रूस के पत्र - 9 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रूस के पत्र - 9

रूस के पत्र

रवींद्रनाथ टैगोर

अध्याय - 9

 

ब्रेमेन जहाज

हमारे देश में पॉलिटिक्स को जो लोग खालिस पहलवानी समझते हैं, उन लोगों ने सब तरह की ललित कलाओं को पौरुष का विरोधी मान रखा है। इस विषय में मैं पहले ही लिख चुका हूँ। रूस का जार किसी दिन दशानन के समान सम्राट था, उसके साम्राज्य ने पृथ्वी का अधिकांश भाग अजगर साँप की तरह निगल लिया था और पूँछ से भी जिसको उसने लपेटा, उसके भी हाड़-माँस पीस डाले।

लगभग तेरह वर्ष हुए होंगे, इसी जार के प्रताप के साथ क्रांतिकारियों की लड़ाई ठन गई थी। सम्राट जब मय अपने खानदान के लुप्त हो चुका, उसके बाद भी उसके अन्य संबंधी लोग दौड़-धूप करने लगे और अन्य साम्राज्य-भोगियों ने अस्त्र और उत्साह दे कर उनकी सहायता की। अब समझ सकते हो कि इन कठिनाइयों का सामना करना कितना कठिन था। पूँजीवादियों का -- जो एक दिन सम्राट के उपग्रह थे और किसानों पर जिनका असीम प्रभुत्व था -- सर्वनाश होने लगा। लूट-खसोट, छीना-झपटी शुरू हो गई, सारी प्रजा अपने पुराने प्रभुओं की बहुमूल्य भोग-सामग्री का सत्यानाश करने पर तुल गई। इतने उच्छृंखल उपद्रव के समय भी क्रांतिकारियों के नेताओं ने कड़ा हुक्म दिया कि आर्ट की वस्तुओं को किसी तरह भी नष्ट न होने दो। धनियों के छोड़े हुए प्रासाद-तुल्य मकानों में भी कुछ रक्षण-योग्य चीज-वस्तु थी, अध्यापक और छात्रों ने मिल कर, भूख और जाड़े से कष्ट पाते हुए भी, सब ला-ला कर युनिवर्सिटी के म्यूजियम में सुरक्षित रख दिया।

याद है, हम जब चीन गए थे तो वहाँ क्या देखा था? यूरोप के साम्राज्य-भोगियों ने पेकिंग (अब बेजिंग) का वसंत-प्रासाद धूल में मिला दिया, युगों से संग्रहीत अमूल्य शिल्प-सामग्री को लूट कर उसे तोड़ कर नष्ट कर दिया। वैसी चीजें अब संसार में कभी बन ही नहीं सकेंगी।

सोवियतों ने व्यक्तिगत रूप से धनिकों को वंचित किया है, परंतु जिस ऐश्वर्य पर मनुष्य मात्र का चिर अधिकार है, जंगलियों की तरह उसे नष्ट नहीं होने दिया। अब तक जो दूसरों के भोग के लिए जमीन जोतते आए हैं, इन लोगों ने उन्हें सिर्फ जमीन का स्वत्व ही नहीं दिया, बल्कि ज्ञान के लिए - आनंद के लिए -- मानव जीवन में जो कुछ मूल्यवान चीज है, सब कुछ दिया है। इस बात को उन्होंने अच्छी तरह से समझा है कि सिर्फ पेट भरने की खुराक पशु के लिए काफी है, मनुष्य के लिए नहीं, और इस बात को भी वे मानते हैं कि वास्तविक मनुष्यत्व के लिए पहलवानी की अपेक्षा आर्ट या कला का अनुशीलन बहुत बड़ी चीज है।

यह सच है कि विप्लव के समय इनकी बहुत-सी ऊपर की चीजें नीचे दी गई हैं, परंतु वे मौजूद हैं, और उनसे म्यूजियम, थियेटर, लाइब्रेरियाँ और संगीतशालाएँ भर गई हैं।

