Remote se chalne wala gudda - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

रिमोट से चलने वाला गुड्डा - 1

रिमोट से चलने वाला गुड्डा

मज्कूर आलम

(1)

चेतावनी : विवाहित पुरुष अपनी पत्नियों को यह कहानी न पढऩे दें। वर्ना परिणाम के जिम्मेदार खुद होंगें।

शादी के 6 साल बाद वे अपनी पहली यात्रा पर थे। वैसे यहां यात्रा कहना बेमानी होगा, क्योंकि शादी के बाद यात्राएं तो बहुत की थी दोनों ने, पति ने ऑफिशियल टूर और उसने हमेशा की तरह अपनी कल्पनाओं में हनीमून पर जाते हुए। हनीमून पर जाना ही जैसे उसके जीवन का परम लक्ष्य बन गया था। वह खुद भी कई बार सोचती कि यह हनीमून पर जाने की उसकी ललक है या पति के साथ सहयात्रा की चाहत या अपनी बात मनवाने की जिद। इस बात को लेकर जब तब लडऩा और चिड़चिड़ाते रहना ख्वाहिश का पूरा न होना भर ही है या पति पर उसकी न चलने के एहसासात से आहत होते इगो की प्रतिक्रिया। लेकिन वह कभी किसी एक फैसले पर नहीं पहुंच पाती थी। उसके निर्णय की नैया कभी इस पार होती तो कभी उस पार। पर यह जो कुछ था, वह एक ऐसी कसक बन गया था, जो उसके लिए जीवनभर का नासूर था। इसने उसकी मुस्कुराहट छीन ली थी और पिछले डेढ़-दो सालों से वह इसी अकुलाहट के साथ छटपटा रही थी... जैसे अभी कल ही तो सोच रही थी वह कि मनुष्य की सबसे बड़ी चिर आदिम ख्वाहिश क्या है, अमरता पाना...? पाया तो था अश्वत्थामा ने यह वरदान... पाया तो है उसने भी चिरस्त्रियोचित अभिलाषा... मनचाहा जीवनसाथी... तो क्या अमरता का वरदान पाकर भी ऐसे ही व्याकुल होगा अश्वत्थामा अपने न भरने वाले जख्म के साथ...

जानती थी वह कि क्यों नहीं जा पाये थे वे हनीमून पर... लेकिन क्या जान लेना भर दर्द से निजात मिल जाना है... चिर आदिम ख्वाहिशों के संदर्भ में नितांत अनावश्यक है जानना-समझना... जीवन का एकमात्र दंश कि वे हनीमून के लिए भी कहीं नहीं जा सके थे। सहजीवन तो आया था उसके हिस्से, पर सहयात्रा...? लेकिन 6 साल के इंतजार के बाद आज पलभर में मिट गई थी उसकी सारी कसक... होगा अश्वत्थामा का दर्द लाइलाज, उसका क्या वास्ता उससे... वह तो भटक रहा होगा जमीं पर अपने दंश के साथ... मगर आज वह तो जमीं पर ही नहीं थी, उड़ रही थी परियों के लोक में... और यहां जमीं के दंश का क्या काम... खुशी संभाले नहीं संभल रही थी उससे... वे अपनी पहली सहयात्रा पर थे... सहजीवन के साथी सहयात्रा पर... इसलिए वह सजी भी खूब थी। सजन के लिए

अपनी शादी में कैसे सजना है, इसकी कल्पनाएं सालों की थी उसने, हर फिल्म के साथ, नायिका भीतर नायिका बन कर... अटेंड करती शादियों में दुल्हन भीतर दुल्हन बन कर... कहानियों-उपन्यासों और लोककथाओं में कभी राजकुमारी बन कर तो कभी हीर, लैला, जूलियट, रापुंजल, सिंड्रेला, स्लिपिंग ब्यूटी, स्नो ह्वाइट प्रिंसेस, राधा, रुक्मिणी, संयोगिता... और न जाने क्या-क्या बन कर... किस-किस में समा कर... न जाने कितनी-कितनी बार बन-ठन कर क्लियोपेट्रा बनी थी... नख-शिख सजी थी वह...

