हिम स्पर्श 41 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हिम स्पर्श 41

41

“एक अपूर्ण कदम नामक चित्र मैं अभी रचने नहीं जा रही हूँ। तुम अपने पैर धरती पर रख सकते हो। अपूर्ण कदम पूर्ण कर सकते हो।“ वफ़ाई हंसने लगी।

जीत ने अपूर्ण कदम पूर्ण किया।

“जीत, नींबू रस लो।“

वफ़ाई ने नींबू रस का एक ग्लास भरे जीत को दिया और दूसरा अपने हाथ में लिए झूले पर बैठ गई। वफ़ाई धीरे धीरे झूलने लगी। आँखें बंध कर जीत दूर खड़ा रहा।

दोनों नि:शब्द होकर रस पी रहे थे। वफ़ाई जीत को देख रही थी।

“मैं इस मुद्रा का भी चित्र रचूँगी और उस का नाम होगा- अपूर्ण घूंट।“ वफ़ाई हंस पड़ी। वफ़ाई के हास्य ने जीत के मौन को भंग किया।

उसने आँखें खोलकर कहा,”तुम क्यों...?” जीत के शब्द अधूरे रह गए।

“कुछ मत पूछो, बस मेरी बात सुनो। कब से मैं विचार कर रही थी कि मैं कौन सा चित्र रचाऊँ? किन्तु अभी अभी मुझे दो नवीन विचार प्राप्त हुए हैं। एक तो तुम जानते हो ’एक अपूर्ण कदम’।”

“दूसरा क्या?”

“दूसरा ‘अपूर्ण घूंट’।”

“क्या?” जीत ने पूछा।

“अपने ग्लास को देखो, रस को देखो। तुमने अभी तक रस नहीं पिया।“

“ओह। मैं अभी पूरा करता हूँ।“ जीत ने रस पीना चालू किया। पीते पीते रुक गया,”तो तुम उन वस्तुओं को, उन भावों को अभिव्यक्त करना चाहते हो जो अपूर्ण है, अधूरे है, आधे हैं, जो दोष से ग्रस्त है?”

“बिलकुल। यही मैं चित्रित करना चाहती हूँ। कैसा लगा मेरा यह विचार?”

“मुझे यह विचार पसंद आया। यह अदभूत है। मुझे पसंद है अपूर्ण।” जीत कहना चाहता था ‘अपूर्ण घटनाएँ, अपूर्ण इच्छायेँ तथा अपूर्ण जीवन।’ किन्तु गहन श्वास के नीचे उसने उसे दबा दिया।

“तुम्हें क्या क्या अपूर्ण पसंद है? जीत, जो शब्द तुम कह नहीं पाये उसे कह दो। शब्दों के जन्म से पहले ही उन शब्दों को इस तरह मार दिया नहीं करते।“

“अभी ऐसा कुछ नहीं है। कुछ समय प्रतीक्षा करो।“

“जीत, फिर वही? कई बातें तुमने भविष्य के लिए टाल रखी है। तुम्हारा यह भविष्य हमारा वर्तमान कब बनेगा?”

जीत मौन हो गया। वफ़ाई इस मौन का अर्थ भली भांति जानती थी। वह चित्राधार तरफ गई, चित्र रचने में व्यस्त हो गई। जीत ने भी स्वयं को चित्रकारी में व्यस्त करना चाहा किन्तु व्यग्र मन से वह कर नहीं पाया। जीत ने मन को स्थिर किया, वफ़ाई को पुन: निहारने लगा।

वफ़ाई ने पंजाबी कुर्ती पहनी थी। उसके कंधे पर दुपट्टा था। पवन धीरे धीरे बह रहा था। चित्रकारी करते करते वफ़ाई का दुपट्टा कंधे से सरक जाता था। दुपट्टे के इस व्यवहार से वफ़ाई का ध्यान भंग होता था।

वह बांये हाथ से चित्र बना रही थी तथा दाहिने हाथ से दुपट्टे को संभाल रही थी। दुपट्टा फिर भी सरक जाता था। अंतत: वफ़ाई ने समीप की भीत पर दुपट्टा रख दिया।

यह पहला अवसर था जब वफ़ाई बिना दुपट्टे के थी। जीत उसे निहार रहा था। वफ़ाई उस बात से अनभिज्ञ थी। वह चित्रकारी में व्यस्त थी। वफ़ाई को ऐसी मुद्रा में देखना जीत को अच्छा लगा।

पवन की किसी लहर ने भीत से दुपट्टे को गिरा दिया। वफ़ाई ने नीचे झुककर उसे उठा लिया। ऐसे करते समय उसने जीत को उसकी तरफ देखते हुए पकड़ लिया। जीत रंगे हाथ पकड़ा गया। जीत ने शीघ्रता से आँखें हटा ली।

वफ़ाई मन ही मन बोली,“जीत क्या देख रहा है?” वफ़ाई ने जीत को पूछा,” तुम क्या देख रहे हो?”

