आजाद-कथा
(खंड - 1)
रतननाथ सरशार
अनुवाद - प्रेमचंद
प्रकरण - 44
हुस्नआरा और सिपहआरा, दोनों रात को सो रही थीं कि दरबान ने आवाज दी - मामा जी, दरवाजा खोलो।
मामा - दिलबहार देखो कौन पुकारता है?
दिलबहार - ऐ वाह, फिर खोल क्यों नहीं देतीं?
मामा - मेरी उठती है जूती; दिन भर की थकी-माँदी हूँ।
दिलबहार - और यहाँ कौन चंदन-चौकी पर बैठा है?
दरबान - अजी, लड़ लेना पीछे, पहले किवाँड़े खोल जाओ।
मामा - इतनी रात गए क्यों आफत मचा रखी हैं?
दरबान - अजी, खोलो तो, सवारियाँ आई हैं।
हुस्नआरा - कहाँ से? अरे दिलबहार! मामा! क्या सब की सब मर गईं? अब हम जायँ दरवाजा खोलने?
हुस्नआरा की आवाज सुन कर सब की सब एक दम उठ खड़ी हुई। मामा ने परदा करा कर सवारियाँ उतरवाईं।
सिहपआरा - अख्हा रूहअफजा बहन हैं, और बहारबेगम। आइए, बंदगी।
ये दोनों हुस्नआरा की चचेरी बहनें थीं। दोनों की शादी हो चुकी थी। ससुराल से दोनों बहनों से मुलाकात करने आई थीं। चारों बहनें गले मिलीं। खैर आफियत के बाद हुस्नआरा ने कहा - दो बरस के बाद आप लोगों से मुलाकात हुई।
बहारबेगम - हाँ, और क्या!
सब की सब बातें करते-करते सो गईं। सुबह को हुस्नआरा ने बड़ी बेगम से दोनों बहनों के आने की खबर सुनाई।
बड़ी बेगम - जरी मेरी बाईं आँख फड़कती थी। मैं भी कहूँ कि अल्लाह, क्या खुशखबरी सुनूँगी। कहाँ, हैं कहाँ, जरा बुलाओ तो।
हुस्नआरा - अभी सो रही हैं।
बड़ी बेगम - ऐ, तो जगा दे बेटा! अच्छी तो हैं?
हुस्नआरा ने आ कर देखा, तो दोनों गाफिल सो रही हैं। रूहअफजा की लटोंवाली नागिन की तरह बल खा कर तकिए पर से पलंग के नीचे लहरा रही हैं। बहार-बेगम का दुपट्टा कहीं है, दुलाई कहीं। हाथ सीने पर रखे हुए खर्राटे ले रही हैं।
हुस्नआरा - अजी, सोती ही रहिएगा! अम्माँजान बुलाती हैं।
रूहअफजा - बहन, अब तक आँखों में नींद भरी है। नमाज पढ़ लूँ, तो चलूँ।
हुस्नआरा - (बहारबेगम का हाथ हिला कर) ऐ बहन, अब उठो।
बहारबेगम - अल्लाह, इतना दिन चढ़ आया! सारे घर में धूप फैल गई।
हुस्नआरा - उठिए, अम्माँजान बुला रही है।
बहारबेगम - रूहअफजा को तो जगाओ।
सिपहआरा - वह क्या बैठी हैं सामने।
दोनों ने उठ कर नमाज पढ़ी और बड़ी बेगम के पास चलीं। रूहअफजा जाते ही बड़ी बेगम से चिमट गईं। बहार भी उनसे गले मिलीं और अदब के साथ फर्श पर बैठीं।
बड़ी बेगम - क्यों रूहअफजा, अब तो उस बीमारी ने पीछा छोड़ा? क्या कहते हैं, तोबा, मुझे तो उसका नाम भी नहीं आता।
सिपहआरा - (मुसकिरा कर) डेंगू बुखार। आप तो रोज-रोज भूल जाती हैं।
बड़ी बेगम - हाँ, वहीं डंकू।
सिपहआरा - डंकू नहीं डेंगू।
रूहअफजा - अब एक महीने से पीछा छुटा है कहीं। मेरी तो जान पर बन आई थी।
बड़ी बेगम - चेहरा कैसा जर्द पड़ गया है!
