काश आप कमीने होते ! - 5 uma (umanath lal das) द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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काश आप कमीने होते ! - 5

काश आप कमीने होते !

उमानाथ लाल दास

(5)

सिन्हा जी – ‘बाजार में अपने स्पेस को लोकेट किए बिना आप कहीं नहीं रह सकते। अखबार अपने ढंग से पत्रकार के कौशल को खरीदता है और पत्रकार अपने कौशल से उस अवसर को खरीदता है। दोनों समझते हैं कि हमने उसे उल्लू बना दिया। हां, पूरी की पूरी खेप इसी दुनिया में रहती है। एक दूसरे को उल्लू ही तो बनाते रहते हैं। खरीद-बिक्री के इस रिश्ते में खुद को रखे बगैर कोई एक कदम नहीं चल सकता।‘

सिन्हा जी जब यह कह रहे थे तो कहीं न कहीं इसके पीछे एक पीड़ा थी - सालों-साल अपने उस पुराने पहलेवाले अखबार से जुड़े रहने की कोई कीमत नहीं मिली। बस, दुर्गापूजा आते ही दस फीसदी बोनस और बढ़ोतरी। लेकिन तब तक जिम्मेवारियां आसमान छू जातीं। भले अभी उसका वेतन बीस हजार हो गया, पर वे दिन उसे नहीं भूलते। यह भी तब हुआ जब उसने तीन अखबार बदले। दुर्गापूजा को डेढ़-दो माह भर रहते तभी से आफिस जाने पर डेस्क पर अखबार की फाईलें खुली मिलतीं। जगह-जगह दाग लगाए रहते। चिह्नित जगह गोले मे घिरी रहती। मतलब साफ होता कि इतनी सारी गड़बड़ियां हैं तो अखबार मे जगह का दुरुपयोग है यह। ले-आउट मे भी खामियों पर दाग लगे होते। खाली जगह, हेडिंग के फांट,टीसी-डीसी, सिंगल, या फिर पेज का विभाजन। आफिस का माहौल जैसे भारी-भारी होता। सभी सर झुकाए अपनी-अपनी फाईल में आंखें गड़ाए रहते या कोई योजना पकती रहती उनमें,कहना मुश्किल। इतनी खामियों के होते किस मुंह से वेतन बढ़ोतरी की मांग होगी! एक बार तो खीस मे बोनस और अपेक्षित बढ़ोतरी न होने पर विरोध जताने के लिए लोगों ने न तो वेतन लिए और न ही बोनस। दो माह हो गये, पर सेठ की तंद्रा नहीं टूटी। फिर लोगों को लगा, वह खीस किस काम की जो शत्रुवर्ग को मुफीद पड़ जाए। और घर का तगादा था सो अलग। नामुराद, लोगों ने सेठ द्वारा स्वीकृत बोनस और वेतन लेकर अध्याय का पटाक्षेप कर दिया। एक बार भी सेठ की ओर से मान-मनौव्वल जैसी कोई बात नहीं।

वाम मिजाज के सुमन जी कहते – ‘सरकारी महकमों में ही तो न्यूनतम मजदूरी अधिनियम का पालन नहीं हो पा रहा।‘ किसी विभाग का हवाला देते हुए कहते – ‘गत तीस सालों से वेतन संशोधन नहीं हुआ।‘

सिन्हा जी कहते – ‘दूर क्यों जाएं। क्या आपके अखबार में ही इसका पालन हो रहा है। आपको मिलता है तीन-चार हजार के बीच और एक राजमिस्त्री 180 रुपए रोजाना पर काम करता है। यानी छह हजार के आसपास ठहरा उसका वेतन।‘

सुमन जी – ‘हां भई, तो इसमें क्या अचरज। हम जो रोज मानवाधिकार, बाल अधिकार व श्रम कानून की वकालत करते हैं, क्या आप नहीं जानते कि इस मुल्क में श्रम कानून की सर्वाधिक धज्जी प्रेस में ही उड़ती है। पर इस पर हम आप...’

