हिम स्पर्श 55 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हिम स्पर्श 55

55

जीत वफ़ाई को देखता रहा। वह मार्ग पर दौड़ रही थी, जीत से दूर जा रही थी। जीत की आँखों से ओझल हो गई, रेत से भरे मार्ग पर कहीं खो गई।

समय रहते वफ़ाई लौट आई। जिस मार्ग से बावली बनकर वफ़ाई दौड गई थी, जीत अभी भी वहीं देख रहा था। बल्कि, जीत वफ़ाई के लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था।

“मेरी प्रतीक्षा कर रहे हो तुम जीत, तुम ने मुझे मोह लिया। कितना अदभूत अनुभव होता है जब कोई तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हो। समय के कुछ क्षण व्यतीत होने पर भी जीत, तुम वहीं खड़े हो, वही प्रतिक्षा भरी मुद्रा में।“ वफ़ाई स्वयं से कहने लगी।

“मेरे लिए समय कहीं गया ही नहीं। वह जैसे स्थिर हो गया हो। मेरी हथेली से एक भी क्षण सरका नहीं है, वफ़ाई।“ जीत भी स्वयं से कहने लगा।

“कितनी सुंदर अनुभूति है?”

वफ़ाई रूक गई, आँखें बंध कर खड़ी रह गई।

जीवन के यह क्षण कितने अमूल्य है। समय के यह क्षण, तुम यहीं रुक जाओ। तुम्हें ज्ञात है, जीत एक मात्र व्यक्ति है जो मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। यह अदभूत है, यह अनुपम है, यह उत्तेजना पूर्ण है। जीत, तुम प्रति दिन, प्रति समय मेरी इसी प्रकार से प्रतीक्षा करते रहो। जब जब मैं इस मरुभूमि में दौड़ जाऊँ, मरुभूमि में खो जाऊँ, तब तब।

“वहाँ रुको नहीं, वफ़ाई। अंदर आ जाओ। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।“ जीत ने वफ़ाई को पुकारा।

मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। कितना सुंदर ध्वनि है यह? इस धरती के सबसे सुंदर शब्द हैं यह। कितने शाश्वत, कितने अलौकिक? यह क्षण अमूल्य है। जीत, इस बात पर धन्यवाद।

जीत ने स्मित से स्वागत किया। वफ़ाई ने स्मित से उत्तर दिया। दोनों स्मित का संगम हो गया, जैसे नदी एवं समुद्र का संगम हो! संगम के पश्चात दोनों मौन हो गए।

लंबे मौन के पश्चात वफ़ाई ने पूछा,” जीत, तुम स्वप्न देखते हो?”

“हाँ, अवश्य देखता हूँ।“

“पिछली बार कब देखा था कोई स्वप्न?”

“मैंने तो आज ही देखा था, प्रभात के पहले प्रहर में।“

“ओह, क्या था वह? अपने स्वप्न के विषय में कुछ कहो, जीत।“

जीत कुछ समय तक विचार करता रहा। अनेक भाव उसके मुख पर थे। वह दुविधा में था कि स्वप्न के विषय में कहें अथवा न कहें।

“क्या बात है? कोई कुरूप स्वप्न देखा था क्या?”

“नहीं। नहीं।”

“तुम उस से भयभीत हो?”

“कभी कभी हम बातों से भयभीत नहीं होते हैं, किन्तु यह...।“

“जीत, यदि तुम किसी नए ज्ञान की बात करने जा रहे हो तो मुझे रुचि नहीं है।“

“किस में रुचि नहीं है?”

“तुम्हारे वह ज्ञान एवं तुम्हारे वह स्वप्न दोनों में। जाने दो, कुछ भी ना कहो।“

“क्रोधित नहीं होना है तुम्हें। मैं यह कर सकता हूँ कि...।“

“क्या कर सकते हो तुम, जीत?”

“मेरे स्वप्न को मैं केनवास पर प्रकट कर सकता हूँ, तुम उसे केनवास पर देखना चाहोगी?”

“तुम कहीं परिहास तो नहीं कर रहे?”

“नहीं तो। क्यों ऐसा पुछ रहे हो?”

“मैंने मेरा स्वप्न केनवास पर प्रकट किया था जो खाली था। कहीं तुम वही तो नहीं करने जा रहे?”

“मैं उसे वास्तव में चित्रित करूंगा। मेरे स्वप्न को केनवास पर प्रकट होने दो। थोड़ी प्रतीक्षा कर लो।“

“तो तुम भी मानते हो कि स्वप्न को चित्रित किया जा सकता है?”