दुनिया की सबसे खूबसूरत दुल्हन बनने को आतुर किसी नवयौवना की भांति आज फिर सज रही थी वह। सामान्य पुरूषों की नजर में स्त्रियों का सजना-संवरना लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने और तारीफ पाने का जरिया होता है, छिछोरों के लिए आमंत्रण, आधुनिकाओं के लिए स्टेटस सिंबल और घरेलू स्त्री के लिए पति और परिवार की इज्जत के लिए ऐसा करना दायित्व... लेकिन कभी सोचा है तुमने कि एक स्वतंत्र स्त्री के लिए सजने-संवरने के क्या मायने होते हैं... उसके लिए सजना-संवरना सिर्फ खूबसूरत लगने की चाहत भर नहीं होती है। प्रतीक, हां ये प्रतीक होता है, उसमें जीवन के संचार का... जब वह जिंदा होती है तो सजती-संवरती है... लिप लाइनर और आई लाइनर की भी अपनी भाषा होती है प्रतीक... अपनी कहानी की नायिका के बारे में बात करते हुए एक दिन उसने अपने पति से कहा था। अब इनकी भाषा तो मुझे नहीं पता, लेकिन जिस दिन भी तुम ये फिरोजी कलर की आई लाइनर इतना चौड़ा कर के लगाती हो न, दिल बेकाबू होने लगता है... आज फिरोजी कलर की आई लाइनर को चौड़ा करके लगाते हुए याद आए इन लफ्जों से लाज की लालिमा चेहरे पर आ गई थी।

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चेहरे की लालिमा मेंहदी की शक्ल में उसकी हथेली पर उतर आई थी। उस पर से उस हिल स्टेशन की कडक़ड़ाती ठंड ने भी उसे छुईमुई बना दिया था। बारिश भी शबाब पर थी। सुबह के छह बजे से ही वह खिडक़ी पर बैठी बारिश के मजे ले रही थी। उसे गुदगुदी हो रही थी। रह-रह कर एक सिहरन पूरे बदन में दौड़ रही थी। खूब पहचानती थी वह इस सिहरन को... प्रपोज किया था जब प्रतीक ने, तब भी ऐसी ही सिहरन से गुजरी थी वह... फिर शादी की रात भी तो महसूस किया था... और आज फिर... लेकिन दावे के साथ कह सकती है वह कि आज इस सिहरन का घनत्व सबसे ज्यादा है... आज लाजवंती हुई जा रही थी वह... अपने आप में सिमटी-सिकुड़ी वह घर की चहारदीवारी के बाहर किसी हिल स्टेशन पर अक्षत नवयौवना की तरह पति के साथ अपनी पहली रात का इंतजार कर रही थी। रात की बात सोच कर ही वह सिहर-सिहर उठती। चांदनी रात में उदात्त तरंगों की भांति लहर-लहर उठती और चांद उसे देख रहा है का एहसास होते ही सिहरन में सकुचाती सिमट-सिमट जाती...

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हिल स्टेशन के लिहाज से वे बेमौसम के सैलानी थे। हमेशा की तरह यह भी उसके पति का बिजनेस ट्रीप ही था। लेकिन इस बार कंपनी ने पहली बार पत्नी को साथ ले जाने की इजाजत दी थी। इस समय उस होटल की पांचवीं मंजिल पर सिर्फ यही दो सैलानी थे। उनके कमरे की खिडक़ी जिधर खुलती थी, वहां से सामने ही पहाड़ी नजर आती थी। पहाड़ी के पहले एक झील थी। बर्फ की झील। उस झील के बीचोबीच प्राचीनकाल के विचित्र युद्धक हथियारों से भरा एक म्यूजियम था। जो ये गवाही दे रहा था कि वहां की कबीलाई संस्कृति का इतिहास भी युद्धों से भरा रहा होगा। बर्फ जमी झील पर गिरती रिमझिम बूंदें और उस पर बनता म्यूजियम और पहाड़ी का आधा-अधूरा अक्स खिडक़ी से ऐस दिख रहा था मानो किसी विशाल स्याह पेड़ पर लिपटी ओस की बूंदें न होकर वह मोतियों की माला हो। होटल और झील के बीच एक बलखाती-लहराती सडक़ थी, जलेबिया घुमाव वाली। वैसी ही, जैसी अक्सरहां हिल स्टेशनों में होती है। उस पर सरकते बारिश के पानी से ऐसा जान पड़ रहा था कि वह सडक़ न होकर हहराता झरना हो, जो किसी सर्प की मानिंद लहराता, अठख्ेलियां करता अपनी मदमस्ती में पहाड़ी उतर रहा हो।