“कुछ भी नहीं तो।” जीत की आँखें नीची थी।

“पक्का? मुझे लगता है कि तुम मुझे देख रहे थे।“

“मैं तो चित्र को देख रहा था।“

“तब तो कुछ भी ठीक नहीं है।“ वफ़ाई ने स्मित दिया। वह पुन: चित्रकारी में व्यस्त हो गई। जब यह विश्वास हो गया कि वफ़ाई चित्रकारी में व्यस्त है, जीत उसे फिर से देखने लगा। कुछ तो था वफ़ाई में कि जीत को वह आकर्षित कर रहा था। वह वफ़ाई को देखते रहना चाहता था। क्या था वह?

तीन चार बार वफ़ाई ने जीत को अपनी तरफ़ देखते हुए रंगे हाथ पकड़ लिया। वफ़ाई जब भी जीत की तरफ देखती, जीत वफ़ाई को ही निहारता पाया जाता। उसी समय वह आँखों को वफ़ाई पर से हटा देता था। किन्तु वफ़ाई समझ चुकी थी कि वह केवल संयोग नहीं था।

जीत मुझे देखना तो चाहता है और पकड़ा जाना भी नहीं चाहता। चलो छोड़ो अभी इस बात को।

वफ़ाई मन ही मन बोली। वह चित्रकारी से जुडने लगी, किन्तु जुड़ नहीं पाई। जीत के ऐसे देखने से वह विचलित हो गई। अनेक प्रयासों के पश्चात वफ़ाई ने तूलिका वहीं छोड़ दी, दुपट्टा कंधे पर डाला और जीत के सामने खड़ी हो गई।

जीत से वह एक फिट की दूरी पर थी। उसकी आँखों में, उसके मुख पर, उसके गालों पर तथा उसके अधरों पर कोई भिन्न भाव थे जिससे जीत का कोई परिचय नहीं था।

वफ़ाई ने सीधे ही जीत की आँखों में देखा। वह उसके प्रभाव को झेल नहीं पाया। जीत ने पलकें झुका दी।

“ओ चित्रकार, तुम क्या कर रहे हो? अंतत: तुम चाहते क्या हो? तुम मुझे क्यों निहार रहे हो? जब भी रंगे हाथ पकड़े जाते हो, आँखें चुरा क्यों लेते हो?”

इतने सारे प्रश्नों के लिए जीत तैयार नहीं था, वह मौन रहा। वफ़ाई ने प्रश्नों को पुन: पूछा।

जीत ने साहस जुटाया। आँखें उठाई। वफ़ाई की तरफ देखा, मौन रहा।

“सुबह से मैं देख रही हूँ कि तुम मुझे चोरी से देख रहे हो। तुम चाहते क्या हो? यदि तुम मुझे निहारना चाहते हो तो सीधे सीधे निहार लो। तुम्हें क्या भय है मुझे निहारने में? तुम मेरा सौन्दर्य निहारना चाहते हो? तुम जानते हो कि मैं सुंदर हूँ।”

“किसी सुंदर यौवना को ऐसे निहारना तो अनुचित रीति है।“

“तुम्हें यह किसने सिखाया?”

“छोटे थे तब से माता-पिता, शिक्षक, समाज, हमारी संस्कृति। सबने यही सिखाया है कि लड़कों को लड़कियों की तरफ ऐसे सीधे सीधे नहीं घुरना है। लड़की के साथ सहज वार्ताव करने से यह सब रोक रहे हैं। यदि उसे लड़की को देखना है तो लड़की को पता ना चले ऐसे चोरी छिपे देखना चाहिए।“

“और तुम सब लड़के यह मान लेते हो कि लड़कियों को पता ही नहीं है कि तुम उसे देख रहे हो। तुम लड़के सब मूर्ख हो। लड़कियों को सदैव ज्ञात होता है कि कौन और किस आशय से उसे देख रहा है। लड़के की आँखों को तथा उनमें बसे आशय को लड़की प्रथम दृष्टि में ही जान लेती है।”

“तो तुमने मेरी आँखों में क्या पाया?”

