“जाना है... जाने दो हमें... छोरो, न... चल परे हट लरके ! ए दरोगा बाबू सुनत रहे हो !” “क्या चूँ-चपड़ लगा रखी है तुम लोगों ने ?” दारोगा ज़रा नाराज़ लहज़े में बोला या ये भी हो सकता है कि खाक़ी वर्दी ने उसकी आवाज़ को जबरन कर्कश बना दिया हो । बिना कलफ़ लगी आवाज़ का हवलदार तो पप्पू ही लगता है सो आवाज़ में थोड़ा कड़कपना लाना पड़ता है ठीक वैसे ही जैसे उनकी टोपी में एक सीधा तुर्रा खड़ा रहता है ।

Full Novel

1

हवाओं से आगे - 1

“जाना है... जाने दो हमें... छोरो, न... चल परे हट लरके ! ए दरोगा बाबू सुनत रहे हो !” “क्या लगा रखी है तुम लोगों ने ?” दारोगा ज़रा नाराज़ लहज़े में बोला या ये भी हो सकता है कि खाक़ी वर्दी ने उसकी आवाज़ को जबरन कर्कश बना दिया हो । बिना कलफ़ लगी आवाज़ का हवलदार तो पप्पू ही लगता है सो आवाज़ में थोड़ा कड़कपना लाना पड़ता है ठीक वैसे ही जैसे उनकी टोपी में एक सीधा तुर्रा खड़ा रहता है । ...और पढ़े

2

हवाओं से आगे - 2

“लाडो ससुराल में काम से सबका मन जीत लेना ! ससुराल में इंसान की नहीं उसके काम की कदर है ।” बस नानी की उसी युक्ति को रामप्यारी ने अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया था । घर के काम-काज के बाद पति के पहलू से लगी रामप्यारी के सबसे ख़ुशनुमा क्षण होते थे पंद्रह की उम्र में रामप्यारी ने मुरारी को जन्म दिया था पुत्ररत्न ने उसे ससुराल की आँखों का तारा बना दिया था रामप्यारी सोचती कि क्या होता जो वह एक बेटी को जन्म देती ? क्या तब भी सब उसे इसी तरह स्नेह और आदर देते ? शायद नहीं... ख़ैर ! रामप्यारी वह सब सोचना नहीं चाहती ...और पढ़े

3

हवाओं से आगे - 3

रामप्यारी की उस घर में किसी को जरूरत नहीं थी, हाँ मगर उसका होना फिर भी सबके लिए जरूरी चला था भयंकर बारिश में टपकती छत से सीली हो उठी दीवारें जब ठंड से सिकुड़ने लगती है तो अपने भीतर ज़ज्ब हो चुकी कांपती नमी से बचने के लिए किसी बाहरी आवरण की तलाश करती हैं अम्मा की स्थिति उस घर के कबाड़खाने में पड़े उसी फटे-टूटे त्रिपाल की मानिंद हो चुकी थी जिसे जरूरत पड़ने पर रफू करके घर की निरंतर कमज़ोर होती आर्थिक स्थिति पर तान दिया जाता था और जरूरत ख़त्म होने के बाद फिर उसी अँधेरे कबाड़खाने में पटक दिया जाता था अम्मा ने एक भरी-पूरी उम्र गुज़ारी थी । ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 4

दिन ख़ूब चढ़ आया था, आसमान में सूरज कड़ककर धूप उगल रहा था, छबीली सुस्ताने के बहाने चौपाल के बूढ़े हो आए पीपल की छाँव में आ बैठी थी वह सीप, मोती और कौड़ियों के आभूषण बनाती है और आस-पास के गांवों और कस्बों में घूम-घूमकर उन्हें बेचती है, साथ ही वह रंग-बिरंगी काँच की चूड़ियाँ और शृंगार का अन्य सामान भी रख लेती है, औरतों को खूब सुहाता है यह रंग-बिरंगे समान से भरा टोकरा “चूड़ी लो...बिंदी लो...काजल लो... माला लो... आओ-आओ छबीली आई ताबीज़ भी लाई” जब भी वह टेर लगाती है तो औरतें उसे घेरकर खड़ी हो जाती है, छबीली का बापू टोना-टोटका भी जानता है सो छबीली इन औरतों को अपने-अपने मर्दों को वश में करने का नुस्खे वाला वशीकरण मंत्र फूँका ताबीज़ भी बेच जाती है ...और पढ़े

