ओ वसन्त भाग-१
१.
ओ वसन्त
ओ वसन्त
मैं फूल बन जाऊँ
सुगन्ध के लिए,
ओ आसमान
मैं नक्षत्र बन जाऊँ
टिमटिमाने के लिए।
ओ शिशिर
मैं बर्फ बन जाऊँ
दिन-रात चमकने के लिए,
ओ समुद्र
मैं लहर बन जाऊँ
थपेड़ों में बदलने के लिए।
ओ हवा
मैं शुद्ध हो जाऊँ
जीवन के लिए,
ओ सत्य
मैं दिव्य बन जाऊँ
शाश्वत होने के लिए।
ओ स्नेह
मैं रुक जाऊँ
साथ-साथ टहलने के लिए।
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२.
आखिर समय
आखिर समय
मेरी बात मानेगा,
फिर सुबह ला
पेड़ों को उगा
खेतों में जा,
नदियों के साथ
पहाड़ों के मध्य,
फूलों को पकड़
अनेक मुस्कान लायेगा।
उड़ते पक्षियों को
चलते लोगों को,
अनवरत काम दे
सबकी बात मानेगा।
वह अड़ेगा नहीं
बिकेगा नहीं,
विकास के लिए चल
पुण्य को उच्चारित कर,
लय से बँध
गीत सा बन
जीवन को छेड़ेगा।
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३.
आत्मा कुछ तो करेगी
आत्मा कुछ तो करेगी
सार-संक्षेप बटोर
कहीं तो मिलेगी,
अपने बच्चों के लिए
एक आसमान संजोयेगी,
अपने ही जन्मदिन पर
ढेर सारी खुशियों में
लोट-पोट हो जायेगी।
नदी के स्रोत से
सागर के वक्ष तक,
सब कुछ बाँट
किसी सत्य को
कभी मारेगी,कभी बचायेगी।
कभी उपेक्षा भाव में आ
सुख-दुख को टाल जायेगी,
अँधकार के साथ
एक उजाला छोड़,
असीम सार-संक्षेप के साथ
शान्त हो जायेगी।
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४.
आत्मा नहीं कहती
चिड़िया नहीं बोलती
अब चहचहाया नहीं जायेगा,
वसन्त नहीं कहता
अब आया नहीं जायेगा,
ठण्ड नहीं बोलती
अब बर्फ नहीं गिरेगी,
नदी नहीं कहती
अब बहा नहीं जायेगा,
फूल नहीं सोचता
अब खिला नहीं जायेगा,
प्यार नहीं कहता
अब भेंट नहीं होगी,
शब्द नहीं कहते
अब गीत नहीं होंगे,
थिरकन नहीं सोचती
अब नाच नहीं होगा,
सुबह नहीं कहती
अब जगना नहीं होगा,
आत्मा नहीं कहती
अब अमरता नहीं होगी,
जीवन नहीं सोचता
अब चलना नहीं होगा।
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५.
ओ धरती
ओ धरती
शब्द मेरे पास हैं
और सौन्दर्य तुम्हारे,
दृष्टि मेरे पास है
और प्यार तुम्हारे,
भूख मेरे पास है
और अन्न तुम्हारे,
जीवन मेरे पास है
और राह तुम्हारे,
चाह मेरे पास है
और हरियाली तुम्हारे,
धैर्य मेरे पास है
और मिट्टी तुम्हारे,
क्षण मेरे पास है
और सार तुम्हारे,
पूजा मेरे पास है
और आशीर्वाद तुम्हारे,
मन मेरे पास है
और ऊँचाई तुम्हारे।
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६.
एक सुबह
एक सुबह
जिसे प्यार किया
वह चली गयी,
एक शाम
जिसका इंतजार किया
वह ठहर न सकी।
एक उम्र
जिसमें स्नेह था
वह बदल गयी,
एक भाषा
जो प्यार से पुकारती
आजाद हो गयी।
एक जन्दगी
जो अद्भुत थी
याद रह गयी,
एक अनुभूति
जो घूमती-फिरती थी
चुप हो गयी।
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७.
बहुत सीधे हैं लोग
बहुत सीधे हैं लोग
अपनी ही भाषा बोलेंगे,
अपनी ही बात कहेंगे
आत्मा के लयों को
देश में ही खोजेंगे।
कहते रहेंगे
यह हमारा हिमालय है,
यह हमारी गंगा है।
गीता का कर्मयोग
हमारी धरोहर है,
काश्मीर से कन्याकुमारी तक
असम से गुजरात तक
सभी शिलालेख हमारे हैं।
राम,कृष्ण, गौतम बुद्ध को
अपना ही बतायेंगे,
नालन्दा, तक्षशिला से
दूर सतयुग तक जा,
राजा हरिश्चन्द्र का आख्यान ले
वर्तमान से बातें करेंगे।
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८.