“यह मेरा अनुमान है।“ स्मित करता हुआ जीत चित्राधार तक गया, केनवास बदला, रंगों को मिश्रित किया, और उन्हें केनवास पर उतारने लगा।

जीत को केनवास पर छोड़ कर वफ़ाई कक्ष में अद्रश्य हो गई।

()()()

“वफ़ाई बाहर आ जाओ, मेरा स्वप्न प्रकट हो चूका है।“

वफ़ाई दौड़ी चली आई केनवास तक किन्तु चित्र को देख नहीं पाई क्यों कि जीत ने चित्र को अपने पीछे छुपा रखा था।

“जीत, बाजू पर हट जाओ। तुम्हारा स्वप्न दिखाई नहीं दे रहा।“ वफ़ाई उत्सुक थी।

“धैर्य रखो। मेरा स्वप्न तथा यह केनवास कहीं भाग नहीं जाएँगे। दोनों यहीं रहेंगे। भाग जाना उसका स्वभाव नहीं है।“

“किन्तु मैं तो...।”

“तुम भी कहीं नहीं जाने वाली हो। कुछ क्षण प्रतीक्षा करो। पहले मुझे वचन दो कि तुम मेरे स्वप्न तथा मेरे चित्र को देखकर नाराज नहीं होगी, क्रोधित नहीं होगी।“

“मैं कोई वचन नहीं दूँगी आज। आज मैं बावली हो गई हूँ। मैं नहीं जानती कि आज मैं कैसा व्यवहार करूंगी अथवा मेरा बावलापन मुझ से क्या करवाएगा।“

“हे ईश्वर, मेरी रक्षा करना।“ जीत ने प्रार्थना की।

“टालो मत, अब दिखा ही दो। केनवास पर स्वप्न देखने को मैं आतुर हूँ। मैंने कभी स्वप्न को किसी आकार में, किसी आकृति में नहीं देखा। वह कैसे दिखते हैं, दिखाओ ना?” वफ़ाई ने जीत का अतिक्रमण करने का प्रयास किया।

“अवश्य। किन्तु जिस समय तुम मेरे स्वप्न को देखो उस समय मैं यहाँ से भाग जाना चाहूँगा। मेरे स्वप्न को मेरी अनुपस्थिति में ही तुम अनुभव करो।“

“तुम क्यों भाग जाना चाहते हो?”

“दो कारण है। एक, भाग जाने का अधिकार केवल छोकरियों का ही नहीं है। छोकरे भी भाग सकते हैं। क्या केवल वफ़ाई को ही भागने का अधिकार है? मैं यह सिध्ध करना चाहूँगा कि जीत भी भाग सकता है।“

“तुम मुझे चिड़ा रहे हो। मुझ पर व्यंग कर रहे हो। मैं कभी नहीं भागने वाली। तुम भागने का प्रयास कर सकते हो। वह तुम्हारी पसंद होगी। मैं तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा करूंगी, यहीं, तुम्हारे इसी घर में। दूसरा कारण क्या है?”

“दूसरा, मेरे स्वप्न का आकार तुम्हें विचलित कर सकता है। तुम उसे सह ना भी...।“

“यह भी कोई उचित कारण नहीं है। भागने से तो अच्छा है कि चित्र देखने के पश्चात यहीं खड़े रहकर मेरे मुख को देखो। मेरे भावों को, मेरी प्रतिक्रियाओं को, मेरे प्रश्नों को, मेरे विस्मय को देखो। वह क्षण अमूल्य होंगे। मेरा अनुरोध है कि तुम उन क्षणों को चुको नहीं। मैं यह तुम पर छोड़ती हूँ। आशा है तुम विवेकपूर्ण निर्णय करोगे। चलो, अब हटो और दलीलों में समय व्यर्थ खोये बिना मुझे चित्रित स्वप्न देखने दो।“ वफ़ाई अधीर हो गई।

मन तो करता है कि तुम्हारा हाथ पकड़ कर तुम्हें खींच लूँ। किन्तु इस तरह तुम्हें स्पर्श करना तुम्हें उचित ना लगे, जीत। मुझे मेरी भावनाओं को नियंत्रित करना होगा। मौन हो कर प्रतीक्षा करनी होगी।

