इस दश्‍त में एक शहर था - 12 Amitabh Mishra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इस दश्‍त में एक शहर था - 12

इस दश्‍त में एक शहर था

अमिताभ मिश्र

(12)

कि वो जो शंकरलाल हैं या खप्पू कहलाते हैं वे दरअसल एक व्यक्ति नहीं चलती फिरती एक प्रवृत्ति, आदत, संस्कार कहे जा सकते हैं। वे प्रशासनिक व्यवस्था के सबसे निचले पुर्जे नायब तहसीलदार से पदोन्नत होते हुए सेवानिवृत्त होते होते अपर कलेक्टर तो हो ही गए थे। नायब तहसीलदार से तहसीलदार, तहसीलदार से डिप्टी कलेक्टर यानि एस डी एम और अंततः ए डी एम हो गए थे। वे सरकारी नौकरी में और पारिवारिक कर्तव्यों में और सामाजिक दायित्वों में भी एक जिम्मेदार शख्स रहे। हर कर्तव्य उन्होंने जिम्मेदारी से, निष्ठा से, परिपाटी से, परंपरा से निभाया और बखूबी निभाया। घर में जब जब जिसको आर्थिक मदद की जरूरत हुई उन्होंने की और खुद हो के की। मसलन एक समय में गजपति यानि गज्जू की नौकरी में फिजीकल फिटनेस का मसला उठा उनकी एक आंख से उन्हें दिखाई नहीं देता था सो मसला हल होते होते दो साल लग गए तब वे खप्पू ही थे जिन्होंने चौबीस महीने लगातार बिला नागा पैसे पहुंचाए सो गज्जू का परिवार का कारोबार चलता रहा। या जब बिन्नू भाई साहब का एक्सीडेंट हुआ तब उन्होंने उस परिवार को संभाला। सोमेश अर्जुन की पढ़ाई, बहन के तीनो लड़को की पढ़ाई उनकी बेटी की शादी, छप्पू जिन दिनों मे आपातकाल में गिरफ्तार हुए तब उनके परिवार को सहारा, टिक्कू एक्सीडेंट के बाद जब याददाश्‍त खोकर बिस्तर पर थे तब उनकी बिखरी गिरस्ती को सहारा देने का काम उन्होंने किया। छप्पू जब आपातकाल में बंद हुए तब भी उस परिवार को मदद की और उनकी दो बेटियों की शादी में भी उन्होंने महती भूमिका निभाई। वे इस संयुक्त परिवार के प्रमुख आधार रहे। संयुक्त परिवार के बड़े समर्थक रहे। साथ ही ब्राम्हणत्व के भी बड़े हिमायती। वे ठेठ कनौजिया, बीस बिस्वा के ब्राम्हण थे आजीवन रहे शुद्ध रक्त के कट्टर हिमायती। ब्याह कनौजियों में ही हो इस पर खासा जोर रहा।और चाहते रहे कि उनका ये संयुक्त परिवार बना रहे हमेशा।

