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जानकी

जानकी

पूरा राजभवन सन्नाटे से भर गया था। राज सभा में खड़ी सारी प्रजा एकटक विशाल द्वार की ओर देख रही थी। रघुवीर का मुख मंडल भी प्रत्याशा के दीप से दमक रहा था। उनके शांत स्वभाव के प्रतिकूल प्रतिक्षण उनके मुख पर व्यग्रता के भाव आ-जा रहे थे। उपस्थित जन समूह भी उनकी इस व्याकुलता से अनभिज्ञ नहीं था।

साँस रोके सब जानकी की पदचाप सुनने के लिए अधीर हो रहे थे। जानकी की पदचाप रघुवीर को उतनी ही सुमधुर प्रतीत हुई जितनी वर्षों पहले मिथिला की पुष्प वाटिका में नुपुरों की रुन-झुन लगी थी। जिस प्रकार सखियों के संग आती जानकी के एक-एक पग से उठी एक-एक झनक हृदय में झनकार पैदा कर रही थी, उसी प्रकार यह पदचाप भी हृदयाकाश को झंकृत कर रही थी। वही गति, चाल में वही सौम्यता, उतनी ही गंभीरता, उतना ही सौष्ठव। यह मेरी जानकी ही तो है। और कोई हो ही नहीं सकता। अपलक, निर्निमेष, एकटक द्वार पर देखते खड़े थे रघुवीर। प्रजा को भी उनके न बैठने पर कोई आपत्ति या आश्चर्य नहीं था। वह भी उसी आशा-प्रत्याशा में हिचकोले ले रही थी।

उधर जानकी के भी हृदय की स्थिति भिन्न न थी। जीवन रूपी पुष्प, जिनकी चरणधूलि पर समर्पित कर दिया, आज एक बार फिर उनके दर्शनों की पिपासा शांत होगी। जीवन सार्थक होगा। आज तपस्या पूर्ण होगी जब पूरे संसार के सामने मुझे वापस अपना लिया जाएगा। कितना समय बीत गया। उफ्फ! मैं तो बूढ़ी हो चली। कैसी लगूँगी मैं उन्हें? बिना शृंगार के जाने वो तत्परता कहाँ ओझल हो गई। ङ्क्षकतु उचित ही है, माता हूँ अब, मात्र अर्धांगिनी नहीं। कितने वर्ष लगा दिए अयोध्यावासियों ने, मुझे समझने में। उन्होंने ने भी। कैसे नहीं अपनाता अयोध्या मुझे। अपने बालक के समान वात्सल्य दिया मैंने अयोध्या को। अपनी माता को कितने दिन कष्ट में देख सकती थी अयोध्या।’

नववधू सा प्रकंपित हृदय लिए, जानकी सभा-मध्य पहुँच गई। अब भी अपलक, निर्निमेष, एकटक देखते खड़े थे रघुवीर। जैसे ही जानकी के पद सभा-मध्य स्थिर हुए कि रघुवीर के संयम की प्रत्यंचा टूट गई। वे दौडक़र मध्य का शेष अंतर पूरा कर लेना चाहते थे। और चाहते थे अपनी प्राणप्रिया को अपने आजानुबाहु-पाश में बांध लेना कि पुन: ऐसा कोई क्षण न आए, पुन: ऐसा अंतर न पैदा हो। इसी क्रम में वे एक पग आगे बढ़े ही थे कि अब तक एकटक भूमि ताकती जानकी ने चौंककर सिर उठाया और आँखों से आँखें मिलाई।

रघुवीर भी ठहर गए जैसे जानकी की आँखों ने लक्ष्मण रेखा खींचकर कहा हो ’नहीं मर्यादा पुरुषोत्तम।’ और रघुवीर की आँखें भी यह सुनकर मुस्कुरा दीं। हल्की सी स्मित रेखा तो यही बताती है।

नयनों की भाषा भी अद्भुत थी उस पल। एक युग की पीड़ा दोनों के नैनों में उतर आई।

रघुवीर के नयन पूछते थे ’कैसी हो?