5

हवाओं से आगे - 5

इन दिनों सावन का महिना चल रहा है और ये महिना इन लोगों के लिए खास माना जाता है, माह घर के पुरुषों के लिए खास कमाई करने का होता है क्योंकि इसी माह में नाग-पंचमी का पर्व आता ही ये लोग साँपों को पिटारे में डालकर छोटे-बड़े गाँव-कस्बों में चले जाते हैं और घर-घर जाकर बीन बजा-बजकर साँपों के खेल दिखाते हैं भारतीय संस्कृति में साँपों को शिव का प्रिय माना जाता है इसीलिए नाग-पंचमी के दिन कालबेलियों को विशेष दान-दक्षिणा दी जाती है नए-पुराने कपड़े अन्न-धान्न्य और रुपए-पैसे से इनकी अच्छी आमदनी हो जाती है ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 6

बिट्टू सुबह-सुबह स्कूल के लिए तैयार हो रहा था कि पीछे से माँ ने आवाज़ लगाई बिट्टू...टिफिन बॉक्स में रख लिया? बिट्टू के एक पैर में जुराब था, दूसरा जुराब हाथ में लिए वह अपना पैर मोड़े बैठा था बिट्टू न जाने कहाँ खोया हुआ था, उसकी वाटर बोटल जमीन पर लुढकी पड़ी थी और माँ की आवाज़ उसके आस-पास से होती हुई कब हीकी गुजर चुकी थी ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 7

अमानत अली दसवीं पास करने के बाद एक दिन के लिए भी बेरोजगार नहीं बैठा, गरीब माता-पिता की हालत छुपी ना थी पिता लुहारी मुहल्ले में किराने की छोटी सी दुकान चलाते थे, और माँ ने बैंक से लोन लेकर एक गाय और एक भैंस खरीद रखी थी जिनसे वह अपने बच्चों के लिए दूध-घी का बंदोबस्त कर लेती थी और बचे दूध को बेचकर घर खर्च लायक कुछ पैसे जमा कर लेती थी अमानत अली जानता था कि आगे पढ़ने की तीव्र इच्छा के होते हुए भी उसका आगे पढ़ पाना मुमकिन नहीं है, उसके आलावा उसके तीन छोटे भाई-बहनों का खर्चा उठाना अकेले उसके पिता के बस में ना था बस तभी से ही अमानत अली लोहे का सामान बनाने वाले एक कारखाने में काम करने लगा था ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 8

सूखी मछलियों पर नमक भुरकती आई की झुकी पीठ दूर से यूँ प्रतीत हो रही थी मानों समुद्र में डॉलफ़िन छलांगे भरते वक़्त पानी से ऊपर आ गई हो और फिर वापिस लौटते हुए उसका मुँह और पूँछ तो पानी में समा गए हों किन्तु बीच का हिस्सा अपनी सतह से ऊपर देर तक दिखाई देता रहता है। “आई मैं मदद कर दूँ ?” “नको रानी... आज तू आएगी मेरी मदद करने कू, कल कोण करने का ?” रानी को जवाब देती आई कुछ ज्यादा ही कठोर हो जाया करती थी ...और पढ़े

9

हवाओं से आगे - 9

शिखा ने बरसों बाद फ़िर से कलम चलाना शुरू किया है वह भीतर से कितनी घबराई हुई “न जाने फिर से विचार उपजेंगें या नहीं ? भावनाएँ जो बरसों-बरस दिल-ओ’ दिमाग में सुसुप्त पड़ी थीं वे पुनः जागृत होकर इन नए हालातों में नए विषयों से प्रभावित होंगी या नहीं ?” “तुम इन सवालों से ऊपर उठकर सोचों, शिखा !” प्रशांत उसका हौसला बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते “हम्म...जानती हूँ किन्तु यही सवालात तो मुझे लिखने को प्रेरित करेंगे ” “तुम वहीं से शुरुआत करों जहाँ से तुमने फिर से कलम थामने का निश्चय किया है ” ...और पढ़े

