Kaash aap kamine hote - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

काश आप कमीने होते ! - 6

काश आप कमीने होते !

उमानाथ लाल दास

(6)

समझता तो वह भी था कि जीवन इससे चलनेवाला नहीं, लेकिन यह समझदारी किसी काम की नहीं थी। वह उस रास्ते पर चल नहीं सकता था, जहां रिलीज से पैसे झड़ते और स्टोरी सेरुपए। एक्सक्लूसिव का मतलब अब वैसी खबर से था जिससे किसी विभाग या प्रतिष्ठान का कोई वित्तीय नुकसान न हो रहा हो। विभागों व अधिकारियों की उपलब्धियों का ढिंढोरा ही एक्सक्लूसिव रह गए थे। हां किसी एजेंडा के तहत जरूर कभी-कभी खबर नुमा खबर छपती रहती। वह जानता था कि उसके नीचे काम करनेवाले सोहन के घर में ऐशो आराम के सारे सामान कहां से बरस रहे हे। पहले सिन्हा जी ने इस पर गौर नहीं किया था। जबसे बीवी ने झिड़की दी है तब से वह इस पर सोचने लगे। जिसे दो लाईन हिंदी या अंग्रेजी लिखने नहीं आती, विधि संवाददाता बनकर तो वह किसी रईस से कम नहीं। कार से आता है प्रेस। बीवी के सामने भीगी बिल्ली बनकर कोई यूं ही नहीं रहता। मार्च आते-आते घर मे शीतयुद्ध का माहौल रहता था। घर में बच्चों को डीएवी, डीपीएस टाईप के स्कूल मे भरती करने की बात उठती। इस पर वह सरकारी स्कूल में पढ़ाने की बात करते। क्वालिटी एजुकेशन की बात करके बहस मे यह साबित करने की कोशिश करते कि घर मे परवरिश कायदे की हो तो बच्चा मां-बाप के संघर्ष को करीब से देखकर ही बहुत कुछ सीख जाता है। मिसाल मे वे ठाकुर जी का नाम लेते। ननमैट्रिक ठाकुर जी को कोई इज्जतवाली नौकरी मिल नहीं सकती थी। ऐसे मे पंडिताई का सहज रास्ता निकल जाता। साधु के भेस में दूर-दूर का सफर करते। बेटिकट ट्रेन में लोगों से मांगते भी हिचक नहीं होती। नई जगहों मे फिर हो जाते शुरू कथावाचक के रूप मे। पंडिताईन दूर-दूर के इलाकों में घरों मे दाई का काम करती। मोहल्ले में प्रचारित रहता कि अस्पताल में काम करने जाती है। सिर्फ जिद के बल पर थर्ड डिविजनर बेटे को इंजीनियर बनाकर ही माना। मंगनी का ट्यूशन जहां भी मिलता उसकी ताक मे रहते। प्रसाद जी के बड़े भाई कभी आईएसएम के प्रोफेसर से तो कभी बीआईटी सिंदरी या आरएसपी के प्रोफेसर डीएल दास से फ्री ट्यूशन ठीक कर देते। बेटा भी था कि दस-दस किमी, बीस-बीस किमी दूर साइकिल की सवारी करके ट्यूशन पढ़ने जाता। आज उसी पंडिज्जी का बेटा दिल्ली मेट्रो मे इंजीनियर बन गया। दूर-दूर के इलाकों में यह किस्सा लोगों की जुबान पर बस गया है। कहीं दूर नहीं, इसी बरमसिया की तो यह बात है। दास जी का भी तो दो-दो बेटा इसी तरह इंजीनियर बन गया। कहां डीएवी और राजकमल का मुंह इन लड़कों ने देखा। डीपीएस तो फिर भी बहुत दूर की बात है। लेकिन औरत तो ठहरी औरत ही। उसका दीमाग तो बस किलोमीटर दो किलोमीटर से आगे जाता नहीं। घर मे चख-चख मची रहती। बेटा जब स्कूल को तैयार होकर निकलता तो सिन्हाजी सोये रहते और दफ्तर से दो-तीन बजे रात जब घर लौटते तो बेटा सोया रहता। महीना – महीना हो जाता दोनों को भेंट हुए। लेकिन बीवी तो चौबीसों घंटे तैयार मिलती। रात तीन बजे हो या एक बजे। घर जब भी पहुंचते खाना गरम करके खिलाने को जगी बैठी मिलती। हर आहट पर आंख खुल जाती। लगता कि अब आए, अब आए। सोफा पर बैठे-बैठे आधी रात कट जाती और फिर शेष रात बहस मे। इतने मे तो फिर सुबह हो जाती। बच्चों को तैयार करने का वक्त आ जाता। आखिर ऐसी बीवी का हक तो बनता ही है सपना देखने का। बच्चों को बनाने के लिए उन्हें वक्त देने का हक तथा एक अच्छा स्कूल देने के नाम पर बहस करने का हक। इसी चक्कर मे कभी-कभी महीनों तक दोनों की बातचीत बंद हो जाती।

