आजाद-कथा
(खंड - 1)
रतननाथ सरशार
अनुवाद - प्रेमचंद
प्रकरण - 33
रेल से उतर कर दोनों, आदमियों ने एक सराय में डेरा जमाया और शहर की सैर को निकले। यों तो यहाँ की सभी चीजें भली मालूम होती थीं, लेकिन सबसे ज्यादा जो बात उन्हें पसंद आई, वह यह थी कि औरतें बिला चादर और घूँघट के सड़कों पर चलती-फिरती थीं। शरीफजादियाँ बेहिजाब नकाब उठाए; मगर आँखों में हया और शर्म छिपी हुई।
खोजी - क्यों मियाँ, यह तो कुछ अजब रस्म है? ये औरतें मुँह खोले फिरती हैं। शर्म और हया सब भून खाई। वल्लाह, क्या आजादी है!
आजाद - आप खासे अहमक हैं। अरब में, अजम में अफगानिस्तान में, मिसर में, तुर्किस्तान में, कहीं भी परदा है? परदा तो आँख का होता है। कहीं चादर हया सिखाती है? जहाँ घूँघट काढ़ा, और नजर पड़ने लगी।
खोजी - अजी, मैं दुनिया की बात नहीं चलाता। हमारे यहाँ तो कहारियाँ और मालिनें तक परदा करती हैं, न कि शरीफजादियाँ ही! एक कदम तो बेपरदे के जाती नहीं।
आजाद - अरे मियाँ, नकाब को शर्म से क्या सरोकार? आँख की हया से बढ़ कर कोई परदा ही नहीं; हमारे मुलक में तो परदे का नाम नहीं; मगर हिंदुस्तान का तो बाबा आदम ही निराला है।
खोजी - आपका मुल्क कौन? जरा आपके मुल्क का नाम तो सुनूँ।
आजाद - कशमीर। वही कशमीर जिसे शायरों ने दुनिया का फिरदौस माना है। वहाँ हिंदू-मुसलमान औरतें बुरका ओढ़ कर निकलती हैं; मगर यह नहीं कि औरतें घर के बाहर कदम ही न रखें। यह रोग तो हिंदुस्तान ही में फैला है! हम तो जब तुर्की से आयँगे, तो यहीं बिस्तर जमाएँगे और हुस्नआरा को साथ ले कर आजादी के साथ हवा खायँगे।
खोजी - यार बात तो अच्छी है, मगर मेरी बीवी तो इस लायक ही नहीं कि हवा खिलाने ले जाऊँ। कौन अपने ऊपर तालियाँ बजवाए? फिर अब तो बूढ़ी हुई और रंग भी ऐसा साफ नहीं।
आजाद - तो इसमें शरम की कौन सी बात है? आप उनके काले मुँह से झेंपते क्यों है।
खोजी - जब हब्श जाऊँगा, तो वहाँ हवा खिलाऊँगा। आप नई रोशनी के लोग हैं। आपकी हुस्नआरा आपसे भी बढ़ी हुई, जो देखे फड़क जाय कि क्या चाँद-सूरज की जोड़ी है। ऐसी शक्ल-सूरत हो, तो हवा खिलाने में कोई मुजायका नहीं। हम अब क्या जोश दिखाएँ; न वह उमंग है, न वह तरंग।
आजाद - हम कहते हैं, बुआ जाफरान को ब्याह लो और एक टट्टू ले दो। बस, इसी तरह वह भी बाजारों में हवा खायँ।
खोजी - (कान पकड़ कर) या खुदा बचाइयो। पीच पी, हजार निआमत खाई। मारे चपतों के खोपड़ी गंजी कर दी थी। क्या वह भूल गया?
आजाद - यहाँ से बंबई भी तो करीब है।
खोजी - अरे गजब! क्या जहाज पर बैठना होगा? तो भई, मेरे लिए अफीम ले दो।
पूने से बंबई तक दिन में कई गाड़ियाँ जाती थीं। दोनों आदमियों ने सराय में पहुँच कर खाना खाया और बंबई रवाना हुए। शाम हो गई थी। एक होटल में जा कर ठहरे। आजाद तो दिन भर के थके हुए थे, लेटते ही खर्राटे लेने लगे। खोजी अफीमची आदमी, नींद कहाँ? इसी फिक्र में बैठे हुए थे कि नींद को क्योंकर बुलाऊँ। इतने में क्या देखते हैं कि एक लंबी-तड़ंगी, पँचहत्थी औरत चमकती-दमकती चली आती है। पूरे सात फुट का कद, न जौ-भर कम, न जौ-भर ज्यादा। धानी चादर ओढ़े, इठला-इठला कर चलती हुई मियाँ खोजी के पास आ कर खड़ी हो गई। खोजी ने उसकी तरफ नजर डाली, तो उसने एक तीखी चितवन से उनको देखा और आगे चली। आपको शरारत जो सूझी तो सीटी बजाने लगे। सीटी को आवाज सुनते ही वह इनकी तरफ झुक पड़ी और छमाछम करती हुई कमरे में चली आई। अब मियाँ खोजी के हवास पैतरे हुए कि अगर आजाद की आँख खुल गई, तो ले ही डालेंगे; और जो कहीं रीझ गए, तो हमारी खैरियत नहीं। हम बस, नींबू और नोन चाट कर रह जायँगे। इशारे से कहा - जरी आहिस्ता बोलो।
औरत - अरे वाह मियाँ! अच्छे मिले।
खोजी - मियाँ आजाद सोए हुए हैं।
औरत - इनका बड़ा लिहाज करते हो; क्या बाप है तुम्हारे?
