तीन औरतों का घर - भाग 7 (अंतिम क़िस्त)
सामान बांधते हुए साबिर सोचने लगा! क्या हामिदा उस कस्बे में अपने घर आती होगी! क्या पता हामिदा से मुलाक़ात हो जाए! उसकी अम्मी वहां अभी भी रहती हैं या नहीं! शफी ने एक बार साबिर को बताया था! हामिदा की बुआ का इंतकाल हो गया! अब उसकी अम्मी ही वहां रहती हैं! उसके बाद शफी ने भी वह कस्बा छोड़ दिया और दुबई में ही सेट हो गया था! शफी के बाद साबिर का इतना गहन हमराज कोई न था जिससे वह हामिदा के बारे में पूछ सके! कस्बे में जाने की बात से ही न जाने क्यों साबिर का मन इतने बरस बाद एक बार फिर हामिदा से मिलने को बैचैन था!
गली के नुक्कड़ में रिक्शे से साबिर ने ज्यों ही पैर नीचे रखा उसका मन पुरानी यादों की खुश्बू से भीग गया! अपनी दुकान के बाहर लगे जंक खाए बंद शटर को देखकर उसकी आँखों के किनारे भीग गए! उसकी पहले मुहब्बत की गवाह यह दुकान भरे बाजार में भी कितनी बंजर और खंडहर लग रही थी ठीक उसकी जिंदगी की तरह!
तभी सामने से शकील मियां आते दिखे! दुआ सलाम खैर खैरियत पूछने के बाद वह दोनों शकील मियां के घर की और चल पड़े! शकील मियां ने दोनों भाइयो के एक दो दिन रुकने का इंतजाम अपने ही घर में कर दिया था!
हाथ मुँह धोकर साबिर और उसके भाईजान जब शकील मियां की बैठकगाह में पहुंचे तो चाय पकोड़े का नाश्ता उनके लिए तैयार था! शकील मियां अंदर ही अंदर बहुत खुश थे! नुक्कड़ के कोने की दुकान उन्हें औने पौने दाम पर मिल रही थी! उनकी ख़ुशी उनके चेहरे पर झलक जाती और दोनों भाइयों की आतिर खातिर वह और जोश खरोश में करने लग जाते!
साबिर का दिल हामिदा के बारे में जाने के लिए बेताब था! लेकिन बात कैसे शुरू करें! जब शकील मियां की भारी भरकम बेगम बैठकखाने में आई तो साबिर के दिल कुछ उम्मीद जगी! दुआ सलाम हुई!
साबिर ने बात घुमा कर पूछा " खाला मौहल्ले में सब खैरियत तो हैं! हमें तो एक जमाना हो गया कस्बा छोड़े! क्या हाल हैं गली वालो का!"
शकील मियां की बेगम जैसे इसी मौके की तलाश में थी! मौहल्ले वालो की एक एक कर बखिया उखड़ने लगी! अलाने ने ये किया! फैलाने ने वो किया! और आखिर में उसकी जबान हामिदा के जिक्र पर भी आ गई और मुस्कुराते हुए बोली "वह नीम वाले घर की हामिदा याद हैं अरे जिसके साथ तेरी सगाई टूट गई थी! दो लड़कियां हैं उसकी !वह निगोड़ी भी अपनी दोनों बेटियों के साथ यही आ गई हैं! शौहर की मौत के बाद ससुराल वालो से बनी नहीं! रोज की किच किच से परेशान एक दिन अपनी दोनों बेटियां उठाई और मायके आ गई! बुआ तो उसकी पहले ही गुजर गई थे! अभी तीन महीने पहले ही उसकी अम्मी भी चल बसी! अब दो जवान होती बेटियां हैं और वह! बेचारी बड़ी मुश्क़िल से गुजर बसर करती हैं! "शकील मियां की बेगम दुपट्टे से होठों के किनारे आई पान की पीक साफ़ करते हुए बोली!
'हामिदा यही हैं, इसी कस्बे में ,यह सोचकर साबिर का दिल हामिदा से मिलने के लिए बैचैन हो उठा! एक बार वह उसे देखना चाहता था! यह मकान बिक जाएगा और कस्बे से उसका नाता हमेशा के लिए टूट जाएगा! फिर क्या पता हामिदा से मुलाक़ात हो न हो!
दोपहर को खाना खा कर जब सब सो रहे थे! साबिर के कदम हामिदा के घर की और चल पड़े! दोपहरी में गली सुनसान थी! तेज कदमो से बढ़ते हुए साबिर ने हामिदा के घर की सांकल खडका दी!