साथियों के बीच बहुत मशहूर डायलाग था – journalist lives like god & dies like a dog. मस्ती करते हैं फाईव स्टार होटलों मे और मरते हैं फुटपाथ पर। आखिर उमेश श्रीवास्तव, मदनसागर को मौत इसी रास्ते ने अपना निवाला बनाया। छह माह से पैसे के बिना चल रहे पत्रकार उमेश श्रीवास्तव की शिकस्ती को कौन नहीं जानता। जवान बेटी घर मे शादी के लिए थी। वेतन का नामो निशान नहीं था। मौत हुई तो पता चला कि भूख से मर गए। मदन सागर को इसी शराब की लत ने कहीं का नहीं छोड़ा। पहले तो होनहार शायरी अंधेरी गुफा मे गई, फिर गुमनाम मौत हुई। और अभी क्या हो रहा है। सच में शायद ही कोई रात हो जब सिन्हा जी को शराब नसीब न होती हो। हर दो-तीन दिन पर शानदार होटल मे प्रेस कांफ्रेंस। तोशानदार पार्टी तो ऐसे ही मिल जाती। एक दिन तो क्या हुआ कि उसी विचारवर्द्धन के पीछे – पीछे एक हाथ में बोतल और दूसरे हाथ में लिट्टी, चोखा प्याज। शहर की हृदयस्थली में चौक पर रात के दो बजे घुप्प अंधकार में जो बाईक की रोशनी पड़ी तो सिन्हा जी का निस्तेज चेहरा चमक उठा। चौंधियाती रौशनी से आंख बचाने की कोशिश थी या झेंप, पर वे इधर-उधर कन्नी काटने लगे थे। ये सब तो तब था जब कि वह डेस्क पर थे। वसूली संस्कृति के पत्रकारों को तो किसी बात की कमी नहीं होती। लेकिन इस सबसे बाहर कीदुनिया मे एक बेहतर संबोधन मिल जाता- पत्रकार जी और बहुत हुआ तो रिपोर्टर साहब। पर जैसे ही चलते-चलते मनईटांड़ पहुंचते, पथराकुल्ही, बरमसिया, गोविंदपुर पहुंचते, लोगों को यह समझाना बड़ा मुश्किल होता कि रात में प्रेस में छपाई के सिवा और कौन सा काम होता है। लोग यही मानते कि प्रेस बाबू छपाई का काम करते हैं यानी मशीन का काम करते हैं।

