अलिफ़ लैला - 13 MB (Official) द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अलिफ़ लैला - 13

अलिफ़ लैला

13 - मजदूर का संक्षिप्त वृत्तांत

मजदूर बोला, 'हे सुंदरी, मैं तुम्हारी आज्ञानुसार ही अपना हाल कहूँगा और यह बताऊँगा कि मैं यहाँ क्यों आया। आज सवेरे मैं अपना टोकरा लिए काम की तलाश में बाजार में खड़ा था। तभी तुम्हारी बहन ने मुझे बुलाया। मुझे लेकर पहले वह शराब बेचने वाले के यहाँ गई। फिर कुँजड़े की दुकान पर उसने ढेर-सी तरकारियाँ खरीदीं और फल वाले के यहाँ से बहुत-से फल लिए। गोश्त वाले के यहाँ से उसने तरह-तरह का मांस खरीदा और अन्य दुकानों से भी बहुत कुछ लिया। फिर सारा सामान मेरे सर पर लदवाकर आपके घर में लाई। आपने कृपा कर के मुझे अब तक ठहरने दिया और खानपान दिया जिसके लिए मैं आपका आजीवन आभारी रहूँगा। यही मेरी राम कहानी है।'

मजदूर की बातें सुनकर जुबैदा ने कहा, 'तेरी बातें ठीक मालूम होती हैं। अब तू तुरंत यहाँ से चला जा और खबरदार आगे कभी मेरे सामने न आना।' मजदूर यद्यपि बड़ी मुसीबत से छूटा था किंतु उसकी चपलता न गई। उसने कहा कि यदि अनुमति दें तो मैं इन शेष लोगों की कहानियाँ भी सुन लूँ, फिर घर चला जाऊँगा। जुबैदा ने अनुमति दे दी और कहा, दालान के एक कोने में खड़े होकर चुपचाप सुन ले, कुछ बोलना-चालना नहीं। मजदूर ने ऐसा ही किया। फिर जुबैदा ने फकीरों को आत्मकथाएँ सुनाने का इशारा किया।

***

पहले फकीर की कहानी

पहले फकीर ने अदब से घुटनों के बल खड़े होकर कहा 'सुंदरी, अब ध्यान लगाकर सुनो कि मेरी आँख किस प्रकार गई और मैं क्यों फकीर बना। मैं एक बड़े बादशाह का बेटा था। बादशाह का भाई यानी मेरा चचा भी एक समीपवर्ती राज्य का स्वामी था। मेरे चचा का एक बेटा मेरी उम्र का था और दूसरी संतान एक पुत्री थी। मैं अपने पिता के आदेशानुसार प्रति वर्ष अपने चचा के यहाँ जाया करता था और महीने-दो महीने वहाँ रहा करता था। कई बार इस प्रकार आने-जाने से मेरी अपने चचेरे भाई से मैत्री और प्रीति बहुत बढ़ गई।

'एक दिन मैंने देखा कि मेरा चचेरा भाई असाधारण रूप से प्रसन्न है। उसने सदा से अधिक मेरा सत्कार किया, स्वादिष्ट भोजन कराया और भाँति-भाँति के खेल-तमाशों से मेरा मनोरंजन किया। फिर मुझसे कहने लगा, 'पिछली बार तुम्हारे जाने के बाद मैने बड़ी जल्दी और बहुत ही सुंदर ढंग से एक महल बनवाया है। अब रात हो गई है, मैं सोना चाहता हूँ फिर तुम्हे नया महल दिखाऊँगा। लेकिन शर्त यह है कि तुम कसम खाओ कि यह भेद किसी से नही कहोगे।'