सिन्हा जी – ‘सुमन जी भले आपकी छुट्टी नौ बजे हो जाती है, पर पिछले रविवार को जब मार्केट कंप्लेक्स में आग लगी थी, तो आपको ट्रेन नहीं छोड़नी पड़ी क्या ? फोटोग्राफर को साथ लेकर आपको जाना पड़ा था ना। याद है कि नहीं ?’

सुमन जी – ‘शोषण की किस हद पर हम काम कर रहे हैं। लेकिन कोई चूं भी तो नहीं कर सकता है। अनुबंध पत्र में खुद ही तो हमने हस्ताक्षर किए हैं। आपने पढ़ा भी था, क्या लिखा था उनमें - पत्रकारिता आपका मुख्य पेशा नहीं। आपने स्वेच्छया मानदेय के रूप में इस रकम को लेना मंजूर किया। लेकिन सच क्या है चौबीस घंटे हाजिर रहें। आप दस बजे दिन से दस बजे रात तक अखबार की सेवा में तो रहें ही। घर जाने पर किसी अपराध या हादसा की स्थिति में फोटोग्राफर के साथ घटनास्थल पर जाने के लिए तैयार रहना पड़ता।‘

सुमन जी – ‘वहीं मैं कह रहा हूं कि आप तो अपनी ही कलम से बंधे हुए हैं। शारीरिक श्रम करनेवाले तो शरीर से सताए जाते हैं, पैसे से शोषित किए जाते हैं। लेकिन पढ़े-लिखे, प्रबुद्ध तो अपनी बेडि़यां खुद ही तैयार करते हैं। ये बेड़ियां दूसरों को नहीं दीखतीं। मजदूरों की तुलना में प्रबु्द्ध को गुलाम बनाना हितकर और आसान है। एक बार वह गुलाम बन गया तो फिर देखिए वह गुलामों की फौज खड़ी कर देगा।‘

‘सो तो है’ – सिन्हा जी ने कहा – ‘जर्मन कथाकार काफ्का ने कभी कहा था ‘It is often safer to be in chains than to be free’ यानी सुरक्षित रहने के लिए स्वतंत्रता से बेहतर गुलामी है। अब आप ही देखिए, किसी जेल में पड़े कैदी की सेहत की निगरानी जितनी की जाती है, वैसा सामान्य अवस्था में नागरिकों को नसीब है क्या ? तो संतोष इस बात का करें कि यहां इतना तो है कि जितना हमें मिलता है उतने के लिए हम निश्चिंत हैं। इसी शहर में कई ऐसे पत्रकार हैं जिन्हें हमसे अधिक खटने पर भी इसका आधा नसीब नहीं होता। कह सकते हैं कि उनके पास कायदे का रोजगार नहीं।‘

सुमन जी – ‘लेकिन जानते हैं सिन्हा जी, ये ही सारी बातें हमको-आपको मारने के लिए औजार का काम करती हैं। और हम अपने लिए, अपने लोगों या अपने जैसे लोगों के लिए कुछ नहीं सोचते, कुछ नहीं कर पाते। संगठन तो हमारा रहा नहीं। श्रमजीवी पत्रकार संघ है या शर्मजीवी पत्रकार संघ, पता नहीं चलता। हम अपनी शर्म को, हया को बेचकर रोजी-रोटी कमा रहे हैं तो हुए न शर्मजीवी। एक बार लेनिन ने क्रुप्सकाया से कहा था कि "If one cannot work for the Party any longer, one must be able to look truth in the face and die like the Lafargues." यानी जीवन की सार्थकता आपके पार्टी सरोकारों से तय होती है। और ऐसा नहीं होने पर लाफार्ज की तरह मौत को गले लगा लेना चाहिए।‘ हम-आप अपने लोगों या संगठन के काम लायक नहीं बचे, इसलिए हम अपने को टुकड़े-टुकड़े में मार रहे हैं। लाफार्ज ने तो खुदकुशी की थी, हम टुकड़ों में यहां-वहां क्या कर रहे हैं? यह ऐसे हो रहा है कि इस पर कोई चिल्ल पों भी नहीं मचा सकता।‘