बहारबेगम - अब तो आप इन्हें अच्छी देखती हैं! यह तो घुल कर काँटा हो गई थीं।
बड़ी बेगम - हकीम मुहम्मदहुसेन ने इलाज किया था न वहाँ?
रूहअफजा - जी नहीं, एक डॉक्टर था।
बड़ी बेगम - ऐ है, भूले से इलाज न करना डागडर-वागडर का।
रूहअफजा - मैं तो उसकी बोली ही न समझूँ। कहे, जबान दिखाओ। जब मुँह दिखावें तब तो जबान दिखावें? मैंने कहा - यह तो हश्र तक नहीं होने का। फिर नब्ज देखी, तो हाथ परदे से निकाल लिया और कहा, चूड़ियाँ उतार डालो। मैंने सोने की चूड़ियाँ तो उतार डालीं, मगर शीशे की एक चूड़ी पहने रही। तब कहने लगा, हमसे बातें करो। तब तो मैंने दूल्हा भाई को बुलाया और कहा - वाह साहब, आप तो अच्छे डाक्टर को लाए! मुँह क्या, हम तो एड़ी भी न दिखावें और कहता है, हमसे बातें करो। यहाँ निगोड़ी गिटपिट किसे आती है! बस, दर-गुजरी ऐसे इलाज से। आप इन्हें धता बताइए। इतने में उसने घड़ी जेब से निकाली और कहने लगा - गिनती गिनो। सुनिए, जैसे लड़कियों के मदरसे में इम्तहान ले रहे हो। आखिर मैंने एक-दो-पाँच-बीस ग्यारह-अनाप-शनाप बका। बड़ी कड़वी दवाइयाँ दीं। बारे बच गई।
बड़ी बेगम - बहार। यह तुम महीनों खत क्यों नहीं भेजती हो?
बहारबेगम - अम्माँजान, खतों का तो मैं तार बाँध दूँ, मगर जब कोई लिखने वाला भी हो।
रूहअफजा - यह तो गिरस्ती के धंधे में ऐसी पड़ गईं कि पढ़ा-लिखा सब चौपट कर दिया।
हुस्नआरा - और दूल्हा भाई ने तो खत लिखने की कसम खाई है।
रूहअफजा - दिन भर बैठे शेर कहा करते हैं।
बड़ी बेगम - हाँ, न मुझे मौत आती है, न उन्हें।
हुस्नआरा - कल परसों तक दूल्हा भाई यहाँ आवेंगे, तो मैं उनको खूब झाड़ूँगी।
बड़ी बेगम - बहार, सच्ची बात तो यह है कि तुम भी जरा तेज-मिजाज हो।
सिपहआरा - जो एक गर्म और एक नर्म हो, तो बात बने। और जो दोनों तेज हुए, तो कैसे बने?
बहारबेगम - अब तुम अपनी सास से न लड़ना। तुम नर्म ही रहना। मेरे तो नाक में दम आ गया।
बड़ी बेगम - अबकी मिरजा यहाँ आएँ, तो समझाऊँ।
बहारबेगम - अम्माँजान, मुझसे उनसे हश्र तक न बनेगी। जो कोई लौंडी-बाँदी भी मुझसे अच्छी तरह बातें करे, तो जल मरती हैं। और मैं जान-बूझ कर और जलाती हूँ।
हुस्नआरा - बहन, मिल-जुल कर रहना चाहिए।
बहारबेगम - जब तुम ससुराल जाओगी, ऐसी ही सास पाओगी और फिर मिल-जुल कर रहोगी, तो सात बार सलाम करूँगी।
रूहअफजा - झगड़ा सारा यह है कि दूल्हा भाई इनकी खातिर बहुत करते हैं। बस, इनकी सास जली मरती हैं कि यह जोरू की खातिर क्यों करता है?