धत्त् यह भी क्या पूछता हूँ मैं? देख तो रहा ही हूँ कि वह, वह नहीं रही।

ये क्या दशा है तुम्हारी, मेरी जानकी।

तुम वह तो रही ही नहीं जिसे मैं मिथिला से लाया था।

सिर से नख तक देखकर तो यही कह सकता हूँ मिथिलेश कुमारी।’

सिर एक ओर झुकाते हुए जानकी ऐसे मुस्कुराई जैसे कह रही हो ’तुम भी तो दैत्यवंश निकंदन नहीं लगते।

क्या अन्न-जल त्याग बैठे हो।

तुम्हारी दशा पर तो हंसी-ठिठोली करने का मन होता है कि राजन् तुम ऐसे हो... तो प्रजा कैसी होगी?’

रघुवीर ने पलक झुकाई जैसे झेंप गए हों और फिर संभलकर वापस आँखों में आँखें डालकर जैसे दयनीय भाव से कह रहें हो ’तुम से विलग और कैसा हो सकता हूँ।’

अब जानकी की झेंपने की बारी है। लज्जा आभारित उनका रक्ताभ मुख झुक गया। पुन: संभलकर उन्होंने भी आँखों में आँखें डालकर प्रत्युत्तर में जैसे कहा हो ’मेरा तो जीवन ही वृथा हो गया। कोई उद्देश्य ही नहीं था। मैंने तो अंत कर दिया होता इसका यदि तुम्हारे ये दो उत्तराधिकारी तुम्हें न सौंपने होते।’

पहली बार रघुवीर का ध्यान जानकी से हटकर, उन दो बालकों पर गया जो उन्हें अपलक निहार रहे थे। रघुवीर की वात्सल्य से परिपूर्ण दृष्टि दोनों बालकों पर जा ठहरी।

’कितने वीर बालक हैं? जानती हो जानकी इन्होंने तो हनुमान को बन्दी बना लिया।’

जानकी आँखों ही आँखों में मुस्कुराई। इतना मुस्कुराई कि जैसे दंतपंक्ति की आभा झलक उठी हो और कह रही हो ’हाँ। जानती हूँ। बहुत नटखट हैं। तुम्हारी शालीनता तो इन्हें छू भी नहीं गई। ङ्क्षकतु वीरता में तुम्हारा ही प्रतिरूप हैं। क्यों न हों। रघुकुल दीपक जो हैं।’

जानकी अभी गर्विता बनी खड़ी अपने दोनों पुत्रों को बारी-बारी से निहार ही रही थी कि रघुवीर के मुख-मंडल की छवि परिवर्तित होने लगी। जैसे स्वच्छ, धुले-खिले आकाश में अचानक ही घने-काले मेघों का आच्छादन होता है वैसे ही रघुवीर के मुख की कांति मलिन होने लगी। शंका, फिर ईष्र्या, फिर घृणा के भावों से मुख आच्छादित हो गया।

जानकी की पुलकित काया अब अचानक भय और क्रोध से थर-थर काँप रही थी। ’क्या अब भी तुम्हें मुझ पर संदेह है? तो मुझे यहाँ बुलाया ही क्यों? यह कैसा न्याय है तुम्हारा राजन्। अग्नि परीक्षा तो मैं दे चुकी हूँ। फिर कहते तो फिर दे देती। मगर तुमने तो मुझ से कुछ कहा ही नहीं। न मुझे कुछ कहने का अवसर ही दिया। बस वन-वन भटकने के लिए छोड़ दिया। ऐसा व्यवहार तो अयोध्या के किसी अपराधी के साथ भी नहीं होता। फिर मेरे साथ ही क्यों?’