अब सिन्हा जी अकबका गए, सोचे क्या जरूरत थी यहां लाफार्ज-मार्क्स की ? फिर वामपंथियों की कमजोरी समझ में आ गई कि वे इसी तरह अपनी स्टडीरूम और आंकड़ेबाजी का रौब गांठते हैं। कम पढ़े लिखों के बीच हवाला देकर यह काम करते हैं वे। सिन्हा जी – ‘अब लगे आप मार्क्स-लेनिन कोंचने। इस प्रसंग में आप कहां से मार्क्स को घुसेड़ रहे हैं। मैं तो नहीं जानता इस लाफार्ज को। कितने लोग जानते होंगे कि पाल लाफार्ज नाम का यह शख्स मार्क्स का दामाद था और ‘राईट टु बी लेजी’ का विख्यात सिद्धांतकार। मार्क्स की बेटी लौरा और इस लाफार्ज ने एक साथ खुदकुशी की थी। सुमन जी इस मार्क्स की कौन सी शिक्षा थी और कौन सा पारिवारिक संस्कार कि उसकी दूसरी पुत्री इलीनौर मार्क्स ने भी खुदकुशी कर ली थी! मैं तो यही जानता हूं कि लोग सीमेंट का एक ब्रांड ही समझते हैं लाफार्ज को।‘

सुमन जी – ‘अरे आप तो लगता है छुपा रुश्तम हैं। बात तो करते हैं पोंगापंथी समाजवादियों की तरह, पर मार्क्सवाद की जानकारी तो कहीं से भी कम नहीं।‘

सिन्हा जी – ‘अरे सुमन जी, आप वामपंथियों की सबसे मुश्किल तो यही है कि छोटी सी बहस को भी जीवंत नहीं रहने देते। सिद्धांत-विचारधारा, आंकड़ा-सूचना का कोई फर्क नहीं रहने देते। अप्रासंगिक आंकड़ों व रेफरेंसेज से पहले तो बातचीत को तकनीकी करते हैं फिर सिद्धांतों की शब्दावलियों से माहौल को बोझिल करके विषय को उबाऊ बना देते हैं। सुमन जी जनता से उसकी संवेदना-समझ के धरातल पर जाकर मिलिए। आप लोगों ने जाति को स्वीकारा तो, पर उससे लड़ने की चेतना पैदा करने की जरूरत नहीं समझी। समाजवादियों की रौ में बहकर आप लोगों ने उसकी खामियों, हदों का कूड़ाघर बना दिया मुल्क को। बंटाढार कर दिया मुल्क का।‘