10

हवाओं से आगे - 10

उसने नीचे झुककर जूतों में पैर डालने की कोशिश की, एड़ी ऊपर करके पंजे को जूते के सोल के भीतर सरकाने की बेतरह कोशिश की, आड़ा-तिरछा किया मगर पंजा था कि हमेशा की मानिंद ज़िद्दी बना रहा था । उसने दाहिने कुल्हे पर बनी पॉकिट में हाथ डालकर कुछ टटोला फिर स्टील का चप्पा निकालकर बारी-बारी से दोनों पंजों को जूते के भीतर सरका लिया । लेस वह खोलता ही नहीं सो बाँधने का झंझट ही नहीं । बचपन में उसे बड़े चाचा ने सिखाया था एक बार- ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 11

शाम तक रामभरोसे का ट्रान्सफर हार्ड स्टेशन पर करवा दिया गया था । रात अंधेरे वह बेबी से विदा गया था । एक उम्मीद थी कि शायद वह रोक लेगी, आखिर लड़कियों को अपनी इज्ज़त सबसे प्यारी होती है । वह अपने प्यार की दुहाई देगा, उसने धीमे से खिड़की खटखटाई, “अरे कौन तुम रामभरोसे ?” “जी हाँ बेबी वो आप साहब को बोल दो कि हम दोनों आपस में प्यार करते हैं और शादी करना चाहते हैं ।” ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 12

दरवाजे पर रंगोली सजाती मालिका गहरी उदासी में डूबी थी, रंग साँचे के भीतर समा ही नहीं रहे थे, कई दिवालियाँ उसकी इसी ऊहापोह में बीत गयी थी बच्चों का इंतज़ार करते उस घर को सजाए या यूं ही माँ लक्ष्मी के समक्ष हाथ जोड़कर उठ खड़ी हो कितने प्रकार के फल-फ्रूट, मिठाइयाँ और मेवे उस घर में आते थे जब यह घर सही मायनों में एक घर था एक भरापूरा घर जिसमें बच्चों की किलकारियों के साथ-साथ उसके पति आकाश की चहकती हँसी गूँजा करती थी अब तो यह घर उसे घर कम मकान अधिक लगने लगा था जिसमें सुबह-शाम अब उसकी आती-जाती साँसों के अलावा और कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती ...और पढ़े

13

हवाओं से आगे - 13

“तुमको हम दिल में बसा लेंगे तुम आओ तो सही, सारी दुनिया से छुपा लेंगे तुम आओ तो सही, एक वादा कि हमसे ना बिछड़ोगे कभी, नाज़ हम सारे उठा लेंगे तुम आओ तो सही...” गजल ख़त्म होते ही एक वज़नदार आवाज़ उभरी थी “फरमाइशी कार्यक्रम में ये गज़ल लिखी थी ‘मुमताज़ राशिद’ ने और जिसे गाया था चित्रा जी ने ।“ उस रोज़ जगजीत सिंह व चित्रा सिंह स्पेशल कार्यक्रम चल रहा था, तभी विपिन ने पीछे से उसके कंधे को छुआ था । ...और पढ़े

14

हवाओं से आगे - 14

उम्र तो ऐसी कोई खास नहीं हुई उसकी फिर भी सुमि के पैरों में दर्द रहने लगा है, उम्र कोई ऐसी भी नहीं गुज़री उस पर बस समय और जीवन की बढ़ती जिम्मेदारियों ने उसे थका दिया था, विपिन तो कई दिनों से उसे प्रोत्साहित कर रहे हैं कि उसे अपने नृत्य को फिर से गंभीरता से लेना चाहिए पर दुनिया इतनी तेज़ी से बदली है । सुमि अपने-आपको पिछड़ता हुआ मान बैठी है । ...और पढ़े

