Do pal ka pyar books and stories free download online pdf in Hindi

दो पल का प्यार

सुबह-सुबह जागते ही घर के बरामदे में पहुंचा। वही रोज की हल्की-फुल्की कसरत करने के लिए। पर आज कोई जल्दबाजी नहीं , क्योंकि आज रविवार था। रोज की तरह आज प्रकृति की सुंदरता चारों ओर व्याप्त थी। इंदौर की सड़कों पर सन्नाटा पसरा हुआ था। इक्का-दुक्का वाहन ही नजर आ रहे थे। सड़कों के बीचों-बीच एक लंबी क्यारी में, तरह-तरह के फूल खिले हुए थे। स्वच्छता अभियान के चलते यहां बहुत कुछ बदला है।
नजरों को क्षितिज की ओर उठाया तो खिल-खिलाते रवि साहब का उदय हो रहा था। रवि की लालिमा भरी आभा ,मेरी काया को अपने ओजपूर्ण प्रकाश से नहला रही थी। मैंने अंगड़ाई लेते हुए अध-खिले पुष्प की ओर देखा। रवि की किरणें पुष्प के आवरण तक अभी पहुंची नहीं थी। मेरे ज़ेहन में ना जाने कौन सा ख्याल आया? और मेरे होठों पर खुद-ब-खुद मुस्कुराहट-सी छा गई। थोड़ा चिंतन-मनन करते-करते सोचा , तो एक अद्भुत सा दृश्य मेरे मस्तिष्क में जन्मने लगा! मस्तिष्क न्यूरॉन्स एक चलचित्र का निर्माण कर रहे थे। यह चलचित्र बड़ा ही विचित्र था! ऐसा जान पड़ा कोई अदृश्य शक्ति है,जो मुझे इस पुष्प का भविष्य दिखाने को आतुर है। वह दिखाना चाहती है ,कि इस पुष्प का आने वाला भविष्य कैसा होगा?
चलचित्र में मैंने देखा। वह अध-खिला पुष्प भी अंगड़ाई लेने को बेताब है। जैसे ही रवि की आभा इस पर पड़ती है। वह अपनी पातों को खींचते हुए ,जोरो की अंगड़ाई लेता है जम्हाई लेकर मुस्कुराता है , कलश-नुमा बंध आवरण खुलने लगता है , नीली-नीली पंखुड़ियों के मध्य में पीत आवरण मैं लेपित पराग-कण, इतना सुंदर पुष्प! जो एक नजर देख ले तनाव-मुक्त हो जाए।
और मुख पर मुस्कुराहट फिर दस्तक दे गई। यूं ही मुस्कुराते-मुस्कुराते मैंने अपनी नजर दो मंजिला इमारत के छज्जे पर डाली।
छज्जे पर सुंदरता की प्रतिमा खड़ी थी! एक सुंदर सी कन्या , जो प्रकृति का रसपान कर रही थी। उसे देखते ही मेरी नजर मानो अटक-सी गई। वह मंद-मंद समीर के साथ आलिंगन कर रही थी।
बिल्कुल ! खुले बालों में आधुनिक परी-सी लग रही थी उसकी लटे बार-बार , उसकी आंखों पर और गालों पर , ऐसे स्पर्श कर रही थी , मानो जानबूझकर उसे छूने के लिए आतुर हो। उसकी लट न जाने क्यों? इस पल को खोना नहीं चाहती थी। उन लटो ने मुझे भी ऐसे उलझाया मैं निकल ही नहीं पा रहा था।
वह ना तो प्राचीन अप्सरा-सी थी, जो स्वर्गलोक से उतरकर धरा पर आई हो और ना ही कोई अत्याधुनिक सभ्यता से समय यात्रा के जरिए आई विश्वसुंदरी। वह आधुनिकता से परिपूर्ण , आधुनिकता के आवरण में ढली कनकप्रिया-सी लग रही थी। रंभा , उर्वशी , मेनका को किसने देखा! किसने उनके रूप से साक्षात्कार किया, लेकिन स्वर्गलोग की ये अप्सराए भी, इससे अधिक रूपवान नहीं होगी। वे भी इसके कामरूपी यौवन को देखकर नतमस्तक हो जाए।