बहारबेगम - अल्लाह जानता है, हजारों दफे तरह दे जाती हूँ; मगर जब नहीं रहा जाता, तो मैं भी बकने लगती हूँ। मुझे तो उनहोंने बेहया कर दिया। अब वह एक कहती हें, तो मैं दस सुनाती हूँ।
बड़ी बेगम - (पीठ ठोक कर) शाबाश!
हुस्नआरा - मेरी तरफ से पीठ ठोक दीजिएगा।
बहारबेगम - बहन, अभी किसी से पाला नहीं पड़ा। हमको तो ऐसा दिक कर रखा है कि अल्लाह करे, अब वह मर जायँ, या हम।
चारों बहनें यहाँ से उठ कर अपने कमरे में गईं और बनाव-सिंगार करने लगीं। हुस्नआरा, सिपहआरा और रूहअफजा तो बन-ठन कर मौजूद हो गईं; मगर बहारबेगम अभी बाल ही सँवार रही थीं।
रूहअफजा - इन्हें जब देखो, बाल ही सँवारा करती हैं।
बहारबेगम - तुम आए दिन यही ताना दिया करती हो।
रूहअफजा - ऐसी तो सूरत भी नहीं अल्लाह ने बनाई है।
बहारबेगम ने कोई दो घंटे में कंघी - चोटी से फरागत पाई। फिर चारों निकल कर बातें करने लगीं। सिपहआरा डली कतरती थीं, हुस्नआरा गिलौरियाँ बनाती थीं, रूहअफजा एक तसवीर की तरफ गौर से देखती थीं; मगर बहार-बगम की निगाह आईने ही पर थी।
सिपहआरा - अरे, अब तो आईना देख चुकीं? या घंटों सूरत ही देखा कीजिएगा?
बहारबेगम - तुम कहती जाओ, हम जवाब ही न देंगे।
रूहअफजा - अल्लाह जानता है, इन्हें यह मरज है।
सिपहआरा - हाँ, मालूम तो होता है।
बहारबेगम - तुम सब बहनें एक हो गईं। अपनी ही जबान थकाओगी।
हुस्नआरा - रूहअफजा, तुम उठ कर आईने पर कपड़ा गिरा दो।
रूहअफजा - चिढ़ जायँगी।
हुस्नआरा - हाँ बहन, बताओ तो, यह बात क्या है? सास से बनती क्यों नहीं तुमसे?
बहारबेगम - ऐसी सास को तो बस, चुपके से जहर दे दे। कुछ कम सत्तर की होने आईं, अभी खासी कठौता सी बनी हैं। मेरा हाथ पकड़ लें, तो छुड़ाना मुश्किल हो जाय। मुई देवनी है।
हुस्नआरा - क्या यह भी कोई ऐब है?
बहारबेगम - एक दिन का जिक्र सुनो, किसी के यहाँ से महरी आई। कुछ मेवे लाई थी। वह उस वक्त झूठ-मूठ कुरान-शरीफ पढ़ रही थीं। महरी ने आके मुझको सलाम किया और मेवे की तश्तरी सामने रख दी। बस, दिन भर मुँह फुलाए रहीं।
हुस्नआरा - मगर बातें तो बड़ी मीठी-मीठी करती हैं।
बहारबेगम - एक दिन किसी ने उनको दो चकोतरे दिए। उन्होंने एक चकोतरा मुझको भेजा और एक मेरी ननद को। वह उनसे भी बढ़ कर बिस की गाँठ। जा कर माँ से जड़ दिया कि भाई ने हमको आधा सड़ा हुआ चकोतरा दिया और भाभी को बड़ा सा! बस, इस पर सुबह से शाम तक चरखा कातती रहीं।
हुस्नआरा - मैं एक बात पूछूँ? सच-सच कहना। दूल्हा भाई तो प्यार करे हैं?
