रंगभूमि अध्याय 49 Munshi Premchand द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

रंगभूमि अध्याय 49

रंगभूमि

प्रेमचंद

अध्याय 49

इधार सूरदास के स्मारक के लिए चंदा जमा किया जा रहा था, उधार कुलियों के टोले में शिलान्यास की तैयारियाँ हो रही थीं। नगर के गण्यमान्य पुरुष निमंत्रिात हुए थे। प्रांत के गवर्नर से शिला-स्थापना की प्रार्थना की गई थी। एक गार्डन पार्टी होनेवाली थी। गवर्नर महोदय को अभिनंदन-पत्रा दिया जानेवाला था। मिसेज सेवक दिलोजान से तैयारियाँ कर रही थीं। बँगले की सफाई और सजावट हो रही थी। तोरण आदि बनाए जा रहे थे। ऍंगरेजी बैंड बुलाया गया था। मि. क्लार्क ने सरकारी कर्मचारियों को मिसेज सेवक की सहायता करने का हुक्म दे दिया था, और स्वयं चारों तरफ दौड़ते फिरते थे।

मिसेज सेवक के हृदय में अब एक नई आशा अंकुरित हुई थी। कदाचित् विनयसिंह की मृत्यु सोफिया को मि. क्लार्क की ओर आकर्षित कर दे, इसलिए वह मि. क्लार्क की और भी खातिर कर रही थीं। सोफिया को स्वयं जाकर साथ लाने का निश्चय कर चुकी थीं-जैसे बनेगा, वैसे लाऊँगी, खुशी से न आएगी, जबरदस्ती लाऊँगी, रोऊँगी, पैरों पड़ईँगी और बिना साथ लाए उसका गला न छोड़ईँगी।

मि. जॉन सेवक कम्पनी का वार्षिक विवरण तैयार करने में दत्ताचित्ता थे। गत साल के नफे की सूचना देने के लिए उन्होंने यही अवसर पसंद किया। यद्यपि यथार्थ लाभ बहुत कम हुआ था, किंतु आय-व्यय में इच्छापूर्वक उलटफेर करके वह आशातीत लाभ दिखाना चाहते थे,जिसमें कम्पनी के हिस्सों की दर चढ़ जाए और लोग हिस्सों पर टूट पड़ें। इधार के घाटे को वह इस चाल से पूरा करना चाहते थे। लेखकों को रात-रात-भर काम करना पड़ता था और स्वयं मि. सेवक हिसाबों की तैयारी में उससे कहीं ज्यादा परिश्रम करते थे, जितना उत्सव की तैयारियों में।