रघुवीर की भृकुटि तन गई। ’तुम अपने आप को समझती क्या हो पाखंडी नारी? वह अग्नि परीक्षा कोई छलावा रही होगी। मूर्ख समझती हो मुझे। भला यह समझाना चाहती हो कि बिल्ली भी दूध की रखवाली कर सकती है?’

जानकी की निर्मल काया जैसे आत्मरक्षा में तनकर खड़ी हो गई। ’यदि यही तुम्हारे सुविचार थे तो क्यों नहीं मुझे वन-वन भटकने दिया। क्यों भरी सभा में अपमानित करने को लाए? अगर कोई अग्नि परीक्षा भी तुम्हारी शंका नहीं मिटा सकती तो और कौन सा प्रमाण तुम्हें दूँ। क्या तुम मुझे कोई प्रमाण दे सकते हो कि मेरी अनुपस्थिति में तुमने सदैव अपना एकपत्नी धर्म निभाया।’

रघुवीर की रगों, आँखों में क्रोध उबलने लगा। धुँआ सा उठने लगा। एक कदम और नीचे उतर आए जैसे इस मूक वार्तालाप में कह रहे हों ’चुप रहो।’

स्थिति को बिगड़ते देख जानकी ने अपनी खींची तलवार वापस रख ली और मुखमंडल पर निरीहता लाते हुए नयनों से ही बोल उठीं’ कब तक मुझसे प्रमाण माँगोगे। मेरी बातों पर तो तुम्हें लेशमात्र भी भरोसा नहीं। उस युग के सब गवाहों का तुम और तुम्हारी सेना वध कर चुकी है। अब तो वह भी जीवित नहीं, जिसको लेकर मुझ पर दोषारोपण हुआ। उसका तो तुम वध कर चुके हो। क्या अब भी तुम्हारी क्रोधाग्नि शांत नहीं होती।’

रघुवीर का मुख एकदम कड़ा हो गया जैसे चेहरे से घृणा और क्रोध की अग्नि साथ-साथ बरस रही हो और आँखों ही आँखों में वे कह रहे हों, ’वह मरा नहीं है। वह आज भी जीवित है। वह जीवित है मेरे और तुम्हारे बीच। एक क्षण के लिए तुम्हारी विस्मृति भी संभव है जानकी, ङ्क्षकतु उसे एक क्षण के लिए भी अपने मानस के पटल से हटा नहीं पाया हूँ। उस ब्रह्मराक्षस का वध नहीं हुआ। वह अमर हो गया है मेरे जीवन की परिधि में। सदा-सदा के लिए।’

फिर मुख के तनाव को तनिक ढीला करते हुए जैसे फुसफुसाए हों कि ’क्या इतने दिनों में कोई संबंध नहीं हुआ तुम्हारे बीच? क्या मैं नहीं जानता कि वो विवाह से पहले भी तुम्हें पाना चाहता था? क्या मैं नहीं जानता की तुम्हें न पाने की निराशा में वह स्वयंवर होने से पहले ही लौट गया था? ऐसे में तुम्हीं बोलो कि मैं यह कैसे मान लूँ कि जो तुम इतने दिन उसके सन्निकट रहकर लौटी हो तो ऐसे ही लौट आई हो?’

जहाँ रघुवीर का चेहरा एकदम अकड़ सा गया वहीं प्रतिक्रिया स्वरूप जानकी का रूप सिकुड़ सा गया किसी निरीह गौमाता समान और भौहें ऊँची हो गई। उन ऊँची भौहों के ऊपर उस दिव्य ललाट पर भी सैकड़ों लकीरें बन गईं। सैकड़ों लकीरें थीं, जो इस प्रश्न से उठी उनकी पीड़ा की परिचायक थीं, परंतु आंखों में प्रश्न केवल एक ही था ’क्या तुम्हें अभी भी ऐसा ही प्रतीत होता है राम?’