और बीवी के पास अपनी जरूरत और इच्छा का तराजू रहता तौलने के लिए। दिन के भागमभाग और रात्रि जागरण के बाद नसों मे कितनी ताकत होती बेड टाईम के लिए! पीठ करके सोने के सिवा कोई चारा न बचता। एक ऐसा परास्त पति अपने को बेहतर पिता की विफल भूमिका मे पाकर और भी ग्लानि मे डूबा रहता! पर करता क्या! सिन्हा जी सोचते - बगैर थोड़ा-थोड़ा कमीनापन बचाए कोई खुशहाल नहीं हो सकता यहां। सिन्हा जी को लगने लगा है कि हमारी खुशहाली का पैमाना हमारे कमीनेपन से तय होती है। वे खुद को गिराने के लिए जैसे तैयार कर रहे हों और धिक्कराते हुए कह रहे हों – बंदा, आखिर कितनी मिसाल दें सुखी जीवन की। इसी के साथ वह ये भी मानते हैं कि मैं जहां तक देखता हूं वहीं तक दुनिया सिमटी नहीं। सवाल है कि इस सिमटी दूरी में ही मैं क्या-क्या देख पाता हूं। कम से कम इतनी तो कमीनगी चाहिए ही कि आप सवालों से घिरें नहीं। आपका जमीर सवालनहीं पैदा करें। व्यवस्था के घाट मे फिट बैठेंगे तो आपका भी कल्याण होगा और संस्था का भी हित होगा। वे सोचते कि - काश वे भी धड़ल्ले से वह सब कुछ कर पाते जो आज के छिछोरे करते हैं। कम से कम जिन चार जीवों की जिंदगी मेरे ऊपर है, वे तो नहीं कोसेंगे। उनकी इच्छा-आकांक्षा, सपने मेरे संघर्ष और मेरे नजरिया से तय नहीं हो रहे हैं। उनके साथी,पड़ोस जिनके बीच 24 घंटं उन्हें (परिवार को) रहना पड़ता है, आखिर उनसे हटकर-लड़कर वे कैसे मेरी दुनिया की नागरिकता ले सकते हैं। इसके जवाब तो सिन्हा जी के पास भी नहीं।

करीब 1991-92 की बात होगी जब देश मे ढांचागत पुनर्रचना और मुद्रा के अवमूल्यन की बात खूब सुनाई पड़ती थी। ठीक इसके पहले रूस से दुनिया भर में ग्लासनोस्त और प्रेस्त्रोइका कीखूब धूम मची थी। उस दौर मे भी जीना इतना दुभर नहीं था। तब तीन हजार में जैसा जीवन संभव था, अब तो वह बीस हजार मे भी नसीब नहीं। अब तो ढांचागत पुनर्रचना ही नहीं,मुल्क की सेहत में सुधार के लिए बड़े पैमाने पर निजीकरण की आंधी चली। निजीकरण के मसले पर यूपीए का विरोध करनेवाली भाजपा जब एनडीए के साथ सरकार में आई तो उसने विनिवेश का मंत्रालय ही बना डाला अरुण शौरी की अगुआई मे। इसी सैयद जी का कहना है कि टू-जी स्पेक्ट्रम की तुलना में कई खरीद-फरोख्त के मामले मिल जाएगे, जब विनिवेश के खेल की पड़ताल होगी। आखिर इस्पात व रसायन मंत्रालय में रहते देश भर में रामविलास पासवान की सैर में बंद पड़े खाद कारखानों के खोले जाने के बड़े-बड़े विज्ञापन का कोई तो मतलब होगा। सभी ब्यूरो-माडमों में कभी-कभी तो सेल के स्वास्थ्य शिविर की खबर को लेकर प्रेस चौकस रहता। खबरों के साथ कभी-कभी बड़े-बड़े महंगे विज्ञापन भी होते।आखिर करोड़ों क्यों बहाए गए विज्ञापन पर, दौरों पर। क्या रामविलास पासवान को यह पता नहीं था कि जर्जर बंद पड़े इन खाद कारखानों को खोलना अब मुमकिन नहीं। लेकिन सैयद जी जब यह बात करते तो उनके पास कोई नहीं होता यह बकवास सुनने को। वे कहते जनता चुतिया और कमीना नहीं, जितना समझा जाता है। जिस टू जी को लेकर इतना बवाल मचा है, उसकी सूत्रधार नीरा राडिया के तार जिन पत्रकारों से जुड़े थे, सब के सब नाम बाहर आ चुके हैं। किस चैनल और अखबार ने उन पत्रकारों के खिलाफ कोई कार्रवाई की ?और मुझे विज्ञापन के हिसाब में गड़बड़ी के नाम पर बिठा दिया गया। क्या गड़बड़ी, कोई बतानेवाला नहीं ! नेताओं का भंडाफोड़ करनेवाले अखबार अपने उन भाई-पत्रकारों के खिलाफ कहां कोई कार्रवाई कर रहे हैं जिनके नाम पर खेल संघों से लेकर न जाने कितने घोटालों में शिरकत के आरोप जगजाहिर हो चुके हैं।

