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बासित

बासित

बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उस की कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उस को इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़ाहिश नहीं थी, इस के अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिस से उस की माँ उस की शादी करने पर तुली हुई थी। वो बहुत देर तक टालता रहा। जितने बहाने बना सकता था। उस ने बनाए, लेकिन आख़िर एक रोज़ उस को माँ की अटल ख़ाहिश के सामने सर-ए-तस्लीम ख़म करना ही पड़ा। दर-अस्ल इंकार करते करते वो भी तंग आगया था। चुनांचे उस ने दिल में सोचा। “ये बकबक ख़त्म ही हो जाये तो अच्छा है होने दो शादी। कोई क़ियामत तो नहीं टूट पड़ेगी....... मैं निभा लूंगा”।

उस की माँ बहुत ख़ुश हुई। लड़की वाले उस के अज़ीज़ थे और वो अर्सा हुआ उन को ज़बान दे चुकी थी। जब बासित ने हाँ की तो वो तारीख़। पक्की करने के लिए लड़की वालों के हाँ गई। उन्हों ने टाल मटोल की तो बासित की माँ को बहुत ग़ुस्सा आया। सईदा की माँ, मैंने इतनी मुश्किलों से बासित को रज़ामंद किया है, अब तुम तारीख़ पक्की नहीं कर रही हो। शादी होगी तो इसी महीने की बीस को होगी। नहीं तो नहीं होगी। और ये बात सोला आने पक्की है। समझ लिया”।

धमकी ने काम किया। लड़की की माँ बिल-आख़िर राज़ी होगई। सब तय्यारीयां मुकम्मल हुईं। बीस को दुल्हन घर में थी। बासित को गो वो पसंद नहीं थी, लेकिन वो उस के साथ निभाने का फ़ैसला कर चुका था, चुनांचे वो उस से बड़ी मुहब्बत से पेश आया। उस पर बिल्कुल ज़ाहिर न होने दिया कि वो उस से शादी करने के लिए तय्यार नहीं था और ये कि वो ज़बरदस्ती उस के सर मुंढ दी गई है।

नई दुल्हनें आम तौर पर बहुत शर्मीली होती हैं लेकिन बासित ने महसूस किया कि सईदा ज़रूरत से ज़्यादा शर्मीली है। उस के इस शर्मीलेपन में कुछ ख़ौफ़ भी था जैसे वो बासित से डरती है। शुरू शुरू में बासित ने सोचा कि ये चीज़ दूर हो जाएगी मगर वो बढ़ती ही गई। बासित ने उस को चंद रोज़ के लिए मैके भेज दिया। वापिस आई तो उस का ख़ौफ़ आलूद शर्मीलापन एक हद तक दूर हो चुका था। बासित ने सोचा एक दो मर्तबा और मैके जाएगी तो ठीक हो जाएगी। मगर उस का ये क़यास ग़लत निकला। सईदा फिर ख़ौफ़ज़दा रहने लगी।

बासित ने एक रोज़ उस से पूछा। “सईदा तुम डरी डरी क्यूं रहती”?

सईदा ये सुन कर चौंकी। “नहीं तो…… नहीं तो”

बासित ने उस से बड़े प्यार भरे लहजे में कहा। “आख़िर बात क्या है...... ख़ुदा की क़सम मुझे बड़ी उलझन होती है....... किस बात का डर है तुम्हें...... मेरी माँ इतनी अच्छी है.... वो तुम से सासों का सा सुलूक नहीं करती । मैं तुम से इतनी मुहब्बत करता हूँ...... फिर तुम ऐसी सूरत क्यूं बनाए रखती हो कि मालूम होता है तुम्हें ये ख़ौफ़ है कि कोई तुम्हें पीटेगा। ये कह कर उस ने सईदा का मुँह चूमा”।

सईदा ख़ामोश रही। उस की आँखें अलबत्ता और ज़्यादा ख़ौफ़ज़दा होगईं।

बासित ने उस को और प्यार किया और कहा। “तुम्हें हर वक़्त हंसती रहना चाहिए…… लो, अब ज़रा हंसो……. हंसो मेरी जान”।

सईदा ने हँसने की कोशिश की। बासित ने प्यार से उस को थपकी दी। “शाबाश!.......इसी तरह मुस्कुराता चेहरा होना चाहिए हर वक़्त”!

