क्षणभर महेश रौतेला द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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क्षणभर

१.
बेटी से संवाद

तुम्हारा हँसना, तुम्हारा खिलखिलाना,
तुम्हारा चलना,
तुम्हारा मुड़ना , तुम्हारा नाचना ,
बहुत दूर तक गुदगुदायेगा।
मीठी-मीठी बातें ,
समुद्र की तरह उछलना,
आकाश को पकड़ना ,
हवा की तरह चंचल होना,
बहुत दूर तक याद आयेगा।
ऊजाले की तरह मूर्त्त होना,
वसंत की तरह मुस्काना,
क्षितिज की तरह बन जाना,
अंगुली पकड़ के चलना,
बहुत दूर तक झिलमिलायेगा।
तुम्हारे बुदबुदाते शब्द ,
प्यार की तरह मुड़ना ,
ईश्वर की तरह हो जाना ,
आँसू में ढलना,
बहुत दूर तक साथ रहेगा।
समय की तरह चंचल होना,
जीवन की आस्था बनना ,
मन की जननी होना,
बहुत दूर तक बुदबुदायेगा।

२.
नयी सदी

नयी सदी का सूरज
उमंगों के साथ निकल आया,
खुशी और प्यार के लिए
नया विश्वास लाया।
अनंत संभावनाओं में
हमारे चारों ओर
दिशायें खुल गयीं।
नयी सदी का सूरज
उजाला लिए खड़ा
और मनुष्य की ईहा
आकाश पर उतर
क्षितिजों को खोल
उजाले की ओर दौड़ती
सुख के साथ एकाकार हुयी।
हम ज्ञान हैं
स्नेह की लम्बी शाखा
फूल-फल लिए
नयी सदी पर अवतरित
सदी का उत्तर हैं।
अच्छी लगती है
नयी सदी की खुशबू
उसकी लम्बी-चौड़ी मुस्कराहट
बुदबुदाते सपने।
बहता मन
पक्षियों की ऊँची उड़ान
लोगों का साथ
हरे-भरे सपने
उड़ते जहाज,दौड़ती रेलगाड़ियां
चलता यातायात
पहाड़ों पर झरती बर्फ
दिन-रात के स्पर्श
ले जाते हैं सदी को आगे
उजले क्षितिजों के पास।
**********
३.
वह

बहुत वर्षों बाद उसे देखा
कभी वह
नदी सी बही होगी
वृक्ष सी फली होगी
क्षितिज सी बन
आसमान को छूती होगी।
किसी की अंजलि में
किसी की आँखों में
किसी के घर में
बैठ गयी होगी
किसी बीते युग सी।
कभी वह पहाड़ सी अटल
मन से उठती होगी
भोर के मंत्र सी होठों में आ
संध्या तक
जपी जाती होगी।
वर्षों बाद उसे
मन के छोरों पर आते देखा
बादलों सी उमड़ती, घुमड़ती
बहती हवा सी सांसों से मिलते देखा,
कितनी बार बूँद-बूँद बन
ईश्वर से कुछ कहते सुना।
४.
सोचा न था

सोचा न था
इस वर्ष बर्फ गिरेगी
सरहद पर युद्ध होगा
रेल दुर्घटना होगी
नदी डूब जायेगी
संध्या खो जायेगी
सुबह थक जायेगी
लोग आपस में लड़ेंगे
दोस्तों का कत्ल होगा
मन बिखर जायेगा
धूप मुरझा जायेगी
वसंत रूठेगा
भाग्य फूट-फूट कर रोयेगा।
सोचा न था
इस वर्ष ग्रहण लगेगा
आतंक उठेगा
भूकम्प आयेगा
विश्वास डगमगा जायेगा
परिवार के परिवार खो जायेंगे।
हरियाली सूखेगी
विचार ठूंठ बनेंगे
संस्कृति रूठेगी
सूखा पड़ाव डालेगा
अंधकार बरबस लौटेगा
आत्मीयता लुप्त होगी।
मनुष्य के ऊपर
युद्ध मडरायेगा
बिल्ली रास्ता काट
अपशकुन का अंधविश्वास जगायेगी,
ऐसे में सोचा न था
संध्या होते होते
जीवन से प्यार हो जायेगा।
५.
माँ