'मैने ऐसा करने से सौंगध खाई। वह उठकर गया और कुछ ही देर में एक सुंदरी स्त्री को साथ लेकर आ गया। न उसने बताया कि यह स्त्री कौन है न मैंने उसके बारे में पूछा। हम तीनों बैठ कर इधर-उधर की बातें करने लगे और पात्रों में भर-भर कर मदिरा पीने लगे। कुछ देर बाद मेरे चचेरे भाई ने कहा कि चलो यहाँ से चलें। उसने मुझसे कहा कि तुम इस स्त्री को लेकर कब्रिस्तान जाओ और कब्रिस्तान में जहाँ कहीं भी गुंबद वाली नई कब्र देखो तो समझ लो कि यह उसी महल का प्रवेश मार्ग है। तुम दोनों गुंबद के अंदर जाकर मेरी राह देखना।

'मैं उसी स्त्री के हाथ में हाथ देकर बाहर निकला और कब्रिस्तान की ओर चल दिया। चाँदनी रात थी इसलिए हम लोगों को गुंबद वाली नई कब्र ढूँढने में कोई कठिनाई नहीं हुई। हम गुंबद के अंदर गए तो देखा कि राजकुमार अकेला ही एक चूने की टोकरी, पानी की गागर और जरूरी औजार लिए खड़ा है। हमारे पहुँचने पर उसने फावड़े से जमीन खोदी। मिट्टी के नीचे पत्थरों की सिलें थीं जिन्हें निकाल कर उसने एक ओर रखा। पत्थरों के नीचे एक दरवाजा दिखाई दिया। दरवाजे का किवाड़ ऊपर उठाया तो नीचे जाने के लिए एक लकड़ी की सीढ़ी दिखाई दी।

'मेरे चचेरे भाई ने अब उस स्त्री से कहा कि इसी रास्ते पर चलकर वह द्वार मिलेगा जिसका मैंने तुमसे उल्लेख किया था। वह स्त्री यह सुनकर सीढ़ी से नीचे उतर गई। राजकुमार भी उसके पीछे चला गया। जाने के पहले मुझसे बोला कि तुमने हम लोगों के लिए जो परिश्रम किया है उसके लिए मैं तुम्हारा आभारी हूँ, लेकिन अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ। हाँ, भगवान के लिए इस बात को गुप्त रखना। मैंने बहुत पूछा कि तुम कहाँ जा रहे और यह सब क्या हो रहा है किंतु उसने कुछ न बताया, केवल इतना कहा कि दरवाजे पर मिट्टी डालकर भूमि समतल कर देना और जिस रास्ते से आए हो उसी से वापस चले जाना।

'विवशतः मैं दरवाजे पर मिट्टी डालकर अपने चचा के महल को वापस हुआ। मुझे नशा उतरने के बाद खुमार की दशा थी और मेरे सिर में पीड़ा हो रही थी इसलिए मैं अपने कमरे में जाकर सो रहा। सुबह उठने पर रात के वृत्तांत का स्मरण कर के मैं बड़ा चिंतित था और यह भी सोचता था कि मैंने रात को जो देखा वह स्वप्न था या सत्य था। मैंने एक सेवक से कहा कि तू जाकर देख कि मेरे भाई ने उठकर कपड़े बदले हैं या सो ही रहा है। उसने लौट कर बताया कि वे तो रात को अपने शयन कक्ष में थे ही नहीं और किसी को यह भी नहीं मालूम है कि वे कहाँ गए हैं इसलिए उनके सेवक और संबंधी सब को बड़ी चिंता है और किसी की समझ में नही आ रहा है कि क्या करें।

'मुझे भी इस बात पर बड़ी चिंता हुई और मैं फिर कब्रिस्तान को गया। मैंने सारा दिन गुंबद वाली कब्र के खोजने में लगाया किंतु वह कब्र नहीं मिली। इसी प्रकार चार दिन तक मैं कब्रिस्तान जा कर अपने भाई की तलाश करता रहा लेकिन उसका या उसके मकान का कुछ पता न चला।