बहारबेगम - यही तो खैर है।
हुस्नआरा - दिल से?
बहारबेगम - दिल और जान से
हुस्नआरा - भला, माँ से बनती है।
बहारबेगम - वह खुद जानते हैं कि बुढ़िया चिड़चिड़ी औरत है।
हुस्नआरा - बहन, वह तो बड़ी हैं ही, मगर तुम भी तेजी के मारे उनको और जलाती हो। जो मिलके चलो, वह तुम्हारा पानी भरने लगें।
बहारबेगम - अच्छा तुम्हीं बताओ, कैसे मिल के चलूँ?
हुस्नआरा - अब की जब जाओ, तो अदब के साथ झुक कर सलाम करो।
बहारबेगम - किसको?
हुस्नआरा - अपनी सास को, और किसको।
बहारबेगम - वाह! मर जाऊँ, मगर सलाम न करूँ मुरदार को।
हुस्नआरा - बस, यही तो बुरी बात है।
बहारबेगम - रहने दीजिए, बस। वह तो हमको देख कर जल मरें, और हम उनको झुक के सलाम करें। एक दिन मामा से बोलीं कि हमारा पानदान उसको क्यों दे आई? मेरे मुँह से बस, इतनी-सी बात निकल गई कि मेरी सास काहे को हैं, यह तो मेरी सौत हैं। बस इस पर इतना बिगड़ीं कि तोबा ही भली?
हुस्नआरा - बहन, तुमने भी तो गजब किया। तुम्हारे नजदीक यह इतनी सी ही बात थी? सास को सौत बनाया, और उसको इतनी सी ही बात कहती हो! अगर तुम्हारी बहू आए और तुम्हें सौत बनाए, तब देखूँगी, उछलती-कूदती हो कि नहीं।
सिपहआरा - उफ्! बड़ी बुरी बात कही।
रूहअफजा - तो अब बन चुकी बस।
बहारबेगम - तुम सबको उसने कुछ रिश्वत जरूर दी है। जब कहती हो, उसी की सी।
सिपहआरा - हमारी बहन, और ऐसी मुँहफट! सास को सौत बनाए!
हुस्नआरा - और फिर शरमाए न शरमाने दे।
बहारबेगम - अच्छा बताइए, तो पहले झुक के सलाम करूँ खूब जमीन पर सो कर। फिर?
हुस्नआरा - मेरे तो बहन, रोंगटे खड़े हो गए कि तुमसे यह कहा क्योंकर गया!
बहारबेगम - बताओ-बताओ। हमारी कसम, बताओ।
हुस्नआरा - तुम हँसोगी, और हमें होगा रंज।
बहारबेगम - नहीं, हँसेगे नहीं। बोलो।
हुस्नआरा - जा कर सलाम करो।
बहारबेगम - जो वह जवाब न दें, तो अपना-सा मुँह ले कर रह जाऊँ?
सिपहआरा - वाह! ऐसा हो नहीं सकता।
हुस्नआरा- न जवाब दें, तो कदमों पर गिर पड़ो।
बहारबेगम - मेरी पैजार गिरती है कदमों पर। वह जैसा मेरे साथ करती हैं, वैसा उनकी आँखों, घुटनों के आगे आए।
हुस्नआरा - खर्च तो उजला है, या कंजूस है?
बहारबेगम - तीन सौ वसीके के हैं, ढाई सौ गाँव से आते हैं। नकद कोई डेढ़ लाख से ज्यादा ही ज्यादा होगा। मकान, बाग दुकानें अलग हैं। वकालत में कोई छह सात सौ का महीना मिलता है।
हुस्नआरा - तुमको क्या देते हैं?
बहारबेगम - बुढ़िया से चुरा कर मेरे ऊपर के खर्च के लिए सौ रुपए मुकर्रर हैं।
सिपहआरा - रूहअफजा बहन, तुम्हारे मियाँ क्या तन्ख्वाह पाते हैं?