एक दिन था, जब भारत की तरह यहाँ के गुणियों के गुण भी मुख्यतः धर्म-मंदिरों में ही प्रकट होते थे। महंत लोग अपनी स्थूल रुचि के अनुसार जैसे चाहते थे, हाथ चलाया करते थे। आधुनिक शिक्षित भक्त बाबुओं ने जैसे मंदिर पर पलस्तर कराने में संकोच नहीं किया, उसी तरह यहाँ के मंदिरों के मालिकों ने अपने संस्कार के अनुसार जीर्ण-संस्कार करके प्राचीन कीर्ति को बेखटके ढक दिया है, इस बात का खयाल भी नहीं किया कि उसका ऐतिहासिक मूल्य सार्वजनिक और सार्वकालिक है, यहाँ तक कि पूजा के पुराने पात्र तक नए ढलवाए हैं। हमारे देश में भी मठों और मंदिरों में बहुत- सी चीजें ऐसी हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान हैं, परंतु कोई भी उसे काम में नहीं ला सकता। महंत भी गहरे मोह में डूबे हुए हैं, काम में लाने योग्य बुद्धि और विद्या से उनका कोई सरोकार ही नहीं। क्षिति बाबू से सुना था कि मठों में अनेक प्राचीन पोथियाँ कैद हुई पड़ी हैं -- जैसे दैत्यपुरी में राजकन्या रहती है, उद्धार करने का कोई रास्ता ही नहीं।

क्रांतिकारियों ने धर्म मंदिरों की चहारदीवारी को तोड़ कर उन्हें सर्वसाधारण की संपत्ति बना दिया है। पूजा की सामग्री को छोड़ कर बाकी सब समान म्यूजियम में इकट्ठा किए जा रहे हैं। इधर जबकि आत्म-विप्लव चल रहा है, चारों ओर टायफायड का प्रबल प्रकोप हो रहा है, रेल के मार्ग सब नष्ट कर दिए गए हैं। ऐसे समय में वैज्ञानिक अन्वेषकगण आसपास के क्षेत्र में जा-जा कर प्राचीन काल की शिल्प-सामग्री का उद्धार कर रहे हैं। इतनी पोथियाँ, इतने चित्र, खुदाई के काम के अलभ्य नमूने संग्रह किए हैं कि जिनकी हद नहीं।

यह तो हुआ धनिकों के मकान और धर्म मंदिरों में जो कुछ मिला, उसका वर्णन। यहाँ के मामूली किसान कारीगरों की बनाई हुई शिल्प-सामग्री, प्राचीन काल में जिसकी अवज्ञा की जाती थी, का मूल्य भी ये समझने लगे हैं, और उधर इनकी दृष्टि है। सिर्फ चित्र ही नहीं, बल्कि लोक साहित्य और लोक संगीत आदि का काम भी बड़ी तेजी से चल रहा है। यह हुआ इनका संग्रह।

इन संग्रहकों के द्वारा लोक शिक्षा की व्यवस्था की गई है। इससे पहले ही मैं इस विषय में तुम्हें लिख चुका हूँ। इतनी बातें मैं जो तुमको लिख रहा हूँ, उसका कारण यह है कि अपने देशवासियों को मैं जता देना चाहता हूँ कि आज से केवल दस वर्ष पहले रूस की साधारण जनता हमारे यहाँ की वर्तमान साधारण जनता के समान ही थी। सोवियत शासन में उसी श्रेणी के लोगों को शिक्षा के द्वारा आदमी बना देने का आदर्श कितना ऊँचा है। इसमें विज्ञान, साहित्य, संगीत, चित्र कला -- सभी कुछ है, अर्थात हमारे देश में भद्र-नामधारियों के लिए शिक्षा का जैसा कुछ आयोजन है, यहाँ की व्यवस्था उससे कहीं अधिक संपूर्ण है।

अखबारों में देखा कि फिलहाल हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा का प्रचार करने के लिए हुक्म जारी किया गया है कि प्रजा से कान पकड़ कर शिक्षा कर वसूल किया जाए, और वसूल करने का भार दिया गया है जमींदारों पर। अर्थात जो वैसे ही अधमरे पड़े हैं, शिक्षा के बहाने उन्हीं पर बोझ लाद दिया है।

शिक्षा कर जरूर चाहिए, नहीं तो खर्चा कहाँ से चलेगा? परंतु देश के हित के लिए जो कर है, उसे सब कोई मिल कर क्यों नहीं देंगे? सिविल सर्विस है, मिलिटरी सर्विस है। गवर्नर, वायसराय और उनके सदस्यगण हैं। उनकी भरी जेबों में हाथ क्यों नहीं पड़ता? वे क्या इन किसानों की ही रोजी से तनख्वाह और पेंशन ले कर अंत में जा कर उसका भोग नहीं करते? जूट मिलों के जो बड़े-बड़े विलायती महाजन सन उपजानेवाले किसानों के खून से मोटा मुनाफा उठा कर देश को रवाना कर दिया करते हैं, उन पर क्या इन मृतप्राय किसानों की शिक्षा का जरा भी दायित्व नहीं है? जो मिनिस्टर वर्ग शिक्षा कानून पास करने में भर पेट उत्साह प्रकट करते हैं, उन्हें क्या अपने उत्साह की कानी-कौड़ी कीमत भी अपनी जेब से नहीं देना चाहिए?