किंतु मि. ईश्वर सेवक को ये तैयारियाँ, जिन्हें वह अपव्यय कहते थे, एक ऑंख न भाती थीं। वह बार-बार झुँझलाते थे, बेचारे वृध्द आदमी को सुबह से शाम तक सिर-मगजन करते गुजरता था। कभी बेटे पर झल्लाते, कभी बहू पर, कभी कर्मचारियों पर, कभी सेवकों पर-यह पाँच मन बर्फ की क्या जरूरत है, क्या लोग इसमें नहाएँगे? मन-भर काफी था। काम तो आधो मन ही में चल सकता था। इतनी शराब की क्या जरूरत? कोई परनाला बहाना है या मेहमानों को पिलाकर उनके प्राण लेने हैं? इससे क्या फायदा कि लोग पी-पीकर बदमस्त हो जाएँ और आपस में जूती-पैजार होने लगे? लगा दो घर मे आग या मुझी को जहर दे दो; न जिंदा रहूँगा, न जलन होगी। प्रभु मसीह? मुझे अपने दामन में ले। इस अनर्थ का कोई ठिकाना है, फौजी बैंड की क्या जरूरत? क्या गवर्नर कोई बच्चा है, जो बाजार सुनकर खुश होगा या शहर के रईस बाजे के भूखे हैं? आतिशबाजियाँ क्या होंगी? गजब खुदा का, क्या एक सिरे से सब भंग खा गए हैं? यह गवर्नर का स्वागत है या बच्चों का खेल? पटाखे और छछूंदरें किसको खुश करेंगी? माना, पटाखे और छूछूंदरें न होंगी, ऍंगरेजी आतिशबाजियाँ होंगी, मगर क्या गवर्नर ने आतिशबाजियाँ नहीं देखी हैं? ऊटपटांग काम करने से क्या मतलब? किसी गरीब का घर जल जाए, कोई और दुर्घटना हो जाए, तो लेने के देने पड़ें। हिंदुस्तानी रईसों के लिए फल-मेवे और मुरब्बे, मिठाइयाँ मँगाने की जरूरत? वे ऐसे भुक्खड़ नहीं होते। उनके लिए एक-एक सिगरेट काफी थी। हाँ, पान-इलायची का प्रबंधा और कर दिया जाता। वे यहाँ कोई दावत खाने तो आएँगे नहीं, कम्पनी का वार्षिक विवरण सुनने आएँगे। अरे, ओ खानसामा, सुअर, ऐसा न हो कि मैं तेरा सिर तोड़कर रख दूँ। जो-जो वह पगली (मिसेज सेवक) कहती है, वही करता है। मुझे भी कुछ बुध्दि है या नहीं? जानता है, आजकल 4 रुपये सेर अंगूर मिलते हैं। इनकी बिलकुल जरूरत नहीं। खबरदार, जो यहाँ अंगूर आए! सारांश यह कि कई दिनों तक निरंतर बक-बक, झक-झक से उनका चित्ता कुछ अव्यवस्थित-सा हो रहा था। कोई उनकी सुनता न था, सब अपने-अपने मन की करते थे। जब वह बकते-बकते थक जाते, तो उठकर बाग में चले जाते। लेकिन थोड़ी ही देर में फिर घबराकर आ पहुँचते और पूर्ववत् लोगों पर वाक्यप्रहार करने लगते। यहाँ तक कि उत्सव के एक सप्ताह पहले जब मि. जॉन सेवक ने प्रस्ताव किया कि घर के सब नौकरों और कारखाने के चपरासियों को एल्गिन मिल की बनी हुई वर्दियाँ दी जाएँ, तो मि. ईश्वर सेवक ने मारे क्रोधा के वह इंजील, जिसे वह हाथ में लिए प्रकट रूप से ऐनक की सहायता से, पर वस्तुत: स्मरण से पढ़ रहे थे, अपने सिर पर पटक ली और बोले-या खुदा, मुझे इस जंजाल से निकाल। सिर दीवार के समीप था, यह धाक्का लगा, तो दीवार से टकरा गया। 90 वर्ष की अवस्था, जर्जर शरीर, वह तो कहो,पुरानी हव्यिाँ थीं कि काम देती जाती थीं, अचेत हो गए। मस्तिष्क इस आघात को सहन न कर सका, ऑंखें निकल आईं, ओठ खुल गए और जब तक लोग डॉक्टर को बुलाएँ, उनके प्राण-पखेरू उड़ गए! ईश्वर ने उनकी अंतिम विनय स्वीकार कर ली, इस जंजाल से निकाल दिया! निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता कि उनकी मृत्यु का क्या कारण था, यह आघात या गृहदाह?

सोफिया ने यह शोक-समाचार सुना, तो मान जाता रहा। अपने घर में अब अगर किसी को उससे प्रेम था, तो वह ईश्वर सेवक ही थे। उनके प्रति उसे भी श्रध्दा थी। तुरंत मातमी वस्त्रा धाारण किए और घर गई। मिसेज सेवक दौड़कर उससे गले मिली और माँ-बेटी मृत देह के पास खूब रोईं।

रात को जब मातमी दावत समाप्त हो गई और लोग अपने-अपने घर गए, तो मिसेज सेवक ने सोफिया से कहा-बेटी, तुम अपना घर रहते हुए दूसरी जगह रहती हो, क्या यह हमारे लिए लज्जा और दु:ख की बात नहीं? यहाँ अब तुम्हारे सिवा और कौन वली-वारिस है! प्रभु का अब क्या ठिकाना, घर आए या न आए। अब तो जो कुछ हो, तुम्हीं हो। हमने अगर कभी कड़ी बात कही होगी, तो तुम्हारे ही भले की कही होगी। कुछ तुम्हारी दुश्मन तो हूँ नहीं। अब अपने घर में रहो। यों आने-जाने के लिए कोई रोक नहीं है, रानी साहब से भी मिल आया करो, पर रहना यहीं चाहिए। खुदा ने और तो सब अरमान पूरे कर दिए, तुम्हारा विवाह भी हो जाता, तो निश्ंचित हो जाती। प्रभु जब आता, देखी जाती। इतने दिनों का मातम थोड़ा नहीं होता, अब दिन गँवाना अच्छा नहीं। मेरी अभिलाषा है कि अबकी तुम्हारा विवाह हो जाए, और गर्मियों में हम सब दो-तीन महीने के लिए मंसूरी चलें।

सोफी ने कहा-जैसी आपकी इच्छा, कर लूँगी।

माँ-और क्या बेटी, जमाना सदा एक-सा नहीं रहता, हमारी जिंदगी का क्या भरोसा। तुम्हारे बड़े पापा यह अभिलाषा लिए ही सिधाार गए। तो मैं तैयारी करूँ?