वह इस शहर के बारे में कुछ नहीं जानती थी। हिल स्टेशन आने का उसका यह पहला अनुभव था। लेकिन इस अनजान शहर के दिलकश नजारे उस पर चुंबकीय बल की तरह लग रहे थे। वे उसे अपनी ओर खींच रहे थे। वह भी खिंची जा रही थी। जल्दी से जल्दी पूरा शहर देख लेना चाहती थी। प्रतीक तैयार हो जाए बस्स, निकल पड़ेगी। रात को ट्रेन में भी देर तक काम किया है उसने, इसलिए जबरदस्ती जगाना नहीं चाहती है। उसने एक बार फिर खिडक़ी पार नजर डाली। घुमावदार सडक़ पर इक्के-दुक्के लोग छाता लगाये आते-जाते दिख रहे थे। वहां ये किसी को नहीं जानते थे। जिस होटल में ठहरे थे, वहां भी उनके जान-पहचान का कोई नहीं था। पांचवीं मंजिल के अपने कमरे में आने-जाने के क्रम में उन्हें मिले सारे चेहरे अजनबी थे। जाने-पहचाने चेहरों से दूर ये अनजानापन उसे लुभा रहा था। पता नहीं पहली बार पति के साथ किसी हिल स्टेशन पर आने की रोमानी फंतासी की वजह से ऐसा था या कडक़ती-गरजती मौसम का असर, वह बार-बार सिहर-सिहर कर अपने आप में ही सिमटी जा रही थी। लजाती सकुचाती उसने बिस्तर में घुसे अपने पति को बड़े प्यार से निहारा। तभी एक बार फिर जोर की बिजली कडक़ी और बादल गरजा। स्वमेव उसकी नजर खिडक़ी पार चली गई। सामने पहाड़ी पर गुच्छे के गुच्छे बादल लहराते हुए उसकी तरफ आ रहे थे। हठात उसने हाथों से अपने गालों को ढंक लिया, मानो रूई के फाहे की मानिंद नर्म वे बादल उसके गालों पर ही चुंबन अंकित करने आ रहे होंं। एकदम झक सफेद... बर्फ के बादल... उसका एक आवारा टुकड़ा उसकी ओर तेजी से लपका आ रहा था। उसने जोर की झुरझुरी ली। गुलाबी गाल और गुलाबी हो गए। नजरें खुद ब खुद नीची हो गईं।