अच्छा लगता है
माँ से बातें करना
पिता के साथ टहलना
अपनी जिजीविषा को
उनसे जोड़
समय को शुभ मुहूर्त बना
त्योहारों में बँट जाना।
अच्छा लगता है
सूरज का उगना
चिड़ियों का चहकना
आदमी से मिलना,
प्यार के हाथों
आशीर्वाद लेना,
चलती हुयी संध्या को
विदा करना,
दूर देशों की यात्रा से
संवाद लाना,
अपने पराये लोगों को
संवाद देना।
अच्छा लगता है
माँ से बातें करना
पिता की बातें सुनना,
सुख-दुख की गठरी को
अपने हाथों से खोल
विदा की बेला को
अपने से बाँध लेना।
यूं माँ की उपस्थिति
प्यार उगाती है,
घर के भीतर
ईश्वर को ला
मन को सहज बनाती है।
६.
एक दिन

एक दिन विदा हो जाऊँगा
अपने घर से,
डूब जाऊँगा
इसी आसमान में,
बच्चों से विदा लेना
रिश्तों से अलग होना
आदमी का आदमी से बिछुड़ जाना
समय का स्वभाव है,
ईश्वर का विधान है।
जो हाथ मैंने पकड़ा
कल छूट जायेगा,
जो साथ मैंने पकड़ा
कल वह टूटेगा।
मेरी अपनी सत्ता
कहीं और पड़ाव डालेगी।
भूचाल जो आया
वह भी थमेगा,
अंधकार के भीतर
बहुत कुछ डूबेगा,
प्रकाश की लौ से
अनंत भी खुलेगा।
एक दिन अपना ही घर
मुझे छोड़ देगा,
हवाओं की ताजगी
मुझे उड़ा ले जायेगी
क्षितिजों के उस पार।
फिर मैं डूब जाऊँगा
इसी आसमान में।
७.
अतीत:
मेरे प्यार की कथा जब बूढ़ी हुयी
मैंने बच्चों को सुनायी
उसकी एक पंक्ति,
वे उत्साह में उछले
कौतुक में बैठ गये
उनके कान खड़े हो गये
चेहरे पर भाव उमड़ पड़े,
शायद वे मान बैठे थे
कि मैं वह प्यार कर नहीं सकता
जीवन का वैभव सोच नहीं सकता।
मैंने कथा शुरु की-
एक लड़की थी
जो हँसती थी,मुड़ती थी,
खिलखिलाती थी,
आसमान सी बन
आँखों के ऊपर आ जाती थी,
उसमें प्यार की उर्जा थी,
सपनों की छाया थी,
मन की आभा थी,
बर्फीली हवाओं में चलती थी,
आँखों में तैरती थी,
तपती धूप में
मन के छोरों पर खड़ी रहती थी,
मन्दिर में जा.
शायद ईश्वर से कुछ मांगती थी,
बच्चे सुनते रहे
कथा खत्म नहीं हुई,
और मैं चुप हो गया।
८.
पत्नी :
वह मेरी पत्नी है
जो मेरा जूठा खाती है,
बिना सोचे-समझे
जीवाणुओं को निगल जाती है,
डांट सहती,सहमी सी
रूठ कर
फिर बाँहों में आ जाती।
उसे पता नहीं
मेरी सांसों में
कितने रोगाणु हैं,
मेरी जिह्वा पर
कितना विष है।
मेरे भीतर का ज्वालामुखी
जब तब लावा बन
उस पर गिरता है।
वह मान बैठी है
मैं सीदा-सादा हूँ,
पूज्यनीय कहा जाता हूँ,
मेरा वर्चस्व
उसकी अराधना है,
वह मेरे ही सपनों की मिट्टी बन
कितनी उपजाऊ लगती है।
वह सपना बोती है,जं
मन सच्चा हो तो
सपना भी साफ बनता है,