एक सुंदर बनावट और आधुनिक पहनावे से सु-सज्जित, जिसकी सुंदरता का बखान करने के लिए में कामिनी , रतिकन्या, या फिर देवकन्या कहना, उचित नहीं समझता हूं। क्योंकि यह शब्द उसकी सुंदरता के आगे रसहीन हैं। वैसे भी! सुंदरता को शब्दों में कोई नहीं बांध सकता। वह सिर्फ भावनाओं में वास करती है।
भावनाएं! प्रेक्षक की भावनाएं , जो सुंदरता को सौंदर्यसिंहासन पर बिढाल उसके सम्मुख खड़ी हो जाती है। और कहती हैं , है सुन्दरी , तुम कौन हो? क्या तुम क्वांटम जगत से आई हो ? क्वांटम जगत, जहाँ काल भी विरला ही चलता है। क्या तुम उस जहान् का क्षद्मरूप तो नहीं ? जो मेरे भावों को भ्रमित कर रहा है।
उसकी बनावट को समझाना या उसको यहां प्रस्तुत करना मेरी असमर्थता ही हो सकती है, लेकिन फिर भी! उसको देखकर जो मेरे मन में उसकी प्रतिमूर्ति बन रही थी। उसको मैं प्रस्तुत करने की कोशिश कर सकता हूं।
मैं कुछ ही दूरी पर था लेकिन फिर भी उसकी उभरी हुई काया, बिन श्रंगार के अलंकृत बदन, मद्धिम-स्वर्णिम वक्षबंधनी, रक्तजड़ित घेर-धार लंहगा। पोशक मात्र तन ढकने का कार्य कर रही थी बस , लाली से रक्तरंजित लब दूर से ही कहर ढा रहे थे। मैं टक-टकी बांधे, उसके योवन को निहारता रहा। वह अपने दाएं पैर को छज्जे की मुंडेर पर रख , अपने घुटने पर एक हाथ रखे हुए खड़ी थी, एक ऐसी मुद्रा में ,जानो फोटो-शूट करवा रही हो! उसके पैरों के नजदीक ही गमले रखे हुए थे। नाना प्रकार के पुष्प थे। पर एक गुलाब का पुष्प गगन की ऊंचाइयों को छू रहा था। ऐसा लग रहा था ,वह भी उसकी सुंदरता की ओर आकर्षित हो रहा हो, लबों की रंगत लिए हुए , होठों का रंग और उसका रंग एक-सा जान पढ़ रहा था।
गोरा-चिट्टा रंग, लाल-वर्णी अधरों के साथ एक अद्भुत संयोजन था। वक्ष उभरे हुए , जो उसकी देह को एक सुंदर अप्सरा-की-सी आकृति दे रहे थे। पृथकता मात्र पहनावे कि थी।
एका-एक उसकी दृष्टि मेरी और पड़ी, यकिन मानो मेरी नजरें वही बंद गई थी। हटने का नाम ही नहीं ले रही थी। जिस तरह से वह मुझे देख रही थी। मानो उसने मेरे अंदर के चोर को देख लिया , जो रूप की सुंदरता को नजरों से चुरा कर आत्मीय सुख का रस भोग रहा था। वह कुछ क्षण इसी तरह मुझे कातरता भरी निगाहों से देखती रही।
जैसे ही समीर ने अपना रुख बदला। मैं चौक गया ! ना जाने मुझे क्या हुआ ? मेरे शरीर की जैविकी करवटें लेना प्रारंभ कर चुकी थी। ऐसा लग रहा था सारी-की-सारी हार्मोनल ग्रन्थिया सुचारु रूप से क्रियान्वित हो गई है। रासायनिक हारमोंस ने अपना जादू दिखाना शुरू कर दिया , पेट में अजीब सी गुद-गुदी , होंठों पर भीनी मुस्कुराहट , नजरों में चाहत।......प्रेम का आगाज हो चुका था।