इसका प्रत्युत्तर भला रघुवीर क्या देते? एक पल के लिए हृदय ने साक्ष्य दिया कि प्राणों से भी प्रिय जानकी ही इस संसार में अटल सत्य की मूरत है। शेष सब छलावा है, माया है। मगर दूसरे ही पल मस्तिष्क ने डाह की अग्नि वर्षा से राम को भिगो दिया। ’इतने बलशाली पुरुष के सान्निध्य में रहकर आई हो। जिसने तीनों लोक जीत लिए थे। कुछ तो उसने प्रभावित किया ही होगा। फिर जिसने तुम्हें सोने के शहर में कई परिचारिकाओं की सुविधा दी हो उसके आगे मुझ आततायी अत्याचारी को तुम भूल न जाओ, यह कैसे संभव है। अंतत: मैंने तुम्हें दिया ही क्या है? सदैव वन-वन भटकाया। अपनी सेवा करवाई। न कोई सुरक्षा दी। न कोई सुविधा। उल्टे ला-लाकर साधुओं को पटक दिया कि लो और सेवा करो। वहीं दूसरी ओर तुम्हारा पटरानी सा स्वागत हुआ। तुम्हारी सेवा में परिचारिकाएं तो परिचारिकाएं स्वयं वह भी नतमस्तक खड़ा रहा होगा। ऐसे में भला तुम कैसे न तुलना करती मुझ संग बिताए कष्टों और उन सुखद क्षणों का जब तुम मुझसे जुड़े प्रत्येक दायित्व से मुक्त थी।’

अब तो जानकी के लिए पीड़ा असह्य-सी थी। उसने महल की अटारी की ओर देखना प्रारंभ किया कि कहीं से कोई साक्ष्य टपक पड़े और इन विक्षिप्तता से भरे प्रश्नों की बौछार बन्द हो।

रघुवीर को इस उपेक्षा ने उद्विग्नता से भर दिया। सारी सीमाएं लाँघते हुए तमतमाए चेहरे से ही वह भरी सभा में बोल उठे, ’प्रमाण देना होगा। अपनी शुचिता का। मेरी प्रजा माँग रही है।’

मूक वार्तालाप अब मुखर हो चली थी। रघुवीर माँग रहे थे जो दिया नहीं जा सकता था। जानकी ने विवशतावश चारों ओर देखा। अपनी संतान समान प्रजा को मूक देख जानकी का हृदय दो टूक हो गया। सब स्तब्ध मुँह बाए खड़े थे। किसी के मुख में वाणी नहीं? क्या कोई इस अन्याय के विरुद्ध कुछ नहीं कहेगा? जानकी ने मन ही

मन कहा, ‘धिक्कार है ऐसी प्रजा की माता और ऐसे राजा की पत्नी

होने का। ‘

निर्णय लेती हुई जानकी ने अपनी मुष्ठिका और आँखें दोनों भींच लीं। फिर अपनी पूरी शक्ति लगा कर बोली- ‘नहीं राजन्। अब कोई प्रमाण नहीं दूँगी। बहुत दे चुकी परीक्षा। बहुत कर चुकी तपस्या और मैं जितना दूँगी तुम उतना मांगोगे। अब मैं... प्रमाण मांगती हूँ। मैं प्रमाण मांगती हूँ इस प्रजा से मेरी संतान होने का। मैं प्रमाण मांगती हूँ तुमसे राजन्, मेरे पति होने का। बताओ राजन्, तुमने ऐसा क्या किया कि तुम्हें पति मानूँ। तुम्हें वनवास का दण्ड मिला तो मैं तुम्हारे साथ थी। मुझे वनवास का दंड मिला तो तुम कहाँ थे राजन्। कहाँ था मेरा पति। तुम क्यों नहीं मेरी तरह राजपाट का सुख छोड़ मेरे साथ गए राजन्? बोलो?‘

