इस कहानी में भाई-चारे और चुनावी राजनीति के बीच के जटिल संबंधों का वर्णन किया गया है। लेखक यह दर्शाता है कि चुनावी समय में लोग अपने भाई-नुमा चेहरे के साथ उभरते हैं, कुछ दबंगाई दिखाते हैं और कुछ निरीह होते हैं। चुनावी टिकट पाने के लिए उम्मीदवारों को अपनी पत्नी और परिवार के सदस्यों से समर्थन मिलता है, जो मीडिया में बयान देने के लिए भी प्रेरित करते हैं। कहानी में यह भी बताया गया है कि कैसे 'बातों का आतंकवाद' आजकल चुनावी राजनीति में महत्वपूर्ण हो गया है। उम्मीदवारों को अपने इमेज को सही करने के लिए पड़ोसियों और अन्य लोगों के साथ संवाद करना पड़ता है। चुनावी माहौल में भय, ताकत और मुगालते का जाल बुनने की प्रक्रिया भी दर्शाई गई है। कुल मिलाकर, यह कहानी चुनावी राजनीति के एक मजेदार और व्यंग्यात्मक चित्रण के माध्यम से समाज में भाई-चारे और राजनीति के जटिल रिश्तों को उजागर करती है।
भाई चारे की तलब
sushil yadav द्वारा हिंदी पत्रिका
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विवरण
दबंगई वाले पूर्ण आश्वस्त होते हैं कि टिकट उनकी बपौती है निरीहों को, शंका के बादल घेरे होते हैं उनकी पत्नियां घर घुसते ही दागती हैं ,बात बनी ... वे सर झुकाए यूँ खड़े हो जाते हैं ,जैसे क्लास में होमवर्क करके न गये हो. मगर जैसे ही एहसास होता है कि इस घर के वे ही सर्वेसर्वा हैं, उनकी जुबान में धार लग जाती है, डॉट पिलाते हुए कहते हैं,कितनी बार कहा है.......
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