हिम स्पर्श 48 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हिम स्पर्श 48

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“गाँव को छोड़ने के पश्चात पहली बार किसी पर्वत को देख रही हूँ। हे काले पर्वत, तुम अदभूत हो।“ वफ़ाई काले पर्वत से मोहित हो गई। वह किसी भिन्न जगत में चली गई। जीत ने उसे उस जगत में रहने दिया।

“जीत, जीप की गति बढ़ाओ ना। मैं शीघ्र ही...।“ वफ़ाई लौट आई इस जगत में।

“वफ़ाई, पर्वत पर पहोंचने से पहले पर्वत के प्रत्येक कण की अनुभूति तुम ले सको इसी लिए मैं जीप धीरे धीरे चला रहा हूँ।“

जीप धीरे धीरे पर्वत के निकट जा रही थी। पर्वत वफ़ाई में धीरे धीरे उतर रहा था।

"जीत, जीप चल भी रही है अथवा स्थिर सी रुकी हुई है?”

“मैं तुम्हारी अधीरता समझ सकता हूँ।“ जीप द्रुत गति से चलाने लगी।

“रुको। रुको। जीत, रुको।“ वफ़ाई अचानक चीखी। जीत ने जीप को रोक लिया।

“एक क्षण पहले तो तुम जीप की गति बढ़ाने को कह रही थी। क्या बात है?” वफ़ाई मौन थी। किन्तु पीछे से गाड़ियों के हॉर्न की ध्वनि आ रही थी।

“ओह, मैंने जीप बीच मार्ग पर रोक ली है। इसे एक तरफ ले लूँ।“ जीत ने जीप को मार्ग से हटा लिया। सभी वहाँ से चले गए किन्तु वफ़ाई के मुख पर भाव अभी भी स्थिर थे। जीत उसे समझ नहीं पाया।

जीत जीप से बाहर आ गया। पर्वत के जिस बिन्दु को वफ़ाई देख रही थी जीत वहाँ देखने लगा।

“वह तो मंदिर है। वफ़ाई इस मंदिर को ही देख रही है। इस मंदिर में क्या बात है जो वफ़ाई उसे देखते ही मौन हो गई?”

जीत ने जीप का द्वार खोला और वफ़ाई को बाहर आने को कहा। वह बाहर आ गई। वह अभी भी दुविधा में थी, मौन थी।

“वफ़ाई, कभी कभी मौन रहस्य का सर्जन कर देता है। उसे शब्दों से भेदना ही उचित होगा।“

“जीत, तुम ठीक कह रहे हो। मैं भी उसे भेदना चाहती हूँ किन्तु विफल हो गई हूँ।“

“जब तुम किसी स्थिति को समझने की स्थिति में नहीं हो तो साथी से सहायता मांगनी चाहिए। स्वयं उस स्थिति से लड़ लो अथवा किसी पर उस का भार डाल कर निश्चिंत हो जाओ। पसंद तुम्हारी।“

“जीत, यह सुझाव है अथवा आमंत्रण?”

“दोनों। चलो कहो क्या बात है? समय व्यतीत होता जा रहा है। अनेक काम करने हैं हमें यहाँ।“

“वहाँ देखो। पर्वत पर एक मंदिर है।“

“है। तो क्या हुआ?”

“वह हिन्दू मंदिर है।“

“मंदिर हिंदुओं के ही होते हैं, चर्च इसाइयों के, मस्जिद मुस्लिमों की तथा गुरुद्वारे सिखों के ही होते हैं। तो?”

“किन्तु मैं तो मुस्लिम हूँ, हिन्दू नहीं।“

‘तो?”

“मंदिर के कारण मैं पर्वत पर नहीं आउंगी।“

“यदि किसी स्थान पर मंदिर अथवा अन्य धर्म का पवित्र पुजा स्थान होगा तो तुम वहाँ नहीं जाओगी। है ना?”

“हाँ, मैं सभी पवित्र स्थानो का सम्मान करती हूँ। तो उचित तो यही रहेगा कि मैं उस से दूर ही रहूँ।“

“तुम मानती हो कि तुम जहां जाओगी वहाँ यदि अन्य धर्म के स्थान होंगे तो तुम्हारा वहाँ जाना उस स्थान का अपमान होगा?”