क्या इसी का नाम है शिक्षा से सहानुभूति? मैं भी तो एक जमींदार हूँ, अपनी प्रजा की प्राथमिक शिक्षा के लिए कुछ दिया भी करता हूँ, और भी दो-तीन गुना अगर देना पड़े, तो देने के लिए तैयार हूँ, परंतु यह बात उन्हें प्रतिदिन समझा देना जरूरी है कि मैं उनका अपना आदमी हूँ, उनकी शिक्षा से मेरा ही हित है, और हम ही उन्हें देते हैं। राज्य के शासन में ऊपर से ले कर नीचे तक जिनका हाथ है उनमें से कोई भी एक पैसा अपने पास से नहीं देता।

सोवियत रूस के जनसाधारण की उन्नति का भार बहुत ही ज्यादा है, इसके लिए आहार-विहार में लोग कम कष्ट नहीं पा रहे हैं, परंतु उस कष्ट का हिस्सा ऊपर से ले कर नीचे तक सबने समान रूप से बाँट लिया है। ऐसे कष्ट को कष्ट नहीं कहूँगा, यह तो तपस्या है। प्राथमिक शिक्षा के नाम से सरसों भर शिक्षा का प्रचलन कर भारत सरकार इतने दिनों बाद दो सौ वर्षों का कलंक धोना चाहती है, और मजा यह कि उसके दाम वे ही देंगे, जो दान देने में सबसे ज्यादा असमर्थ हैं। सरकार के लाड़ले अनेकानेक वाहनों पर तो आँच तक न आने पाएगी, वे तो सिर्फ गौरव-करने के लिए हैं।

मैं अपनी आँखों से न देखता तो किसी कदर भी विश्वास न करता कि अशिक्षा और अपमान के खंदक में से निकाल कर सिर्फ दस ही वर्ष के अंदर लाखों आदमियों को इन्होंने सिर्फ क, ख, ग, घ ही नहीं सिखाया, बल्कि उन्हें मनुष्यत्व से सम्मानित किया है। केवल अपनी ही जाति के लिए नहीं, दूसरी जातियों के लिए भी उन्होंने समान उद्योग किया है। फिर भी सांप्रदायिक धर्म के लोग इन्हें अधार्मिक बता कर इनकी निंदा किया करते हैं। धर्म क्या सिर्फ पोथियों के मंत्र में है? देवता क्या केवल मंदिर की वेदी पर ही रहते हैं? मनुष्य को जो सिर्फ धोखा ही देते रहते हैं, देवता क्या उनमें कहीं पर मौजूद हैं?

बहुत-सी बातें कहनी हैं। इस तरह तथ्य संग्रह करके लिखने का मुझे अभ्यास नहीं, पर न लिखना अन्याय होगा, इसी से लिखने बैठा हूँ। रूस की शिक्षा पद्धति के बारे में क्रमशः लिखने का मैंने निश्चय कर लिया है। कितनी ही बार मेरे मन में आया है कि और कहीं नहीं, रूस में आ कर तुम लोगों को सब देख जाना चाहिए। भारत से बहुत गुप्तचर यहाँ आते हैं, क्रांतिकारियों का भी आना-जाना बना ही रहता है, मगर मैं समझता हूँ कि और किसी चीज के लिए नहीं, शिक्षा संबंधी शिक्षा प्राप्त करने के लिए यहाँ आना हमारे लिए बहुत ही आवश्यक है।

खैर, अपनी बातें लिखने में मुझे उत्साह नहीं मिलता। आशंका होती है कि कहीं अपने को कलाकार समझ कर अभिमान न करने लग जाऊँ। परंतु अब तक जो बाहर से ख्याति मिली है, वह अंतर तक नहीं पहुँची। बार-बार यही मन में आता है कि यह ख्याति दैव के गुण से मिली है, अपने गुण से नहीं।

इस समय समुद्र में बह रहा हूँ। आगे चल कर तकदीर में क्या बदा है, मालूम नहीं। शरीर थक गया है, मन में इच्छाओं का उफान नहीं है। रीते भिक्षा पात्र के समान भारी चीज दुनिया में और कुछ भी नहीं, जगन्नाथ को उसका अन्तिम अर्ध्य दे कर न जाने कब छुट्टी मिलेगी?

5 अक्टूबर, 1930

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