माटी की मूर्ति में भी
ईश्वर खड़ा लगता है।
९.
भारत की भाषा/संस्कृति:
वह नहीं बोलता
भारत की भाषा,
कोटि-कोटि हृतंत्री लय
एकतंत्रीय,अहं से लथपथ
खड़े उसके जीवन खंडहर
हृदय में कृमि, कंकण,
काट रहे ज्योति जिह्वा
वह अकेला जनता ने पाला।
उदारता कोटि-कोटि जन मन की
क्यों करती उसकी अहं तुष्टि?
जब वह नहीं समझता
भारत की भाषा,
वह नहीं जानता
भारत की संस्कृति चिरंतन,
शोषण के डंक मारता
रख क्षुद्र आकांक्षा
जनमन से हटकर,
वृथा अभिमान की सत्ता रख
वह नहीं बोलता
भारत की भाषा,
माँ के हृदय में ममता
वह डंक मारता,
भारत माँ ने गरल ले लिया
भारत की जनता बोलेगी
भारत की भाषा।
१०.
एक क्षण:
तुम मन में दीप जला गये
एक छोटी सी दृष्टि में
क्षितिजों को खोल गये।
नन्हे बच्चे को दिये चुम्बन
मेरे मन से गुजर कर
आसमान में फैल गये।
वह नक्षत्रों भरी रात
हमारे पास
कुछ देर तक थी।
वह सुहावनी सी संध्या
गायिका के कंठ सी
कुछ ही देर तक
हमारे बीच ठहरी थी।
मन का खिलखिलाना
मुझ में था,
हँसी शुक्ल पक्ष की तरह
उज्जवल बनी रही।
गंगा की पवित्रता बटोर
उसे अपने घर में ला
स्पष्टतः तुम्हें देखने लगा।
आदिकाल की पाशविकता
ध्वस्त होकर
आदरभाव से झुक गयी।
जगमग तुम्हारा चेहरा
ब्रह्मांड सा फैल
मुझे चमत्कृत करता
दैवीय हो गया।
११.
अनिश्चितता:
मैं समय को पा न सकूँगा
मैं प्यार पर छा न सकूँगा,
चारों दिशा घनघोर घटायें
देखो, एकान्त मैं सह न सकूँगा।
उड़ती हवा में बह न सकूँगा
अपने संदेश कह न सकूँगा,
शब्दों से दूर खड़ा हूँ
मन के अन्दर अहं धरे हूँ।
ईश्वर से धर्म खड़ा है
मन ही मन शून्य पड़ा है,
कोई मुझ में तैर रहा है
फिर भी मन अनजान रहा है।
देखो, ब्रह्मांड काँप रहा है
मेरा संशय टूट रहा है,
अंधकार से भोर हुयी है
मन के अन्दर ज्योति जगी है।
सावन मुझको देख रहा
वसन्त मुझ पर लौट रहा है,
उत्सव सा मैं सज-धज कर
चारों ओर फैल रहा।
१२.
विवरण:
घाटियां हिमालय की
ठंडी हो चुकी,
सूरज भी हो चुका असमर्थ
मेहनतकश लोग
सपनों को बाँध
आ चुके पगडण्डियों पर।
जीवन की चिन्तायें गाँव से निकल
शहर तक जा चुकी,
देश का मन
हिमालय सा अडिग,
समुद्री लहरों पर खड़ा
मानसून सा उठता।
घाटियों की हलचल
आसमान तक पहुँच
हिलाती है सपनों को।
लोगों की आवाज
शिखर तक जा
अपने परायों के बीच बँट जाती।
घाटियां हिमालय की
ठंडी हो चुकी,
मन मनुष्य का
बाँटने लगा संसार को।
काली अँधेरी रात से निकली
ज्योत्स्ना सुबह
प्रकटतः, हमारी हो गयी।
१३.
वह हवा सी बहती:

वह हवा सी बहती
कहाँ चली गयी,
बादल सी बन
कहाँ बरस गयी।
बालपन की सहेली सी
दूर ठिठक गयी,
कभी दूर जा
काँटों से उलझ गयी।
कभी पास ही
तूफान सी खड़ी हो गयी,
जीवन में प्रलय सी
नाचती,घूमती
सृष्टि करने लगी।
कभी पतझड़ सी लगी
कभी अनेक वसन्तों में
उग आयी।
वह हवा सी
मेरे आँगन से निकल गयी,
खुशबू उसकी
मन-मस्तिष्क पर
उडेल दी गयी।
वह इतनी नाची
कि शिव की प्रतिमूर्ति बन गयी,
हल्की सी झपकी में
बाँहों में सिमट गयी।
१४.
सच:
मौसम शान्त था
समुद्र के किनारे
बालू पर खड़ा
मैं जीवन टटोलता
आसमान को देखता।
बालू पर पड़े पदचिह्न
कुछ गहरे थे
कुछ मिटे हुए
कुछ समुद्र की लहरों से
धुले हुए,
मेरे पीछे मुड़ने तक
सब परिवर्तन ने लील लिये।
बालू पर खड़ा
मैंने उसे देखा,
हालचाल नहीं पूछा
मदहोश सा मन बना
वहीं छिड़क दिया,
आगे जा उसे भूल गया।
थोड़ी आगे बढ़ा
या नीचे गिरा,
किसी और को देखा
उसे जाना नहीं
पहिचाना नहीं,
अपने वर्तुल ख्यालों में डाल
उसे सोख लिया।
तरुण आसमान
और जवान धरती का
सच मैंने देखा।
बालू पर खड़ा
समय को निगलता
सन्ध्या को पीता,
समुद्र के नमकीन जल में
घुटनों तक डूबा,
घूँघट के पीछे
धुँधले प्रकाश के आगे,
उज्जवल उजाले की कामना में
मैं विलीन हो गया।
१५.
मन:
कब मन आसमान सा खुल जाय
पहाड़ों सा सुहावना हो
समुद्र सा उछाल ले ले।
न जाने कब वह
माँ का आँगन बन जाय,
पिता का स्वभाव हो जाय,
सच के लिए दौड़ पड़े
दया के लिए उमड़ पड़े,
स्नेह का अंग बन जाय।
न जाने किस क्षण वह
स्वभिमान की आग बने,
त्याग की प्रतिमूर्ति हो जाय।
घर से बाहर निकल
सुहावना मौसम बन जाय,
कब वह
तूफान सी उमंग दे दे,
ईश्वर की समझ दे दे,
बाहर के दिखावे में
अन्दर का सत्य ढूंढ ले।
सुख की दौड़ से हट
दुख में मिल जाय,
राष्ट्र की गरिमा के लिए
पौरुष बन जाय।
१६.
मातृभूमि:
मातृभूमि का कण-कण कहता
आरोहण हो दिव्य तुम्हारा,
नभ तक पहुँचे दृष्टि तुम्हारी
क्षण-क्षण जीवनदायी हो।
गंगा जैसा मन बहता हो
हिमगिरी जैसे जन ऊँचे हों,
सूरज जैसी आभा में
जगमग सबका मुखमण्डल हो।
अनन्त समय की व्यापकता में
मृदु मुस्कान तुम्हारी हो,
न्याय के दिव्य चक्र पर
खिला-खिला मन बैठा हो।
अथक पुण्य के कर्मों से
जीवन की सांस बनी हो,
वीर भाव में विजयी है विश्व
यह शाश्वत ज्ञान हमारा हो।
मातृभूमि का कण-कण कहता
सबसे बनता मान महान,
युग-युग तक जन-जन में
बहता सन्तों का सुरभित ज्ञान।
प्रिय भाव से एकबार तुम
मातृभूमि को करो प्रणाम,
जर्जर प्राणों में भर दो
नयी शक्ति का शाश्वत ज्ञान।
१७.
ईश्वर के मन को