बासित की ये मुहब्बत ज़ाहिर है कि बिल्कुल मस्नूई थी, क्यूं कि सईदा के लिए उस के दिल में कोई जगह नहीं थी, लेकिन वो सिर्फ़ अपनी माँ की ख़ातिर चाहता था कि सईदा से उस का रिश्ता नाकाम साबित न हो... उस की माँ अपनी शिकस्त कभी बर्दाश्त न कर सकती। उस ने अपनी ज़िंदगी में शिकस्त का मुँह देखा ही नहीं था। इस लिए बासित की इंतिहाई कोशिश यही थी कि सईदा से उस की निभ जाये, चुनांचे अपने दिल में सईदा के लिए उस ने बड़े ख़ुलूस के साथ मस्नूई मुहब्बत पैदा कर ली थी। उस की हर आसाइश का ख़याल रखता था। अपनी माँ से सईदा की छोटी सी बात की भी तारीफ़ करता था। जब वो ये महसूस करता कि उस की माँ बहुत मुतमइन है, इस बात से मुतमइन है कि उस ने बासित का रिश्ता ठीक जगह है तो उस को दिली ख़ुशी होती।

शादी को एक महीना हो गया। इस दौरान में सईदा कई मर्तबा मैके गई। बासित को उस पर कोई एतराज़ नहीं था। वो समझता था कि यूं उस का ख़ौफ़ आलूद शर्मीलापन दूर हो जाएगा। मगर ऐसा न हुआ। ये दिन-ब-दिन बढ़ता चला जा रहा था। अब तो सईदा वहशत-ज़दा दिखाई देती थी। बासित हैरान था कि बात क्या है। उस के बारे में उस ने माँ से कोई बात न की इस लिए कि उसे यक़ीन था कि वो उस को डांट पिलातीं। “बकवास न करो। मुझे मालूम था तुम ज़रूर एक रोज़ इस में कीड़े डालोगे”।

बासित ने सईदा ही से कहा। “मेरी जान, तुम मुझे बताती क्यूं नहीं हो”।

सईदा चौंक उठी।“जी”?

उस के चौंकने पर बासित ने यूं महसूस किया जैसे उस ने सईदा की किसी दुखती रग पर ज़ोर से हाथ रख दिया था।लहजे में और ज़्यादा प्यार भर के उस ने कहा....

मैंने पूछा था कि अब तुम और ज़्यादा ख़ौफ़ज़दा रहने लगी हो। आख़िर बात क्या है।

सईदा ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद जवाब दिया। “बात तो कुछ भी नहीं……. मैं ज़रा बीमार हूँ”।

“क्या बीमारी है……. तुम ने मुझ से कभी ज़िक्र ही नहीं किया”।

सईदा ने दोपट्टे के किनारे को उंगली पर लपेटते हुए जवाब दिया। अम्मी जान इलाज करा रही है मेरा। जल्दी ठीक हो जाऊंगी”।

बासित ने सईदा से और ज़्यादा दिलचस्पी लेना शुरू की तो उस ने देखा कि वो हर रोज़ छुप कर कोई दवा खाती है। एक दिन जब कि वो अपने क़ुफ़्ल लगे ट्रंक से दवा निकाल कर खाने वाली थी। वो उस के पास पहुंच गया। वो ज़ोर से चूंकि। सुफ़ूफ़ की खुली हुई पुड़िया उस के हाथ से गिर पड़ी। बासित ने उस से पूछा। “ये दवा खाती हो”।

सईदा ने थोक निगल कर जवाब दिया। “जी हाँ…… अम्मी जान ने हकीम साहब से मंगवाई थी”।

“कुछ इफ़ाक़ा है इस से”।

“जी हाँ”!

“तो खाओ…… अगर आराम न आए तो मुझ से कहना। मैं डाक्टर के पास ले चलूंगा”।

सईदा ने पुड़िया फ़र्श पर से उठाई और सर हिला कर कहा। “जी अच्छा”।

बासित चला गया, उस ने सोचा। “अच्छा है, कोई इलाज तो हो रहा है। ख़ुदा करे अच्छी हो जाये। मेरा ख़याल है ये डर वर कुछ नहीं। बीमारी है...... दूर हो जाएगी इंशा-अल्लाह”!

उस ने सईदा की इस बीमारी का अपनी माँ से पहली बार ज़िक्र किया तो कहने लगी......

“बकवास है। ख़ुदा के फ़ज़ल ओ करम से अच्छी भली है। क्या बीमारी है उसे”?

बासित ने कहा। “मुझे क्या मालूम अम्मी जान?....... ये तो सईदा ही बता सकती है आप को”।

बासित की माँ ने बड़ी बे-परवाई से कहा। “मैं पूछूंगी उस से……”

जब सईदा से दरयाफ़्त किया तो उस ने जवाब दिया। “कुछ नहीं ख़ाला जान, सर में दर्द रहता था। अम्मी जान ने हकीम साहब से दवा मंगा दी थी। अस्ल में बासित साहब बड़े वहमी हैं...... हर वक़्त कहते रहते हैं तुम डरी डरी सी दिखाई देती हो... मुझे डर किस बात का होगा भला”।