'सुंदरियो, यहाँ यह बता देना भी आवश्यक है कि उन दिनों मेरा चचा यानी वहाँ का बादशाह कई दिन से राजधानी में नहीं था क्योंकि वह शिकार पर गया था। उसकी वापसी में भी देर थी इसलिए मैं अत्यंत व्याकुल हुआ। मेरी इच्छा हुई कि अपने पिता के राज्य में वापस जाऊँ। मैंने मंत्री से कहा कि अब की बार मैं साधारण समय से अधिक यहाँ पर रहा और मेरे पिता को मेरी चिंता होगी इसलिए मैं जा रहा हूँ, आप बादशाह के आने पर उनसे यही कह दें। मंत्री स्वयं बड़ी चिंता में था क्योंकि शहजादे की कोई खोज- खबर नहीं मिल रही थी। मैं स्वयं उसे कुछ न बता सकता था क्योंकि शहजादे ने मुझे कुछ न कहने की कसम दिला रखी थी।

'जब मैं अपने पिता की राजधानी में आया तो महल के चारों ओर सेना की बड़ी जमात देखी। सैनिकों ने मुझे देखते ही बंदी बना लिया। मैंने बिगड़कर पूछा कि यह क्या करते हो, तो एक सरदार ने कहा, 'शहजादे, यह सेना तुम्हारी नहीं, तुम्हारे शत्रु की है। तुम्हारे पिता के मरने के बाद मंत्री ने तुम्हारे राज्य पर अधिकार कर लिया है। उसने तुम्हें गिरफ्तार करने की आज्ञा दी है और कहा है कि तुम जहाँ भी मिलो तुम्हें पकड़ लिया जाए। अब तुम हमारे भाग्य से स्वयं ही हमारे पास आ गए।

'यह कह कर वह सरदार मुझे अत्याचारी मंत्री के पास ले गया जो अब राज सिंहासन पर बैठा हुआ था। मुझे कितना दुख और कितनी ग्लानि हुई होगी यह आसानी से समझा जा सकता है। वह दुरात्मा आरंभ ही से मेरा शत्रु था। इसका कारण यह था कि बचपन में मुझे गुलेल चलाने का बड़ा शौक था। एक दिन मैं महल की छत पर गुलेल लिए खड़ा था कि एक चिड़िया सामने से उड़ती हुई निकली। मैंने गुलेल से उस पर पत्थर मारा। संयोगवश वह पत्थर का टुकड़ा उसी मंत्री की आँख पर लगा क्योंकि वह भी अपने निकटवर्ती भवन की छत पर टहल रहा था। उसकी आँख फूट गई। मुझे मालूम हुआ तो मैं स्वयं ही उसके पास गया और अनजाने में हुए अपराध के लिए उससे क्षमा माँगी। वह कुछ बोला नहीं किंतु उसने मुझे कभी क्षमा नहीं किया और बराबर इस ताक में रहता था कि कब अवसर पाए और मुझ से बदला ले। इसलिए जब मुझे असहाय और अशक्त देखा तो पुरानी बात याद करके क्रोध में भर कर सिंहासन से उतरा और झपट कर मेरे पास आया और मेरी दाहिनी आँख में उँगली घुसेड़ दी।

'उसने इतने ही पर बस नहीं की। उसने मुझे एक पिंजरे में बंद कर दिया और जल्लाद को आज्ञा दी कि इसे नगर के बाहर ले जा कर इसका वध कर दे और इसके शरीर के टुकड़े करके पशु-पक्षियों को खिला दे। जल्लाद घोड़े पर बैठकर शहर के बाहर आया और दूसरे घोड़े पर वह पिंजरा रखकर ले गया जिसमें मैं बंद था। उसकी सहायता को अन्य सेवक भी थे। जंगल में जाकर मेरे हाथ-पाँव बाँध कर मुझे मारने के लिए तलवार निकाली। मैं अत्यंत दीनता से रोने और प्राण भिक्षा माँगने लगा और जल्लाद को याद दिलाया कि उसने बरसों मेरे पिता का नमक खाया है। अंत में जल्लाद को मुझ पर दया आ गई। उसने मुझे छोड़ दिया और कहा, 'तुम तुरंत ही यह देश छोड़कर चले जाओ। इधर की तरफ भूलकर भी मुँह न करना। अगर तुम यहाँ आए तो तुम तो मारे ही जाओगे, मुझे भी प्राणदंड मिलेगा।'