सिन्हा जी कड़ी को आगे बढ़ाते – ‘सुमन जी वामपंथियों के घरों में मार्क्स कैसे चिह्नित किए जाते हैं यह जानकर आपको जमीन दिख जाएगी कि आपके कामरेड कौन सा माहौल बना रहे हैं। वैसे यह अलग बात है कि लाफार्ज ने जब देखा कि वह कुछ भी सार्थक नहीं कर रहा। और जीवन बोझ हो गया। तब जाकर दोनों ने जान दी। लेकिन फिर भी यह सवाल है कि मार्क्स ने भी अपने घर में कैसा माहौल दिया था ? कामरेड एके राय के बेहद करीबी एक ट्रेड यूनियनिस्ट हैं एनएन सिंह। और जाने दीजिए एनएन सिंह को। खुद एके राय के कामरेडों ने एमसीसी (मार्क्सिस्ट कोआर्डिनेशन कमेटी, मार्क्सवादी समन्वय समिति ) को कहां लाकर छोड़ा है। एके राय ने अपने मार्क्सवादी अहं के सामने इसकी चिंता नहीं की कि उनके बाद यह एमसीसी (मासस) कैसे चलेगी, कैसे आगे बढ़ेगी। हां तो मैं कहां कामरेड एके राय के एक पक्के अनुयायी एनएन सिंह की बात कर रहा था। उनके एक साले हैं डीबी सिंह, जो उन्हीं के घर के आसपास रहते हैं। किसी कोलियरी में एक स्कूल में प्राचार्य हैं। जानते हैं एक दिन उन्होंने एक वामपंथी छात्र की क्लास कैसे ली ? वह छात्र एमए कर रहा था। यही कोई 1993 की बात है। यानी दस साल साल पहले की बात है। डीबी जी ने कहा – ‘ठीक है आप मार्क्स को पढ़ते हैं और हिंदी से एम ए कर रहे हैं। उनके कार्यक्रमों की जोरशोर से तैयारी करते हैं। जरा बताइए तो कार्ल मार्क्स का मतलब क्या है?‘ छात्र क्या कहता, बोला – यह सिर्फ एक व्यक्तिवाचक संज्ञा है, जिसका अर्थ से कोई लेना देना नहीं। अब डीबी जी मानें तब तो ! मानने को तैयार ही नहीं। - ‘इतने बड़े नेता हों और उनके नाम का हिंदी में कोई मतलब नहीं, ऐसा कैसे होगा !‘ छात्र ने समझाया –‘मतलब तो जरूर होगा, पर उसे क्या मतलब हमारी बहस के परिप्रेक्ष्य से।‘ इस पर डीबी जी जी ने कहा – ‘तो सुनिए। हमेशा के लिए गांठ बांध लीजिए। अब संधि विच्छेद से या सामासिक विग्रह की व्युत्पत्ति से अर्थ निकालिए तो समझ जाएंगे। ऐसा थोड़े होता है कि महापुरुष हो गए और नाम का मतलब ही न हो। कार्ल मार्क्स का मतलब हुआ जो काल को मार्क करनेवाला हो। और कार्ल मार्क्स ने काल को चिह्नित करने का काम ही किया अपने सिद्धांतों और संघर्षों से। क्या आप यह नहीं मानते?‘

- ‘तो सुमन जी काली दिब्बी (मां काली की कसम) खानेवाले, बांह में जंतर बांधनेवाले वामपंथियों की यह जमात भारतीय समाज को जब डिकास्ट करने का काम न कर जातियों को उसकी बुराइयों और सीमा के साथ अपने अभियान में शामिल कर लेता है, उसे और प्रगाढ़ करता है तो आप क्या उम्मीद करेंगे इनसे ! यही न माहौल बनेगा ?’

लेकिन सिन्हा जी की यह बात कोई सुने तब तो। अब तो पूरा माहौल ठहाका मारते-मारते बेदम हुआ जा रहा था। और सुमन जी कह रहे थे – ‘सब बकवास है। बकवास। आखिर एक झटके में आप भारतीय वामपंथ को किसी लतीफे से दरकिनार नहीं कर सकते।‘

सिन्हा जी ने हामी भरते हुए एक बात कही – ‘सुमन जी, आपकी बातों में दर्द है, पर चिंता नहीं। आप कहिए कि जर्मनी से इंग्लैंड आए मार्क्स को फ्रेडरिख एंगेल्स मिल जाता है, रूस जाने पर लेनिन मिल जाता है, क्यूबा जाने पर फीदेल कास्त्रो और चीन जाने पर माओ। और छोड़िए बगल में छोटे से नेपाल में मार्क्र्स की अगली कड़ी माओ को भले-बुरे पुष्पदहल कमल उर्फ प्रचंड मिल जाते हैं। क्या आप जैसे वामपंथियों के पास इसका जवाब है कि भारत में आने पर इस मार्क्स को कौन मिलता है? मार्क्सवाद ऐतिहासिक-सामाजिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में लागू करने से नतीजा देता है। भारत में ऐसा कहां हुआ?’

