वसुधा - कहानी –
छुट्टी का दिन था तो विवेक सुबह से ही लैपटॉप में व्यस्त था| कुछ बैंक और इंश्योरेंश के जरूरी काम थे, वही निपटा रहा था| बीच में एक दो बार चाय भी पी| विवेक सुबह से देख रहा था कि आज वसुधा का चेहरा बेहद तनाव पूर्ण था। आँखें भी लाल और कुछ सूजी हुई सी लग रहीं थीं। जैसा कि अकसर रोने से हो जाता है|
घर के सारे काम निपटाकर जैसे ही वसुधा कमरे में आकर अपने बिस्तर पर लेटने लगी।
"क्या हुआ वसुधा, तबियत तो ठीक है ना"?
"मुझे क्या होगा, मैं तो पत्थर की बनी हुई हूँ"।
"अरे यह कैसी भाषा बोल रही हो"?
"आपकी तरह हम कोई पी एच डी थोड़े ही किये हैं। खींच तान कर बी ए कर पाये हैं, वह भी आपकी दया से"।
"इतने रूखेपन से तो तुम कभी नहीं बोलतीं"?
“कब तक ढोंग भरी और दिखावे की जिंदगी जीते रहें। अब नहीं सहा जाता”|
"जो कुछ कहना है खुलकर कहो। पहेलियाँ मत बुझाओ"।
"आपको पता है आज हमारी शादी को पूरे दो साल हो गये। आज हमारी शादी की सालगिरह है"।
"याद है तभी तो कल शाम आफ़िस से आते वक्त तुम्हारे लिये तोहफ़े के रूप में सोने का हार लाया हूँ। वह रखा है तुम्हारी ड्रेसिंग टेबल पर"।
"क्या एक स्त्री केवल सोने चाँदी के जेवर और मंहंगी साड़ियों लिये ही जन्म लेती है"?
"क्या मतलब? मैं समझा नहीं"?
"इतने पढ़े लिखे, ज्ञानी पुरुष, यह नहीं जानते कि एक स्त्री के लिये उसके पति का स्पर्श जीवन की सबसे बड़ी धरोहर होती है। जिसके लिये हम दो साल से तरस रहे हैं"।
"वसुधा, तुम अच्छी तरह आनती हो कि हमारी शादी किन परिस्थितियों में हुयी थी"।
"जो भी परिस्थितियाँ थीं, पर उसमें ऐसी तो कोई शर्त नहीं रखी गयी थी कि हम दोनों जीवन भर रेल की पटरियों की तरह सदैव अलग ही रहेंगे"।
"वसुधा, तुम मेरी पहली पत्नी सुधा की छोटी बहिन हो। मेरी जब सुधा से शादी हुई थी तब तुम मात्र दस साल की थीं"।
वसुधा बीच में ही बात काटकर बोल पड़ी,
"वह सब तो हमारे मन में आज भी एक चल चित्र की तरह बसा है। आपने जीजी से जब प्रेम विवाह किया था तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आप तो एकदम सिनेमा के हीरो जैसे लगते थे। हमने भी जीजी से फ़रियाद कर दी थी कि जीजी हमारे लिये भी ऐसा ही दूल्हा ढूंढना"।
"अरे पहले मेरी पूरी बात तो सुनो"।
"ओह, सॉरी, आप बोलिये"।
"जब हमारी शादी हुई तुम दस साल की थीं। तुम्हारे गाँव में कोई ढंग का स्कूल कालेज नहीं था तो सुधा ने तुम्हें अपने पास बुला लिया"।
"यह सबतो हम जानते ही हैं, इसमें नया क्या है| क्यों सुना रहे हैं"।
"धैर्य से सुनोगी तभी समझ पाओगी"।
"अच्छा ठीक है"।
"तुम्हारा इस शहर में पढ़ाई के लिये दाखिला कराया तो मैं तुम्हारा गार्जियन यानी संरक्षक बना। इसका मतलब मैं तुम्हारे लिये पिता समान हो गया। फिर मैं तुम्हें घर पर पढ़ाने भी लगा। मतलब मैं तुम्हारे लिये गुरू भी हो गया"।
"आपने अभी तक कोई भी नयी बात नहीं बताई"।
"अब जरूरी और विशेष बात पर आता हूँ। उस वक्त कुछ शारीरिक अनियमितताओं के कारण सुधा सात साल तक माँ नहीं बन सकी। चिकित्सा के बाद सुधा ने बेटे राहुल को जन्म दिया। राहुल के जन्म के बाद सुधा का स्वास्थ और गिरने लगा। डॉक्टर तो शुरू से ही सुधा को समझाता रहा था कि बच्चे की जिद छोड़ दो। लेकिन सुधा की जिद के आगे हम लोग झुक गये। अगर मुझे सुधा की इस स्थिति की गंभीरता का जरा भी आभास होता तो सुधा को माँ बनने की इजाजत कभी नहीं देता”|
"हाँ, यह बात मुझे मालूम नहीं थी"।
