजवान का है जो नटखट और बिंदास है। उसे बस अपनी ज़िंदगी में मज़े लेने हैं पर बिना किसी को चोट पहुंचाए। शुरू में तो केवल उसको एक टांग से दिव्यांग दिखाया गया है पर बाद में उसकी बीमारी का पता लगता है। मैनी रजनीकांत मतलब थलैवा का बहुत बड़ा फैन है और उनकी तरह के किरदार फिल्मों में करने की चाहत रखता है। मैनी का हर तौर तरीका बॉलीवुड से प्रेरित है।
संजना संघी का रोल एक केंसर पेशंट का है जिसका नाम है किज़ी बासु। किज़ी इस फ़िल्म का किरदार भी है और सूत्रधार भी। वह अपनी कहानी बताते हुए शुरू से अंत तक आपको दूसरे पत्रों से परिचय और संवाद कराती है। किज़ी को हर रोज़ हर समय ऑक्सीजन सिलिंडर लगाके रखना है, जिसकी नली उसकी नाक के नीचे हमेंशा रहती है। अपने ऑक्सीजन सिलेंडर को किज़ी ने नाम दिया है पुष्पेंद्र। किज़ी अपनी ज़िंदगी से बहुत बोर हो रही है पर चुपके चुपके ही वह इसका मज़ा लेना भी चाहती है। किज़ी की माँ एक जवान लड़की की माँ की तरह चिंतित भी रहती है और उसे यह भी पता है की किज़ी कैंसर पेशंट है इसलिए ज़्यादा सख्ती भी नहीं कर सकती।
किज़ी का पिता एक आदर्श बेटी का पिता है जिसे केवल अपनी बेटी की खुशी देखनी है और कुश नहीं।
एक बहुत ही मज़ेदार किरदार है साहिल वैद, जो मैनी मतलब सुशांत का दोस्त है। साहिल को आप हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया और बद्रीनाथ की दुल्हनिया में वरुण के दोस्त के किरदार में देख चुके होंगे। साहिल इस फ़िल्म में आंख के केंसर का पेशंट है और इससे पहले की उसकी दूसरी आंख भी निकाली जाए, वह सुशांत के साथ एक फ़िल्म बनाना चाहता है।
बस यहीं से होती है फ़िल्म शरू , मतलब फ़िल्म के अंदर फ़िल्म की शूटिंग और किस्से कहानियां। बहुत अच्छे कॉमिक सिकवन्स हैं और कुछ दृश्यों में बहुत इमोशनल टच है।
3 किरदार जो खुद कैंसर पेशंट हैं और एक दूसरे की खुशी के लिए एक फ़िल्म शूट कर रहे हैं।
कहानी ठीक ठाक है, थोड़ी प्रिडिक्टेबल लग रही है पर अगर आप सुशांत के फैन हैं तो फ़िल्म आपको अंत में बहुत रुला देगी।
मुझे कहानी थोड़ी बहुत "ज़िंदगी दी पौड़ी" -मिलिंद गाबा के वीडयो अल्बम जैसी लगी जहां इसी प्रकार की कहानी है
इस म्यूज़िक वीडयो को भी 147 मिलियन मतलब 14.7 करोड़ बार यूट्यूब पर देखा गया है। शायद इसी गाने में पहली बार हीरोइन को लगातार ऑक्सीजन सिलिंडर पहनते दिखाया गया। हीरो अपनी हीरोइन की खुशी के लिए बहुत कुछ करता है और आखिर में वह खुद भी पेशंट हुआ दिखता है।
कैंसर की बीमारी से लड़ रहे पेशंट की ज़िंदगी से जुड़ी भावनाओ और इच्छाओं को दिखाने की बहुत अच्छी कोशिश है। इस विषय पर अब तक की सबसे बेहतरीन फ़िल्म मुझे आज भी राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की ' आनंद' लगती है। उस फ़िल्म की कहानी में कॉमेडी और इमोशन्स को कूट कूट के भरा गया था। शायद उसी तुलनात्मक विचार से मुझे दिल बेचारा कहानी के मामले में फीकी लगी।
एक था राजा एक थी रानी, दोनों मर गए खत्म कहानी। यह डायलॉग फ़िल्म का केंद्र स्थान है । हमें दर्शक के तौर पर एक ऐसे हीरो हीरोइन देखने अच्छे लगते है जो ख़ूबसूरत हैं, सर्वगुण सम्पन हैं, ताकतवर हैं और अंत में उनकी जीत होती है। पर इस फ़िल्म में ऐसा कुछ नहीं। सब उल्टा है।
पर इस फ़िल्म को देखना मतलब हमारे और आपके चहिते सुशांत सिंह को श्रधांजलि देना होगा इसलिए फ़िल्म ज़रूर देखें।
आपका दोस्त
महेंद्र शर्मा