रूहअफजा - चार सौ हुए हें। चार-पाँच सौ जमीन से मिल जाते हैं।
हुस्नआरा - तुम्हारी सास तो अच्छी हैं।
रूहअफजा - हाँ, बेचारी बड़ी सीधी हैं। हाँ, उनकी लड़की ने अलबत्ता मेरी नाक में दम कर दिया है। जब आती है, रोज माँ को भरा करती हैं।
सिपहआरा - बहारबेगम जो वहाँ होतीं, तो उनसे भी न बनती।
बहारबेगम - अच्छा, चुप ही रहिएगा, नहीं तो काट खाऊँगी। बड़ी वह बनके आई हैं।
इतने में काली-काली घटा छा गई। ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी। बहार ने कहा - जी चाहता है, छत पर से दरिया की सैर करें। सबने कहा - हाँ-हाँ, चलिए। मगर हुस्नआरा को याद आ गई कि हुमायूँ फर जरूर खबर पाएँगे और कोठे पर आके सताएँगे। लेकिन मजबूर थी। चारों चौकड़ियाँ भरती हुई छत पर जा पहुँचीं। हवा इस जोर से चलती थी कि दुपट्टा खिसका जाता था। गोरा-गोरा बदन साफ नजर आता था। किसी ने जा कर हुमायूँ फर से कह दिया कि इस वक्त तो सामने वाला कोठा इंदर का अखाड़ा हो रहा है। उनको ताब कहाँ? चट से कोठे पर आ पहुँचे। सिपहआरा ऊपर के कमरे में सो रहीं। रुहअफजा वहीं बैठ गईं। हुस्नआरा ने एक छलाँग भरी, तो रावटी में। मगर बहारबेगम ने बेढब आँखें लड़ाईं। हुमायूँ फर ने बहुत झुक कर सलाम किया।
बहारबेगम - आँखें ही फूटें, जो इधर देखे।
हुमायूँ - (हाथ के इशारे से) अपना गला आप काट डालूँगा।
बहारबेगम - शौक से।
नन्हीं-नन्हीं बूँदे पड़ने लगीं और चारों परियाँ नीचे चल दीं। मिरजा हुमायूँ फर मुँह ताकते रह गए।
हुस्नआरा - (बहार से) आप तो खूब डटके खड़ी हो गईं।
बहारबेगम - क्यों, क्या कोई घोल कर पी जायगा! मैं इन्हें जानती हूँ, हुमायूँ फर तो हैं।
सिपहआरा - तुम क्योंकर जानती हो बहन!
बहारबेगम - ऐ वाह, और सुनिएगा लड़कपन में हम खेला किए हैं। इनके साथ। खूप चपतें जमाया किए हैं इनको! इनकी माँ और दादी में खूब झोटम-झोटा हुआ करता था।
इतने में मामा ने आ कर कहा - बड़ी बेगम साहबा ने ये मेवे भेजे हैं।
सिपहआरा - देखूँ। ये चिलगोजे लेती जाओ।
प्यारी - हमको दीजिए।
सिपहआरा - इनको दीजिए। 'पीर न शहीद, नकटों को छापा।' सबके बदले इनको दीजिए।
हुस्नआरा - अच्छा, पहले सलाम कर।
चारों बहनों ने मजे से मेवे चखे। एक दूसरी के हाथ से छीन-छीन कर खाती थीं। जवानी की उमंग का क्या कहना!
उधर मिरजा हुमायूँ फर अपनी छत पर खड़े यह शेर पढ़ रहे थे -
न मुड़ कर भी बेदर्द कातिल ने देखा,
तड़पते रहे नीम जाँ कैसे-कैसे।
जब बड़ी देर तक छत पर किसी को न देखा तो, यह शेर जबान पर लाए -
कल बदामोंज (रकीब) ने क्या तुमको सिखाया है हाय!
आज वह आँख, वह चमक, वह इशारा ही नहीं।
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