15

हवाओं से आगे - 15

लिपि सेंट्रल पार्क के किनारे उगे घने मेपल ट्री के नीचे बिछी बेंच पर जाकर बैठ गई, नीचे पड़े पत्तों की चरमराहट से एक अजीब-सी ध्वनि उत्पन्न हुई उसने ललाई लिए एक अधपके पत्ते को उठाकर स्नेह से सहलाया और कुछ देर यूँ ही थामे रही मानों उस पत्ते में सिमटी ऊष्मा को दोनों हाथों के सकोरों में भर-भरकर बटोर रही हो, अतीत की यादें उससे अनायास ही आ टकराईं, उसने मेपल के पत्ते को जूड़े में खोंस लिया सर्द हवाएँ उसके कानों को सुर्ख किए दे रही थी, ओवरकोट पहने होने के बावजूद भी उसकी देह में झुरझुरी दौड़ गई ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 16

सुरेखा ने खिड़की से बाहर झाँककर देखा, पिछली रात से झूमकर चढ़ी काली बदली लगातार बरस रही थी यूँ लग रहा था जैसे एक ही रात में बरसकर पिछले सारे मौसमों की कसर पूरी कर लेना चाहती हो ज़रा दूर निगाहें दौड़ाई तो मरीन ड्राइव पर लोगों का जमघट ज्यों का त्यों जुटा नज़र आया छातों में दुबके एक-दूजे के काँधों पर सिर टिकाए अनेक प्रेमिल जोड़े बैठे दिखे पता नहीं किस सुख की चाह में सुबह की पहली किरण उगते ही यहाँ अनेक लोग आ बैठते हैं और फिर वेषभूषा का तो फर्क ही है वरना ये नज़ारे किसी विदेशी धरती से कम नहीं हैं अब ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 17

“अच्छा... तो दिन में कितनी दफ़ा आप लोग मुझे फ़ोन करके मुझसे मेरे बारे में पूछते हो ? क्या ये जानना भी जरूरी समझता है कि दिन भर में मैं कितना रोयी, कितना सोयी या मैंने खाना समय पर खाया कि नहीं और ये किसे मालूम की जो दवाइयाँ मेरी जीवन रेखाएँ बन चुकी हैं, क्या मैं उन्हें समय पर गटकती हूँ ?” “सिर्फ ये सवालात महत्वपूर्ण नहीं होते किसी की कद्र को जताने के लिए हम सब घर लौटते ही क्या सबसे पहले तुम्हें ही नहीं पुकारते ?” “हाँ... पुकारते हो सब मुझे ही, पर अपनी-अपनी ज़रूरतों के लिए, ना कि मुझसे मेरे बारे में पूछने के लिए ” ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 18

“अरे उतरो भी, 800 रुपए में कितनी देर रुकोगे ?” “फ़ोटो तो खिंचवाने दो हमें, एक-दो पल अधिक रुक गई कौनसा पहाड़ टूट पड़ेगा ?” “अरे... क्या करोगे जी फ़ोटो का ?” “यादें नहीं ले जायेंगे यहाँ से क्या ?” “यादें ? इन फ़ोटो में क्या इकठ्ठा हो पाएंगी जी...” वह बड़बड़ाता हुआ अपने चप्पू पर से पानी निथारने में लग गया था । उसके माथे पर शिकन बिलकुल भी अच्छी नहीं लग रही थी, मन किया उसके क़रीब जाकर अपनी हथेली उसके माथे पर फिरा दूं और उसके माथे की उन सिलवटों के साथ वे तमाम वजहें भी झटककर डल झील में गिरा दूं जिनकी वजहों से उसके मन में इतना गुस्सा भरा हुआ था किन्तु यकायक मन से आवाज़ आई... ...और पढ़े