'मैंने जल्लाद का बड़ा एहसान माना और भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया कि भले ही आँख गई; लेकिन जान तो बच गई, काना होना मुर्दा होने से तो अच्छा है। मेरी भूख-प्यास और आँख की तकलीफ से बुरी हालत थी। मैं चलने-फिरने के लायक न था। दिन में जंगल की झाड़ियों में छुपा रहा। रात को धीरे-धीरे छुपता-छुपाता अनजाने रास्तों पर धीरे-धीरे चलता हुआ कई दिनों में अपने चाचा की राजधानी में पहुँचा। जब मैंने चाचा को अपने दुर्भाग्य का पूरा हाल बताया तो वह जैसे पछाड़ें खाने लगा और बोला, 'मुझ से अधिक अभागा कौन होगा। मैं अपने पुत्र के लापता होने से क्या कम दुखी था कि मुझे अपने भाई के, जिसे मैं प्राणों से भी अधिक चाहता था, प्राणांत की सूचना मिली। अब मैं अपने पुत्र को कहाँ खोजूँ।' और वह बहुत देर तक अपने पुत्र को याद करके घंटों रोता रहा।

'उसके निरंतर रोदन से मेरे धैर्य का बाँध टूट गया। मुझ में इतनी क्षमता न रही कि मैं अपने चचेरे भाई को दिए हुए वचन को निभाए रखता। अतएव मैंने वह सारा वृत्तांत अपने चाचा को कह सुनाया जो मैंने उस रात को देखा था। चाचा को यह सुन कर ढाँढ़स हुआ और उसने कहा, 'बेटे, तुम ठीक कहते हो। मुझे भी मालूम हुआ था कि उसने यहाँ से समीप ही एक गुंबददार कब्र यानी मजार बनवाया है। वह वहीं हो सकता है।' लेकिन उसने यह भेद किसी को नहीं बताया। रात को वेष बदलकर मैं और चचा महल के बाग के दरवाजे से निकल कर कब्रिस्तान में पहुँचे। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि हम लोगों को थोड़ी ही देर में कब्र मिल गई। शायद अकेले आने पर मैं ठीक स्थान पर नहीं पहुँच सका था।

'मैंने कब्र को फौरन पहचान लिया। हम लोग गुंबद के अंदर गए। वह लोहे का दरवाजा, जिसके नीचे सीढ़ी गई थी, बड़ी कठिनाई से खुला क्योंकि शहजादे ने उसे अंदर से चूना आदि लगाकर मजबूती से बंद कर दिया था। दरवाजा खुलने पर पहले चाचा नीचे उतरा फिर मैं गया। कुछ दूर जाकर देखा कि डयोढ़ी में बदबूदार धुआँ भरा है। आगे बढ़े तो देखा कि सुंदर बैठने का स्थान है और वहाँ कई दीपक यथेष्ट प्रकाश दे रहे थे। बीच में एक हौज बना हुआ था जिसके चारों ओर खाने-पीने की वस्तुएँ रखी थीं। किंतु वह स्थान बिल्कुल निर्जन था। फिर हमने देखा कि एक ओर चबूतरा-सा बना है और उसके बाद एक कक्ष है जिसके द्वार पर परदा पड़ा है।

'चचा सीढ़ी से चबूतरे पर चढ़ गए और परदा उठा कर अंदर गए। मैं भी पीछे- पीछे चला गया। हम लोगों ने देखा कि शहजादा उसी स्त्री के साथ, जिसे पहले मैंने देखा था, एक पलंग पर लेटा है। किंतु उस पर भगवान का ऐसा कोप हुआ था कि दोनों कोयले की तरह काले हो गए थे। ऐसा मालूम होता था जैसे किसी ने उन्हें जीवित ही धधकती आग में डाल दिया है और उनके राख हो जाने के पहले उन्हें निकाल कर पलंग पर लिटा दिया है।

