Bus Namak jyada ho gaya - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

बस नमक ज़्यादा हो गया - 2

बस नमक ज़्यादा हो गया

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 2

ऑरिषा ने सोचा घर पर यह बात अम्मा को पापा बताएंगे तो अच्छा होगा। देखते हैं वह खुश होती हैं, बधाई देती हैं, आशीर्वाद देती हैं या फिर पापा के ही पीछे-पीछे चलती हैं। लेकिन उसे घर पर बड़ी निराशा हाथ लगी। पापा ने इस बारे में कोई बात करना तो छोड़ो, वह इस तरह विहैव करते रहे, चाय-नाश्ता, खाना-पीना, टीवी देखने में व्यस्त रहे जैसे कि वह उसे लेने गए ही नहीं थे। वह उनके साथ आई ही नहीं। उन्हें कोच ने कुछ बताया ही नहीं

उसे भी गुस्सा आ गई। उसने सोचा कि अम्मा को बताऊंगी ही नहीं। बताने का क्या फायदा, लेकिन यह भी तो ठीक नहीं होगा। यह सोचकर उसने कोच की, अपने सिलेक्शन की सारी बातें अम्मा को बताईं। लेकिन उन्होंने भी पलट कर एक शब्द नहीं कहा। वह बहुत ही आहत हुई कि यह कैसे मां-बाप हैं। इन्हें अपनी बेटी की किसी भी सक्सेस से कोई खुशी ही नहीं मिलती। लेकिन मैं भी हर हाल में इतना आगे जाऊंगी कि इन्हें खुशी हो। यह हंसे, मुझे आशीर्वाद दें, इसके लिए मुझे आगे जाना है। आगे और आगे सबसे आगे जाना ही है।

ऑरिषा खेलती रही और उसकी पढ़ाई भी चलती ही रही। उसकी कोशिशों से उसके बहुत से फ्रेंड्स के पेरेंट्स या भाई भी लेने आने लगे। इससे कोच की आपत्तिजनक कुचेष्टाओं पर अंकुश लग गया। मगर उसके पापा एक चुप हज़ार चुप ही बने रहे। एक जबरदस्ती की नौकरी करने की तरह उसे लेकर आते-जाते रहे। बातचीत करने के उसके सारे प्रयासों के बावजूद उसके सामने मां-बाप चुप ही रहते। अंततः राष्ट्रीय टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए दिल्ली जाने का समय आ गया।

उसे कुछ पैसों, कुछ और कपड़ों, सामान की जरूरत थी। कहने पर मां ने मौन व्रत धारण किए-किए ही सारी चीजें उसको उपलब्ध करा दीं। टूर्नामेंट में उसकी टीम रनर अप रही। सिल्वर ट्रॉफी, न्यूज़पेपर्स में निकली न्यूज़ की कटिंग्स के साथ वह घर पहुंची। इस विश्वास के साथ कि इस बार अम्मा-पापा दोनों मौन व्रत तोड़ेंगे, मुस्कुराएंगे, बधाई देंगे, लेकिन नहीं। दोनों लोगों का मौन व्रत चालू रहा। वह मायूसी के साथ अपने कमरे में चली गई। उसने सोचा ऐसा कहीं और किसी के साथ होता है क्या? करीब दस घंटे की लंबी यात्रा की थकान के बावजूद वह बहुत देर रात तक सो नहीं सकी।

बस में बैठे-बैठे यात्रा करने के चलते वह कमर में दर्द भी महसूस कर रही थी। मगर किससे कहे अपनी पीड़ा। अम्मा-पापा तो मुंह फुलाए कब का अपने कमरे में सोने चले गए थे। दर्द से ज़्यादा परेशान होने पर उसने अपनी स्पोर्ट्स किट से पेनकिलर स्प्रे निकाल कर स्प्रे किया। तभी उसे याद आया कि यह जर्नी से नहीं बल्कि खेल के समय लगी चोट के कारण है। उपेक्षा के कारण उसने खाना भी थोड़ा बहुत जबरदस्ती ही खाया था। भूख लगी होने के बावजूद उसे पूरा खाने का मन नहीं हुआ। अगली सुबह उसने उन सारी बातों को तिलांजलि दे दी जिससे उसे मायूसी मिल रही थी, निराशा मिल रही थी। उसने पूरा फ़ोकस अपने सपने, अपने खेल पर कर दिया।

अम्मा-पापा के लिए यह स्पष्ट सोच लिया कि आखिर मां-बाप हैं। एक दिन जब बहुत बड़ी स्टार प्लेयर बन जाऊंगी, जब दुनिया सिर आंखों पर बिठाएगी। जब पैसा चारों ओर से बरसने लगेगा तो इनका मौन व्रत भंग हो जाएगा। अंततः यह खुश होंगे ही। इनकी इस बेýखी, उपेक्षा को ही अपनी एनर्जी बना लेती हूं। इसी एनर्जी के सहारे मैं आगे बढ़ती रहूंगी। अगले चार साल में वह नेशनल लेवल की स्टार प्लेयर बन गई। तब उसे महसूस हुआ कि उसके मां-बाप का मौन व्रत अब जाकर थोड़ा कमजोर पड़ा है।

मगर उसे इस बात का मलाल बना रहा कि यदि वह गुटबाजी, राजनीति का शिकार ना होती तो अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में भी खेलने पहुंच गई होती। ऊंची पहुंच की कमी का परिणाम था कि जो प्लेयर प्रोविंस लेवल पर भी खेलने के काबिल नहीं थीं वह अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट खेल आईं। और वह केवल अपनी अदम्य इच्छाशक्ति, अपने जबरदस्त खेल के कारण राष्ट्रीय टीम में बनी रह सकी बस। यदि उसके पापा भी इसके लिए गलत नहीं फेयर फेवर की कोशिश करते तो शायद वह भी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट खेलती।