नजरें जा कर टिकी एक गुडिय़ा पर। नीचे, हां नीचे सडक़ पर। वह चिहुंक उठी। यह तो वही है। बिल्कुल वही। ऐसा कैसे संभव हैïï। दस साल पहले यहां से हजारों किलोमीटर दूर... जन्मदिन था उस दिन उसका और फाइनल ईयर की अंतिम परीक्षा भी। जैसे ही निकली थी, परीक्षा देकर सामने प्रतीक खड़ा था। हाथ में बिल्कुल यही गुडिय़ा। घुटनों के बल बैठ गया था उसके पैरों के पास। सकपका-सी गई थी वह। हाथों में महारानी की लिबास वाली चाबी से चलने वाली गुडिय़ा। गुलाबी रंग के भव्य ब्राइडल गाउन में... महारानी एलिजाबेथ की तरह सजी-संवरी। कॉलेज की उस भीड़ में सबके सामने ही घुटनों के बल बैठकर हाथ में गुडिय़ा लेकर बड़े नाटकीय अंदाज में उसने गुडिय़ा को संबोधित किया था, इस गुडिय़ा की कसम... दो सालों से हिम्मत जुटा रहा हूं। मेरी तो अब भी हिम्मत नहीं हो रही है... तुम महारानी हो न, सामने भी महारानी है, बराबरी में बात करना आसान होता है न, इसलिए तुमसे कह रहा हूं... मेरी महारानी से कह दो न कि मैं उससे बहुत प्यार करता हूं... बहुत बहुत बहुत प्यार... हमेशा पलकों पर रखूंगा... थाम ले मेरा हाथ... और हां उसे यह भी दे देना... कहते हुए प्रतीक ने चूम लिया था गुडिय़ा के होठों को और अपनी आंखें मूंदकर गुडिय़ा उसकी तरफ बढ़ा दी थी... वह भी भूल गई थी कि वह कॉलेज में है। उस वक्त तो बस वही दोनों थे इस पूरे जहां में... गुडिय़ा और गुड्डा... और घुटनों के बल बैठे जवाब की प्रतीक्षा कर रहे अपने गुड्डे से लिपट गई थी वह... हमेशा दुनिया की परवाह करने वाला प्रतीक भी उस दिन दुनिया से बेपरवाह था... उसने भी अपनी बांहों में भर लिया था उसे... वही गुडिय़ा एकदम वही गुडिय़ा आज इतने सालों बाद देख चिहुंक उठी थी वह। सच कहते हैं अगर किसी चीज को सच्चे दिल से चाहो और उसके लिए मेहनत करो तो पूरी कायनात आपसे उसे मिलाने में जुट जाती है। उसने भी क्या कम मेहनत की है इस दिन के लिए... जब से पता चला है इस ट्रिप के बारे में तब से जुटी है इसकी तैयारियों में... क्या पहनना है... कैसे सजना है... यह गाउन सेलेक्ट करने में ही पूरा हफ्ïता लग गया था... वह सोच रही थी। यूं ही तो दस साल बाद हू-ब-हू वही गुडिय़ा, जिसके द्वारा प्रतीक ने मुझे प्रपोज किया था हजारों किलोमीटर दूर अनजाने शहर में नहीं दिख जाती... यह प्रकृति का इशारा ही तो है... इशारा कि एक बार फिर आज प्रपोज करे प्रतीक... और फिर हो हमारा हनीमून... काश यह गुडिय़ा मेरे बदले प्रतीक को दिख जाती... वह मचल उठी... अगर किसी तरह मैं प्रतीक को खिडक़ी के पास ले आऊं तो... ऐसा हो सकता है... वह प्रतीक की तरफ मुड़ी... तभी प्रतीक का मोबाइल बजा। रजाई में घुसे-घुसे ही प्रतीक बात करने लगा। थोड़ी देर जी, जी करता रहा। फिर उसने कहा- ठीक है सर अभी भेजता हूं। उत्साह से भरी वह इंतजार कर रही थी कि बात खत्म हो तो वह खिडक़ी पर बुलाये उसे... लेकिन बात खत्म होते ही प्रतीक अपना लैपटॉप खोलने लगा। अपनी ही धुन में पवित्रा बोलती जा रही थी। अरे देखो प्रतीक, इस बारिश में वह लडक़ी... वह भीग जाएगी बेचारी बंजारन। कहीं उसे ठंड न लग जाए? बेचारी के पास गर्म कपड़े भी नहीं है। उसके पास बड़े अच्छे-अच्छे गुड्डे-गुडिय़ा हैं यार। आओ न... वह बच्ची बन गई थी। बहुत शानदार हैं देखो न प्रतीक। प्रतीक को व्यस्त देख उससे रहा नहीं गया... वह बोली उसके पास एक महारानी वाली गुडिय़ा है... उस खिलौने में गुडिय़ा के साथ एक गुड्डा भी है, जो झुक कर हाथ में गुलाब का फूल लिए उसे प्रपोज कर रहा है। मैं उससे वो महारानी की लिबास वाली गुडिय़ा लेने जा रही हूं। कहीं वह निकल न जाए।