जले-भुने सैयद कहते हैं - प्रेस से कोई दस किमी की दूरी पर ही तो है बनियाहीर। संपादक वहां की खबर बनाते और डेटलाईन में लिखते हैं- बनियाहीर से लौटकर। जैसे लंदन से लौटकर या दिल्ली-मुंबई से लौटकर रिपोर्टिंग कर रहे हों ! यह सुनकर एक बार प्रसाद जी ने कहा था – सैयद जी बास की इच्छा और जरूरत ही अखबार के नियम हैं। अब इस पर बहस का कोई तुक नहीं। इन कमीनेपन में जब आप दीक्षित हो जाएं तो यही होगा आपका प्रोफेशनलिज्म।

सिन्हा जी तब झुंझला जाते जब घोर बाजारवादी दौर में पत्रकारों को चरित्र की सीख दी जाती। पत्रकारों को प्रोफेशनलिज्म का पाठ दिया जाता। जब-तब अखबार के गड़बड़झालों का मडगार्ड बनाया जाता। दूसरी ओर उनके लिए आचार संहिता तक बना दी गई थी। तरह-तरह के लगाम लगा दिए गए थे। जैसे किसी अखबार में नियम होता कि जब तक सारे संस्करण छूट नहीं जाएं डेस्क से लेकर फील्ड के रिपोर्टर तक दफ्तर से बाहर नहीं सकता। एक अखबार ने बंदिश लगा रखी थी कि किसी प्रेस कांफ्रेंस में कोई पत्रकार किसी उपहार को हाथ नहीं लगा सकता है। इसपर एक दिन स्टेशन पर मुंहफट सुमन जी ने कहा - सोचिए सिन्हा जी, बाप के लिए बिड़ी सुलगाकर लाते-लाते एक बार तो बच्चा जरूर धूक लगाएगा। दारू की बोतल लाते-लाते कभी तो उसमें पानी मिलाएगा। क्या फिर आगे जाकर छोटे पैमाने पर ही सही, वह अपने लिए भी यही कुछ नहीं करेगा ? इसकी क्या गारंटी ?

अब लगा सुमन जी का प्रवचन अविचल झड़ने - अब जब कारपोरेट घराना अपने मकसद के लिए मशीनरी के हाथों पत्रकार को एक टूल की तरह इस्तेमाल करेगा तो इसकी गारंटी मानिए कि वह सिर्फ और सिर्फ उसीका टूल नहीं बना रह जाएगा, वह अपनी भी सोचेगा, अपना भी साधेगा। वह मशीन नहीं कि आप जितना और जैसा काम लेना चाहें, उतने काम के बाद उसे ठप कर दें। सिन्हा जी, आपने ठीक मिसाल दी थी उस दिन। बाप के लिए बीड़ी-ताड़ी-दारू लानेवाला बेटा सिर्फ छिपकर बीड़ी का एक सूंट लगाकर रह जाए ऐसा कैसे होगा। कभी तो वह भी चखेगा। लत लगेगी और फिर दारू में मिलावट और फिर खरीद में उलटफेर करके वह भी अपने पीने का जुगाड़ कर तो लेगा ही। क्या टू जी स्पेक्ट्रम के घोटाले से संबंधित आलोक तोमर का मेल आपको नहीं आया था। सुना तो था कि उन्होंने अपनी वह रिपोर्ट कइयों को मेल की थी। उसमें एकदम साफ-साफ कहा गया है कि कैसे-कैसे मीडिया के सरताजों ने भ्रष्टाचार को पनाह दी। ए राजा को संचार मंत्री बनाने के वास्ते बिजनेस घरानों के लिए लॉबिंग करने वाली नीरा राडिया की दलाली करनेवाले दिग्गज और पूज्य पत्रकारों के नाम जिस तरह सामने आए, वह इसी की फलश्रुति है। और जो बिका हुआ हो, उसे खरीदनेवाला कोई नहीं होता। आज पत्रकारों का कद गिरता जा रहा है तो उसमें छुटभैये पत्रकारों का जो भी हाथ हो, बड़े और नामी-गिरामी लोगों ने गिरावट को जिस तरह इंस्टीच्यूशनलाइज कर दिया, वही उन्हें अंततः गिरा रहा है।