बासित की माँ ने कहा। “बकवास करता है। तुम उस की फ़ुज़ूल बातों का ख़याल न करो”।

चंद रोज़ के बाद बासित ने महसूस किया कि सईदा बहुत ही ज़्यादा घबराई हुई है। उस का इज़्तिराब उस के रों रों से ज़ाहिर होता था। शाम के क़रीब उस ने बासित से कहा। “अम्मी जान से मिलने को जी चाहता है…… मुझे वहां छोड़ आईए”।

बासित ने जवाब दिया। “नहीं सईदा। आज तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं”।

सईदा ने इसरार किया। “आप मुझे वहां छोड़ आईए। ठीक हो जाऊंगी”।

बासित ने इंकार कर दिया। वहाँ तबीयत ठीक हो सकती है तो यहां भी ठीक हो सकती है। जाओ आराम से लेट जाओ”।

बासित की माँ आ गई। बासित ने उस से कहा। “अम्मी जान, देखिए सईदा ज़िद कर रही है तबीयत उस की ठीक नहीं, कहती है मुझे अम्मी जान के पास ले चलो”।

बासित की माँ ने बड़ी बे-परवाई से कहा। “कल चली जाना सईदा”।

सईदा ने और कुछ न कहा। ख़ामोश हो कर बाहर सेहन में चली गई। थोड़ी देर के बाद बासित बाहर निकला । सईदा सेहन में नहीं थी। उस ने इधर उधर तलाश किया। मगर वो न मिली। बासित ने सोचा ऊपर कोठे पर होगी। ऊपर गया तो ग़ुस्लख़ाने का दरवाज़ा बंद था।

खटखटा कर उस ने आवाज़ दी। “सईदा”!

कोई जवाब न मिला तो फिर पुकारा। “सईदा”!

अंदरसे बड़ी नहीफ़ आवाज़ आई। “जी”!

बासित ने पूछा। “क्या कर रही हो”।

और ज़्यादा नहीफ़ आवाज़ आई। “नहा रही हूँ”।

बासित नीचे आगया। सईदा के बारे में सोचता सोचता बाहर गली में निकला। मोरी की तरफ़ नज़र पड़ी तो उस में ख़ून ही ख़ून था और ये ख़ून उस ग़ुस्लख़ाने से आ रहा था। जिस में सईदा नहा रही थी। बासित के ज़ेहन में तले ऊपर कई ख़यालात औंधे सीधे गिरे। फिर ये गर्दान शुरू हो गई। “दवा…… ख़ून..... ख़ून...... दवा...... डर....... दवा....... ख़ून....... डर”!

फिर उस ने आहिस्ता आहिस्ता सोचना शुरू किया। सईदा की माँ शादी तारीख़ की पक्की नहीं करती थी। उस ने कहा था एक दो महीने ठहर जाओ....... सईदा का बार बार अपनी माँ से मिलने जाना....... उस का हर वक़्त ख़ौफ़ज़दा रहना। दवा खाना। और ख़ास तौर पर आज बहुत ही ज़्यादा वहशत-ज़दा रहना।

बासित सारा मुआमला समझ गया। सईदा पेट से थी। जब वो दुल्हन बन कर उस के पास आई थी। उस की माँ की ये कोशिश थी कि हमल गिर जाये। चुनांचे आज वो चीज़ हो गई। बासित ने सोचा। “क्या मैं ऊपर जाऊं। जा कर सईदा को देखूं....... अपनी माँ से बात करूँ”।

माँ का सोचा तो उस को ख़याल आया कि वो ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकेगी। वो अपने बेटे की आँखों में ज़लील होना कभी गवारा नहीं करेगी। ज़रूर कुछ खा कर मर जाएगी। वो कोई फ़ैसला न कर सका। अपने कमरे में गया और सर पकड़ कर बैठ गया।

कई बार उस को सईदा का ख़याल आया कि वो ख़ुदा मालूम किस हालत में होगी। उस के जिस्म पर, उस के दिल ओ दिमाग़ पर क्या कुछ बीता होगा और क्या बीत रहा होगा। कैसे इतना बड़ा राज़ छुपाएगी। क्या लोग पहचान नहीं जाऐंगे। जूं जूं वो सईदा के बारे में सोचता उस के दिल में हमदर्दी का जज़्बा बढ़ता जाता। उस को सईदा पर तरस आने लगा। “बेचारी, मालूम नहीं बेहोश पड़ी है या होश में है। होश में भी उस पर जाने क्या गुज़र रही होगी.......क्या वो नीचे आसकेगी”?