कई खिलाड़ियों की तरह उसने जब इस बात को गंभीरता से महसूस किया कि अन्य कई खेलों की तरह यह खेल भी उपेक्षित है, न अपेक्षित पैसा है, न पब्लिसिटी है तो उसने नौकरी करने की ठानी। सोचा इससे कई मौकों पर पैसों की तंगी को महसूस करने से मुक्ति तो मिलेगी। बाकी रहा खेल तो जैसे चल रहा है चलता रहेगा। उसे करीब दो साल की जी-तोड़ कोशिश के बाद स्पोर्ट्स कोटे के चलते पुलिस विभाग में नौकरी मिल भी गई।

नौकरी की बात उसने पेरेंट्स से शेयर नहीं की। सोचा कोई फायदा नहीं, क्योंकि उनका मौन व्रत कुछ कमज़ोर ही हुआ है, खत्म नहीं। लेकिन एक बार फिर उससे रहा नहीं गया तो दो दिन बाद उसने उन्हें बता कर आशीर्वाद मांगा। तो वह उसे मिला मगर बड़े ही कमज़ोर शब्दों में। उसने महसूस किया कि नौकरी ने दोनों लोगों का मौन व्रत थोड़ा और कमज़ोर किया है। यह व्रत उसे तब बहुत कमज़ोर लगा जब प्रशिक्षण के लिए जाते समय उसने चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद मांगा। तब मां-बाप दोनों ही लोगों ने करीब सात वर्ष के बाद सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया।

सबसे पहले पिता, फिर मां उनके पीछे-पीछे। वह खुशी के आंसू लिए किसी छोटी बच्ची सी पिता के साथ चिपक गई। तब उन्होंने आशीर्वाद देते हुए उसे अपनी बाहों में भरकर कहा, ‘खुश रहो बेटा। बेटी नहीं तुम बेटा से बढ़कर मेरा नाम बड़ा कर रही हो। इस घर को यश कीर्ति की ज्योति से जगमग कर तुम हमारा जीवन सफल बना रही हो। हमें अंधेरे से आख़िर तुमने निकाल ही लिया, नहीं तो हम अंधेरे में अंधेरा ही लिए समाप्त हो जाते।’ उनकी आंखें और गला दोनों ही भरे हुए थे। और मां भी खुशी के मारे सारे मौन व्रत तोड़ चुकी थी लेकिन अतिशय खुशी के कारण उनके शब्द सुनाई नहीं दे रहे थे। लग रहा था आंखों से जो आंसू निकल रहे थे, सारे शब्द मानो उसी में घुल कर बहे जा रहे थे।

उसने दोनों को एक साथ बाहों में भर लिया और कहा, ‘मैं जो भी कर पाई आप दोनों के आशीर्वाद और सहयोग से ही कर पाई। अगर आप दोनों पैसे वगैरह से लेकर और सारी चीजें उपलब्ध नहीं कराते तो मैं शायद यह सब कर ही नहीं पाती। पापा आज आपको एक सच बता रही हूं कि अम्मा के कहने पर आप अगर रोज़ मुझे लेने ना पहुंच रहे होते तो या तो मेरा खेल कॅरियर शुरू होने से पहले ही खत्म हो चुका होता या फिर मैं कोच के द्वारा सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार बनती रहती। मेरा कॅरियर इसके बावजूद बर्बाद ही होता।

इतना ही नहीं पापा आप के चलते बाकी लड़कियां भी बच पाईं। मैं सबको आपका एग्जांपल देकर उन पर प्रेशर बनाती थी कि वह भी अपने पेरेंट्स को जरूर बुलाएं। इस कोशिश के चलते सभी के पेरेंट्स आने लगे। क्योंकि सारी लड़कियां उससे परेशान थीं। जब हम टूर्नामेंट खेलने जाते थे तो वह वहां भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आता था। लेकिन हम सब इतने अलर्ट रहते थे कि उसकी एक भी नहीं चल पाई। इसलिए सारा क्रेडिट आप दोनों को ही जाता है।’ उसकी बातों ने मां-बाप को और भी ज़्यादा भावुक कर दिया। उनके आंसू बह चले। पापा इतना ही बोल सके कि, ‘हम बातों को बड़ी देर से समझ पाए बेटा। अब तो तुम एसआई बन चुकी हो। उस बदतमीज को सीखचों के पीछे अवश्य पहुंचाना। ऐसे गिरे हुए इंसान को सजा मिलनी ही चाहिए जो अपने बच्चों के समान बच्चियों के लिए ऐसी गंदी सोच रखता था, कोशिश करता था।’

‘मैं ज़रूर कोशिश करूंगी पापा। लेकिन क़ानून की भी अपनी सीमाएं हैं। जब-तक कोई रिपोर्ट नहीं लिखवाएगा, शिकायत नहीं करेगा तब-तक हम उस पर कोई कार्यवाही नहीं कर पाएंगे।’ ‘तो क्या तुम खुद नहीं लिखा सकती।’ ‘मैं भी लिखा सकती हूं पापा। ट्रेनिंग पूरी करके एक बार जॉब में आ जाऊं पूरी तरह से तब मैं उसे छोडूंगी नहीं।’ ऑरिषा को तब और बड़ा धक्का लगा जब प्रशिक्षण के दौरान भी कोच जैसे कई लोग उसे मिले। लेकिन पहले ही की तरह वह इन सबको भी उनकी सीमा में रखने में कामयाब रही। मगर जब कुएं में ही भांग गहरे घुली हुई है तो उसे जो पहली तैनाती मिली वहां उसका इमीडिएट बॉस इंस्पेक्टर भी कोच के जैसा ही आदमी मिला।

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