खोजी - खुदा के वास्ते चुप भी रहो।
औरत - चलो, हम-तुम दूसरी कोठरी में चल कर बैठें।
दोनों पास की एक कोठरी मे जा बैठे। औरत ने अपना नाम केसर बतलाया और बोली - अल्लाह जानता है, तुम पर मेरी जान जाती है। खुदा की कसम, क्या हाथ-पाँव पाए हैं कि जी चाहता है, चूम लूँ। मगर दाढ़ी मुड़वा डालो।
खोजी - (अकड़ कर) अभी क्या, जवानी में देखना हमको!
क्या खूब अभी जवानी शायद आनेवाली है। कुछ ऊपर पचास का सिन हुआ, और आप अभी लड़के ही बने हुए हैं। उस औरत ने आपको उँगलियों पर नचाना शुरू किया, लेकिन आप समझे कि सचमुच रीझ ही गई और भी बफलने लगे।
औरत - डील-डौल कितना प्यारा है कि जी खुश हो गया। मगर दाढ़ी मुड़वा डालो।
खोजी - अगर मैं कसरत करूँ, तो अच्छे-अच्छे पहलवानों को लड़ा दूँ।
औरत - जरा कान तो फटफटा लो, शाबाश!
खोजी - एक बात कहूँ, बुरा तो न मानोगी?
औरत - बुरा मानूँगी, तो जरा खोपड़ी सहला दूँगी।
खोजी - जाँबख्शी करो, तो कहूँ।
औरत - (चपत लगा कर) क्या कहता है, कह।
खोजी - भई, यह धौल-धप्पा शरीफों में जायज नहीं।
औरत - तुम मुए को कौन निगोड़ी शरीफ समझती है।
एक चपत और पड़ी। खोजी ने त्योरियाँ बदल कर कहा - भई, आदत मुझे पसंद नहीं। मुझे भी गुस्सा आ जायगा।
औरत - आँखें क्या नीली-पीली करता है? फोड़ दूँ दोनों आँखें?
खोजी - अब हमारा मतलब तो इस झंझट में खब्त हुआ जाता है। अब तो बताओ, कुछ माँगें, तो दोगी?
औरत - हाँ, क्यों नहीं, एक लप्पड़ इधर और दूसरा उधर। क्या माँगते हो?
खोजी - कहना यह है कि - मगर कहते हुए दिल काँपता है।
औरत - अब मैं तुमको ठीक न बनाऊँ कहीं?
खोजी - तुम्हारे साथ ब्याह करने को जी चाहता है।
औरत - ऐ, अभी तुम बच्चे हो। दूध के दाँत तक तो टूटे नहीं। ब्याह क्या करोगे भला?
खोजी - वाह-वाह! मेरे दो बच्चे खेलते हैं। अभी तक इनके नजदीक लौंडे ही हैं हम।
औरत - अच्छा, कुछ कमाई-वमाई तो निकाल, और दाढ़ी मुड़वा।
खोजी - (दस रुपए दे कर) लो, यह हाजिर है।
औरत - देखूँ। ऊँह, हाथी के मुँह में जीरा!
खोजी - लो, यह पाँच और लो। अजी, मैं तुमको बेगम बना कर रखूँगा।
औरत - अच्छा, एक शर्त से शादी करूँगी। तड़के तक के मुझे सात बार सलाम करना और मैं सात चपतें लगाऊँगी।
खोजी - अजी, बल्कि और दस।
औरत - अच्छा, इसी बात पर कुछ और निकालो।
खोजी - लो, यह पाँच और लो। तुम्हारे दम के लिए सब कुछ हाजिर है। औरत ने झठ से मियाँ खोजी को गोद में उठा लिया और बगल में दबा कर ले चली, तो खोजी बहुत चकराए। लाख हाथ-पाँव मारे, मगर उसने जो दबाया, तो इस तरह ले चली, जैसे कोई चिड़ीमार जानवरों को फड़फड़ाते हुए ले चले।
अब सारा जमाना देख रहा है कि खोजी फड़कते हुए जाते हैं और वह औरत छम-छम करती चली जाती है।
खोजी - अब छोड़ती है, या नहीं?