“यही तो। तुम मेरी बात भली भांति समझ गए।“

“असत्य। बिलकुल असत्य बात कर रही हो तुम, वफ़ाई।“

“कैसे? क्या अर्थ है तुम्हारा?” वफ़ाई ने अधीरता दिखाई।

जीत हंस पड़ा।

वफ़ाई मन में बोली, जीत जब भी किसी गंभीर बात पर हंस देता है तब निश्चय ही उसके पास कोई सशक्त तर्क होता है। उसके पश्चात दलील का अवकाश नहीं रहता। किन्तु इस बार तुम्हारे पास कोई तर्क नहीं है, जीत। इस बार मैं हार नहीं मानूँगी। तुम से दलीलें करती रहूँगी।

जीत ने हँसना रोक लिया,”तुम्हारे पर्वत वाले गाँव में कोई मंदिर, चर्च अथवा अन्य धार्मिक स्थल है? अथवा केवल मस्जिद ही है?”

“हनुमानजी का तथा कोई देवी का एक मंदिर है।“

“कोई अन्य स्थान?”

“नहीं, और कोई नहीं।“

“तो तुम उस पर्वत पर नहीं जाती हो क्यों कि वहाँ मंदिर है।“

“ऐसा नहीं है। मैं मंदिर नहीं जाती, पर्वत पर तो जाती हूँ। मैं उसी पर्वत पर तो रहती हूँ जहां यह सब मंदिर है।“

“तो इस पर्वत पर जहां मंदिर है, जाने मैं क्या समस्या है?”

“किन्तु मैं मंदिर कैसे जा सकती हूँ?”

“धन्यवाद। तुम पर्वत पर तो आ रही हो।“

”किन्तु मैं मंदिर में प्रवेश नहीं करूंगी।“

“क्यों नहीं जाओगी? कोई रोकता है क्या? ऐसा कोई नियम है कि जो हिन्दू नहीं है वह मंदिर नहीं जा सकते? अथवा तुम्हारा धर्म तुम्हें अन्य धर्मों के स्थान पर जाने से रोकता है?” जीत का तर्क था।

“मैं नहीं जानती। किन्तु मैं कभी भी अन्य धर्मों के स्थान पर नहीं गई। वर्षों से, कहो की जन्म से आज तक, किसी ने मुझे ऐसा करने के लिए प्रेरित भी नहीं किया। ऐसा विचार करने की भी स्वतन्त्रता नहीं मिली कभी। यह विषय असपृश्य रहा है। इस पर बात करने की भी अनुमति नहीं है।“

“कई बात ऐसी होती है जो हमने भूतकाल में नहीं की होती है, इसका अर्थ यह नहीं कि बाकी के जीवन में भी हम वह नहीं कर सकते अथवा नहीं करेंगे। जीवन के किसी भी बिन्दु पर कोई नई बात, कोई नया काम कर सकते हैं। तुम कभी मरुभूमि में नहीं आई, ना ही कभी इस रेत से संबंध था तुम्हारा। किन्तु आज तुम हो इस मरुभूमि में।“

“तुम सत्य कह रहे हो किन्तु एक मुस्लिम छोकरी होते हुए मुझे संकोच होता है।”

“गोड, अल्लाह अथवा भगवान कभी भी अन्य धर्म के भक्तों में भेद नहीं रखते। कोई दंड भी नहीं करते।“

“इसमें तुम्हारा पूर्ण विश्वास है? मैं पापी नहीं बनना चाहती।“

“तुम्हारे सभी पाप मैं मेरे माथे पर ले ने को तैयार हूँ। उसे मेरे माथे पर भेज दो। तुम्हारे सभी पापों को मैं धारण करता हूँ।“

“तुम बड़े कृपालु हो, जीत।“ वफ़ाई ने स्मित किया।

“तो तुम पर्वत पर आ रही हो।“

“हाँ, किन्तु मंदिर में नहीं।“

“अब क्या हो गया? गई भेंस पानी में।”

“मैं छोकरी हूँ। ऐसे कई धर्म स्थल है जहां छोकरी अथवा स्त्री को प्रवेश नहीं दिया जाता। हमारे धर्म में भी यही नियम है। कई धर्मों में स्त्रीयों के अलग धर्म स्थल भी होते हैं।“

“तुम्हारी बात से सम्मत हूँ। किन्तु यह बात पुरानी हो गई। समय एवं विचार बदल चुके हैं। हिम खूब पिघल चुका है। अब यह प्रतिबंध हट गए हैं। तुम्हें अनुमति है। आशा है तुम्हारे सभी संशयों का समाधान हो गया होगा। तुम मेरे साथ मंदिर भी आ रही हो।“ जीत जीप में बैठ गया, वफ़ाई की प्रतीक्षा करने लगा। वह अभी भी वहाँ खड़ी थी। उस की भाव भंगिमा कह रही थी कि जीप में चलने का उसका कोई आशय नहीं था। वह अभी भी कोई दुविधा में थी जिसे जीत समझ नहीं पा रहा था।