चर्चित यात्राकथाएं
(8)
1758 से पहले की ब्राह्मण-कथा
वाल्तेयर
कुरुमण्डल तट की सीमाओं में आजकल कुछ ऐसे ब्राह्मण भी देखने में आते हैं जिन्होंने परम्परागत आलस्य को तजकर फ्रांसीसी और अँग्रेज नागरिकों के साथ लेन-देन शुरू कर लिया है और ये दोनों, या दोनों में से एक भाषा सीखकर दुभाषिये का काम करने लगे हैं।
मानवीय अस्तित्व का सम्पूर्ण वैभव और करुणा आदि ब्राह्मणों व उनके उत्तराधिकारी नये ब्राह्मणों की कहानी में झलक उठती है। एक ओर तो विविध श्लेषोपमाओं से अलंकृत, फन्तासी - किन्तु ठोस, एक ऐसे दर्शन का वे पोषण करते हैं जो नाना दुरूह निषेधों व दमनोपचारों के माध्यम से आत्मन् की श्रेष्ठता स्थापित करता है, हिंसा से विरत व जीवात्मा के प्रति दयाशील रहना सिखाता है। दूसरी ओर त्रासदी मिथ्यास्थाएँ हैं। मूलतः शान्तिपूर्ण होने के बावजूद इस कट्टरपन्थ के कारण सदियों से वे सतीप्रथा को प्रोत्साहित करते रहे।
ईश्वर हमसे केवल शुभ व पुण्य कर्मों की ही इच्छा करता है : आस्था सम्भरण के ब्राह्मणों के इस प्रसिद्ध व्यवसाय में आत्मन् की महानता और धर्मान्धता के अतिरेक के ये परस्पर विरोधी तत्त्व आज भी साथ-साथ पाये जाते हैं। स्कैफ्टन बताते हैं कि उनके मतानुसार ईश्वर चाहता है कि विभिन्न देशों में विभिन्न धर्म हों। यह मत निस्सन्देह निर्लिप्ति की ओर ले चलता है; उनका यह उत्साहपूर्ण विश्वास है कि संसार में केवल उन्हीं का धर्म सत्य है, केवल उन्हीं का धर्म ईश्वर प्रदत्त है।
चलने से श्रेयस्कर है बैठे रहो, बैठे रहने से श्रेयस्कर है लेट जाओ, जगे रहने से श्रेयस्कर है सो जाओ, और जीने से श्रेयस्कर है मर जाओ! अपनी प्राचीन पुस्तकों से यह निष्कर्ष-रेखा निकाल लेने के बाद वे अधिकतर कष्टहीन व असंवेद्य जीवन व्यतीत करने के आदी हो गये हैं। कुरुमण्डल तट की सीमाओं में आजकल कुछ ऐसे ब्राह्मण भी देखने में आते हैं जिन्होंने परम्परागत आलस्य को तजकर फ्रांसीसी और अँग्रेज नागरिकों के साथ लेन-देन शुरू कर लिया है और ये दोनों, या दोनों में से एक भाषा सीखकर दुभाषिये का काम करने लगे हैं। पूरे तट का एक भी ऐसा बड़ा व्यापारी नहीं है जिसके पास अपना ब्राह्मण न हो और जो उससे पारिश्रमिक न पाता हो। वे वफ़ादार, हाजिरजवाब व चतुर हैं जिन्होंने विदेशियों के साथ सम्बन्ध नहीं बनाये, उन्होंने अपने पूर्वजों की तरह ही अपनी आत्मा की शुद्धता व श्रेष्ठता कायम रखी है।
स्क्रैफ़्टन ने, और बहुतेरे दूसरों ने, इनके पास कुछ नक्षत्रीय गणक देखे थे जिनके आधार पर ये ब्रह्माण्ड के विषय में करोड़ों वर्ष भविष्य तक के फल-मान बता देते हैं। इनके बीच पहुँचे हुए गणितज्ञ और ज्योतिर्विज्ञ मिल जाते हैं किन्तु इसी स्तर पर ये, चीन और फ़ारस के कतिपय लोगों की भाँति, हास्यास्पद किस्म की विधि (भाग्य) सम्बन्धी ज्योतिर्वाणियाँ भी ठोंकते रहते हैं। इन स्मृतियों के सूत्रकार ने राजा के पुस्तकालय को ‘कर्मवेद’ की एक प्रति भेजी थी जिसमें वेदों के ‘भाष्य’ थे। यह पुस्तक वर्ष के प्रत्येक दिन के प्रति भविष्यवाणियों से भरी हुई थी और तदनुसार प्रत्येक दिन के प्रत्येक क्षण के लिए भाँति-भाँति के धार्मिक अनुष्ठानों