औरत - अब उम्र-भर तो छोड़ने का नाम न लूँगी। हम भलेमानसों की बहू-बेटियाँ छोड़ देना क्या जानें। बस, एक के सिर हो रहीं। भागे कहाँ जाते हो मियाँ।
खोजी - मैं कुछ कैदी हूँ?
औरत - (चपत लगा कर) और नहीं, कौन है तू? अब मैं कहीं जाने भी दूँगी?
खोजी पीछे हटने लगे, तो उसने पट्टे पकड़ कर खूब बेभाव की लगाई। अब यह झल्लाए और गुल मचाया कि कोई है? लाना करौली? बहुत से तमाशाई खड़े हँस रहे थे।
एक - क्या है मियाँ? यह धर पकड़ कैसी?
औरत - आप कोई काजी हैं? यह हमारे मियाँ हैं, हम चाहे चपतियाएँ चाहे पीटें! किसी को क्या?
दूसरा - मेहरारू गर्दन दाबे उठाए लिए जात है, वह करौली निकारत है।
खोजी - बुरे फँसे!यारो, जरा मियाँ आजाद को सरा से बुलाना।
औरत ने फिर खोजी को गोद में उठाया और मशक की तरह पीठ पर रख कर 'मसक दरियाव, ठंडा पानी' कहती हुई ले चलीं।
एक आदमी - कैसे मर्द हो जी! औरत से जीत नहीं पाते? बस, इज्जत डुबो दी बिलकुल।
खोजी - अजी, इस औरत पर शैतान की फटकार। यह तो मरदों के कान काटती है।
इतने में मियाँ आजाद की नींद खुली, तो खोजी गायब। बाहर निकले, तो देखा खोजी को एक औरत दबाए खड़ी है। ललकार कर कहा - तू कौन है! उन्हें छोड़ती क्यों नहीं?
औरत ने खोजी को छोड़ दिया और सलाम करके बोली - हुजूर, मेरा इनाम हुआ। मैं बहुरूपिया हूँ।
दूसरे दिन खोजी मियाँ आजाद के साथ शहर की सैर करने चले, तो शहर भर के लौंडे-लहाड़िये साथ, पीछे-पीछे तालियाँ बजाते जाते हैं। एक बोला - कहो चड्डा, बीबी ने चाँद गंजी कर दी न? हत तेरे की! दूसरा बोला - कहो उस्ताद, खोपड़ी का क्या रंग है?
बेचारे खोजी को रास्ता चलना मुश्किल हो गया। दो-चार आदमियों ने बहुरूपिए की तारीफ की, तो खोजी जल-भुन कर खाक हो गए अब किसी से न बोलते हैं, न चालते। दुम दबाए, डग बढ़ाए, गर्दन झुकाए पत्तातोड़ भाग रहे हैं। वारे खुदा-खुदा करके दोपहर को फिर सराय में आए। नीम की ठंडी-ठंडी छाँह में लेट गए, तो एक भठियारी ने मुसकिरा के कहा - गाज पड़े ऐसी औरत पर, जो मियाँ को गोद में उठाए और बाजार भर में नचाए। गरज सराय को भठियारियों ने खोजी को ऐसा उँगलियों पर नचाया कि खुदा की पनाह! ऐसे झेंपे कि करौली तक भूल गए।
इतने में क्या देखते हैं कि एक लंबू डील-डौल का खूबसूरत जवान तमंचा कम से लगाए, ऊँची पगड़ी सिर पर जमाए, बाँकी-तिरछी छवि दिखाता हुआ अकड़ता चला आता है। भठियारियाँ छिप-छिप के झाँकने लगीं। समझीं कि मुसाफिर है, बोलीं - मियाँ, इधर आओ, यहाँ बिस्तर जमाओ। मियाँ मुसाफिर, देखो, कैसा साफ-सुथरा मकान है! पकरिया की ठंडी-ठंडी छाँह है, जरा तो तकलीफ होगी नहीं। सिपाही बोला - हमें बाजार से कुछ सौदा खरीदना है। कोई हमारे साथ चले, तो सौदा खरीद कर हम आ जायँ। एक भठियारी बोली - चलिए, हम चलते हैं। दूसरी बोली - लौंडी हाजिर है। सिपाही ने कहा - मैं किसी पराई औरत को नहीं ले जाना चाहता। कोई पढ़ा-लिखा मर्द चले, तो पाँच रुपए दें। मियाँ खोजी के कान में जो भनक पड़ी, तो कुलबुला कर उठ बैठे और कहा - मैं चलता हूँ, मगर पाँचों नकद गिनवा दीजिए। मैं अलसेट से डरता हूँ। सिपाही ने झट से पाँचों गिन दिए। रुपए तो खोजी ने टेंट में रखे और सिपाही के साथ चले। रास्ते में जो इन्हें देखता है, कहकहा लगाता है - बचा की खोपड़ी जानती होगी, छठी का दूध याद आ गया होगा! जब चारों और से बौछारें पड़ने लगीं तो खोजी बहुत ही झल्लाए और गुल मचा कर एक-एक को डाँटने लगे। चलते-चलते एक अफीम की दुकान पर पहुँचे।
सिपाही - कहो भई जवान, है शौक! पिलवाऊँ?