19

हवाओं से आगे - 19

अगले दिन वे सभी शालीमार बाग़ जाने के लिए निकल चुके थे । ऑफ सीज़न के कारण बाग में पड़ा था सिवाय कुछ चिनार के, जो शाखों से सूखे पत्तों को रह-रहकर झटक दे रहे थे मानों हालात के सुधारने की गुँजाइश लिए अपने होने की गवाही में कुछ उम्मीद भरे पत्र हवाओं के माध्यम से वादियों को भिजवा रहे थे । उनका समूह बाग़ के बीचोंबीच था कि तभी एक ख़बर आई कि कुपवाड़ा में सेना के कैम्प पर हमला हुआ है । ...और पढ़े

20

हवाओं से आगे - 20

उत्तरा उसके पीछे-पीछे लगभग खिंची चली जा रही थी “या अल्लाह... वो सिर पकड़कर नीचे बैठ गया था । कुछ समझ पाती इससे पहले वह लपककर खड़ा हुआ था और उसे लेकर दौड़ता हुआ पास के एक घर में दाखिल हो गया था । उसके माथे पर लगभग आधा सेंटीमीटर का घाव उभर आया था । “बाहेर कर्फ्यू लगा है मेम जी, यहीं रुकना होगा, में शाम को हालात देखूंगा तबी न आपको छोड़ आऊंगा होटल ।” “उफ्फ ...कितनी गलत हिंदी बोलते हो ?” उत्तरा चिढ-सी गयी थी । ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 21

हर प्रश्न के दो जवाब होते हैं, अतुल हमेशा आजकल ज़ाहिदा से यही कहा करता था अक्सर भी यही था कि बात-बात में वह इसी जुमले को दोहराता और हमेशा उसके दिए जवाब में दो मत उपस्थित होते थे वह अपनी सहजता के हिसाब से बेहतर वाले ऑप्शन पर वह तर्क देता और हर बहस के अंत में वह पूर्ण आत्मविश्वास से दोहराता, “मैंने तो पहले ही कह दिया था कि किसी निर्णय पर पहुँचने से पूर्व हमेशा उसके दो पहलुओं पर विचार करना चाहिए” ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 22

“मैं भी तो नाम और हुलिया बदलकर जीते-जीते तंग आ चुकी हूँ” “जब आमिर खान, इमरान हाशमी जैसे नामी-गिरामी हस्तियों अपने मजहब की वजह से मकान खरीदने में समस्या होती है तो ऐसे मुल्क में हम जैसे आम नागरिक अपने लिए ठिकाना कैसे जुटाएं ?” अगले कुछ महीनों में अतुल ने कोशिश करके अपना तबादला अहमदाबाद करवा लिया था, वहीं के जुहापुरा इलाके में उसने दलाल के मार्फ़त एक बिल्डर से बात की थी जिसने आज़ादी के समय सिन्ध से आए मुसलमानों, ईसाईयों और स्थानीय मुसलामानों की मिलीजुली रिहायशी कॉलोनी में एक मकान पक्का करवा दिया था हालांकि कॉलोनी अनाधिकारिक थी पर बिल्डर को उम्मीद थी कि आने वाले कुछ महीनों में वह कुछ न कुछ जुगाड़ बिठाके कॉलोनी को रजिस्टर्ड करवा ही लेगा ...और पढ़े

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हवाओं से आगे - 23

उस रोज़ ज़ाहिदा ने महक के बाथरूम में मर्दाना बाथ-रॉब में लिपटी ब्रीफ देखी थी तभी उसके में कुछ खटका जरूर था पर फिर विचारों को परे झटककर वह सोने चली गयी थी किन्तु महक के एक फ़ोन ने पिछली सारी कड़ियाँ जोड़नी शुरू कर दी थीं मसलन साफ़ एश-ट्रे में भी कुछ राख़ का अंततः बची रह जाना, अलमारी में पुरुष की कमीजें, शेविंग-किट और बेड से सटी टेबल में कुछ कंडोंम के अनपैक्ड पैकिट महक ने जल्दी से सबकुछ क्लीन कर दिया था ये कहते हुए कभी-कभी जल्दबाज़ी में अल्ताफ़ यहीं से तैयार होकर दफ्तर चला जाता है अतुल ने तो शायद ये सब नोटिस भी नहीं किया था ...और पढ़े

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