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वफ़ाई लौट आई। झूले पर बैठ गई। एक स्वप्न, उस स्वप्न का चित्र जो जीत ने रचा था, वफ़ाई को विचलित कर रहा था। स्वप्न तथा उस के चित्र के संकेतों को समझने का प्रयास कर रही थी। अपने विचारों से, अपने प्रश्नों से वफ़ाई संघर्ष कर रही थी।
मुझे याद करना होगा मेरे स्वप्न के प्रथम क्षण से अंत तक।
वफ़ाई के मन में पूरा स्वप्न पुनरावर्तित हो गया।
इस स्वप्न एवं इस चित्र में कोई अंतर नहीं है। दोनों एक ही है इसमें कोई संशय नहीं है। मुझे जीत के लौटने की प्रतिक्षा करनी होगी। जीत, स्वप्न के विषय में मुझे तुमसे बात करनी है, चर्चा करनी है और तुम हो कि भाग गए।
जीत लंबे समय तक नहीं लौटा।
अपने विचारों से वफ़ाई का संघर्ष सम्पन्न हो गया। वह केनवास के समीप गई। वह कुछ चित्रित करने लगी। चित्र पूर्ण होने को ही था तब जीत लौटा।
“वहीं रुक जाओ, यहाँ नहीं आना।“ वफ़ाई ने आदेश दे दिया।
“कुछ अपराध हो गया मुझ से अथवा तुम मुझ पर क्रोधित हो?” जीत ने पूछा।
“हाँ भी, नहीं भी। किन्तु यहाँ नहीं आना है तुम्हें।“
“यदि आप अनुमति दें तो मैं झूले पर बैठ जाऊँ?”
“ठीक है किन्तु जब तक मैं यह चित्र पूर्ण ना कर लूँ, यहाँ नहीं आओगे तुम।“
“जो आज्ञा।“ जीत झूले पर बैठ गया। वफ़ाई को तथा वफ़ाई के भावों को वह निहारता रहा।
वफ़ाई के भाव कह रहे थे कि उसका चित्र रसप्रद एवं अनूठा होगा।
अंतत: वफ़ाई ने चित्र पूर्ण किया। तूलिका को रंगों के अंदर रख दिया और तीन चार कदम पीछे हट गई, अपने चित्र को निहारने लगी। वफ़ाई के अधरों पर स्मित था।
“मैंने भी कर दिखाया। यह बिलकुल समान है।“ वफ़ाई प्रसन्न थी।
“क्या मैं तुम्हारे चित्र को देख सकता हूँ? आप का स्मित बता रहा है कि चित्र सुंदर होगा।“
“ओह। श्रीमान चित्रकार मेरे चित्र को देखने के लिए उत्सुक है। यह तो मेरा सौभाग्य है।“ वफ़ाई हंसने लगी।
जीत केनवास की तरफ बढ़ने लगा,” रुको, रुको।”
“मैं तो...।”
“अपनी उत्कंठा को नियंत्रण में रखो। शीघ्र ही तुम इसे देख सकोगे।“
“अपने चित्र के विषय में कुछ कहो।“
“मैंने पुन: केनवास पर मेरा स्वप्न अंकित किया है।“
“क्या वह स्वप्न तुम्हारा है?”
“मेरा भी, तुम्हारा भी अथवा हम दोनों का भी। मैं स्पष्ट नहीं हूँ।“
“मुझे देखने दो।“
“वचन दो कि तुम क्रोध नहीं करोगे तथा भाग नहीं जाओगे।“
“मैं प्रयास करूंगा।“
“प्रयास नहीं, वचन दो।“
“मैं वचन नहीं दे सकता।“
“तो मैं इसे नष्ट कर देती हूँ। तुम इसे कभी नहीं देख पाओगे।“ वफ़ाई केनवास तक भागी, केनवास खींच निकाला। जीत वफ़ाई की तरफ भागा।
“रुको, रुको। उसे नष्ट ना करो। मुझे तुम्हारी सब बातें स्वीकार है।“
वफ़ाई उसे नष्ट कर ही रही थी, रुक गई।
“उसे पुन: चित्राधार पर रख दो। हम दोनों साथ में मिलकर कला का आनंद लेते हैं।“ वफ़ाई ने वैसा ही किया।
“वफ़ाई, अति सुंदर। यह तो सुखद आश्चर्य है।“जीत चित्र को देखकर कहने लगा,” यह झूला, झूले पर हम दोनों। झूला मंद मंद गति कर रहा है। मैं तुम्हें निहार रहा हूँ। तुम ने वही रात्रि वस्त्र पहने हुए हैं। तुम्हारी आँखों में भाव छलक रहे हैं। तुम्हारी लटें हवा में उड़ रही है। तुम गगन को देख रही हो जिस के आँचल में अर्ध-खिला चन्द्र है। धरती पर चाँदनी व्याप्त है। रात्रि शीतल तथा शांत है। यह सब क्या है, वफ़ाई?”