खोजी - अजी, मैं तो इस पर आशिक हूँ।
सिपाही ने मियाँ खोजी को खूब अफीम पिलाई। जब खूब सरूर गँठे तो सिपाही ने उनको साथ लिया और चला। बातें होने लगी। खोजी बोले - भई, अफीम पिलाई है, तो मिठाई भी खिलवाओ। एहसान करे, तो पूरा।
सिपाही - अजी, अभी लो। ये चार गंडे की पँचमेल मिठाई हलवाई की दुकान से लाओ।
हलवाई की दुकान से खोजी ने लड़-लड़ के खूब मिठाई ली और झूमते हुए चले। भूख के मारे रास्ते ही में डलियाँ निकाल कर चखनी शुरू कर दीं। सिपाही कनखियों से देखता जाता था; मगर आँख चुरा लेता था। आखिर दोनों आदमी एक बजाज की दुकान पर पहुँचे। सिपाही ने खोजी की तरफ इशारा करके कहा - इनके अँगरखे के बराबर जामदानी निकाल दीजिए।
बजाज - हुजूर, अपने अँगरखे के लिए लें, तो कुछ हमें भी मिल रहे। इनका तो अँगरखा और पाजामा सब गज भर में तैयार हैं।
खोजी - निकालो, जामदानी निकालो। बहुत बातें न बनाओ। अभी एक धक्का दूँ, तो पचास लुढ़कनियाँ खाओ।
बजाज - लीजिए, क्या जामदानी है। बहुत बढ़िया! मोल-तोल दस रुपए गज। मगर सात रुपए गज से कौड़ी कम न होगी।
सिपाही - भई, हम तो पाँच रुपए के दाम देंगे।
बजाज - अब तकरार कौन करे। आप छह के दाम दे दें।
सिपाही - अच्छा, दो गज उतार दो।
सिपाही ने बजाज से सब मिला कर कोई पचीस रुपए का कपड़ा लिया और गट्ठा बाँध कर उठ खड़ा हुआ।
बजाज - रुपए?
सिपाही - अभी घर से आकर देंगे? जरा कपड़े पसंद तो करा लाएँ। यह हमारा साला बैठा है, हम अभी आए।
वह तो ले-दे कर चल दिया। खोजी अकेले रह गए। जब बहुत देर हो गई, तो बजाज ने गर्दन नापी - कहाँ चले आप! कहाँ, चले कहाँ?
खोजी - हम क्या किसी के गुलाम हैं?
बजाज - गुलाम नहीं हो तो और हो कौन? तुम्हारे बहनोई तुमको बिठा कर कपड़ा ले गए हैं।
खोजी पिनक से चौंके थे। सिपाही और बजाज में जब बातें हो रही थीं तब वह पिनक में थे। झल्ला कर बोले - अबे किसका बहनोई? और कौन साला? कुछ वाही हुआ है?
इतने में एक आदमी ने आ कर खोजी से कहा - तुम्हारे बहनोई तुम्हें यह खत दे गए हैं। खोजी ने खोल कर पढ़ा तो लिखा था -
'हत् तेरे की, क्यों? खा गया न झाँसा? देख, अबकी फिर फाँसा। तब की बीवी बनके चपतियाया, अब की बहनोई बनके झाँसा दिया। और अफीम खाओगे?'
खोजी 'अरे!' करके रह गए। वाह रे बहुरूपिए, अच्छा घनचक्कर बनाया। खैर, और तो जो हुआ, वह हुआ, अब यहाँ से छुटकारा कैसे हो। बजाज इस दम टटरूँ-टूँ, और करौली पास नहीं। मगर एक दफे रोब जमाने की ठानी। दुकान के नीचे उतर कर बोले - इस फेर में भी न रहना! मैंने बड़े-बड़ों की गर्दनें ढीली कर दी है।
बजाज - यह रोब किसी और पर जमाइएगा। जब तक आप के बहनोई न आएँगे, दुकान से हिलने न दूँगा।
बारे थोड़ी ही देर में एक आदमी ने आ कर बजाज को पचीस रुपए दिए और कहा - अब इनको छोड़ दीजिए।
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