सोफिया-कह तो रही हूँ।

माँ-तुम्हारे पापा सुनकर फूले न समाएँगे। कुँवर विनयसिंह की मैं निंदा नहीं करती, बड़ा जवाँमर्द आदमी था; पर बेटी, अपनी धार्मवालों में करने की बात ही और है।

सोफिया-हाँ, और क्या।

माँ-तो अब रानी जाह्नवी के यहाँ न जाओगी न?

सोफिया-जी नहीं, न जाऊँगी।

माँ-आदमियों से कह दूँ, तुम्हारी चीजें उठा लाएँ?

सोफिया-कल रानीजी आप ही भेज देंगी।

मिसेज सेवक खुश-खुश दावत का कमरा साफ कराने गईं।

मि. क्लार्क अभी वहीं थे। उन्हें यह शुभ सूचना दी। सुनकर फड़क उठे। बाँछें खिल गईं। दौड़े हुए सोफिया के पास आ गए और बोले-सोफी,तुमने मुझे जिंदा कर दिया। अहा! मैं कितना भाग्यवान हूँ! मगर तुम एक बार अपने मुँह से यह मेरे सामने कह दो। तुम अपना वादा पूरा करोगी?

सोफिया-करूँगी।

और भी बहुत-से आदमी मौजूद थे, इसलिए मि. क्लार्क सोफिया का आलिंगन न कर सके। मूँछों पर ताव देते, हवाई किले बनाते,मनमोदक खाते घर गए।

प्रात:काल सोफिया का अपने कमरे में पता न था! पूछ-ताछ होने लगी। माली ने कहा-मैंने उन्हें जाते तो नहीं देखा, पर जब यहाँ सब लोग सो गए थे, तो एक बार फाटक के खुलने की आवाज आई थी। लोगों ने समझा, कुँवर भरतसिंह के यहाँ गई होगी। तुरंत एक आदमी दौड़ाया गया। लेकिन वहाँ भी पता न चला। बड़ी खलबली मची, कहाँ गई!

जॉन सेवक-तुमने रात को कुछ कहा-सुना तो नहीं था?

मिसेज़ सेवक-रात को तो विवाह की बातचीत होती रही। मुझसे तैयारियाँ करने के लिए भी कहा। खुश-खुश सोई।

जॉन सेवक-तुम्हारी समझ का फर्क था। उसने तो अपने मन का भाव प्रकट कर दिया। तुमको जता दिया कि कल मैं न रहूँगी। जानती हो,विवाह से उसका आशय क्या था? आत्मसमर्पण। अब विनय से उसका विवाह होगा; यहाँ जो न हो सका, वह स्वर्ग में होगा। मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था, वह किसी से विवाह न करेगी। तुमने रात को विवाह की बातचीत छेड़कर उसे भयभीत कर दिया। जो बात कुछ दिनों में होती, वह आज ही हो गई। अब जितना रोना हो, रो लो; मैं तो पहले ही रो चुका हूँ।

इतने में रानी जाह्नवी आईं। ऑंखें रोते-रोते बीरबहूटी हो रही थीं। उन्होंने एक पत्रा मि. सेवक के हाथ में रख दिया और एक कुर्सी पर बैठकर मुँह ढाँप रोने लगीं।

यह सोफिया का पत्रा था, अभी डाकिया दे गया था। लिखा था-पूज्य माताजी, आपकी सोफिया आज संसार से बिदा होती है। जब विनय न रहे, तो यहाँ मैं किसके लिए रहूँ? इतने दिनों मन को धौर्य देने की चेष्टा करती रही। समझती थी, पुस्तकों, में अपनी शोक-स्मृतियों को डूबा दूँगी और अपना जीवन सेवा-धार्म का पालन करने में सार्थक करूँगी। किंतु मेरा प्यारा विनय मुझे बुला रहा है। मेरे बिना उसे वहाँ एक क्षण चैन नहीं है। उससे मिलने जाती हूँ। यह भौतिक आवरण मेरे मार्ग में बाधाक है, इसलिए इसे यहीं छोड़े जाती हूँ, गंगा की गोद में इसे सौंपे देती हूँ। मेरा हृदय पुलकित हो रहा है, पैर उड़े जा रहे हैं, आनंद से रोम-रोम प्रमुदित है, अब शीघ्र ही मुझे विनय के दर्शन होंगे। आप मेरे लिए दु:ख न कीजिएगा, मेरी खोज का व्यर्थ प्रयत्न न कीजिएगा। कारण, जब तक यह पत्रा आपके हाथों में पहुँचेगा, सोफिया का सिर विनय के चरणों पर होगा। मुझे प्रबल शक्ति खींचे लिए जा रही है और बेड़ियाँ आप-ही-आप टूटी जा रही हैं।