"सुधा की सेहत लगातार गिरती गयी। राहुल के पहले जन्म दिन के कुछ दिन बाद सुधा उसे सदैव के लिये छोड़ कर बृह्म विलीन हो गयी"।
"जीजी के जाने से हमको भी बहुत दुख हुआ था| उनका स्नेह हमारे लिये बहिन से अधिक माँ समान था”।
"जैसे तैसे राहुल को छह महीने एक आया और तुम्हारी मदद से संभाला। फिर रिश्तेदारों की तरफ़ से पुनर्विवाह का जोर पड़ने लगा। मैं इसके पक्ष में नहीं था। क्योंकि सुधा का वज़ूद मेरे दिलो दिमाग पर बुरी तरह छाया हुआ था। इसी बीच तुम्हारे माँ बाबूजी कुछ अन्य रिश्तेदारों को लेकर आ धमके| उन्होंने सुधा के नाम की दुहाई देते हुये मेरे सामने तुम्हारे साथ शादी का प्रस्ताव रख दिया। मैंने हमेशा तुम्हें एक बच्ची और शिष्या की दृष्टि से देखा था अतः मैंने पहले तो मना किया। मेरी और तुम्हारी उम्र के अंतर का भी हवाला दिया लेकिन उन लोगों ने मेरी एक भी दलील नहीं सुनी | उन दोनों की आँखों में से बहते आँसू देखकर मैं भावनाओं में बह गया और इस विषय पर चुप लगा गया।जिसे उन लोगों ने मेरी मूक सहमति मान लिया और शादी की तैयारी शुरू कर दी”।
"यदि आपको हम पसंद नहीं थे तो आपको सख्ती से मना करना था। आप तो खुद ही उस वक्त ढुल मुल नीति अपनाये हुए थे। हमने खुद देखा था। हम भी तो वहाँ मौजूद थे"।
"वसुधा, बात पसंद नापसंद की नहीं थी। दुविधा थी। एक तरफ राहुल दूसरी तरफ तुम। मैं निर्णय नहीं कर पा रहा था कि तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में कैसे स्वीकर कर सकूंगा"।
"मगर अब तो हम आपकी पत्नी बन चुके हैं फिर आप हमको हमारा हक़ क्यों नहीं दे रहे"।
"सब कुछ तो तुम्हारा ही है। यह घर भी मैंने तुम्हारे नाम पर खरीदा है। राहुल भी तुम्हें माँ कहता है"।
"और पति का प्यार"?
"वसुधा, मैं तुम्हें सुधा का स्थान नहीं दे सकता। यदि तुम्हारे मन में कोई कसक है। कोई कमी है तो मैं तुम्हारा दूसरा विवाह कराने का प्रयास करता हूँ"।
इतना सुनते ही वसुधा गुस्से में आपे से बाहर हो गयी। एक बम की तरह फट पड़ी। रोती जा रही थी और चिल्लाती जा रही थी।
"आपने औरत को क्या एक मिट्टी का खिलोना समझ रखा है? बस यही एक तमाशा होना और बाक़ी रह गया है। यह अरमान भी पूरा कर लीजिये। पर एक बात याद रखियेगा कि अब इस घर की चौखट से केवल हमारी लाश ही बाहर निकलेगी"।
सदैव शाँत रहने वाली वसुधा के इस रूप को देखकर विवेक घबरा गया। वह वसुधा को शाँत करने के उद्देश्य से उसके निकट गया। उसके सिर पर हाथ रखकर कुछ कहना चाहा लेकिन इसी बीच वसुधा उठी और विवेक को धकियाते हुए कमरे से बाहर निकल गयी। विवेक के जीवन में ऐसी स्थिति कभी आयी नहीं थी तो वह समझ नहीं पा रहा था कि इससे कैसे निपटा जाय। परंतु समस्या को सुलझाना भी अनिवार्य था अन्यथा इतनी शिक्षा प्राप्त करने का लाभ क्या था।
विवेक अपने मन को संतुलित करते हुए वसुधा को खोजने की चाह में कमरे से बाहर आया तो रसोईघर की खिड़की से वसुधा की साड़ी दिखायी दी। विवेक तेज गति से रसोइघर की ओर लपका। रसोईघर में प्रवेश करते ही उसे तेज दुर्गंध आई। विवेक ने देखा कि वसुधा ने अपने ऊपर केरोसिन तेल उड़ेल लिया था और उसके हाथ में माचिस थी। विवेक ने देखा वसुधा माचिस की डिब्बी से तीली निकाल रही थी। विवेक ने फुर्ती से वसुधा का हाथ पकड़ लिया। वसुधा निर्जीव सी एक टूटी हुई लता की तरह विवेक की बाँहों में झूल गयी। विवेक उसे उठाकर कमरे में ले गया।
वसुधा अभी भी हिचकियाँ लेकर रोये जा रही थी, हालाँकि उसे अब वह सब कुछ मिल गया था जिसकी उसे चाह थी।
मौलिक कहानी