प्रसाद जी जैसे अपनी थकान मिटाते हुए कहने लगे - हम जानते हैं कि भ्रष्टाचार की शक्ल पिरामिड की होती है। ऊपर की एक बुंद नीचे कितनी बुंदों में तब्दिल हो जाएगी तय नहीं। और इसके लिए पत्रकारीय पेशे में तरह-तरह के सुधार के नाम पर विचारशून्य करके उन्हें बांधने की कोशिश हो रही है। पत्रकार की आलोचकीय धार व मेधा को कुंद करके सारा काम किया जा रहा है। यही कारण है कि जिस बाजारवाद के खिलाफ मीडिया को मोर्चा संभालना चाहिए था, वह उसका चारण-भाट बना फिर रहा है। सड़कछाप कालगर्ल हो गया है यह। भाटों की खुली स्पर्द्धा में वह नंबर एक के लिए भिड़ा हुआ है। कारपोरेट संस्कृति ने अपने प्रोफेशनलिज्म की जबान में इसे टेकनिकल स्किल का नाम दे रखा है। एलपीजी (उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण) के द्वार से जो सामाजिक अनुदारता प्रवेश कर गई, मीडिया घरानों ने भी उसे कम प्रश्रय नहीं दिया है। श्रमिक अधिकार और सूचनाधिकार के लिए भोंपू लगाकर चीखनेवाले अखबारों में ही श्रम कानूनों का सर्वाधिक उल्लंघन हो रहा है। अखबारों को निजी जागीर बनाने के लिए तानाशाही का ढांचा खड़ा किया जा रहा है। सूचनाओं की गोपनीयता भी वहीं बरती जा रही है। किस मकसद से किसी मसले को लेकर अखबार आक्रामक तेवर अपना रहा है और किस मकसद से अभियान की टें बोल जाती है, पत्रकार को इन वजहों (स्पष्टीकरण) से दूर ही रखा जाता है। मुंह की खाता है पत्रकार तो खाए, उसकी मिट्टी पलीद होती है तो हो। खबरों के बाजार में न तो संपादक या मालिक को कसरत करने पड़ते हैं। इसलिए मजे से स्विच आन-आफ करते रहते हैं ये बंदे।

लगता है कि सिन्हा जी अपना भड़ास मिटाने के लिए फुलझड़ी की तरह कुछ छोड़ देते हैं - एक चिकित्सक, इंजीनियर, वैज्ञानिक, शिक्षक, खिलाड़ी आदि अपने पेशे के धुंरधर हों यह तो अपेक्षा होती ही है और वाजिब भी है, पर उनके अपने सामाजिक दायित्व हैं इसे वे नहीं भूलते। जब तक यह होता है, तब तक तो वह क्षेत्र अपनी मर्यादा निभा लेता है। ऐसा इसलिए कि मनुष्य बेसिकली एक सामाजिक प्राणी है। लेकिन कोई बताए कि आज मीडिया का कोई सामाजिक दायित्व रह गया क्या? वैसे ही राजनीति भी सामाजिक दायित्व से कट गई है। किन सामाजिक अपेक्षाओं – जिम्मेवारियों से मीडिया को बंधा होना चाहिए और आज जिस किसी भी स्थिति में वह पहुंचा है (या उसके सेवक पहुंचे हैं) वह किन अपेक्षाओं और जिम्मेवारियों को पूरा करते हुए। और यह सब करते हुए इस क्रम में उनके यहां काम करनेवाले धुरंधर पत्रकारों के ईश्वरों ने कितने बनाए यह जानना भी बेहद जरूरी है।