वह मेरी ओर देखते हुए , अपने होठों को दांत मैं भिचते हुए। एक प्यारी-सी मुस्कान अपने शबनमी होठों पर इंगित करते हुए, कातिलाना अंदाज से मुड़ी और अन्दर चली गई। मैं वहीं खड़ा देखते रहा। शरीर ना जाने क्यों ठंडा पड़ गया था। रसायन विज्ञान की मानें तो वे सभी हारमोंस जो प्रेमरोगों को जन्मते हैं। अपनी सुचारू कार्यप्रणाली शुरू कर चुके थे। में लवएडिक्ट से ग्रसित हो चुका था। प्यार का एक धीमा नशा आंखों और दिलों-दिमाग पर छा चुका था। किसी तरह इस प्रेम रूपी संसार से बाहर निकला।।
तो याद आया कि आज मुझे राजवाड़ा जाना है कुछ किताबे खरीदनी है। सोचा कौन सी किताबें खरीदें ?
तो आज जो दुर्घटना हुई मेरे साथ, जिसमें मैं पूरी तरह से घायल हो चुका था। उसके अनुरूप ही मैंने दो पुस्तकों का चयन किया। जिनके बारे में मैंने पढ़-सुन रखा था।
एक "कसप" और दूसरी "चित्रलेखा", अपने कदमों को दहलीज की ओर बढ़ने का इशारा किया और अंदर की ओर गया।
न जाने क्यों आज पूरा शरीर ऊर्जावान महसूस कर रहा था , जी मैं आया, जमीन और आसमान को एक कर , चांद-तारों को बटोर लाऊ। अपने रूप से साक्षात्कार होना चाहा और दर्पण के सामने जाकर खड़ा हो गया। अपने आप को निहारने लगा और सोचा! क्या मैं उसे पसंद हूं?
और अंतर्मन से आवाज आई। हा पगले! पसंद क्यों नहीं होगा ? पसंद हूँ, तभी तो हंस रही थी। कैसे होठों को दांतों से दबा रही थी? और कैसे बल खाती हुई अन्दर गई। आह....!
आज कुछ ज्यादा ही देर लगी मुझे अपने आप को व्यवस्थित करने में। बाहर निकला और फिर मेरी नजर उसी दो मंजिला इमारत पर गई। वहां कोई नहीं था। गमले में रखा फूल चिल-चिलाती धूप के कारण मद्धा पड़ गया था। गर्म-गर्म हवा की लपटें , उसे दक्षिणावर्त , वामावर्त दोलन करने के लिए मजबूर कर रही थी। अचानक बस सामने आकर रुक गई , में उसमें चड़ गया। सिटी बस यहा पल-पल पर अपनी परिक्रमा पूरी करती रहती है ,बस में स्त्रियों के लिए आगे जगह संरक्षित होती हैं और पुरुषों के लिए पीछे ।
राजवाड़ा पहुंचते ही सबसे पहले मैं दोस्तों के पास गया। जो गांव से यहां पढ़ने के लिए आए हुए थे। हमने गांव में साथ में ही पढ़ाई शुरू की थी। विश्वविद्यालय की पढ़ाई के लिए उन्हें यहां आना पड़ा।
और विद्यालय की पढ़ाई के लिए में इंदौर से गाँव गया था। उनके साथ दिन का पता ही नहीं चला, कब गुजर गया? उन्हें मैंने सुबह का सारा वाक्य बताया।
कैसे मैंने सुबह-सुबह एक अप्सरा देखी। कैसे उसने मेरा सब कुछ छीन लिया। कैसे! ,कैसे उसकी खूबसूरती ने मुझे उसका कायल बना दिया। उसकी खूबसूरती को मेने घी-मक्खन लगाकर परोस दिया। बातें होती रही , घंटो बीत गए। उनसे कहा था चलने को , लेकिन तीनों मुकर गए। कहते हैं रोजाना तो जाते हैं।,,,,,,,, मैं घुमक्कड अकेला ही चल दिया।
शाम हो चुकी थी। अंधेरा धीरे-धीरे पृथ्वी को अपने आगोश में ले रहा था। जिस प्रकार टूटे हुए घड़े से पानी रिस-रिस कर खत्म होता है,उसी प्रकार राजवाड़ा चौक की भीड़ होले-होले घट रही थी। बाजार पूरी तरह से अब एक सौंदर्य पूर्ण नजारा दिखा रहा था। कपड़ों की दुकानें ,सुनार की दुकानें ,सजावटी सामान की दुकानें ,बड़े-बड़े कांच के शोरूम, सब-के-सब कृत्रिम प्रकाश से आच्छादित थे। रंग-बिरंगे प्रकाश स्त्रोत , तारों भरा आकाश लग रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे मैं ब्रह्मलोक में खड़ा हूं। लेकिन समय रुकने का नाम नहीं ले रहा था। अंधेरा अपना काम कर रहा था , समय अपना और हम अपना काम करके अपने नीड़ की ओर प्रस्थान करने को थे।अपने हाथ को ऊपर उठाया टिक-टिक करती घड़ी की ओर देखा। घड़ी मुंहचिढ़ा रही थी। और कह रही थी , अब चलो भी कितना घुमोगे? जी नहीं भरा ?
मैंने घड़ी भर सोचा और मुस्कुराते हुए रेलवे स्टेशन तक पैदल ही जाने का निर्णय भी ले लिया। वहां से वेन और सीधे घर।
राजवाड़ा की गलियों से निकलकर ट्रैफिक सिग्नल को पार करते हुए सीधे चल दिया। वही..... अपना गीत गाते-गुनगुनाते।