का ब्यौरा दिया हुआ था। आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि दो सौ वर्ष पूर्व तक ऐसी ही ख़ब्तों के शिकार हमारे ज्योतिर्विज्ञानी व राजे-महाराजे भी थे, और पागलपन की इसी सीमा तक थे। ये ब्राह्मण, जिनके पास ये गणक हैं, अवश्य ही पहुँचे हुए सिद्ध, विज्ञ व दार्शनिक होंगे। कहते हैं कि व्यक्ति को छलना (संसार) में रहकर भी निस्पृह रहना चाहिए। कहते हैं, प्राचीन ब्राह्मण भी कहते थे, चन्द्र की जिन ग्रन्थियों पर ग्रहण लगता है, वह राहु और केतु का विभक्त शेष वस्तुतः एक अजगर का सर और धड़ है; और यह वही अजगर है जो सूर्य और चन्द्र पर क्रमशः आक्रमण करता है। यही अस्पष्ट वक्तव्य चीन में प्रचलित है। भारत में करोड़ों ऐसे लोग हैं जो ग्रहण के दिन गंगा में स्नान करते हैं और उक्त घातक अस्त्र की कठोरता को क्षत करने के लिए नाना अस्त्रों को आपस में टकराकर भयंकर निनाद उत्पन्न करते हैं। कमोबेश, यह इसलिए होता है कि धरती पर नाना विकारों का बोझ बढ़ गया है।
एकाधिक ब्राह्मणों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हित के लिए मिशनरियों के साथ समझौते किये हैं, किन्तु धर्म का प्रश्न फिर भी, दोनों में कभी नहीं उभरा।
भारत आने के बाद, कहना ही पड़ेगा, इन मिशनरियों ने यह लिखने में अवांछनीय अविलम्बता बरती कि ब्राह्मण राक्षस-पूजा करते हैं, किन्तु शीघ्र ही उन्हें ईसाई मतावलम्बी बना लिया जाएगा। न तो कोई ब्राह्मण ईसाई बनाया जा सका और न ही कोई भारतीय राक्षस-पूजा करता पाया जा सका। रूढ़िवादी ब्राह्मणों को हमारे उन पादरियों से एक अनिर्वचनीय भय लगता था, जो मांस खाते थे, मदिरा पीते थे और घुटनों पर सिमटी नौजवान लड़कियों से ‘कन्फ़ैशंस’ लेते थे। अगर इनके रीति-रिवाज उन्हें मूर्तिपूजा के हास्यास्पद उदाहरण प्रतीत होते थे तो उन्हें इनके रीति-रिवाज अपराध प्रतीत होते थे।
आश्चर्य तो इस बात पर है कि सिवा चीनियों की कुछेक पुस्तकों के प्राचीन ब्राह्मणों की किसी भी पुस्तक में, न मिस्री मैनेथन में, न सैंकोनियॉटन अंशों में, न बैरोज में, न यूनानियों के यहाँ, न तुरकनों के यहाँ, कहीं भी उस यहूदी धार्मिक इतिहास का जिक्र नहीं मिलता जो कि वस्तुतः हमारा ईसाइयों का इतिहास है। नोडाह के बारे में एक शब्द नहीं, जिसे कि हम मानवीय वंश का रक्षक मानते हैं; उस आदम के बारे में भी नहीं जिसे हम मानव जाति का पिता मानते हैं; उसके प्राथमिक उत्तराधिकारियों में से किसी का नहीं। ऐसा कैसे हो सकता है कि इनकी पैतृकता तक किसी ने इसमें से एक घटना तो क्या एक शब्द तक न पहुँचाया हो? क्यों इतने सारे प्राचीन देश इसके विषय में कुछ नहीं जानते, और मेरे जैसे नये व नन्हे राष्ट्र को सब मालूम है?
इस महा आश्चर्य की तरफ थोड़ा ध्यान जरूर देना पड़ेगा, अगर हमें आशा है कि हम तह तक पहुँच जाएँगे तो पूरा भारत चीन, जापान, तार्तार और तीन चौथाई अफ्रीका नहीं जानते कि वह केन हुआ था या कैनान, जेअर्ड या मन्तसलाह, जो कि करीब-करीब हजार बरस जिन्दा रहा था। और दूसरे देश भी जान पाये तो कुस्तुन्तुनियाँ के बाद ही किन्तु दर्शन के ये मणिका-कण इतिहास के लिए महज अजनबी हैं।
***