थोड़ी देर के बाद वो उठ कर सेहन में गया तो सईदा नीचे आई। उस का रंग बेहद ज़र्द था, इतना ज़र्द कि वो बिल्कुल मुर्दा मालूम होती थी। उस से ब-मुश्किल चला जाता था। टांगें लड़खड़ा रही थीं। कमर में जैसे जान ही नहीं थी। बासित ने उस को देखा तो उस पर बहुत तरस आया। अंदर से बुर्क़ा उठाया और उस से कहा। “चलो मैं तुम्हें छोड़ आऊं”।

सईदा ने बहुत हिम्मत से काम लिया। बासित के साथ चल कर बाहर सड़क तक गई बासित ने टांगा लिया और उस को उस की माँ के पास छोड़ आया। माँ ने उस से पूछा। “सईदा कहाँ है”?

बासित ने जवाब दिया। “ज़िद करती थी। मैं उसे छोड़ आया हूँ”।

बासित की माँ ने उस को डाँटा। “बकवास करते हो। ज़िद करने दी होती। तुम इसी तरह उस की आदतें ख़राब करोगे और फिर मुझ से कहोगो कि मैंने ग़लत जगह तुम्हारा रिश्ता किया था”।

बासित ने कहा। “नहीं अम्मी जान। सईदा बड़ी अच्छी लड़की है”।

उस की माँ मुस्कुराई। “मैंने तुम से कहा नहीं था कि वो बहुत नेक लड़की है तुम उसे ज़रूर पसंद करोगे”। फिर थोड़ी देर छालीया काटने के बाद एक दम बासित से मुख़ातब हुई। “और हाँ बासित ये ऊपर ग़ुस्लख़ाने में ख़ून कैसा था”।

बासित सिटपिटा सा गया। “वो…… कुछ नहीं अम्मी जान। मेरी नक्सीर फूटी थी”।

माँ ने बड़े ग़ुस्से के साथ कहा। “कमबख़्त गर्म चीज़ें न खाया करो……..जब देखो जेबें मूंगफली से भरी हैं”।

बासित कुछ देर अपनी माँ के साथ बातें करता रहा। वो उठ कर कहीं गई तो बासित ऊपर ग़ुस्लख़ाने में गया। पानी डाल कर उस को अच्छी तरह साफ़ किया। उस के दिल को इस बात का बड़ा इतमीनान था कि उस ने अपनी माँ से सईदा के मुतअल्लिक़ कोई बात नहीं की और न उस ने सईदा पर ये ज़ाहिर होने दिया कि वो उस का राज़ जानता है।

वो दिल में फ़ैसला कर चुका था कि सईदा का राज़ हमेशा उस के सीने में दफ़्न रहेगा। वो काफ़ी तकलीफ़ उठा चुकी थी। बासित के ख़याल के मुताबिक़ उस को अपने किए की सज़ा मिल चुकी थी। मज़ीद सज़ा देने का कोई फ़ायदा नहीं था। “ख़ुदा करे वो जल्द तंदरुस्त होजाए। अब उस के चेहरे पर वो उलझन पैदा करने वाला ख़ौफ़ नहीं रहेगा”। वो ये सोच ही रहा था कि नीचे उस की माँ की चीख़ की आवाज़ आई। बासित लौटा रख कर दौड़ा नीचे गया। सब कमरे देखे ।डेयुढ़ी में गया तो उस की माँ फ़र्श पर औंधी पड़ थी, मुर्दा। उस के सामने कूड़े वाले लकड़ी के बक्स में एक छोटा बहुत ही छोटा सा नामुकम्मल बच्चा कपड़े में लिपटा पड़ा था।

बासित को बेहद सदमा हुआ। उस ने पहले उस बच्चे को उठाया। कपड़े में अच्छी तरह लपेटा और अंदर जा कर बूट के ख़ाली डिब्बे में बंद कर दिया। फिर माँ को उठा कर अंदर चारपाई पर लिटाया और उस के सिरहाने बैठ कर देर तक रोता रहा।

सईदा को इत्तिला पहुंची तो उस को अपनी माँ के साथ आना पड़ा। वो उसी तरह ज़र्द थी। पहले से ज़्यादा निढाल। बासित को बहुत तरस आया। उस से कहा। “सईदा जो अल्लाह को मंज़ूर था होगया। तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं। रोना बंद करो और जाओ अंदर लेट जाओ”।

अंदर जाने के बजाय सईदा डेयुढ़ी में गई। जब वापिस आई तो उस का चेहरा हल्दी की तरह ज़र्द था। बासित ख़ामोश रहा। सईदा ने उस की तरफ़ देखा, उस की आँखों में आँसू थे। ये आँसू साफ़ बता रहे थे कि वो बासित का शुक्रिया अदा कर रही है......बासित ने उस से बड़े प्यार से कहा। “ज़्यादा रोना अच्छा नहीं सईदा… जो ख़ुदा को मंज़ूर था होगया”।

दूसरे रोज़ उस ने बच्चे को नहर के किनारे गढ़ा खोद कर दफ़्ना दिया।

29जुलाई1950 ई

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