चला जाता हूँ
किसी की धुन में

धड़कते दिल के तराने लिये
चला जाता हूँ
किसी की धुन में

धड़कते दिल के तराने लिये
मिलन की मस्ती भरी आखों में
हज़ारो सपने सुहाने लिये

हो चला जाता हूँ
किसी की धुन में
धड़कते दिल के तराने लिये.....


बस यूँही , गाते गुनगुनाते पता नहीं कब? मैं रेलवे स्टेशन पहुंच गया। नजरों का रुख प्रतीक्षालय की ओर किया। अक्सर कोई ना कोई बस की राह तकता रहता , लेकिन आज वह प्रतीक्षाग्रह खाली था। ठहरने की ना सोची और सीधे आगे निकल चला। वेनो की कतार खड़ी हुई थी। इक्का-दुक्का वाहन चल रहे थे।
वैसे तो यहां भीड़-भाड़ और वाहनों का आना-जाना चलता रहता है, लेकिन लोक-डाउन के पश्चात सन्नाटा कुछ जल्द-ही छा जाता है। अभी कुछ ही दिन तो हुए हैं, लोक-डाउन को खत्म हुए। इंदौर में पलायन कर आए हुए मजदूर ,जो दो वक्त की रोटी और अपने बच्चों का भविष्य आंखों में लिए, खून पसीना बहाकर अपना और अपने परिवार का भविष्य संरक्षित करने के लिए यहां आए हुए थे। सब-के-सब महामारी के चलते , यहां से जा चुके थे। इंदौर की वो रौनक फीकी पड़ चुकी थी। लाँक डाउन ने जैसे उजाड़-सा दिया हो। चलती हुई मालगाड़ी का पहिया अब डग-मगा रहा था। इस भीषण महामारी ने कईयों के घर बर्बाद किए। कईयों को बेघर किया। जिस प्रकार इस महामारी ने हमें चौराहे पर ला-खड़ा कर दिया , उसी तरह मैं भी इंदौर रेलवे स्टेशन के दौराहे पर खड़ा हुआ था। एक राह ब्रिज के ऊपर से जाती है और एक राह, ब्रिज के नीचे से।
वेन की तरफ देखा, खाली खड़ी हुई थी। नजर थोड़ी सी घुमाई तो ब्रिज के पास में ही , गुलाबी पेरहन धारण किए हुए, एक लड़की खड़ी थी। माँल के जस्ट सामने। पैर अभी थके नहीं ,थोड़ा और चलने की जिद कर रहे थे। लड़की को थोड़ा ओर करीब से देखने की इच्छा हुई , तो आगे बढ़ा और देखते-ही-देखते उसकी बगल में जाकर खड़ा हो गया। देखने में ट्विंकल और रवीना का मिला-जुला प्रतिबिंब। बेहद सुंदर! सादगी में लिपटी हुई। अपने दुपट्टे को एक अजब-सी-अदाकारी से गले में लपेटकर , कांधे से आगे की ओर निकाल रखा था। पैरों में चिल-चिलाती सैंडल और नजदीक ही एक झोला रखे हुए , घबराई-सी खड़ी थी। देखने में सुंदर, सुशील , मासूम-सी , पर मुरझाए हुए चेहरे पर शिकन रूपी सर्प अपनी परछाई इंगित किए हुए था। उदासी उसके रंग और खूबसूरती को फीका कर रही थी। आंखों में आंसू भरे हुए थे। नम इतनी थी कि कोई छू भर ले तो टपक पड़े, होंठों की लाली और गालो का गुलाबी रंग दोनों ही ठंडे पड़ चुके थे
" क्या हुआ? यहां क्यों खड़ी हो? " मैंने पूछा।

