काँटों से खींच कर ये आँचल
रीता गुप्ता
अध्याय तीन
“रेगिस्तान में उगे किसी कैक्टस की ही भांति मेरा जीवन शुष्क और कंटीला है. संभल कर रहना अनुभा कहीं मेरे कांटे तुम्हें भी जख्मी ना कर दें”,
इन्होने कहा तो मैं चौंक गयी कि कैक्टस पर मेरा सर्वाधिकार नहीं है.
वे बोल रहे थें और मैं सोच रही थी कि इससे पहले किसने मुझसे इतनी आत्मीयता से बात किया होगा. उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया और विनीत हो कह उठे,
“मेरी बिखरी गृहस्थी को समेट लो, मैं अब थक गया हूँ तुम अब संभाल लो. सुलभा के जाने के बाद मैंने अपना तबादला उस जगह से करा लिया. नहीं थी मुझमें इतनी हिम्मत कि लोगो के सवालों के जवाब दूँ”
‘इनकी’ बड़ी बेटी दीक्षा की शादी कोई चार वर्ष पूर्व उसकी मर्जी से ही हुई थी. छोटा बेटा अक्षित, कोटा में मेडिकल की तैयारी कर रहा था.
“दीक्षा नाराज ना हो, मैं क्या करता? अकेलापन मुझे जीने नहीं दे रही थी. मैंने तो तुम्हे बताया ही था. माफ़ कर दो बेटा ....इसी शहर में होते तुमने छ महीनों से इधर का रुख नहीं किया.... ये तुम्हारा घर है बेटा....”, मैं इनकी कैफ़ियत सुनती रहती.
पर शायद मैं एक अहसास शून्य जीवन की आदि हो गयी थी. न किसी से लगाव न किसी से कोई नाराजगी. वक़्त गुजर रहा था, धीरे धीरे मैं इनकी ऑफिस की सपरिवार पार्टियों में जाने लगीं. बड़ा ही अटपटा लगता अन्य महिलाओं के बीच मुझे. मैं ज्यादातर चुप ही रहती. भला उनके बाल-बच्चों वाले प्रिय विषय पर मैं क्या बोलती. अपने बच्चों की शैतानियाँ, उनकी पढ़ाई-शादी की फ़िक्र आदि उनके प्रिय विषय होतें. फिर एक दिन ऐसी ही संगोष्ठी में किसके बच्चे को क्या पसंद है, पर महिलायें बात कर रहीं थीं. सबकी सुनते सुनते जाने कैसे मेरे मुंह से निकल गया,
“मेरे बेटे को तो गुलाब जामुन बेहद पसंद हैं पर बेटी तो चाट-पकौड़ियों की शौक़ीन है”
...और सच मैंने पहली बार उनके सानिद्ध्य को एन्जॉय किया. देर तक मेरे ही बोले शब्द ‘मेरा बेटा और मेरी बेटी’ गूंजते रहें मन में. एक स्नेह बंधन का नवान्कुरण होता सा महसूस हुआ. हां, सच मैं तो इन बच्चों की वैधानिक माँ ही हूँ. उस दिन पहली बार धरती से मानों एक नाल के जरिये जुड़ाव की अनुभूति हुई. दुनिया में मैं हूँ इस बात का एहसास अब सुखद लगने लगा.
“रविश ऐसा कैसे कर सकता है, उसने आज फिर तुम पर हाथ उठाया? उसकी माँ ने तुम्हे ऐसा क्यूँ कहा...?”, दीक्षा से बात करते हुए ये बेबस हुए जा रहें थें.
कुछ सवालों के बौछार आने लगी मन की खिडकियों से, कोई शब्द आ कर कानों में देर से शोर मचा रहा था, ‘माँ..माँ..माँ .. ‘ मैं सुन के चकित प्रसन्न, बढ़ कर इनका हाथ थाम लिया.
फिक्र ना करें, मैंने कुछ ऐसा ही कहना चाह था बिना लब खोलें.
“चलिए हमें दीक्षा के ससुराल जाना है, मैं अपनी बेटी को अब और दुखी नहीं छोड़ सकती”,
आश्चर्य से इनकी आँखे फैल गयी थी, अब तक अकेले ही जाते रहें थें. मैं सिर्फ गयी ही नहीं बल्कि उसकी सास और पति को ये जता कर आई कि हमारी बेटी हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है. दरअसल हम बिना बोलें ही उसकी ससुराल की देहरी पर पहुंचें ही थे कि उन अवांछित बोलों से हमारा सामना हुआ जो दहलीज पार कर आ रहें थें. लब्बोलुआब यही था कि वे दीक्षा को बाँझ कह कोस रहें थें. उसकी भाग गयी माँ को ले अनाप-शनाप बोल रहे थें, उसके पिता की दूसरी शादी को ले खिल्ली उड़ा रहें थें. मैंने आगे बढ़ दरवाजे के भिडके हुए चौखट को अनावृत कर दिया, साथ ही अनावृत हो गयें उनके कलुषित भाव. कोने में अपराधिनी सी खड़ी दीक्षा भौंचक सी हो गयी और मैं आगे बढ़ उसके गले लग गयी. हतप्रभ सी दीक्षा पीठ पर सहानुभूति का मरहम पाते ही मानों पिघल गयी. उसके आंसू मेरे ब्लाउज भिंगोने लगे. माँ बनने पर अमृत रस से स्त्रियों के ब्लाउज भींगते सुना था पर आज सच नम होता मेरा पीठ ही मुझे मातृत्व का वह एहसास दे गया. उसी क्षण मुझे अपनी समवयी पुत्री के जन्म का अनुभव हुआ.
“मैं दीक्षा को कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले कर जा रहीं हूँ, जब इसे बेहतर महसूस होगा तभी ये वापस आएगी”, बोल मैं उसके हाथ को पकड़ निकल आई.
***