सुमन जी कड़ी को आगे बढ़ाते - आखिर जब आप इस समाज से कुछ लेते हैं तो समाज को क्या दे रहे हैं और जो दे रहे हैं, क्या वही समाज का प्राप्य भी है। यह जानना भी जरूरी है पब्लिक के लिए। यह सब तब तक नहीं जाना जा सकता जब तक कि मीडिया का सोशल आडिट नहीं हो। सवाल यह हो सकता है कि व्यवस्था उसे देती क्या है, जो सोशल आडिट की बात हो। तो व्यवस्था न दे, पर समाज उससे कहीं अधिक दे रहा है। और व्यवस्था कैसे नहीं दे रही है आखिर मंदी के दौर की रियायत इसी व्यवस्था ने दी थी। और जो भी वह पा रहा है वह इस तंत्र से सहूलियत पाने के ही कारण है न। यदि मीडिया का सोशल आडिट नहीं होता है तो छुट्टा सांढ़ हो जाएगा यह। आज वह पत्रकारीय मानक को तोड़ रहा है, भाषा को गंदी कर रहा है। आगे जाकर स्लैंग जबान में अखबार निकालने की बात करेगा। कल को वह नए सांस्कृतिक संकट खड़े करेगा। बच्चों, बहु बेटियों को अखबार से दूर रखने की नौबत आ जाए तो क्या अचरज!

इस पर सिन्हा जी हाल का एक वाकया सुनाने लगे – आप भी तो गए थे उस सांस्कृतिक कार्यक्रम में। परसों ही तो हुआ था। अब आप ही बताइए कि उस सांस्कृतिक कार्यक्रम में शहर भर को आतंकित रखनेवाला वह नेता भी तो पहुंचे थे। आपसे क्या छिपा है, नेता न तो मुख्य अतिथि या विशिष्ट अतिथि थे। कंपनी के अधिकारियों को ही मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथि बनाया गया था। आमंत्रित अतिथि में एक पत्रकार और दूसरे नंबर पर थे ये नेता। क्या उस कार्यक्रम के कवरेज की हेडिंग आपने देखी थी शहर के नंबर वन अखबार में ? हेडिंग लगी थी नेता के बयान से – ‘युवा पीढ़ी भूलने लगी अब आचार’। जबकि उनका बयान समाचार में तीन पैरा बाद था। तो यह हाल है शहर के नंबर वन अखबार का। ये ऐसे कारपोरेट घराने के अखबार हैं जो समाचारों के चलन तय करते हैं। आखिर किस नियम या चलन से या कारपोरेट मजबूरी से यह हेडिंग लगाई गई, कौन पूछेगा ! अब तो अखबार उनकी निजी जायदाद है। यह कोई भंड़ुआ नाच या जागरण नहीं था, मुशायरा था या लाफ्टर शो भी नहीं कि जहां से चाहो वहीं से हेडिंग उठा ली।

प्रसाद जी ने कहा - विचित्र तो यह कि उसी खबर के बगल में उसी नेता के भाई की कुर्की जब्ती से संबंधित खबर भी छापी गई थी। संपादक किसी का गरिमामंडन कर रहे थे या अपने को अशक्त? खुद उन्हें नहीं पता। जबकि आप जानते हैं कि संपादक जी समाजवादी पृष्ठभूमि से आते हैं।

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