चमत्कार है कि
चमत्कार है कि
मैं हूँ,
पहाड़ों पल चलता हूँ
आसमान को ताकता हूँ,
समुद्र से प्यार करता हूँ,
धरती के रूपों को
मन में रखता हूँ।
चमत्कार है कि
पहाड़ों पर गहरी बर्फ है,
आसमान में रूईनुमा बादल हैं,
शाम का सन्नाटा है
सुबह की सोच है,
गाँव में शहर का सपना है,
और शहर खोया हुआ है
अपने रूप-रंग में।
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९.
दुर्गा माँ
माँ का अपना सपना है
मेरी अपनी पूजा है,
माँ के चारों ओर नाचता
सत्कर्मों का मेला है।
धीर यहीं हैं, वीर यहीं हैं
माँ के आगे नतमस्तक हैं,
महाशक्ति से जुड़ जाने का
पर्व वर्ष में एक यही है।
दुख भी अपनी अनुभूति लिए है
सुख भी अपनी रीति लिए है,
माँ तक जाने का सबका
हँसता-गाता पर्व यही है।
कहाँ दिन है, कहाँ रात है
इसका कोई एहसास नहीं,
माँ के आगे दिव्य भाव ही
सब आते-जाते,अव्यक्त नहीं।
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१०.
दुख के ऊपर सो जाता हूँ
दुख के ऊपर सो जाता हूँ
किसी सुर में मिल जाता हूँ,
राम-राम को भजते-भजते
कृष्ण-कृष्ण में आ जाता हूँ।
यह नींद भी कट जाती है
मर्यादा ही सुख देती है,
भाव शाश्वत जो आ जाते हैं
दुख के ऊपर रह लेते हैं।
ऋतुयें सारी मिल जाती हैं
आचरण अपने दे जाती हैं,
किसी शोर में खो जाता हूँ
किसी आँख को भा जाता हूँ।
जीवन को कहीं लिख देता हूँ
हँसते रोते चल देता हूँ।
सबकी अपनी परिभाषा है
दुख के ऊपर सो जाना है,
जहाँ-जहाँ भी मैं जाता हूँ
सुख से ज्यादा दुख पाता हूँ।
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११.
इस आसमान में
इस आसमान में
कुछ लिखा है
जो अमर है,
इस वसन्त में
कुछ नया है
जो अमिट है।
इस आत्मा में
कुछ सत्य है
जो शाश्वत है,
इस समय में
कुछ स्नेह है
जो दैदीप्यमान है।
इस मन में
कुछ करुणा है
जो अटल है,
इस सृष्टि में
कुछ शक्ति है
जो अजेय है।
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१२.
इस शाम को
इस शाम को
क्या कहूँ
जो बीतने वाली है,
इस दिन को
क्या कहूँ
जो ढलने वाला है।
इस साल को
क्या कहूँ
जो जाने वाला है,
इस स्नेह को
क्या कहूँ
जो बार-बार आता है।
इस ईश्वर को
क्या कहूँ
जो सदा रहता है,
इस प्यार को
क्या कहूँ
जो बार-बार रोता है।
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१३.
ईश्वर चुनाव नहीं लड़ता
ईश्वर चुनाव नहीं लड़ता
विवशता का
लाभ नहीं उठता।
सबके लिए
हवा देता है
प्रकाश का प्रबन्ध करता है।
गुरुत्व बन
विद्यमान रहता है।
ईश्वर चुनाव नहीं लड़ता
बहुत बड़ी बातें नहीं करता,
सभाओं का आयोजन कर
छलता नहीं,
वेश बदलता नहीं।
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१४.
ईश्वर के पास
ईश्वर के पास
बहुत बड़ी कहानियाँ नहीं होती
छोटे से आख्यानों में
वह रहता है,
जैसे क्षणभर श्लोकों में
पूजा की पंक्तियों में,
सांसें भर देता है।
वह कुछ देर गरीबी में
कुछ देर खुशी में,
कुछ देर युद्ध में
कुछ देर शान्ति में,
बिता लेता है।
वह हराता भी है
जीताता भी है,
पर अपनी गहराई
किसी से नहीं नपवाता है।
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१५.
ईश्वर
ईश्वर कितने ही क्षण
पास-पड़ोस में बिता देता है,
कितनी ही बातें
हमसे कहने को होता है,
हम सुनें या न सुनें
वह व्यस्त होता है,
सृष्टि का स्वभाव लिए
वह ममत्व को जोड़ता-तोड़ता है।
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१६.