'मेरे तो यह देख कर रोंगटे खड़े हो गए लेकिन मेरा चचा यह देख कर बिल्कुल विचलित नहीं हुआ। उसके चेहरे पर न दुख का कोई चिह्न था न आश्चर्य का। हाँ, उसका क्रोध बढ़ता जा रहा था।

'उसने शहजादे के मुँह पर थूक दिया और कहा, 'अभागे, तूने यहाँ तो दुख पाया ही है, परलोक में इससे अधिक पाएगा।' इस पर भी उस का क्रोध शांत न हुआ तो उसने पाँव से जूती निकाल कर कई बार शहजादे के मुँह पर मारी। मैंने क्रोध में आकर कहा, एक तो मुझे वैसे ही भाई के मरने का दुख है, फिर आप मरने पर उसका अपमान कर रहे हैं। ऐसा क्या अपराध उसने किया है जिससे आपकी क्रोधाग्नि इतनी भड़की है?

'बादशाह बोला, 'बेटे, तुम नहीं जानते कि क्या किस्सा है। यह आदमी इससे कहीं अधिक भर्त्सना और दंड का भागी है। यह शहजादा बचपन ही से अपनी सगी बहन पर आसक्त था। जब दोनों छोटे थे तो मैंने बच्चा समझ कर उनकी बातों पर कुछ ध्यान नहीं दिया। किंतु जब दोनों बड़े हो गए तब भी दोनों में घनिष्टता रही बल्कि बढ़ गई। अब मैंने उनके संबंध को रोकना चाहा। मैंने कड़े पहरे बिठाए कि भाई-बहन एक दूसरे के सामने न आएँ। शहजादा अकेला ही कुमार्गगामी होता तो बात आगे न बढ़ती लेकिन यह अभागी लड़की उससे भी अधिक नीच निकली। यह अपने भाई से मिलने के लिए तड़पती रहती थी। यद्यपि मेरी सख्ती के कारण खुलकर एक दूसरे के सामने न आते थे किंतु उनके हृदयों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण कम नहीं होता था।

'अतएव बहन से सलाह करके शहजादे ने अपने लिए खास तौर से यह गुप्त आवास बनवाया ताकि अवसर मिलते ही दोनों विहार करें। जब मैं शिकार पर गया तो शहजादे को अवसर मिला और वह किसी तरह अपनी बहन को महल से निकाल कर यहाँ ले आया ताकि उसके साथ हमेशा यहाँ रहे। इसीलिए उसने बहुत अधिक मात्रा में खाद्य सामग्री भी यहाँ ला रखी। कुछ दिनों यह लोग एक-दूसरे के साथ आनंद से रहे होंगे, फिर उन पर ईश्वरीय प्रकोप हुआ और दोनों ने अपने पाप का समुचित फल पाया।'

'यह कहकर बादशाह का क्रोध दुख में बदल गया और वह अपने बेटे-बेटी की मृत्यु पर विलाप करके रोने लगा। मैं भी उसके साथ रोने लगा। हम लोग बहुत देर तक रोते रहे। फिर उसने मुझे अपने सीने से लगाकर कहा, 'अच्छा हुआ कि ये पापी मर गए। अब तुम ही मेरे पुत्र और मेरे उत्तराधिकारी हो।'