“यह स्वप्न है। मेरे स्वप्न का दूसरा हिस्सा है।“
“दूसरा हिसा?” जीत ने विस्मय से पूछा।
“तुमने मेरे स्वप्न का प्रथम भाग चित्रित किया था। मैंने मेरे स्वप्न का दूसरा भाग चित्रित कर दिया।“
“तुम्हारा स्वप्न? तुम्हारे स्वप्न का दूसरा भाग? वफ़ाई, वह मेरा स्वप्न था। और यह भी मेरे ही स्वप्न का दूसरा भाग है।“
“नहीं, यह मेरा स्वप्न है।“
“नहीं यह मेरा भी है।“
“यह कैसे संभव है? यह मेरा होगा अथवा तुम्हारा।“ वफ़ाई ने कहा।
“तुम्हारा तुम जानो, किन्तु पीछली रात्रि अथवा कहो कि आज भोर के समय मैंने जो स्वप्न देखा था वह बिलकुल ऐसा ही है। मेरे स्वप्न में तुम आँखों में निंद्रा लिए कक्ष से बाहर आई थी। तुम वहाँ खड़ी रह गई थी। हाँ, वहाँ। कक्ष तथा आँगन के मध्य में। तुम रात्रि के वस्त्रों में थी, जैसा मैंने चित्रित किया है।“ जीत ने अपनी बात कह दी।
“मैं वहाँ कुछ क्षण खड़ी रही वैसी ही मुद्रा में जैसी तुमने चित्र में रची है। तुमने मुझे बाहर आने को कहा था। मैं आई थी। तुम झूले पर थे। गगन को देख रहे थे। मैं तुम्हारे समीप झूले पर बैठी, तुम झूले से उठ गए। मैंने तुम्हें आग्रह किया कि तुम भी मेरे साथ झूले पर बैठो। तुमने थोड़े संकोच के पश्चात उसे स्वीकार किया। तुम मेरे साथ झूले पर थे जैसे मैंरे इस चित्र में है।“ वफ़ाई ने अपनी बात कही।
“हाँ, बिलकुल ऐसा ही हुआ था।“
“हाय अलल्हा, मैंने भी वही स्वप्न देखा था।“ वफ़ाई बोल पड़ी।
“अर्थात हम दोनों ने एक ही स्वप्न, एक ही समय पर, एक ही स्थान पर देखा था। यह तो अकल्पनीय है।“ जीत उत्साहित हो गया।
“जीत, तुम सत्य कह रहे हो। किन्तु क्या यह संभव है? ऐसा कभी सुना है?”
“नहीं, कभी नहीं। किन्तु यह सत्य है, और वास्तविक है। यह हमारे साथ हुआ है। हमने जो स्वप्न देखा है हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते।“
“ओह, कितना सुंदर। यह असाधारण है, यह अविश्वसनीय है। किन्तु सत्य है।“ वफ़ाई प्रसन्नता से नाचने लगी।
“मनुष्य जो स्वप्न देखता है उस के विषय में हम क्या जानते हैं? कुछ भी नहीं। स्वप्न की अनेक दिशाएँ होती है। अनेक मोड होते हैं। अनेक विकृति भी होती है। जैसा हम दोनों ने देखा, एक ही स्वप्न, ऐसा कभी किसी ने देखा होगा भी किन्तु कौन जानता है? हो सकता है ऐसा सेंकड़ों बार हुआ होगा, हजारों व्यक्तियों ने देखा होगा। किन्तु मानव इतिहास ने कभी कुछ नहीं कहा इस विषय में। यह अनूभव अनूठा है। स्वप्न के इस भाग से यह संसार अनभिज्ञ है। हमें यह सारे विश्व को बताना होगा। विश्व को जानने दो यह बात। हो सकता है स्वप्न के अभ्यास में यह किसी के काम आए। एक बार यदि कोई स्वप्न की भाषा, स्वप्न के संकेत पढ़ लेगा तो उस का अर्थ भी समझ लेगा।“ जीत ने उत्सुकता से वफ़ाई को देखा।
वफ़ाई अचंभित थी। वह कोई विचारों में थी, दूर कोई जगत में थी।
“वफ़ाई, तुम कहाँ हो? अपने स्वप्न के विषय में मैंने कुछ कहा। विश्व हमारे स्वप्न की प्रतीक्षा...।”
“विश्व से मेरा कोई संबंध नहीं है। मैं जगत की चिंता नहीं करती।“
“क्यों? इस से विश्व को लाभ होगा। उसे स्वप्न की भाषा...।”
“जगत को भूल जाओ। एक व्यक्ति जो इस स्वप्न को देखता है किन्तु उस का अर्थ नहीं समझ रहा है...।”
“क्या कहना चाहती हो तुम?”