ईश्वर के मन को
मैंने कुछ पकड़ा
कुछ देखा,कुछ समझा,
कुछ ऋतुओं में आते देखा।
उसे उम्र में ढलते पाया
आँसू में बह कर
मुस्कानों को छलते देखा।
उसके मन को
कुछ जिया,
कुछ खोजा,कुछ पाया।
उसे नदियों में बहते देखा
मन्दिर में आते देखा,
डोली में सजते देखा।
सुबह में उठता
सन्ध्या तक जाता,
सब में बैठा पाया।
उसे धरती पर फैला
आसमान में उड़ता,
युद्धों में डटता,
युद्धों में बँटता
शान्ति में रहते देखा।
वह युग-युग के आगे
हिम सी हँसी लिए,
अपनी आभा को
सबको देता आया।
१८.
चाहता हूँ:

चाहता हूँ
दिन प्यार में ही अस्त हो,
जीवन का अन्तिम कदम
गगन की दूरियां
पर्वतों की ऊँचाइयां
समुद्र की गहराइयां,
स्नेह में ही पार हों।
गाँव की पगण्डियां
शहर की सरगर्मियां
जंगल की परिच्छाइयां,
जीवन की सच्चाइयां
प्यार में ही पार हों।
परिवार की नजदीकियां
राष्ट्र की ऊँचाइयां
दुख की अनुभूतियां,
सुख की सन्तुष्टियां
मोह की दृष्टियां
स्नेह में ही सवार हों।
चाहता हूँ
जीवन स्नेह में ही अस्त हो,
साथियों का साथ भी
मनुष्य का संसार भी
रिश्तों का स्वभाव भी
मन का व्यवहार भी
प्यार में ही पार हो।
१९.
सुबह होते:

सुबह होते
मैं प्यार करने निकला
गाते हुए, गुनगुनाते हुए,
मन्दिर की आरती सा
घूमता रहा।
सीढ़ी पर बैठा
छाया में लेटा,
अपने सम्बन्धों को
दिन प्रतिदिन बढ़ाता हुआ,
प्यार में गुथता रहा।
सुबह होते
मैं काम पर निकला,
उत्साहित, अनुप्राणित
जीवन दर्शन के लिए,
रोटी के किनारे
मन को बैठाता।
घर के अन्दर
जीवन को बसाता,
मन्दिर के पास
चेतना को रखता हुआ,
पूजा की आरती सा
घूमता रहा।
२०.
जीवन बहता रहे:

जीवन बहता रहे
गंगा में बह
समुद्र में आ जाय,
समुद्र से निकल
आसमान में मिल जाय।
दुख से उड़
सुख में बैठ जाय,
वह अहं को भूल
मोक्ष को पा जाय।
तन के साथ
मन पढ़ ले,
स्नेह के भीतर
संसार भी रख ले।
जीवन बहता रहे
यात्रा से निकल
निवास पा जाय,
उजाले को पकड़
विमल हो जाय।
२१.
मैं जोगी हूँ:

मैं जोगी हूँ
उसके(ईश्वर) भीतर का
सहज मंत्र हूँ।
मेरी उत्पत्ति को
कहीं से ले लो,
मेरे अस्तित्व को
कहीं भी रख दो,
मैं तो जोगी हूँ।
चल फिर कर
खो जाता हूँ।
बर्फ सा होकर
जम जाऊँगा,
हवा सा बन
उड़ जाऊँगा,
सौन्दर्य के पास
रुक जाऊँगा।
घटनाओं से बना
दिनचर्या में बिखरा,
उत्पत्ति से जूझता
मैं तो जोगी हूँ।
कहीं भी मन रमा लूँगा,
सुख के सपनों में
खुद को बसा,
ईश्वरीय विवेक से
धरती पर रह लूँगा।
२२.
तथ्य:
मैं तुम्हारे पड़ोस में रह
तुमसे अनजान हूँ,
तुम मेरे प्रिय देश के हो
मेरे हरित प्रदेश के हो,
तुम मेरे जनपद के
विशिष्ट तथ्य हो।
राह का तुम्हारा घर
अन्दर-बाहर जाने की आहट,
झाँकती दृष्टि
अद्भुत कथानक हैं।
वर्षों की टकटकी
वसन्त के गिरते फूल,
पावस की उड़ती फुहार
गाड़ियों की सरसराहट,
दृष्टिकोण के स्तम्भ हैं।
तुम्हारी प्रश्न भरी दृष्टि
मेरे जनपद से निकल
गाँव तक पहुँची,
बुदबुदाती जिज्ञासा
विदेश से निकल,
देश में आ
हरित हो गयी।
२३.
बेटी ने कहा:

बेटी ने कहा
फ्राक लाना
गुलाबी रंग का,
गुलाबी न मिले तो
लाल रंग का,
लाल न मिले तो
नीले रंग का,
ये न मिलें तो
किसी भी रंग का
बड़े-बड़े घेर वाला,
जरूर लाना
भूलना मत।
उसी फ्राक के साथ
स्वयं को टटोलता,
बेटी तक पहुँचता
मैं दुकान में घुसा,
दुकानदार ने फ्राक निकाला
मुझे समझाया,
उसकी गुणवत्ता का इतिहास रचाया।
मैंने सोचा
फ्राक आयेगा,
उमंग उछलेगी
नन्ही बाँहों में
प्यार का घेरा बनेगा,
और बेटी का कहा वचन
पूरा हो जायेगा।