" आप से मतलब? " बड़ी-बड़ी आंखों से घूरकर कहा?

" मतलब है तभी तो पूछ रहा हूं। " मैंने कहा

इतना कहना भर था। और आंखें ,धाराजी की तरह बहने लगी।
मैं घबरा गया!
" अरे, अरे! यह क्या? .रो क्यों नहीं हो? " मैंने डर कर कहा

मुझे गलत मत समझो। कोई देखेगा तो क्या सोचेगा?
प्लीज चुप हो जाओ।
मैं तो बस ऐसे ही पूछ रहा था, मुझे लगा आप परेशान हो।
" मेरा दिल बैठा जा रहा था ,नजदीक ही पुलिस स्टेशन जो था। "

सहसा वह चुप हो गई ! और आंखों को अपने दुपट्टे से पूछते हुए। मेरी ओर देखने लगी, डरी और सहमी नजर से।

थोड़ी सी नजर आस-पास फिरा कर ,फिर मेरी ओर देखने लगी। मैं हाथों में किताबे और कुछ सामान लिए खड़ा था।


मैंने पुनः हिम्मत करके पूछा।
" क्या हुआ ?
यहां यू मुंह लटकाए क्यों खड़ी हो ?
कोई परेशानी है क्या? "
" मैं घर से भागकर आई हूं। " उसने तपाक से कहा।

और जिसके लिए भाग के आई हूं उसने मुझे धोखा दिया।
दोपहर से राह तक रही हूं। अभी तक नहीं आया।

" फोन लगाया था। " मैंने कहा
" हां। बहाने बना रहा था। और अब मोबाइल ही बंद कर लिया। " आँखों को झुका कर
ऐसे कैसे?.... किसी लड़के पर विश्वास कर लेते हो।
पता है ना आजकल का माहौल,मिजाज। ऐसे किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। और इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले सोच लेना चाहिए। कमस-कम लड़के के विषय में थोड़ी-बहुत तफ्तीश तो कर ही लेनी चाहिए।
घर फोन लगाया।

" नहीं। " मेरी ओर देख कर

" टाइम क्या हो रहा है? देख रही हो? " रोब जमाते हुए

घर फोन लगा लो।
यहां कोई परिचित है तुम्हारा। पहचान वाला है ,तो उसके यहां ठहर जाओे।
कल सुबह घर चली जाना, यहां यू कब तक खड़ी रहोगी।
यहाँ मैं किसी को नहीं जानती।
" ऐसा करो घर फोन लगा लो। " मैंने कहा

मुझे डर लग रहा है। क्या कहूंगी उन्हें फोन लगाकर?
सच और क्या? और अगर कोई बहाना बना सकती हो तो बना लो।
उन्हें तसल्ली हो जाएगी , फोन तो लगा लो , परेशान हो रहे होंगे।
लगा दूंगी।

अचानक मेरे जहन में सृष्टि का ख्याल आया!
मैंने उससे कहा।
यहां नजदीकी ही गर्ल्स हॉस्टल है वहां मेरी मित्र रहती है। आज रात वहीं ठहर जाओ प्रातः काल चली जाना।
उसने हां में सिर हिलाया।

" चलो छोड़ देता हूँ। " मैंने कहा
उसने अपने झोले को आहिस्ता से उठाया और मेरी ओर देखने लगी।
" नजदीक ही है ,पैदल ही चलते हैं। "
हाथ का इशारा दिखाते हुए।

मैं पथ प्रदर्शक की तरह आगे चलने लगा और वह मेरे पीछे चलने लगी। कुछ देर हम चुप ही रहे।


उसने अपने कदमों को रफ्तार दी और मेरे साथ-साथ चलने लगी।

" नाम क्या है आपका? " मैं पद चाल धीमी कर

" विन्यांशी " धीमे शब्दों में कहा।
और आपका?
" विमांश "

और आपकी मित्र का?.... क्या नाम है उनका?