एक पल के लिए प्रतीक चौंका। फिर लैपटॉप में डूबे-डूबे ही प्रतीक ने सपाट स्वर में कहा, सच में। उसने उठकर खिडक़ी तक आने का कोई उपक्रम नहीं किया। हां-हां, ले लो। तुम रूको पवि मैं ले आता हूं। ठंड बहुत है। तुम्हें ठंड लग जाएगी। वैसे भी मौसम बदलते ही तुम्हें सर्दी लग जाती है। यह बोलते वक्त भी उसकी नजरें लैपटॉप में ही धंसी थी। पवित्रा उसी उत्साह में उठी और लिफ्ट की तरफ बढ़ गई। पीछे से प्रतीक की आवाज सुनाई पड़ी- ठंड में भीगना नहीं। लिफ्ट में उसे कई अनजाने चेहरे दिखे। वह ठंड से सिकुड़ी जा रही थी। पवित्रा जब रिसेप्शन के सामने से गुजरी तो वहां बैठा रिसेप्शनिस्ट उसके सम्मान में उठ कर खड़ा हो गया और उसने उसे झुक कर नमस्कार किया। गुड मॉर्निंग मैडम। उष्णता से भरी आवाज। उस आवाज में पवित्रा को बहुत अपनापन लगा। उसने पलट कर देखा, वह काला और नाटा अधेड़ व्यक्ति था। जब वह होटल के मुख्यद्वार तक पहुंची तो पीछे से वही उष्णता भरी आवाज सुनाई दी, कहां जा रही हैं मैडम। बारिश बहुत तेज हो रही है। भीग जाएंगी। इस आवाज के आरोह-अवरोह ने उसे एक बार फिर पलटने पर मजबूर कर दिया। उसे उस अजनबी शहर में किसी का इतना ध्यान रखना अच्छा लगा था।

वो एक बंजारन बारिश में भीग रही है। उसे यहां किनारे लाने जा रही हूं। उसके पास बेहद खूबसूरत गुड्डे-गुडिय़ा हैं। मैं उनमें से वो महारानी की गुलाबी ड्रेस वाली गुडिय़ा खरीदना चाहती हूं।

बिना कुछ कहे रिसेप्शनिस्ट ने अपनी ड्यूटी बजाते हुए वहां सफाई करने वाली एक महिला को छाते के साथ उसके पीछे भेज दिया। उस महिला ने पवित्रा के सिर पर छाता लगा दिया था। उसने भी मुस्कुरा कर कहा- मैडम भीग जाएंगी। पवित्रा कुछ बोली नहीं। उसकी नजर तो बस उस बंजारन को ढूंढ़ रही थी। बंजारन कहीं नहीं दिखी। वह परेशान-सी बीच बारिश में ही खड़ी हो गई। परेशान आंखों की पुतलियां अब भी चारों तरफ नाच रही थी। उसे वहीं खड़ी देख वह महिला बोली, मैडम बारिश तेज है और यह हिल स्टेशन है। यहां पता ही नहीं चलता कि बारिश कब बर्फबारी में बदल जाए, इसलिए बेहतर है हमलोग वापस होटल चलें। थैंक्स, निराश पवित्रा होटल की तरफ मुड़ते हुए बोली- क्या यहां के सभी लोग इतने ही अच्छे होते हैं।

वह महिला मुस्कुराकर बोली, यह तो हमारी ड्यूटी में आता है मैडम। आप हमारी कस्टमर हो। ग्राहक तो भगवान होता है, उसके साथ खराब व्यवहार कैसे कर सकते हैं। इसी से हमारी रोजी-रोटी चलती है। काम में लापरवाही की तो सोच भी नहीं सकते।

डï्यूटी! काम! पवित्रा के चेहरे पर पल भर के लिए हल्का शिकन आया और उसी तेजी से गायब हो गया। उसे उस महिला का ये जवाब जरा नहीं भाया था।

होटल की लॉबी में जब वह पहुंची, तो उसे देखते ही रिसेप्शनिस्ट एक बार फिर खड़ा हो गया था। उसकी तरफ भरपूर निगाह उड़ेलती हुई वह बोली- दो कप चाय कमरे में भिजवा देना और उसी तेजी से लिफ्ट की तरफ बढ़ गई।

दरवाजा खुलने की आहट पाकर प्रतीक ने लैपटॉप से नजरें उठाई और रस्मी अंदाज में कहा- आ गई पवि।

हां। पवित्रा पूरे उत्साह में बोले जा रही थी। पता है प्रतीक जब तक मैं नीचे पहुंची, पता नहीं वह बंजारन कहां चली गई। वो गुलाबी महारानी ड्रेस वाली जो गुडिय़ा थी न, सच में बेहद खूबसूरत थी।

कुछ देर प्रतीक उसकी बात सुनता रहा। तब तक कमरे में चाय आ चुकी थी। दोनों ने साथ-साथ चाय पी। उस दरमियान वह बोले जा रही थी। देखो न, मैं मोटी होती जा रही हूं। समझ में ही नहीं आता कैसे अपना वजन कम करूं। बेसब्रेपन से वह बोली, यार प्रतीक मुझे अपना वजन कम करना है।

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