आजाद-कथा - खंड 1 - 57 Munshi Premchand द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

आजाद-कथा - खंड 1 - 57

आजाद-कथा

(खंड - 1)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 57

हुस्नआरा बेगम की जान अजाब में थी। बड़ी बेगम से बोल-चाल बंद, बहारबेगम से मिलना-जुलना तर्क। अस्करी रोज एक नया गुल खिलाता। वह एक ही काइयाँ था, रूहअफजा को भी बातों में लगा कर अपना तरफदार बना लिया। मामा को पाँच रुपए दिए। वह उसका दम भरने लगी। महरी को जोड़ा बनवा दिया, वह भी उसका कलमा पढ़ने लगी। नवाब साहब उसके दोस्त थे ही। हुसैनबख्श को भी गाँठ लिया। बस, अब सिपहआरा के सिवा हुस्नआरा का कोई हमदर्द न था। एक दिन रूहअफजा चुपके-चुपके उधर आईं, तो देखा, कमरे के सब दरवाजे बंद हैं। शीशे से झाँक कर देखा, हुस्नआरा रो रही हैं और सिपहआरा उदास बैठी हैं। रूहअफजा का दिल भर आया। धीरे से दरवाजा खोला और दोनो बहनों को गले लगा कर कहा - आओ, हवा में बैठें। जरीं, मुँह धो डालो। यह क्या बात है! जब देखो, दोनों बहनें रोती रहती हो?

सिपहआरा - बहन, जान-बूझ कर क्यों अनजान बनती हो? भला आपसे भी कोई बात छिपी है? मगर आप भी हमारे खिलाफ हो गईं! खैर अल्लाह मालिक है।

रूहअफजा - तुम्हारी तो नई बातें हैं? जहाँ तुम्हारा पसीना गिरे, वहाँ हम लहू गिराएँ, और तुम समझती हो कि हम तुम्हें जलाते हैं। हम तो मुहब्बत से पूछते हैं, और तुम हमीं पर बिगड़ती हो।

हुस्नआरा - सुनो बाजी, तुम कौन सी बातें नहीं जानती हो, जो पूछती हो। हम साफ-साफ कह चुके कि या तो उम्र भर कुँआरी ही रहेंगे या आजाद के साथ निकाह होगा।

सिपहआरा - ऐसे-ऐसे 360 अस्करी हों, तो क्या? हलवा खाने को मुँह चाहिए।

रूहअफजा - अब इस वक्त बात बढ़ जायगी। और कोई बात करो।

हुस्नआरा - हम इतना चाहते हैं कि आप जरा इन्साफ करें।

रूहअफजा - मगर यह गुत्थी क्यों कर सुलझेगी?

इतने में मामा ने अखबार ला कर रख दिया! हुस्नआरा ने पढ़ना शुरू किया। एकाएक एक मजमून देख कर चौंक उठी। मजमून यह था कि मियाँ आजाद ने टर्की में एक साईस की बीबी से शादी कर ली। साईस को जहर दिलवा दिया और अब साईसिन के साथ गुलछर्रें उड़ा रहे हैं। हुस्नआरा ने अखबार फेंक दिया और उठ कर कमरे में चली गईं। सिपहआरा ने भाँप लिया कि जरूर आजाद की कुछ खबर है। अखबार उठा कर देखने लगीं, तो यह मजमून नजर पड़ा। सन्नाटे में आ गईं। जिस आजाद के लिए वहाँ सारी दुनिया से लड़ाई हो रही थी, जिसका दोनों आसरा लगाए बैठी थीं, उसका यह हाल! हुस्नआरा को जा कर तसकीन देने लगी - बाजी, यह सब गलत है।

हुस्नआरा - किस्मत की खूबी है।

सिपहआरा - हम तो फाल देखेंगे।

हुस्नआरा - हमारा तो दिल टूट गया। हाय, हम क्या जानते थे कि मुहब्बत यह बुरा दिन दिखाएगी।