ईश्वर परिवर्तन चाहता है
ईश्वर परिवर्तन चाहता है
एक जनम से
दूसरे जनम को रचता है,
एक कर्म से दूसरे में पहुँचता है
जो शान्ति में पूजा जाता है।
हर उजाले का
प्रतीक बना रहता है,
ईश्वर हमें रच
कुछ और रचने लगता है।
हमें आशीर्वाद दे
किसी और को आशीषने लगता है,
हमारी सांसों को रोक
किसी और की सांसों से जुड़ जाता है।
हमें सुन
किसी और को सुनने लगता है,
हमें पूछ
किसी और का पता माँग लेता है,
हमें मार
फिर जीवित करने का साहस करने लगता है,
ईश्वर परिवर्तन चाहता है।
********
१७.
हमारी आस्थाएं
हमारी आस्थाएं
ईश्वर से जुड़
बड़ी हो जाती हैं,
हमारा मन ईश्वर से मिल
स्वस्थ हो जाता है।
कुम्भ से अमृत
जब छलका हो,
गंगा धरती पर जब भी निकली हो,
श्री कृष्ण का जन्म
जब भी हुआ हो,
श्री राम जब भी पुरुषोत्तम रहे हों,
हमारी आस्थाएं
ईश्वर से जुड़
बड़ी हो जाती हैं।
*****
१८.
हे ईश्वर
हे ईश्वर
मेरे अन्तिम संस्कार पर
तुम रहो,
मैं जिधर भी देखूँ
उधर उजाला हो।
पक्षियों की उड़ान
चलती रहे,
लोगों की चहल-पहल से
दिशाएं लदी रहें,
स्वर मेरा ढीला न पड़े
बात कोई निर्थक न हो।
मन खुशी से
किसी जगह टिका रहे,
हे ईश्वर
मेरी अन्तिम आकांक्षा पर
तुम रहो।
**********
१९.
हे ईश्वर थोड़ा सा अंधकार रखो
हे ईश्वर
थोड़ा सा अंधकार रखो
जहाँ मैं उजाला कर सकूँ,
दिया जला
आरती की थाली रख
अपनी प्रार्थना पूर्ण कर सकूँ,
मुठ्ठी भर कोहरा
जिसे सौन्दर्य में ढाल सकूँ,
हे ईश्वर
थोड़ा सा अंधकार रखो
जहाँ मैं उजाला कर सकूँ।
******
२०.
हे कृष्ण जब भी
जबभी तुम्हारे शब्द मिलेंगे
मन के ऊपर सुबह उठेगी,
चिड़िया आकर चहक लिखेगी
यादों की लहरें अन्दर होंगी।
समय की कोई हार न होगी
चलने का सारा संदेश रहेगा,
लाभ-हानि दो बहिनें होंगी
पृथ्वी-स्वर्ग का विकल्प मिलेगा।
जीवन थोड़ा योगी होगा
विराट रूप में सत्य रहेगा,
अन्त:करण की वृत्ति हमेशा
धर्म-धर्म की माँग करेगी,
जब भी तुम्हारे शब्द मिलेंगे
हार-जीत में फर्क न होगा।
********
२१.
हे कृष्ण काम करते-करते
हे कृष्ण काम करते-करते
जब हम थक
गहरी नींद की ओर जायेंगे,
तो आपके ही शब्द
कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु
कदाचन् दोहरा
सरल मन:स्थिति में आ जायेंगे।
*******
२२.
हे कृष्ण कैसे अहसास हो
हे कृष्ण
कैसे अहसास हो-
स्नेह के शिखर का
भक्ति के सारांश का,
कैसे ऊँच-नीच से
विदा ली जाय,
कब गायों से
स्नेह हो जाय,
कब बाँसुरी की धुन से
मोक्ष मिल जाय,
कब पांचाली
केशों को खुला छोड़ दे,
कब युधिष्ठिर महाराज
जुए के पासे फेंकें,
कब महाभारत हो,
कब भीम की गदा
जंघाओं को तोड़ दे,
कब परीक्षित का
वृत्तांत आ जाय,
कब तुम्हारी अंगुली पर
चक्र घूमने लग जाय,
कब पांडव सिंहासन छोड़
हिमालय पर आ जाएं,
हे कृष्ण
कैसे घटनाओं को पढ़़ा जाय।
******
२३.