सभा निस्तब्ध। रघुवीर नि:शब्द।

जानकी प्रजा की ओर मुड़ी,’ बोलो मेरी प्रजा। तुमने मेरे साथ क्या किया? क्या माता के साथ किया जाने वाला व्यवहार ही किया? क्या अपनी जनने वाली माता पर भी ऐसे ही निराधार लांछन लगाते हो? नहीं न।’

सभा में सर झुके हुए थे। कइयों के अश्रुओं से धरती आद्र्र थी।

‘जब माता का गौरव दिया ही नहीं तो क्या नाता, क्या सम्बन्ध तुमसे। कोई नहीं न। फिर किस नाते प्रमाण मांगते हो। अपरिचितों से कोई प्रमाण मांगता है भला। बोलो किस सम्बन्ध से प्रमाण मांगते हो? बोलो?‘

मरघट सी सभा शोचनीय खड़ी थी। नहीं दे पा रही थी उत्तर। तब जानकी रघुवीर की ओर मुड़ी। अट्टहास करने लगी। उस अट्टहास में ङ्क्षकचित् विक्षिप्तता, ङ्क्षकचित पीड़ा का मिश्रण था। ‘लो राजन्। अपने दोनों उत्तराधिकारियों को संभालो। क्षमा राजन्। क्षमा। आपके उत्तराधिकारी नहीं। आपके राज्य की एक अभागन साध्वी के पुत्रों को राज्य की प्रजा समझकर संभालो जिनकी माता की मृत्यु हो गई है। इन अनाथों के नाथ अब तुम्हीं हो राजन्। ‘

रघुवीर की वाणी किसी आशंका से कंपकंपा रही थी। वाणी विरोध कर रही थी। परन्तु मुख पर सैकड़ों प्रश्नचिन्ह अंकित थे? जिन्हें पढक़र जानकी बोली- ‘मेरा क्या है राजन्। अब किसी से संबंध ही नहीं। माता-पिता ने तुम्हें सौंपकर हाथ जोड़ लिए। तुमने भाग्य को सौंपकर। जब इस धरा पर कोई काम ही नहीं बचा तो क्यों न लौट जाऊँ। लौट जाऊँ धरा के भीतर? जहाँ से आई थी। ‘

जानकी खोई-खोई हंस पड़ी। ‘जानते हो राजन्। सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है? वहां जाने पर मुझसे कोई प्रमाण नहीं मांगेगा। क्योंकि कोई मां प्रमाण नहीं मांगती। ‘

जानकी खंड-खंड मनोबल और खंड-खंड हृदय लिए धरा पर गिर पड़ी और मुख से मात्र यही उद्गार थे, ‘माँ...माँ...कहाँ हो माँ। मुझे फिर अंक में लो माँ। माँ मेरी अच्छी माँ। तुम तो प्रमाण नहीं मांगोगी न माँ। माँ..माँ..माँ। ‘

जानकी सभा के मध्य मूर्छित पड़ी थी। रघुवीर सब सीमाएं लांघकर जानकी की ओर दौड़े। ‘नहीं जानकी। मैं कोई प्रमाण नहीं चाहता। मैं सदैव तुम्हारे ....। ‘

अभी तक रघुवीर न तो अपना कथन पूरा कर पाए थे न ही जानकी के निकट पहुँच पाए थे कि अचानक ङ्क्षसहासन डोलने लगा। प्राचीर हिलने लगी। चारों ओर भयंकर कम्पन थी। प्रजा भूकंप से बचने के लिए बाहर की ओर भागी। सृष्टि थर-थर-थर-थर काँप रही थी। रघुवीर ने चेष्टा की कि जानकी को उठा, प्रांगण की ओर भागें। परंतु जानकी को उठाने के लिए उन्होंने जिस ओर भुजाएं बढ़ाईं, उस ओर जानकी नहीं थी। जिस भूमि पर जानकी धराशायी थी वह धरा ही लुप्त थी। वहां एक अंतहीन विवर था। जो अब रघुवीर के मानस में भी था जिसे कोई नहीं भर सकता था। कभी नहीं भर सकता था।

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