सुमन जी ने कहा – ‘अब आप बहस पर उतर रहे हैं। इसके जवाब दिए जा सकते हैं, पर इसके लिए न तो यह उपयुक्त समय है और न ही ठीक जगह।‘

वामपंथी थोथी दलीलों से चिढ़े से सिन्हा जी कहते – ‘नहीं सुमन जी, इस तरह पल्ला झाड़ने से काम नहीं चलेगा। पहले तो आपने ही मुद्दा उठाया, श्रम कानून और मानवाधिकार और न जाने क्या-क्या। मैं तो सिर्फ कान बना हुआ था। आप वामपंथी बने फिरते हैं, आप आईपीएफ के युवा दस्ते के एक सक्रिय साथी रहे हैं। लेकिन आप ही कहिए कि किस बड़ी वामपंथी पार्टी ने पत्रकारों को हक दिलाने के लिए उनके ट्रेड यूनियन से नाता जोड़ा या ट्रेड यूनियन बनाकर हमारी किसी लड़ाई को बल दे रहे हैं। किस संगठन ने जनसत्ता व नवभारत टाईम्स के संस्करणों और पत्रिकाओं की बंदी का विरोध जताया ? और जिन्होंने जताया भी तो हस्र क्या हुआ। जबकि सब के सब अखबारी क्रियाकलाप किसी न किसी एक्ट के दायरे में आता है। हां, यह अलग बात है कि इन एक्ट्स की मीडिया में कोई परवाह नहीं करता! ऐसा नहीं कि हम वामपंथियों का साथ नहीं दे रहे हैं। पूंजीपति घराने से निकलनेवाले अखबारों में आपको वाम विचार के ढेरों पत्रकार मिल जाएंगे और मीडिया में वाम सिंपेथाइजर ने तो उनके लिए बहुत बड़ा काम किया है वातावरण निर्माण का। हम बदला नहीं चाहते, पर क्या यह उनका धर्म नहीं होता था।‘

सुमन जी तपाक से छूटते ही कहते – ‘नहीं सिन्हा जी ऐसे अतिवाद से काम नहीं चलेगा। पटना चले जाइए देखिए अरुण जी ने झंडा बुलंद किया हुआ है कि नहीं?’

लपकते ही सिन्हा जी ने मुंहतोड़ जवाब दिया – ‘क्या कहते हैं आप! वह एक व्यक्ति का संघर्ष है। उनके साथ किसी वाम संगठन का बल नहीं। मैं वाम संगठन से उसके धर्म की बात और अपेक्षा कर रहा था। वैसे यह अलग बात है कि अरुण जी ऐसे गिने-चुने पत्रकारों में हैं जो आज भी माओवादी संगठन के कार्यकर्ताओं के बीच विधिवत क्लास लेते हैं।

भरे बैठे प्रसाद जी को मौका मिल जाता है – ‘और सुमन जी इस मुगालते में नहीं रहें कि हमारे-आपके माहौल बनाने से वामपंथी आकाओं का हित होता है। सीताराम येचुरी हों या हों प्रकाश करात या वर्द्धन, उन्हें जब इसकी जरूरत भी यदि पड़ गई तो वे आपके पास नहीं आकर आपके मालिक से सट लेंगे। उन्हें मालूम है कि झंडा ढोनेवाले नारा ही लगा सकते हैं, नारे लिख नहीं सकते। हो सकता है हम-आप जो उनके लिए वातावरण निर्माण का काम करते हैं, हम या आप इनमें से अपने फायदे के लिए रास्ते ही निकाल लें।‘दुनिया के मालिक’ एक हों के तर्ज पर वामपंथी आका और मीडिया मुगल सभी एक हैं। क्या आपको याद है कि रामदेव जी और वृंदा करात वाले मामले में चैनल का जितना और जैसा इस्तेमाल हुआ, वह हमारे-आपके जैसे लोग नहीं उपलब्ध करा सकते थे। और आप ये भी जानते हैं कि ये वो चैनल हैं जिनके दुलारे बड़े-बड़े घपले-घोटालों के रैकेट्स में कहीं न कहीं आते हैं। ये येचुरी और करात इस सच को भी जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि हमारे बस का रोग क्या है। सोचिए ना पत्रकारों के लिए बछावत और मणिसाना आयोग, मजीठिया आयोग के फैसले को लागू करवाने में इनमें से किसने मदद की?’

