लम्हों की गाथा
(13)
बुलबुल
मेरी ईमानदारी सरकारी अधिकारियों को रास नहीं आई। झूठा इल्ज़ाम लगा, मुझे बेईमान साबित कर, रास्ते से हटा दिया गया।
तीन महीने से घर में पड़ा था। परिवार में माँ, पत्नी और डेढ़ वर्षीय प्यारी-सी बेटी बुलबुल ही थे। परिवार छोटा था, पर आवश्यक खर्चे तो थे ही। कमाई का कोई साधन नहीं बन रहा था। कोई रास्ता नही दिख रहा था। ‘भूखे का कोई ईमान नहीं होता।’ वाली बात मुझ पर भी लागू हो रही थी।
एक दिन टी.वी.पर निगाह ठहर गई। बाबा कह रहे थे–‘लाल चटनी की जगह हरी खाने से कृपा बरसेगी.. बूट की जगह चप्पल पहना करो… ’
भूखे पेट के ऊपर टिके मेरे दिमाग को भी एक बात सूझी। बीवी को बताया तो सर पकड़ कर बैठ गई। बोली–"पागल हो गए हो क्या? कैसे कोई विश्वास करेगा?”
मैने कहा–"जब चटनी चल सकती है, काले-पीले बूट चल सकते हैं तो हमारी बात क्यों नहीं चलेगी। तू बस दिमाग से काम ले। कोई काम नही मिल रहा है, भूखे मर रहे हैं…काम मिल गया तो छोड़ देंगे…माँ और बुलबुल का सोच!"
“कल तू बुलबुल को गोद मे लेकर बैठ जाना। लोग अपनी परेशानी हमारी बेटी से कहेंगे। हम कहेंगे कि उनकी बात गाँव में रह रहे हमारे नब्बे वर्षीय बाबा जी तक पहुँच रही है। वे आपकी समस्या का हल बता देंगे…हमारे बाबा बुलबुल के माध्यम से सब सुनते हैं।”
पत्नी चुपचाप सुनती दिखी तो मैंने आगे कहा, “हम कहेंगे कि बाबा जी के आदेश पर ही हम ये सेवा का काम कर रहे है।"
कुछ ही दिनों में बुलबुल का खेल चल निकला। बुलबुल सोने की चिड़िया में बदलने लगी।
***
(14)
काज़ल
बचपन से ही सजने-संवरने का शौक नहीं रहा। सादगी ही मुझे भाती है। माँ कहती – ‘इसकी सारी सुंदरता इसकी आँखों में है। घुँघराले लम्बे बाल और मोहक आँखें सबको मोह लेते हैं। एम.बी.ए. करने के बाद शादी हुई। सूरज अपने माता-पिता के साथ मुझे पसंद करने आये थे। “इतनी सुंदर और सादगी पसंद लड़की मैंने आज तक नहीं देखी”, देखते ही सूरज की माँ बोली थी। रिश्ता पक्का और तुरंत शादी।
शादी के बाद कहीं भी मिलने जाते तो सादी-सी साड़ी या सूट और आँखों में काजल। तारीफ बहुत होती:
“भाभी, तुम सब को पीछे छोड़ देती हो।”
“तुम्हारे सिवा किसी को देखने को मन ही नहीं करता दीदी।”
सूरज साथ होते। मगर लगता जैसे वे अनमने से हो जाते हैं। कुछ कहते तो नहीं, पर कुछ ज्यादा ही चुप रहने लगे हैं।
आज भी पार्टी में जाना है, मेरी मित्र की सगाई है। लाल शिफॉन की साड़ी पहन जैसे ही मैने काजल की पैंसिल उठाई, सूरज बोले, “हमेशा इतना सजना जरूरी है क्या?”
‘मैं और सजना?’ हैरान थी मैं–‘बीवी सुंदर तो हो, मगर उसकी तारीफ सहन नहीं होती।‘
***
(15)
परिवार
बेटे साहिल ने छत्तीस की उम्र में शादी के लिए हाँ की है। मेरे लिए खुशी की बात है।
लड़की उसकी कम्पनी में इंजीनियर है। पर मुश्किल यह है कि वह एक अनाथ लड़की है। अनाथालय में पली-बढ़ी है। दान-दहेज तो वैसे भी हमें नहीं चाहिए। पर न परिवार, न संस्कार और हमारे रीति-रिवाज की कोई बात भी नहीं। इस रिश्ते को मना कर दिया तो वह फिर कभी शादी के लिए तैयार होगा या नहीं, कहना मुश्किल है।
साहिल बोला, “माँ, जब उससे मिलोगी तो तुम्हें लगेगा कि वह सबसे अलग है।”
मीरा को घर लाया था साहिल। रंग-रूप में, देखने में एकदम साधारण। क्या देखा साहिल ने जो वह इस कदर अच्छी लगी मीरा? फिर भी मैं ‘हाँ’ तो करना चाहती थी, पर मेरे मन में बहुत कुछ चल रहा था। साहिल सब समझ रहा था।
कल मेरे पास आकर बोला, “माँ, अनाथालय के भी अपने रीति-रिवाज और संस्कार होते हैं। तुम यह भी सोचो कि वहाँ मीरा का बचपन कैसे बीता होगा? भूख, सर्दी, गर्मी, सीमित साधन। सब सहकर पढ़ना और जीना आसान नहीं रहा होगा उसके लिए।”
“हाँ, यह बात तो सही है।” मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया।
“लेकिन आज, जब वह अपने पैरों पर खड़ी है तो उसी अनाथालय की पैरों से लाचार वार्डन की सहायता करती है…।”
“यह तो बहुत अच्छी बात है।” मेरे मुख से निकल गया।
“…मैं चाहता हूँ कि मीरा को माँ का प्यार मिले, परिवार का प्यार मिले!” साहिल ने जैसे मुझे अपना अंतिम निर्णय सुना दिया; साथ ही जवाब के लिए मेरी आंखों में देखा!
मेरा मन हल्का हो गया। मैंने साहिल का हाथ अपने हाथों में लिया और बोली, “मीरा को इस परिवार में प्यार ज़रूर मिलेगा बेटा!!”
***