“वह मैं अभी नहीं बताऊँगी। फिर कभी। इस समय तो मैं तुम्हें एक कथा सुनाती हूँ।“

“कथा? कौन सी कथा?”

“उस समय मैं पाँचवी अथवा छठवीं कक्षा में थी। पाठशाला गाँव से बाहर थी। हमें वहाँ चलकर जाना पड़ता था। लड़के-लड़की सब साथ पढ़ते थे। पाठशाला तक जाने के मार्ग पर लड़के तथा लड़कियां साथ साथ चलते थे। उस दीवस मैं अकेली ही पाठशाला के मार्ग पर जा रही थी। मैं प्रतीक्षा कर रही थी कि कोई मित्र साथ जुड़ जाय। एक लड़का, फवाद, कुछ दूरी पर खड़ा था। मुझे निहार रहा था। अचानक मेरा ध्यान गया और मैं उसे देखने लगी। उसने अपना मुख दूसरी दिशा में घूमा लिया जैसे वह मुझे देख ही नहीं रहा हो। मुझे पूरा विश्वास था कि वह मुझे ही घूर रहा था। प्रथम बार तो मैंने उसकी उपेक्षा की। जब दो तीन मिनिट के पश्चात मैंने उसे देखा तो वह मुझे निहारते हुए रंगे हाथ पकड़ा गया। ऐसा तीन बार हुआ। अब मुझे पूरा विश्वास हो गया कि वह मुझे ही देख रहा था। मैं जागृत हो गई। मैं जान चुकी थी कि वह सदा मुझे चोर दृष्टि से निहारता था।“ वफ़ाई कहते कहते रुकी।

“तो तुमने उसके विषय में शिक्षक को सब बता दिया अथवा उस लड़के को पीट दिया?”

“नहीं, मैंने कुछ भी नहीं किया। उसे मुझे निहारने दिया। मुझे यह भाने लगा था कि कोई मुझे देख रहा है, मेरे में रुचि ले रहा है। मैंने भी उसे चोर दृष्टि से देखना प्रारम्भ कर दिया। हम दोनों जानते थे कि हम दोनों एक दूसरे को देख रहे हैं और दोनों ही आँखें चुरा रहे हैं।“

“आगे क्या हुआ?”

“वह मुझे पसंद करता था वह मुझे ज्ञात था। मैं भी उसे पसंद करती थी। मैं मेरे बालों के साथ, कपड़ों के साथ, पुस्तकों के साथ कुछ नया करती रहती थी जिससे मैं उसका ध्यान मेरी तरफ आकर्षित कर सकूँ। मेरी योजना सफल होती रहती थी। अनेक बार हमने गुप्त स्मित का आदान प्रदान भी किया था।“

“रुचिकर कथा है यह।”

“इस प्रकार चोरी चोरी निहारना मुझे नहीं भाया। एक दिवस मैंने कह दिया कि मुझे चोरी चोरी नहीं सीधे सीधे निहारो। मुझ में जो देखना चाहते हो उसे बिना भीती के देख लो। मैं उसके सामने खड़ी हो गई और कहा, अब देखो मुझे।“

“वाह, तो उसने क्या किया? तुम्हारी तरफ निर्भय होकर देखा उसने?”

“नहीं। मुझे निहारने का साहस नहीं कर पाया वह। भाग गया वह। उस के पश्चात उसने मुझे किसी भी दृष्टि से नहीं देखा।“ वफ़ाई हंसने लगी।

“तो इस कथा का यहीं अंत हो गया?”

“हाँ।“

“तो इस कथा में क्या था?”

“तुम इस कथा का मर्म नहीं पकड़ पाये। मैं निराश हूँ।“ वफ़ाई ने जीत को निहारते हुए कहा,” लड़के अथवा लड़की का एक दूसरे को देखना कोई अपराध नहीं है। इसमें समस्या क्या है? यदि तुम उसे चोरी से निहारते हो तो वह अविवेक है, विकृति है। यह तो लडकी का अपमान है। उसके सौन्दर्य का अपमान है। उसकी तरफ सीधे सीधे देखो। जो देखना चाहते हो वह देखो। कुछ क्षणों तक देखते रहो।”

“यह सब तुम मुझे क्यों कह रही हो?”