मामा और पापा को कह दीजिएगा, सोफी का विवाह हो गया, अब उसकी चिंता न करें।

पत्रा समाप्त होते ही मिसेज सेवक उन्मादिनी की भाँति कर्कश स्वर से बोलीं-तुम्हीं विष की गाँठ हो, मेरे जीवन का सर्वनाश करनेवाली, मेरी जड़ों में कुल्हाड़ी मारनेवाली, मेरी अभिलाषाओं को पैरों से कुचलनेवाली, मेरा मान-मर्दन करनेवाली काली नागिन तुम्हीं हो। तुम्हीं ने अपनी मधाुर वाणी से, अपने छल-प्रपंच से, अपने कूट-मंत्राों से मेरी सरला सोफी को मोहित कर लिया और अंत को उसका सर्वनाश कर दिया। यह तुम्हीं लोगों के प्रलोभन और उत्तोजना का फल है कि मेरा लड़का आज न जाने कहाँ और किस दशा में है और मेरी लड़की का यह हाल हुआ। तुमने मेरे सारे मंसूबे खाक में मिला दिए।

वह उसी क्रोधा-प्रवाह में न जाने और क्या-क्या कहतीं कि मि. जॉन सेवक उनका हाथ पकड़कर वहाँ से खींच ले गए। रानी जाह्नवी ने इस अपमानसूचक, कटु शब्दों का कुछ भी उत्तार न दिया, मिसेज सेवक को सहवेदना-पूर्ण नेत्राों से देखती रहीं और तब बिना कुछ कहे-सुने वहाँ से उठकर चली गईं।

मिसेज सेवक की महत्तवाकांक्षाओं पर तुषार पड़ गया। उस दिन से फिर उन्हें किसी ने गिरजाघर जाते नहीं देखा, वह फिर गाउन और हैट पहने हुए न दिखाई दीं, फिर योरपियन क्लब में नहीं गईं और फिर ऍंगरेजी दावतों में सम्मिलित नहीं हुईं। दूसरे दिन प्रात:काल पादरी पिम और मि. क्लार्क मातमपुरसी करने आए। मिसेज सेवक ने दोनों को वह फटकार सुनाई कि अपना-सा मुँह लेकर चले गए। सारांश यह कि उसी दिन उनकी बुध्दि भ्रष्ट हो गई, मस्तिष्क इतने कठोराघात को सहन न कर सका। वह अभी तक जीवित हैं, पर दशा अत्यंत करुण है। आदमियों की सूरत से घृणा हो गई है, कभी हँसती हैं, कभी रोती हैं, कभी नाचती हैं, कभी गाती हैं। कोई समीप आता है, तो दाँतों काटने दौड़ती हैं।

रहे मिस्टर जॉन सेवक। वह निराशामय धौर्य के साथ प्रात:काल से संधया तक अपने व्यावसायिक धांधाों में रत रहते हैं। उन्हें अब संसार में कोई अभिलाषा नहीं है, कोई इच्छा नहीं है, धान से उन्हें निस्वार्थ प्रेम है, कुछ वही अनुराग, जो भक्तों को अपने उपास्य से होता है,धान उनके लिए किसी लक्ष्य का साधान नहीं है, स्वयं लक्ष्य है। न दिन समझते हैं, न रात। कारोबार दिन-दिन बढ़ता जाता है। लाभ दिन-दिन बढ़ता है या नहीं, इसमें संदेह है। देश में गली-गली, दूकान-दूकान, इस कारखाने के सिगार और सिगरेट की रेल-पेल है। वह अब पटने में एक तम्बाकू की मिल खोलने की आयोजन कर रहे हैं, क्योंकि बिहार प्रांत में तम्बाकू कसरत से पैदा होती है। उनकी धानकामना विद्या-व्यसन की भाँति तृप्त नहीं होती।