हाल अब्वल से यह न था जाहिर,

कि इसी गम में होंगे हम आखिर।

अपना किया अपने आगे आया। मियाँ आजाद के हथकंडे क्या मालूम थे। इनको हमारा जरा खयाल न आया। एक नीच कौम की औरत को ब्याहा। हुस्नआरा को भूल गए। यहाँ महीनों इसी रंज में गुजर गए कि टर्की क्यों भेजा। बैठे बिठाए उनकी जान के दर पे क्यों हुई। रात-दिन दुआ माँगी कि वह खैरियत से घर आएँ। मगर यह क्या मालूम था कि एकाएक यह गम की बिजली गिर पड़ेगी। किस्मत फूट गई अब तो यही आरजू है कि एक दफा चार आँखें हों, फिर झुक कर सलाम करूँ।

सिपहआरा - अगर यही करना था, तो इतनी दूर गए क्या करने थे?

रूहअफजा कमरे में आई, तो देखा, हुस्नआरा दुलाई ओढ़े पड़ी हैं। बदन पर हाथ रखा, तो तेज बुखार। हुस्नआरा उन्हें देख कर रोने लगीं। रूहअफजा बोलीं - बहन, तबीयत को काबू में रखो। ऐसा भी नौज कोई बीमारी में घबराए। बहारबेगम ने सुना, तो वह भी घबराई हुई आईं। बदन पर हाथ रखा, तो मालूम हुआ, जैसे किसी ने झुलसा दिया। हुस्नआरा ने रो कर कहा - बाजी, हर तरह की बीमारी मैंने उठाई है; मगर दिल कभी इतना कमजोर न हुआ था। मालूम होता है कि जान निकल रही है। बहारबेगम ने बड़ी बेगम को बुलवाया। वह भी बदहवास आईं और हुस्नआरा के माथे पर हाथ रख कर बोलीं - अल्लाह, यह हुआ क्या!

बहारबेगम - बुखार सा बुखार है!

नवाब साहब दौड़े हुए आए। देखा, तो कुहराम मचा हुआ है। इतने में अस्करी आए। बहारबेगम ने कहा - भैया जरी नब्ज तो देखो। यह दम के दम में क्या हो गया?

अस्करी - (नब्ज देख कर) बहन, क्या बताऊँ, नब्ज ही नहीं मिलती!

इस फिकरे पर बहारबेगम सिर पीटने लगीं। नवाब साहब ने समझाया, यह वक्त दवा और इलाज का है, रोना तो उम्र-भर है। अस्करी फौरन बड़े हकीम साहब को बुलाने गए। शाहजादा हुमायूँ फर भी आए थे। बोले - मैं जा कर सिविलसर्जन को साथ लाया हूँ। सर्जन साहब आए और नब्ज देख कर कहा - दिल पर कोई सदमा पहुँचा है। किसी अजीज के मरने की खबर सुनी हो, या ऐसी ही कोई और बात हो। नुस्खा लिखा और फीस ले कर चल दिय। इतने में बड़े हकीम साहब आए और नब्ज देख कर अस्करी के कान में कहा - काम तमाम हो गया। नुस्खा लिख कर आप भी बाहर गए। बहारबेगम सबसे ज्यादा बेकरार थीं।

शाम का वक्त था, बड़ी बेगम नमाज पढ़ रही थीं, बहारबेगम उदास बैठी हुई थीं, नवाब साहब हुमायूँ फर के साथ इसी बीमारी का जिक्र कर रहे थे कि एकाएक अंदर से रोने की आवाज आई।

नवाब साहब - क्या हुआ, क्या! हुआ क्या!!

बहारबेगम - जो कुछ होना था, वह हो गया।

नवाब साहब ने जा कर देखा, तो हुस्नआरा की आँख फिर गई थी और बदन ठंडा हो गया था। नवाब साहब को देखते ही बड़ी बेगम ने एक ईंट उठाई ओर सिर पर पटक ली। सिपहआरा ने तीन बार दीवार से सिर टकराया। नवाब साहब डाक्टर को बुलाने दौड़े।

***