'फिर मैं और मेरा चाचा मृतक शहजादे की याद करके रोने लगे। कुछ देर बाद हम लोग सीढ़ी से ऊपर चढ़ आए और दरवाजा बंद करके उस पर मिट्टी डालकर बाहर आ गए। जब हम लोग राजमहल के पास पहुँचे तो हमने देखा कि फौजियों के घोड़ों के दौड़ने से उड़ी हुई धूल से आकाश अटा जा रहा है और युद्ध के बाजों की ध्वनि से कान फटे जा रहे हैं। मालूम हुआ कि मेरे पिता का वही मंत्री जिसने मेरा राज्य हड़प लिया था एक बड़ी सेना लेकर मेरे चाचा के राज्य पर भी चढ़ आया है। मेरे चाचा की सेना उसकी सेना से कम थी। उसकी सेना ने बगैर किसी कठिनाई के राजधानी और महल पर अधिकार कर लिया। मेरे चाचा ने अपने अधिकार की रक्षा का भरसक प्रयत्न किया और युद्ध क्षेत्र में कूद पड़ा। फिर भी वह सफल न हुआ और युद्ध में मारा गया। उसके मरने के बाद भी मैं शत्रु का सामना करता रहा और कुछ समय तक युद्ध भूमि में डटा रहा किंतु जब देखा कि बिल्कुल घिर गया हूँ तो निकल भागने की सोची। मंत्री की सेना के एक सरदार ने मुझे पहचाना और पुराने बादशाह की नमकहलाली के खयाल से मुझे बच निकलने का अवसर दे दिया।

'मैंने युद्धभूमि से निकलकर पहला काम तो यह किया कि दाढ़ी-मूँछें और भवें सफाचट करवा दीं ताकि दुश्मन मुझे पहचान न सके और फकीर के कपड़े पहन लिए। फिर बड़े कष्ट उठाता हुआ अनजाने रास्तों से होकर अपने चाचा के राज्य के बाहर निकला। फिर कई नगरों में फकीर बन कर घूमता रहा। घूमता-घामता मैं अति प्रतापी, दयावान, दीनवत्सल, न्यायप्रिय खलीफा हारूँ रशीद की राजधानी में आ पहुँचा। मेरा इरादा था कि मैं उदारमना खलीफा की सेवा में पहुँच कर अपनी व्यथा कथा सुनाऊँ। किंतु जब इस नगर में पहुँचा तो शाम ढल चुकी थी। मैं इस चिंता में आगे बढ़ा कि कहीं ठिकाना मिले तो रात व्यतीत करने का प्रबंध करूँ।

'कुछ दूर जाने पर मुझे यह दूसरा फकीर मिला। उसने मेरा अभिवादन किया। मैंने उसके अभिवादन का उत्तर देकर कहा कि तुम भी मेरी तरह परदेसी लगते हो। उसने कहा कि हाँ, मैं भी अभी-अभी इस नगर में आया हूँ। हम लोग बातें कर ही रहे थे कि यह तीसरा फकीर भी आ गया और हम दोनों का अभिवादन करके पास बैठ गया। उसने भी कहा कि मैं परदेसी हूँ और इस नगर में अभी आया हूँ। हम लोग चूँकि एक ही वेश में थे और तीनों की एक-सी दशा थी इसलिए हमने तय किया कि भाइयों की तरह मिल कर रहें और जहाँ जाएँ एक साथ ही जाएँ।

'हम लोग इस चिंता में निमग्न हो गए कि रात कहाँ बिताएँ क्योंकि हम तीनों में कोई भी यहाँ के किसी निवासी को नहीं जानता था न कभी पहले यहाँ आया था। अपने सौभाग्य से हम लोग घूमते-फिरते तुम्हारे दरवाजे पर आ निकले। तुमने भोजन और मनोरंजन से हमारा चित्त प्रसन्न किया इसके लिए हम सदा के लिए तुम्हारे आभारी रहेंगे। यही मेरा वृत्तांत है जिसे मैंने पूरी तरह बता दिया है।'

जुबैदा ने कहा कि हमने तुम्हें क्षमा किया और तुम जा सकते हो। किंतु फकीर ने कहा कि अगर तुम अनुमति दो तो मैं भी एक ओर बैठकर अपने दोनों साथियों की राम कहानी सुन लूँ, और इन तीन व्यापारियों की आप बीती भी सुन लूँ। इसके बाद मैं आपके घर से चला जाऊँगा। जुबैदा ने उसे एक ओर बैठकर दूसरों का वृत्तांत सुनने की अनुमति दे दी। वह मजदूर के पास जा बैठा।

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