अंधेरी सुरंग में Kamlesh Bhartiya द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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अंधेरी सुरंग में

मित्रो । कभी सुभाष नीरव ने मेरी यह कहानी अपनी साइक्लोस्टाइल पत्रिका प्रयास में प्रकाशित की थी । बहुत अंधकार का समय था पंजाब में और लाॅकडाउन के दौरान फाइल की खंगाली में बुरी तरह पीली और खस्ताहाल है चुकी मिली यह कहानी । कहीं कटी फटी । लेखक तो मैं ही था । अनुमान से पूरी की और लीजिए हाज़िर आपकी अदालत में :

अंधेरी सुरंग में

कमलेश भारतीय

रात भर मैं सो न सका ।

लाख कोशिशें करने पर भी नींद नहीं आई । करवट पर करवट बदली पर आंखों में नींद नहीं थी । आंखों के सामने दो आंखें मुझे घूरती जा रही थीं ।

शाम के झुटपुटे में मैंने इन आंखों को देखा था । किसी हसीना की आंखों की बात नहीं कर रहा । मुगालते में न रहियेगा । न इस मुगालते में आपको उलझाये रखना चाहता हूं । राजनीति की भाषा में ये आंखें किसी सिख की थीं । इंसानियत तो मर चुकी न दिल्ली में और अन्य राज्यों में भी । लोगों की नज़रों में वह किसी ज़ोरदार खबर की बड़ी सुर्खी थी और मेरी नज़र में विपदा का मारा एक इंसान । कहने वाला कहे जा रहा था -पत्रकार महोदय, खबर के लिए ज़ोरदार मसाला हाज़िर है । कलकत्ता में जुनून में आए लोगों का शिकार एक बेकसूर सिख आपके सामने है । इसका कारोबार, घरबार, सुनहरा संसार राख में मिला दिया धर्म के अंधे, राजनीति के कठपुतले और अक्ल के अंधों ने । इसका इकलौता मुन्ना जो घर में सोया हुआ था, जलते हुए घर में उसकी राख ही हाथ लगी इस भलेमानस के । बच बचा कर पंजाब आया तो रिश्तेदारों ने बोझ समझकर मुंह नहीं लगाया । अब गुरुघरों में ठिकाना है और मारा मारा फिर रहा है काम काज की तलाश में । कल का बादशाह, आज सड़कों की खाक छान रहा है । पत्रकार महोदय, अपनी कलम की स्याही इस बेबस आदमी के लिए खर्च करोगे न ?

ऐसा कहने वाला एक ही सांस में उसकी पूरी व्यथा कथा सुनाकर, अपनी हमदर्दी दिखा, एकदम सहज और शायद पूरा खाली हो गया लेकिन उस पर क्या बीत रही है, या बीत चुकी होगी, उसे कैसा लग रहा होगा, इसकी उसे कोई चिंता नहीं थी ।

तब पहली बार मैंने उसे देखा था ।

उसकी आंखों में उस जुनून की दहशत अब भी दिख रही थी जिसका शिकार वह सिर्फ सिख होने की वजह से हो गया था । उसकी आंखें थीं या दर्द का ठाठें मारता समंदर ? उन आंखों में झांकना दर्द के गहरे समंदर में डूबने के समान था । फिर से पांव तक सरसरी निगाह डाली तो देखा कि सर्दी के उतर आने के बावजूद वह सर्दी के सामने निहत्था खड़ा था । आधी बाजू वाली कमीज़ पहने हुए था । या तो वह सर्दी का मज़ाक उड़ा रहा था या सर्दी उसका मज़ाक उड़ा रही थी । पांवों में टूटी फूटी कैंची चप्पल फंसा रखी थी । जबकि वह खुद किसी अपराधी की तरह खामोश खड़ा था । उसकी आंखें मुझसे बातें कर रही थीं । वे मुझसे पूछ रही थीं-तुम्हारे भाइयों का शिकार, लुटा पिटा, खाली हाथ तुम्हारे सामने खड़ा हूं । तुम भी मेरी एक स्टोरी बना कर मुझे बेच खाओगे । मुझे भेड़ियों की नहीं, इंसानी निगाहों की जरूरत है । मुझे खाली हमदर्दी के बोलों की भी नहीं बल्कि रोटी की जरूरत है । मुझे मददगारों की जरूरत है । जो मुझे समझ सकें । दो जून का खाना और रहने का ठिकाना दिलवा सकें ।

उसी पल मैंने निश्चय कर लिया था कि इस आदमी की खबर नहीं बेचनी है, मुझे । सच, उस पल पत्रकारिता पीछे ठेल दी थी मैंने । तब मैंने उसे अपना पता थमाया था और दूसरे दिन मिलने का वादा किया था ।