हे कृष्ण इतना ही दुख दो
हे कृष्ण
इतना ही दुख दो,
कि उसके साथ दौड़ सकूँ,
आसमान छू
धरती पर रह सकूँ,
तुम्हें याद कर
उत्तरोत्तर बढ़ सकूँ।
हे कृष्ण
इतना ही दुख दो,
जिसके साथ
घूम-फिर सकूँ,
क्षणभर प्यार कर सकूँ,
समय पर हाथ रख
उसे थपथपा सकूँ,
एक आह से
दूसरे का दर्द जान सकूँ,
एक आहट में
तुम्हें समझ सकूँ।
हे कृष्ण
संदेश दे दो,
कि अर्जुन की तरह
निराशा मिट जाय,
संसार मेरा खुल जाय,
जय-पराजय,लाभ-हानि से
तारतम्य बैठ जाय।
****
२४.
हे कृष्ण तुम्हारे मेरे बीच
हे कृष्ण
तुम्हारे मेरे बीच
युग का अन्तर है,
मिलन के लिए
आगे चलना है,
जय पर लौटना है,
पराजय को देखना है,
सुख को स्पष्ट रख
दुख को उजागर रखना है,
उजाले को धर्म तक ला
अधर्म को छोड़ना है।
वसन्त जो तुम्हारा है
उस तक पहुँचना है,
वृक्ष जो तुम हो
उस पर चढ़ना है,
कर्म
जिसकी तुम बात करते हो,
उसे करते जाना है।
******
२५.
हे कृष्ण जो शान्ति तुम में है
हे कृष्ण
जो शान्ति तुम में है
वह शान्ति मुझे दे दो।
जो शान्ति तुम में है
वैसा जीवन प्रदान कर दो,
जो अमर है
उसे समझा दो,
जो अतुल्य है
उसे दिखा दो।
******
२६.
हे कृष्ण जो मरा हुआ है
हे कृष्ण
जो मरा हुआ है
उसे जीवित कर दो,
जो भ्रष्ट है
उसे नष्ट कर दो,
जो संस्कृति विहीन है
उसे संस्कार दे दो।
जो कटु है
उसे मधुर कर दो,
जो जहर है
उसे अमृत बना दो,
जो सोया है
उसे उठा दो,
जहाँ गीत न हो
वहाँ गीत सुना दो,
जो अन्त है
उसे आदि से जोड़ दो।
******
२७.
जब समय
जब समय
इस गाँव से
उस गाँव में आ जाय,
इस शहर से
उस शहर में चला जाय,
इस जिन्दगी से
उस जिन्दगी में निकल जाय,
इस आसमान से
उस आसमान में पहुँच जाय,
इस नदी से
उस नदी में डूब जाय,
इस पेड़ से
उस पेड़ में बैठ जाय,
इस पहाड़ से
उस पहाड़ में चढ़ जाय,
इन लोगों से
उन लोगों के पास आ जाय,
इस सौन्दर्य से
उस सौन्दर्य को ले आय,
या चुपके से ओझल हो जाय।
********
२८.
जब धूप की तरह
जब धूप की तरह
ईश्वर अन्दर आ जाय,
जब बर्फ की तरह
पहाड़ों पर बैठ जाय,
जब लहरों की तरह
सागर में पहुँच जाय,
जब वसंत की तरह
समय से बँध जाय,
तो उसे स्वीकार
क्षणभर खेल लिया जाय।
********
२९.
जब तब याद बनती है
जब तब याद बनती है
पहाड़ियों पर चलती धूप की,
परिच्छाइयों के बढ़ने की,
बर्फ से लदे वृक्षों में
सहमी,सिकुड़ी चिड़िया की।
अनुभूत सौन्दर्य से
रूबरू होने की,
पूर्ण होती हँसी में
समय के ठहरने की।
ठंडी,काँपती हवाओं के आगे
देर तक खड़े होने की,
पूजा की घंटियों में
तटस्थ भाव से बजने की।
अबूझ किलकारियों के बीच
नामकरण संस्कार की,
रूखी-सूखी,पथरीली जमीन पर
बसंत के स्वभाव की,
निर्जीव, जड़,रूठी सभ्यताओं पर
क्रान्तियों के आलेख की।
*******
३०.
जहाँ मैंने प्यार किया
जहाँ मैंने प्यार किया
वहाँ बस जाऊँ,
जहाँ जवानी में दौड़ा
वहाँ बुढ़ापे में बैठ जाऊँ,
जिसे जैसे देखा
उसे वैसे याद कर लूँ,
जिस पेड़ पर चढ़ा
उसकी छाया ले लूँ,
जिन ऊँचाइयों को नापा
उधर दृष्टि बना लूँ,
जिस यात्रा में थका
उसे विश्राम दे दूँ,
जिस देवता को प्रणाम किया
उनको धन्यवाद दे दूँ,
जहाँ मैंने प्यार किया
बस, वहाँ बस जाऊँ।
********
*महेश रौतेला