“देख लो उस के आकार को, उसके रूप को।“ जीत स्वयं ही हट गया।

केनवास दिखने लगा। चित्र भी।

“क्या?” चित्र देखते ही वफ़ाई चौंक गई। उसकी आँखें खुली रह गई। परिचित एवं अपरिचित भाव मुख पर आ बसे। विस्मय वहाँ नृत्य करने लगा। सभी भाव वफ़ाई की संवेदना के साथ घुल गए।

वह केवल इतना ही कह सकी,”ओ...ह..।“

वफ़ाई के अधर अर्ध खुले रह गए। वह चित्र पर स्थिर हो गई, स्वप्न के आकार पर अटक गई। स्वप्न की मुद्रा से अचंभित रह गई।

स्वप्न का ऐसा भी आकार होता है क्या? यह आकार अकल्पनीय है। यह मेरी छवि है, मेरी अपनी छवि। मैं घर के आँगन पर खड़ी हूँ। ना घर के अंदर, ना घर के बाहर। द्वार के बिलकुल मध्य में। मेरा दाहिना हाथ दीवार पर है, बांया हाथ हवा में है। मैं ना तो निंद्रा में हूँ ना जाग रही हूँ। मैं रात्रि के वस्त्रों में हूँ। इन वस्त्रों के रंग, इन के चित्र भी वही है जो मेरे रात्रि के वस्त्र में है। यह वस्त्र तो जीत ने कभी देखे ही नहीं। कल रात्रि मैं जिस मुद्रा में थी वही मुद्रा है। यह तो मेरे स्वप्न की प्रतिकृति है, प्रतिबिंब है। यह कैसे संभव हो सकता है? एक ही रात्रि में, एक ही समय पर दो भिन्न भिन्न व्यक्ति एक ही स्वप्न को, एक ही आकार में तथा एक ही रंग में कैसे देख सकता है?

स्वप्न क्या है? हम स्वप्न क्यों देखते हैं? कैसे देखते हैं? वह क्या प्रतिबिम्बित करते हैं? वह क्या सूचित करते हैं? वह क्या संदेश देते हैं?

स्वप्न सदैव मानव को कुछ संदेश देते हैं। हमें उसके अर्थ ढूँढने होते हैं। स्वप्न की अपनी भाषा होती है। उसे सीखना चाहिए, पढ़ना चाहिए। क्या वह भविष्य के जीवन का मार्ग दर्शक है? मुझे मेरे स्वप्न को, जीत के इस चित्र को समझना होगा।

यह आश्चर्य है। यह आनंदपूर्ण आघात है। वफ़ाई के मुख पर भावों का सागर उमड़ने लगा।

यह कैसा भाव है? एक तरफ आनंद है तो दूसरी तरफ दुविधा भी। अनेक प्रश्न जागे हैं मेरे मन में, मुझे उन सब के उत्तर पाने होंगे।

एक ही स्वप्न, एक ही समय पर दो भिन्न व्यक्ति देखते हैं। दोनों उस स्वप्न का हिस्सा है। ऐसा कभी हुआ नहीं, कभी सुना नहीं। वफ़ाई अभी भी चित्र पर अटकी हुई थी।

क्या यह संभव है? क्या यह सत्य है अथवा अभी भी मैं स्वप्न में हूँ?

वफ़ाई जीत की तरफ मुड़ी। वह दूर खड़े वफ़ाई के भावों को, मनोव्यापार को देख रहा था।

वफ़ाई ने जीत की आँखों में देखा।

“जीत, तुमने तो कभी मेरे प्रति तुम्हारे मन के भावों को व्यक्त नहीं किया। तुम तो प्रत्येक बार मौन ही रहे। आज तुम पकड़े गए हो। तुम्हारे भावों को, तुम्हारे संवेदनों को, तुम्हारे प्रेम को यह चित्र व्यक्त कर रहा है। यह चित्र मौन रहना नहीं जानता।“ जीत वफ़ाई से द्रष्टि मिला नहीं पाया।

“मुझे अब यहाँ से भागना होगा।“ जीत भाग गया। वफ़ाई से, घर से, अपने चित्र से, अपने स्वप्न से वह कहीं दूर चला गया। वफ़ाई ने उसे नहीं रोका। रेत से भरे मार्ग पर दौड़ते हुए जीत को वह देखती रही। कुछ क्षण वह अनिमेष खड़ी रही, जैसे कोई प्रतिमा हो। एक ऐसी प्रतिमा जिसे हृदय हो, भाव हो, श्वास हो तथा स्वप्न भी हो।