पर,,,,

रात भर मैं सो न सका । लाख कोशिशें करने पर भी नींद नहीं आई ।

उस मासूम, बेकसूर आदमी की आंखें सवालों की तरह मुझ पर झुकी हुई हैं । यह बेकसूर आदमी अकेला नहीं है । हादसे को बर्दाश्त न कर पाने वाली उसकी पत्नी और बेजुबान बच्ची भी अचानक देश में उठ आए इस तूफान के बाद भूख से बेहाल उसके साथ हैं । ये आंखें सिर्फ एक आदमी, एक औरत या एक बच्ची की ही नहीं हैं । ऐसी बेशुमार सवालों सी चुभती आंखें दिल्ली, कलकत्ता, बिहार, देश के किस कोने में नहीं हैं ? ये मासूम, निरीह, बेकसूर, बेकसूर आंखें सवालों की तरह मेरे सिरहाने बैठी हैं । ऐसे में मुझे नींद कैसे आ सकती है या मैं चैन की नींद कैसे सो सकता हूं ?

यह क्या हो गया मेरे सोहने और प्यारे पंजाब को ? किसने इसकी लहलहाती फसलों को खून की नदी में बदल दिया ? किसने इसकी गिद्धे की रानी के पांव रोक लिए ? गबरू जवान के हाथों में ए के 47 कैसे आ गयी?

अभी कल की बात है,,,कहकहे फूटा करते थे,,,,खुशहाल होने का सपना देखता था बच्चा बच्चा । मेरे एक दोस्त ने पत्नी के गहने और अपना स्कूटर तक बेच कर प्लाट खरीदा था कि कीमतें आसमान छूयेंगी और वह मालामाल हो जायेगा । उसका धंधा जम जायेगा । आज वह अपने फैसले पर हाथ मल रहा है । पंजाब छोड़ कर भाग जाना चाहता है कहीं भी दूसरे राज्य में । अपनी विरासत से कट जाना चाहता है । पर भाग कर जाये तो कहां ?

क्या हम भाई भाई नहीं थे ? क्या हम भाई भाई नहीं हैं ?

मुझे याद आता है । हां, खूब याद है । मेरा छोटा भाई बीमार पड़ा था । सख्त बीमार । बचना मुश्किल लग रहा था । तब हम उसे टैक्सी में डाल कर किसी बड़े शहर ले गये थे । वहां इलाज चलते चलते रुपये कम पड़ जाने पर मुझे सबसे पहले जिस आदमी की मदद मिलने का पूरा भरोसा था, वह आदमी आज के माहौल के मुताबिक सिख था । पर मेरा गहरा दोस्त होने के साथ साथ मेरे बड़े भाई समान था । मेरी एक मामूली सी चिट्ठी पर उस आदमी ने एक बड़ी रकम मुझे तुरंत भिजवा दी थी और जब मेरा छोटा भाई ठीक होकर शहर लौटा था तब मेरी आंखें कृतज्ञता से भर कर उसके सामने झुकी रह गयी थीं ।

क्या आज भी ऐसा संभव है ?

अक्सर अपने गांव के सरपंच से बात होती है । आजकल के हालात पर । मैंने उन्हें यही घटना सुनाई थी । उन्होंने कड़वा सच उगल दिया था -देखो, हमारी पीढ़ी की तो निभ गयी । हम राम सिंह अगर शहर में सेठ ओमप्रकाश को चिट्ठी लिखें तो जवाब में जो मांगा होगा वही मिलेगा । क्यों ? एक विश्वास का पुल हमारे बीच बना है बरसों से । एक मजबूत पुल । जिसे आज की भाषा में हिंदू सिख एकता कह सकते हैं । अपने अनुभव, अपनी उम्र से बताता हूं कि आगे यह भरोसा नहीं है नयी जेनरेशन पर । अविश्वास ही अविश्वास है । अंधेरा ही अंधेरा है । क्यों फैला यह अविश्वास ? किसने फैलाया यह जहर ? क्यों प्रेम से निहारने वाली आंखें आग उगलने लगीं ?

बस । अंधकार ही अंधकार चारों ओर । हम जैसे किसी अंधेरी सुरंग में फंस गये हैं । कैसे बाहर निकलेंगे ?

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दूसरी सुबह वह सिख मेरी चौखट पर था । ठंड से ठिठुरता हुआ, ठंड से लड़ते मेरे सामने खड़ा था । मेरी पत्नी ने उसे इस तरह कांपते, ठिठुरते देखा तो पूछा -कोई गर्म कपड़े नहीं आपके पास ?