“क्या तुम हमारे स्वप्न की भाषा को पढ़ सकते हो?”
“हाँ, अवश्य।“
“तो क्या निष्कर्ष है तुम्हारा?”
“यही कि यह संभव है कि दो भिन्न व्यक्ति एक ही स्वप्न देख...।”
“नहीं, तुम नहीं समझे।“
“तो?”
“कहो कि यह क्या संकेत दे रहे हैं? ऐसे स्वप्न का संदेश क्या है?”
“संदेश है कि, कि...।” जीत नहीं कह सका।
“कहीं मैंने सुना अथवा पढ़ा था कि पुरुष कभी भी भावनाओं की भाषा, उस की उत्कटता तथा प्रकृति के संकेतों को नहीं समझ पाता। यह बात तुम पर सत्य सिध्ध होती है।“
“वफ़ाई, मैं तुम्हारी बातों का अर्थ नहीं समझ रहा हूँ।‘
“यही तो समस्या है पुरुषों की। मुझे स्पष्ट कहना पड़ेगा कि पुरुष मूर्ख होते हैं। प्रीत एवं भावों का भेद कभी खोल नहीं सकते। प्रेम उसके लिए एक प्रश्न ही है जिस का उत्तर उसे नहीं आता। वह कभी उसका उत्तर पाने का प्रयास नहीं करता।“
“वफ़ाई, पुरुषों के लिए तो स्त्री ही एक प्रश्न है। एक रहस्य है, सदा के लिए। कोई उसे भेद नहीं पाया, आज तक। अत: तुम्हें जो कुछ भी कहना हो स्पष्ट शब्दों में कहो।“
वफ़ाई ने सीधे ही जीत की आँखों में देखा। वह द्रष्टि भिन्न थी, वह तीव्र थी, वह तीक्ष्ण थी। वह आँखों को भेद कर हृदय तक जा पहोंची।
वफ़ाई अनिमेष द्रष्टि से देखते देखते जीत के समीप जाने लगी। उसने दोनों के बीच रचे द्रष्टि के सेतु को टूटने नहीं दिया। वह धीरे धीरे जा रही थी। प्रत्येक कदम दोनों के बीच का अंतर घटा रहा था। दोनों के बीच का हिम पिघल रहा था। टूट रहा था। झरना बनकर बह रहा था वह हिम।
वफ़ाई जीत से एक हाथ जीतने अंतर पर थी। अभी तक की यह सबसे अधिक निकटता थी दोनों के बीच।
जीत विचलित हो गया, वह दो कदम पीछे हट गया। वफ़ाई और आगे बढ़ी। जीत और पीछे गया।
वफ़ाई जैसे जैसे जीत के समीप जाती थी, जीत पीछे हटता गया। वफ़ाई का प्रत्येक कदम द्रढ़ता से भरा था तो जीत का प्रत्येक कदम भय एवं दुविधा भरा था। दोनों के कदम चलते रहे।
अंत में जीत झुले तक आ गया, उस पर गिरते गिरते बचा। झूले को पकड़ लिया, गहरी सांस ली और बैठ गया। वफ़ाई झूले के समीप रुक गई, खड़ी हो गई, जीत को निहारने लगी। जीत वफ़ाई को देखते रहा।
कुछ समय तक वफ़ाई प्रतिमा की भांति खड़ी रही, फिर पलकें झुकाई, उठाई और दोनों के बीच का सेतु तोड़ दिया। जीत पर अंतिम द्रष्टि डाली और मूड गई, दूर चली गई।