वे एक व्यावहारिक और ठेठ दुनियादार आदमी थे सो इन सब मददों को उन्होंने भुनाया भी जो उस समय निस्वार्थ सेवा लग रही थी कुछ हद तक थी भी पर वो दरअसल उनके कमाए पैसे जिन्हें वे कहीं भी इस्तेमाल नहीं कर पा रहे थे को इस तरह ठिकाने लगाया और जब जमीन का बंटवारा हुआ तब उन्होंने जमीन के नौ हिस्सों के बजाए दस हिस्से करवाए जिसमें से एक अतिरिक्त हिस्सा उन्होंने उन मददों के ऐवज में रखा। हालांकि यह मुआवजा इस शहर की बढ़ती हुई जमीन की कीमतों के मद्देनजर उस समय की गई मदद के बदले ब्याज जोड़ कर भी ज्यादा है कहीं ज्यादा है। पर जरूरत पर काम आने के अहसान को सबने माना और खप्पू यानि शंकरलाल मिश्रा के पास बाकी भाईयों के मुकाबले दोगुना जमीन है। उनके परिवार में पत्नी और एक बेटा और एक बेटी है। बेटी उन पर गई है। होशियार और तेजतर्रार और बेटा अपनी मां पर जिसे पार्वतीनंदन यानि पप्पू यानि खप्पू से ठीक बड़े यानि छठे नंबर के मिसिर बौड़म कहते हैं । वो थे मां बेटे। बिलकुल दुनियादार नहीं कोई मतलब नहीं किसी से। अपनी दुनिया में मस्त। बेटी तो बकायदा पढ़ लिखकर डाक्टर बन गईं और पिता खप्पू ने उसकी शादी भी डाक्टर लड़के से कर दी। बेटे ने जैसे तैसे बी काम किया और तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल हो कर व्यापार में हाथ आजमाने का सोचने लगे। उनका भी ब्याह कर दिया गया था और एक बेटी उन्हें हो गई। बेटा उनका एकदम उलट उसे दुनियादारी से कोई नाता नहीं था एकदम परमहंस। कोई काम से कोई लगाव नहीं किसी से कोई लेना देना नहीं। एक शौक था क्रिकेट खेलने का वो उन्हें खेलना बहुत ही कम आता था पर मैदान पर वे पूरे सजे बजे होते थे। यदि बैटिंग करना होता था तो बकायदा पैड्स ग्लोब्स, हेल्मेट और भी तमाम उपकरणों के साथ होते थे। अकसर पहली या दूसरी गेंद पर आउट होते पर भरपूर ऊर्जा के साथ पूरे मजें में खेलते थे। अपने दौर के बड़े से बड़े क्रिकेटर्स की नकल करते हुए नजर आते और लोग उनसे भरपूर मनोरंजन करते थे। और वे करवाते थे। पर वे एक बात जरूर कहते थे कि ” भले ही मैं आउट हो जाऊं पहली गंेद पर पर मेरी स्टाइल पर ध्यान देना जेा सुनील गावसकर से कम नहीं है।“

पढ़ने लिखने में कभी मन नहीं लगा पर फिर भी वे बी काम और एम काम भी कर ही लिए थे। पिता की जो अकूत संपत्ति थी उसे संभलने और बढ़ाने की जिम्मेदारी थी उनकी सो उन्होंने बिल्डिंग मटेरियल के सप्लाई के धंधे को हाथ मे लिया और वाकई गंभीरता से काम जारी किया। शहर के बड़े बिल्डर्स से उन्होंने जुगत भी जमा ली थी तो वे लग ही गए थे काम से। पर हां इस बीच में उनका क्रिकेटप्रेम बिलकुल कम नहीं हुआ था। उन्हीं दिनों का किस्सा है कि सब ख्ेाल रहे थे घर के तमाम लड़के। इसी दरम्यान सबसे छोटे चाचा तिक्कू ने एंट्री मारी तब हमारे चिंटू भैया बैटिंग कर रहे थे। अमूमन होता ये था कि जब तिक्कू चाचा खेलने आएं तो उन्हें बैट थमा दिया जाता था। वे दो चार नुमाइश के छक्के लगाकर और फिर एकाध ओवर जिसमें अकसर उन्हे विकेट भी मिल जाता था करते थे। पर इस बार उन्हें बैट नहीं दिया गया और सामान्य खिलाड़ी की तरह फील्डिंग करने को कहा जा रहा था जो उन्हें नहीं जमा। उन्होंने बालर से बाल ली जो रज्जू थे उन्होंने दे दी चाचा को बाल करने को। हालांकि उन्हें बिलकुल नहीं जमी यह बात पर चाचा की बाल के सामने थे वो। धीमी और स्पिन गेंद केे विषेशज्ञ थे चाचा। यह चिंटू भैया को पता था उन्हों आगे बढ़कर सूता उनकी बालों को चारों ओर बेधड़क बिंदास बेलौस। चाचा खिसिया गए। ” सऊर नहीं है बैट पकड़ने का आड़े पट्टे पर बाल लेकर मारे जा रहा है। ससुरा क्रिकेट नहीं हो गया गिल्ली डंडा हो गया।“

चिंटू भैया बहुत जब्त करे रहे। उसी दौरान बाल चूकी और उनके पैड में लग गई। बस तिक्कू चाचा कूद पड़े। ” आऊट हो गए हो प्लम एल बी डब्ल्यू हो। ठीक स्टंप के सामने।“