‘क्या कहिएगा प्रसाद जी’ – सैयद जी कहते – ‘क्या आपने नहीं देखा किस तरह अखबार मालिकों ने इसपर अपना-अपना मरसिया अपने अखबारों में पढ़ा। वेतन बोर्ड की सिफारिश लागू होने से मालिकों का रोना था कि अखबार पर असह्य बोझ आ जाएगा। वेतनमानों को मान लें तो अखबार ही बैठ जाता। ड्राइवर को, चपरासी को इतना वेतन मिल जाए कि वह भी थोड़ा सीधा खड़ा हो सके, यह उन्हें कत्तई बर्दाश्त नहीं।‘

‘सुमन जी आपने बहुत भुका लिया। प्यास भी लगी है और चाय की तलब भी।‘ – सिन्हा जी कहते हैं।

सुमन जी बहादुर को हांक लगाते – ‘बहादुर सर, थोड़ा मेरे सिन्हा साहब को पानी पिलाइए। और चाय पिला सकते हैं क्या ?’

स्प्राइट की बड़ी –बड़ी दो बोतलों में पानी लेकर बहादुर हाजिर। कहता – ‘सर पानी तो पिला देते हैं। पर चाय में देर होगा। अभी पी लीजिएगा तो फिर तो एक्के बार शामे में मिलेगा। लेकिन एक ठो बात है कि संपादक सर के आने का भी टैम हो रहा है।‘

सुमन जी कहते – ‘अरे नहीं सर, आप तो हमनी के एकदम्मे बोक्का ही मानते हैं। आज एतवार है ना। थोड़ा देर से आएंगे।‘

बड़ी मेज पर पसरी हुई फाईलों को समेटते हुए बहादुर कहता – ‘तब तो कोई बात नहीं। बस्स मिश्रा जी को आ जाने दीजिए। हम चाय ला देते हैं।‘

पानी पीते-पीते में तब तक मिश्रा जी भी आ गए और देखते-देखते चाय भी आ गई। प्याली में दो घूंट से अधिक चाय क्या चलती।

इस भरी दुपहरी में कहां से संपादक जी भी खरामां-खरामां धमक गए। ठक-ठक-ठक की आहट के साथ दाढ़ी भरे चेहरे में संपादक की रौबीली हाजिरी से जैसे वहां पूरा कर्फ्यू ही छा गया। इस स्थिति के लिए कोई तैयार नहीं था, जैसे अचानक धारा 144 का ऐलान हो गया हो। सबकी कलम किसी न किसी कागज पर चलने लग जाती है। संपादक पूछते – ‘किस बात की संगोष्ठी हो रही थी?’

सभी कहते – ‘नहीं सर-नहीं सर। एक स्टोरी को लेकर चर्चा हो रही थी। उसे फ्लैट रूप में पेश किया जाए या ह्यूमन एंगल दिया जाए। और ‘एशियन एज’ में एक खबर छपी है झारखंड के सबसे बड़े किसी लोकप्रिय नेता के बारे में। वह सत्ता में है। कलकत्ते के किसी होटल में किसी औरत के साथ थे। लोगों के जाने पर वह पिछले दरवाजे से फरार हो गए। इसे रोचक बनाया जा सकता है।‘

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