“क्यों कि तुम भी फवाद की भांति मुझे देख रहे हो। मुझे सब ज्ञात है। तभी तो मैं तुम्हारे सामने हूँ। यदि तुम मेरे सौन्दर्य से आकृष्ट हो तो मुझे देखो, बिना किसी भीती के, सीधी आँखों से, सीधी दृष्टि से, चोरी छिपे नहीं।“ वफ़ाई ने अपने कंधे से दुपट्टा हटाकर हवा में लहरा दिया,” मुझे देखो, मुझे निहारो, मेरे दर्शन करो। मैं अनुमति देती हूँ। मैं आमंत्रित करती हूँ तुम्हें, जीत।“ वफ़ाई ने जीत की आँखों में आँखें डाल दी।

कुछ क्षण जीत दुविधा में रहा, फिर साहस जुटाया और वफ़ाई को देखा, ऊपर से नीचे तक, पूरे उमंग के साथ, पूरे आनंद के साथ। वह वफ़ाई को देखता रहा अविरत, बिना चोरी के, अनिमेष दृष्टि से। वफ़ाई भी उसे अपलक निहारती रही। दोनों तरफ अनुराग का झरना प्रवाहित हो गया। उन आँखों के बीच एक अद्रश्य सेतु रच गया।

“विजातीय व्यक्ति को देखना सहज और नैसर्गिक है। हमें उससे भागना नहीं चाहिए। जीत, हम लड़कियां भी लड़कों को निहारती हैं, पसंद करती है और उसके साथ की कामना करती हैं। हम भी आँख के कोने से लड़कों को देखती हैं, किसी एक को मन ही मन पसंद करती हैं और उसके साथ सपने देखने लगती हैं। यह विजातीय व्यक्ति को देखना पूर्ण रूप से स्वाभाविक है।“ वफ़ाई की बात जीत ने सुनी, वह मौन रहा। वफ़ाई भी मौन हो गई। निहारते रहने का आनंद लेने लगी।

उनकी आँखों ने कुछ स्वीकार कर लिया था, आँखों से आँखों के भाव पढ़ लिए थे, किन्तु अधर शांत थे, मौन थे। दोनों ने हृदय में एक ताजा हवा का, शीतल लहर का अनुभव किया।

कोई भी इस अनुभव को प्रकट करना नहीं चाहता था। दोनों अकेले किन्तु एक दूसरे के साथ मौन रहकर आनंद लेते रहे। उस अनुभूति को उन्होंने कोई नाम नहीं दिया। क्या यह स्नेह था? प्रीत थी? प्रेम था? अनुराग था? यह वह दोनों नहीं जानते थे ना ही जानना चाहते थे। एक बात स्पष्ट हो गई थी उन दोनों के बीच कि एक दूसरे को देखने के लिए आँखें चुराने की आवश्यकता नहीं है।

वफ़ाई मन ही मन विचार करने लगी, जीत तुम आगे बढ़ो, हमारे बीच के अंतर को मीटा दो। तुम्हारी हथेलियों में मेरा हाथ ले लो। उन हथेलियों से मेरे हृदय तक भावनाओं की नदी बहा दो। मेरे अस्तित्व को पिघला दो। यदि यह सब तुम नहीं कर सकते तो मैं दौड आऊं तुम्हारे पास, तुम्हें आलिंगन में ले लूँ।

वफ़ाई ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। स्वयं को रोक लिया, प्रथम कदम लड़कियां नहीं उठाती। लड़के को आगे आने दो। जीत तुम तो लड़के हो।

जीत नाम का लड़का भी विचार कर रहा था, वफ़ाई, मैं दो कदम आगे बढ़ जाऊं। तुझे स्पर्श कर लू। तुझे बाजूओं में ले लूँ। तुम्हें चूम लूँ।

ऐसा भी कुछ नहीं हुआ।

मैं ऐसा नहीं कर सकता। ‘कुछ’ है जो मुझे ऐसा नहीं करने दे रहा। मैं उस ‘कुछ’ को जानता हूँ। उस ‘कुछ’ का सम्मान करता हूँ। वफ़ाई, मैं तुम्हारे सुंदर शरीर से प्रीत नहीं करता। वफ़ाई का अर्थ सुंदर लावण्य से भरी लड़की का शरीर नहीं है। मेरे लिए तुम एक आत्मा हो। उस आत्मा को मैं आलिंगन दे चुका हूँ, उसे चूम चुका हूँ।

कोई भी आगे नहीं बढ़ा। दोनों प्रतिमा की भांति खड़े रहे। दो जीवंत प्रतिमा!