उनका नाम सृष्टि हैं। हम दोनों साथ में कॉलेज पड़ते हैं। बड़ी तेज-तर्रार लड़की हैं हंसमुख और मिलनसार।

हमारी पहली मुलाकात बहस से हुई थी। हुआ यूं था, कि हम नए-नए कॉलेज गए हुए थे। हम जाकर उनकी बेंच पर बैठ गए ,उन्होंने आकर हमसे कहा यह बेंच मेरी है। हमने भी मस्करी भरे अंदाज में बेंच पर उनका नाम टटोला और कहा, नाम तो कहीं नहीं है।
उसने गुस्से में कहा होशियार मत बनो।
मैं थोड़ा नरम हुआ और थोड़ा सा विस्थापित होकर बोला, बैठ जाइए। उस दिन उनका मुंह दिन भर गुब्बारे की तरह फुला हुआ रहा।
घुंघराले बाल सहज परिधान, ना कोई साज-ओ-सज्जा की सामग्री! न किसी प्रकार का सौंदर्य प्रसाधन। बिल्कुल अरण्यक वन ,जैसे प्रकृति खुद अवतार लेकर धरती पर आई हो ! धीरे-धीरे हम दोनों मैं, गहन मित्रता हो गई। मैंने उनका नाम विद्युत विभाग रख रखा है। पूरे कॉलेज में रोब है इनका ,लेकिन हमारे आगे बोलती बंद हो जाती है।

मैंने सृष्टि के बारे में बहुत कुछ बताया ,उसकी सभी कारस्तानी जो आए दिन वह कॉलेज में करती है।
और बातों-ही-बातों में पता ही नहीं चला कि हम कब गर्ल्स हॉस्टल के सामने आ गए।
मैंने सृष्टि को फोन लगाया और नीचे बुलाया।
कुछ ही देर में सृष्टि नीचे आ चुकी थी।

आज आपके शुभ कदम इधर कैसे?... और यह कौन है साथ में?
" अगर आपको कोई एतराज ना हो तो आज इन्हें आपके गर्ल्स हॉस्टल में पनाह मिल जाएगी। " अनूठे अंदाज में,,,
जगह तो है ना हॉस्टल में!!!!

" पूरा हॉस्टल खाली पड़ा हुआ है। अभी धीरे-धीरे भरेंगे कमरे, लोक डाउन खत्म हुए दिन ही कितने हुए हैं? "
अपने घुंघराले बालों को सवारते हुए।

पर हुआ क्या यह तो बताओ?....और यह कौन है?

"" इनका नाम विन्यांशी हैं और हुआ युं के, यह मोहतरमा घर से भाग आई है। और इनके प्रेमी का अता-पता नहीं। स्टेशन पर खड़ी थी। और तुम तो मुझे जानती ही हो। ""
तंज कसते हुए

" अरे बाप रे! शर्म आती है। मां-बाप की इज्जत का कुछ तो ख्याल किया होता है। चली आई भाग के, तुम जैसी लड़कियों की वजह से हमारे मां-बाप हमको नहीं पड़ने देते हैं। " क्रोध पूर्ण
" ज्यादा बोलो मत और जितना बोला है उतना करो समझी। इनकी रहने की व्यवस्था कर दो आज बस..... "
मैंने बात काटते हुए।

" जी महाराज!"
"आपका-हुकुम-सर-आंखों-पर! " शांत स्वर में,मेरी और देख

मैंने एक नजर मुस्कुरा कर उसकी ओर देखा।
और दिव्यांशी से कहा? इसकी बातों का बुरा मत मानना। यह ऐसी ही है। मुंहफट , जो मुंह में आता है बक देती है, पर दिल की साफ है

विद्युत विभाग ध्यान रखना इनका। बस आज की ही तो बात है। वैसे भी कल चली जाएगी। और यदि कोई समस्या आए, तो मुझे फोन करना।