हालांकि वह खामोश खड़ा रहा पर उसकी आंखें बोल उठीं -गर्म कपड़े तो नहीं पर गर्म गर्म, खारे खारे आंसू हैं मेरे पास ।

शायद पत्नी ने भी उसकी आंखों की भाषा पढ़ ली होगी । वह उसके लिए न सिर्फ गर्मागर्म चाय का प्याला बना कर लाई बल्कि एक स्वेटर और अपनी एक शाल भी ढूंढ लाई । आंसू भरी आंखों से कहा -पहले ये पहन लीजिए और यह शाल घर में दे देना ।

मैंने उसकी आंखों में झांका-वे कृतज्ञ आंखें मुझे अपनी ही आंखें लग रही थीं । ठीक उस दिन की तरह जब मेरा छोटा भाई अस्पताल से मौत के मुंह से बचकर आया था और मैं अपने सिख मित्र के सामने आंखें नहीं उठा पा रहा था । ये कृतज्ञ आंखें मुझे जैसे किसी ऋण से मुक्त कर रही थीं ।

उन आंखों के सहारे मैंने दुनिया के दिलों की छानबीन की और जाना कि दिलों में कितना फर्क आ गया है । कितना जहर भर गया है लोगों के दिल में । यों तो शहर शहर, गांव गांव, गली गली गूंजते हैं एकता के नारे लेकिन दिलों में घर कर चुके जहर, दिलों के कोने कोने में बैठे हुए डर को तो हम निकालने में सफल नहीं हो रहे ।

उस आदमी को एक रजाई की सख्त जरूरत थी । उन्हीं दिनों एक समाजसेवी संस्था कम्बल वितरण समारोह कर वाहवाही लूट चुकी थी । मैंने सोचा कि उसके लिए रजाई और कम्बल एक ही बात है । क्यों न कम्बल दिलाने की कोशिश की जाए । फिर मैं समझकर या यह मानकर चल रहा था कि एक पत्रकार हूं, मेरी कलम का कुछ मान तो रखेंगे ही । मैं यह भी सोच कर चल रहा था कि एक दंगा पीड़ित की मदद करने निकला हूं तो कोई तो इंसानियत के नाम पर मेरा साथ देगा । पर उसके लिए जो कड़वी सच्चाई सुननी पड़ी, मैं उसे बर्दाश्त नहीं कर सका । मेरे पांव तले से ज़मीन खिसक गयी । लगा जैसे किसी ने मेरे कानों में गर्म-गर्म सीसा डाल दिया । वे कह रहे थे -आप एक सिख की मदद करने क्यों निकले हैं ? कुछ तो धर्म का लिहाज कीजिए । इनके लिए दूसरे संगठन हैं मदद के लिए । कोई हिंदू भाई हो तो बताएं । तुरंत व्यवस्था करवा देंगे । मैं दूसरे संगठन के पास गया मदद की गुहार लगाते । वहां भी वैसा ही जवाब -आप पत्रकार हैं और ऐसे शख्स की मदद करवाने निकले हैं ? यही लोग तो हैं बांटने वाले और आप इनके लिए इतने दरियादिल क्यों हो रहे हो ? ऐसे में किसी शायर की ये पंक्तियां बेतरह याद हो आईं :

अंदर मूरत पर चढ़े, घी, नारियल मिष्ठान

मंदिर के बाहर खड़ा ईश्वर मांगे दान

मैं खाली हाथ खड़ा था । मैंने कुछ कहा भी नहीं उसे । पर मेरी शर्मिंदा आंखों से उसकी स्वाभिमानी आंखों ने पूछा -आप तो एक इंसान की मदद को निकले थे, फिर वह इंसान से सिख कैसे हो गया ?

मैं किस अंधेरी गुफा में फंस गया ?

शायद वह हालातों की मार से ज्यादा समझदार हो गया था । पूछने की बजाय मुसीबत का मारा आदमी सब कुछ मौन में ही समझ जाता है ।

बजाय इसके कि मैं उसे कोई जवाब देता उसने ही मेरे कंधों पर हाथ रख कर कहा -क्या हुआ आप मुझे कम्बल नहीं दिलवा सके ? मुझे इसका कोई अफसोस नहीं । कम्बल तो कभी न कभी मिल ही जायेगा पर आपने मुझे जो कुछ दिया है, वह इससे कहीं ज्यादा है । आपने मुझमें यह अहसास बनाये रखा कि हो न हो मैं एक इंसान हूं और कि इंसानियत अभी जिंदा है,,,,इंसानियत कभी नहीं मरती,,,,

फिर वह पनीली आंखों से चुपचाप चला गया,,,,,

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