लकड़ी के किवाड़ बिना रंग रोगन के अकड़ गए थे एक चिनचिनाहट के साथ खुले ! सामने एक बेहद कमजोर दुबली पतली बूढी सी औरत खड़ी थी! साबिर चौंक गया "क्या यह हामिदा हैं! नहीं यह हामिदा नहीं हो सकती!" उसके होठ बुदबुदा उठे!
कुछ मिन्टो तक दोनों एक दूसरे को अपलक निहारते रहे!
"हामिदा"
"साबिर "
एक मर्दाना और एक जनाना आवाज निकल कर वातावरण में घुल गई!
"कैसी हो हामिदा? " साबिर को अपने ही शब्द खोखले लगे!
"आइए अंदर आइए " हामिदा ने साबिर को घर के अंदर आने को कहा!
हामिदा का घर बिलकुल नहीं बदला था! आँगन में नीम का पेड़ था! बरामदे में लकड़ी का तख्त वैसे ही बिछा था! बरामदे में एक रस्सी जिसमें कुछ जनाना कपडे टंगे थे! अलबत्ता कई बरस बिना रंग रोगन के मकान की लाल ईंटे जगह जगह से दिख रही थी! साबिर तख्त पर बैठ गया!
हामिदा भी वही पास में लकड़ी के पटरे पर बैठ गई थी!
दस मिनट दोनों ख़ामोशी से बैठे रहे!
फिर अपनी कमजोर धीमी पतली आवाज में हामिदा ने बेटी को आवाज दी! "रुखसाना जरा पानी ले आना घर में मेहमान आए हैं!"
थोड़ी देर में सोलह सत्रह साल की एक दुबली पतली लड़की पानी का गिलास लेकर आई!"
"यह छोटी बेटी हैं ! बड़ी अंदर सिलाई कर रही हैं! बहुत अच्छी सिलाई करती हैं! लेकिन यह जंक खाई मशीन साथ ही नहीं देती! तंगी न होती तो एक नई सिलाई कढ़ाई की मशीन खरीदती! कुछ सिलाई का काम बढ़ा लेती!" हामिदा ने कहा! आवाज सुनकर बड़ी बेटी भी कमरे के दरवाजे की ओट पर खड़ी हो गई!
खंडर होते घर में तीन औरते मुरझाये पीले चेहरों के साथ साबिर के सामने थी! हामिदा की दुनिया इतनी ग़ुरबत से भरी और बेरंग होगी! यह साबिर ने कभी नहीं सोचा था!
बरामदे में एक ख़ामोशी पसरी रही! दो दिलो की आवाज यह ख़ामोशी ही बन गई थी!
"अब चलता हूँ ! यहाँ आया था तो सोचा मिलता चलूँ! " तख़्त से उठते हुए साबिर ने कहा!
"दूध ख़त्म हो गया नहीं तो चाय बनाती!" धीमी सी आवाज में हामिदा ने कहा!
"कोई बात नहीं मैं चाय पीकर ही आया था!" साबिर ने कहा! हामिदा की संकोच और ग्लानि भरी आवाज से ही वह समझ गया था घर में शायद ही कभी दूध आता हो!
साबिर ने कुर्ते की जेब में हाथ डाला वह कुछ रूपए हामिदा को देना चाहता था! लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई ! वह जानता था खुद्दार हामिदा रूपए नहीं लेगी! "कहीं यह नाराज न हो जाए!" उसने सोचा! उसका हाथ कुर्ते की जेब में ही रहा! हामिदा साबिर को दरवाजे तक छोड़ने आई! दोनों की खामोश नजरों ने फिर एक दूसरे की और देखा! हामिदा से विदा लेकर वह गली में आगे बढ़ गया! न जाने उसे ऐसा क्यों लग रहा था हामिदा ने दरवाजा बंद नहीं किया हैं और उसकी नजरें उसे ही देख रही हैं!
अगले दिन हामिदा की बेटी ने बरामदे में झाडू लगाते हुए देखा तख़्त के नीचे एक काले रंग का बटुआ पड़ा हैं!
"अम्मी यह देखो"
हामिदा ने पर्स खोल कर देखा! पर्स नोटों से भरा था!
"अम्मी लगता हैं कल वह मेहमान अपना बटुआ यही भूल गए!"
हामिदा समझ गई थी साबिर जानबूझकर यह बटुआ यहाँ छोड़ गया हैं! लेकिन बेटी से वह इतना ही बोली "हाँ ! इसे संभाल के रख दे! क्या पता वह अपना बटुआ वापस लेने आए!
साबिर वापस शहर लौट गया था!
कुछ समय बाद हामिदा ने उन रुपयों से एक सिलाई मशीन खरीद ली और कपडे सिलने का काम करने लगी!
हामिदा और साबिर की यह आखिरी मुलाक़ात थी! इसके बाद वह कभी नहीं मिले!
समाप्त