चिंपू इतनी आसानी से मानने वाले जीव नहीं थे और उन पर तिक्कू चाचा का रूतबा भी नहीं था। ” एकदम बाहर है। छठे स्टंप पर होगी बाल। वैसे भी मैं आऊट आफ स्टंप ही खेल लहा था“

”अबे हटो यार। सरासर आउट हो और जबान लड़ा रहे हो। जिस समय तुम्हें धोना भी नहीं आता था हम रंजी खिलाड़ियों के साथ खेल चुके थे।“

” कोई तुम्हारे कहने से आउट नहीं हो रहे हम और हां बोलना जरा कायदे में। “

” बोलें तो क्या कर लेगो तुम “

” बोल के देखो जरा फिर बताते हैं हम“

अब तिक्कू चाचा का पारा आसमान पर था। उन्होंने दांत भींचते हुए कहा ” तुम्हारी सात पुष्तों में किसीने क्रिकेट नहीं खेला होगा और तुमसे बड़ा दुर्बुद्धि तो इस खानदान में कोई नहीं “

” इतने सालों में डाक्टर बन नहीं पाए पढ़ने लिखने का दिमाग खुद के पास नहीं है और दूसरों को किस मुह से सुना रहे हो। कायदे में रहो चाचा। और हां खेलने हमने नहीं बुलाया था तुम जबरन घुस आए।“

” देखो तो जरा क्या मुह फंट रहा है इस उलूकप्रसाद का। अभी दो हाथ देंगे तो बाप दादे याद आ जाएंगे।“ चाचा का पारा आसमान पर था।

” अब एक शब्द गलत बोला तो ठीक नहीं होगा“

” क्या कर लेगा बे गदहेप्रसाद। चड्ढी बांधने का सऊर नहीं है और हमसे जबान लड़ा रहे है।“

ये तो महज बानगी है तिक्कू चाचा की गालियों की लड़ी की। पर हमारे चिन्टू भैया भी कुछ कम तुनक मिजाज और गरम मिजाज नहीं थे उनके हाथ में बैट था। वो फनफनाते हुए पहुंचे और उन्होंने दांत पीसते हुए तिक्कू चाचा की धुनाई कर डाली। ये संभवतः पीलियाखाल के इतिहास के दुर्लभतम क्षणों में से एक होगा और जिस जिस ने देखा वो अपने आप को धन्य मान रहा था। चाचा ने कोशिश की पर चिन्टू उनसे बीसा पड़ा।

अब चाचा ने मैदान छोड़ा ये भुनभुनाते हुए कि वो तो खप्पू भैया की औलाद हैं नही ंतो सरउ को शहर के गुन्डों से पिटवा दिया होता।

व्यापार के सिलसिले में वे मंदसौर नीमच की कुछ फैक्ट्रियों वगैरा में गए जिनमें से एकाध स्लेट पट्टी की थी जहां से पता नहीं उनके फेफड़ों में संक्रमण हुआ और उन्हें सिलकोसिस नाम की असाध्य बीमारी हुई जिसके कारण वे बहुत कम उमर में काल कवलित हो गए। अब तीस साल कोई मरने की उमर तो नहीं ही होती है। मां उनकी पहले ही जा चुकी थीं अब खप्पू को समझ नहीं आ रहा था कि वे उस अकूत संपत्ति का क्या करें और अब अपने जीवन का क्या करें जो निरर्थक हो गया। पर वे एक दुनियादार आदमी थे और संभाला उन्होंने अपने आप को बहू और पोती के खातिर और बहू के लिए एक स्कूल खोल दिया जिससे वह व्यस्त भी रही और पैसे भी कमाती रही। उन्होंने जिस संयुक्त परिवार को अपनी मदद के जरिये और सबको वार त्योहार पर शादी ब्याह पर मौत वगैरा पर सबको इकठ्ठा किया वह अब बिखर रहा था। अब चूल्हे भी अलग हुए घर भी अलग हुए और सोच भी अलग अलग। अब उनके अहसान को मानने वाली पीढ़ी भी जा रही है और उनका वो दबदबा वो रसूख वो सम्मान छीज रहा था और अपने से मतलब रखने वाली पीढ़ी मुख्य धारा में है अब। इस टूटन की शुरूआत देखकर खप्पू भी अपनी बहू पोती को ठीक ठाक इंतजाम कर दुनिया छोड़ गए।

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