वह तो ठीक है। लेकिन मैंने जो कहा वह सच तो है। कड़वा है तो क्या हुआ? इनकी वजह से हमको सुनना पड़ता है।

सृष्टि ने विन्यांशी की ओर देखकर कहा। मेरी बातों का बुरा मत मानन ,मैं तो ऐसी ही हूं, लेकिन ऐसे भागकर आना सही नहीं है ,अब देखो ना, तुम्हारे ऊपर इतनी बड़ी विपत्ती आ गई। घड़ी की ओर देखो !
और यह मत भुलो कि तुम लड़की हो।

वे दोनों एक दूसरे से बातें करती रही।

और एक नजर मैंने भी घड़ी की ओर देखा और उनसे अलविदा कहा।
तो इतने में सृष्टि बोल पड़ी " तुम भी यहीं ठहर जाओ। जगह बहुत है हॉस्टल में " एक मनमोहक मुस्कान लिए

" जानता हूं तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है ,और तुम्हारा हॉस्टल भी। लेकिन मेरा ठहरना वाजिब नहीं। " यह लगभग-लगभग ठहाके वाली मुस्कुराहट थी।

"मुझे चलना चाहिए। बहुत देर हो चुकी है।" स्नेह को बिखेरते हुए , मैंने सृष्टि से कहा।


कुछ ही देर बस का इंतजार किया और बस के आते हैं सीधे घर , दिनभर की भाग-दौड़ में थक चुका था आते ही बिस्तर ने मुझे अपने आगोश में ले लिया और निंद्रा जैसे कब की प्रतीक्षा कर रही हो, मेरे आंख मूंदने का, झट से नींद लग गई।

सुबह फिर जागा , जागते ही बरामदे में पहुंचा।
झट दो मंजिला इमारत की ओर नजरें दोड़ा दी। घंटों-भर प्रतीक्षा करता रहा ,लेकिन अप्सरा का कोई पता नहीं।
पास में ही एक छोटी सी बच्ची, बाल मनोहारी क्रिड़ाए कर रही थी। तुलसी के चक्कर लगाती है, और फिर धीरे से मिट्टी उठाकर मुंह में रख लेती। और अपनी पारखी नजरें आस-पास दौड़ाती है। दोनों हाथ जोड़कर तुलसी के आगे नतमस्तक हो जाती , और फिर धीरे से एक ओर मिट्टी का टुकड़ा उठाती हैं और मुंह में रख लेती हैं।

मैं अपनी हंसी रोकते हुए उसके पास गया। और पूछा?
छुटकी क्या कर रही है?
देख नहीं रहे हो, तुलसी माता की पूजा कर रही हूं।

तो प्रसाद हमें नहीं दोगी। उसने मिट्टी का एक टुकड़ा उठाया और मेरे हाथ में रख दिया।
मैंने उसके गालों पर चुटी काटी और मिट्टी को सीधा मुंह में रख लिया।
और पूछा ?
सुबह एक दीदी थी आप के यहाँ, कहां है वह?
उसने मेरी तरफ ऐसी दृष्टि से देखा जानो सब समझ गई हो। उसकी आंखों में स्पष्ट प्रेम संशय दिखाई दे रहा था।
" जिज्ञासा दीदी! वह तो चले गए ,उनकी शादी है। " इठलाते हुए

धड़कता हुआ दिल ठहर सा गया .................
हृदय विलाप कर रहा था अपनी बेबसी पर , कलेजा रह-रह कर मुंह की ओर आ रहा था। ये कैसी विडंबना हैं स्वप्न प्रारंभ होने से पुर्व ही निद्रा टूट गई। यह दो पल का सुख , दो पल का प्यार, इतना दुःखद होगा। मैने सोचा नहीं था। आँखें भर आई थी। ऐसा जान पड़ा कोई अपना दूर जा चुका है जो अब कभी नहीं आएगा।
मैने अपने आप को संभाला निश्चेत अवस्था में पड़े पैरों को संक्रिया किया और घर आकर मनोहरश्याम जोशी द्वारा रचित उपन्यास " कसप " जो एक प्रेम-कथा है वाचने लगा.....

""किसी लड़की को पहली दफा देख प्यार करना गुनाह है , यह शायद ! अपनी ही भावनाओं से खिलवाड़ है। ""

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