भारतीय संस्कृति और भक्तिराधारमण वैद्य आचारमूलाः जातिः स्यादाचारः शास्त्रमूलकः। वेदवाक्यं शास्त्रमूलं वेदः साधकमूलकः।। क्रियामूलं साधकश्च क्रियापि फलमूलिका। फलमूलं सुखं चैव सुखमाननन्दमूलकम।। जाति के इस शास्त्रोक्त सिजरे से आदि स्रोत आनन्द का पता चलता है। वैसे तैत्तिरीय उपनिषद की भृगुवल्ली में वरूण के पुत्र भृगु की एक मनोरंजक कथा भी दी गई है। भृगु ने जाकर वरूण से कहा कि ’’हे भगवान ! मैं बह्म को जानना चाहता हूँ।’’ पिता ने तप करने की आज्ञा दी। कठिन तपस्या के बाद पुत्र ने समझा- अन्न ही ब्रह्म है। पिता ने फिर तप करने को कहा। इस बार पुत्र कुछ और गहराई में
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राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 1
भारतीय संस्कृति और भक्तिराधारमण वैद्य आचारमूलाः जातिः स्यादाचारः शास्त्रमूलकः। वेदवाक्यं शास्त्रमूलं वेदः साधकमूलकः।। क्रियामूलं साधकश्च क्रियापि फलमूलिका। फलमूलं सुखं सुखमाननन्दमूलकम।। जाति के इस शास्त्रोक्त सिजरे से आदि स्रोत आनन्द का पता चलता है। वैसे तैत्तिरीय उपनिषद की भृगुवल्ली में वरूण के पुत्र भृगु की एक मनोरंजक कथा भी दी गई है। भृगु ने जाकर वरूण से कहा कि ’’हे भगवान ! मैं बह्म को जानना चाहता हूँ।’’ पिता ने तप करने की आज्ञा दी। कठिन तपस्या के बाद पुत्र ने समझा- अन्न ही ब्रह्म है। पिता ने फिर तप करने को कहा। इस बार पुत्र कुछ और गहराई में ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 2
बाणकालीन पाराशरी भिक्षु राधारमण वैद्य जब कभी नाम रूप से एक समान दिखने वाला व्यक्ति, समुदाय या समाज के भीतर से अपने आचार-विचार में भिन्न होता है और उसकी भिन्नता की कड़ी पकड़ में नहीं आती है, तब क्रमबद्ध अध्ययन करनेवाला जिज्ञासु हैरान-सा दिखाई देने लगता है। उसे बार-बार अपने अध्ययन में शृंखला का अभाव खटकता रहता है। प्रबुद्ध मनीषी और प्रकाण्ड अध्येता डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल भी अपने ’’हर्षचरित- एक सांस्कृतिक अध्ययन’’ में इसी प्रकार की एक उलझन से बार-बार जूझते नजर आते हैं। वे लिखते हैंः ’’बाण के समय में पाराशरी भिक्षुओं का ब्राह्मणों से बड़ा ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 3
हिन्दी की गोद में तमिल-पुत्री ‘‘बरगुण्डी’ राधारमण वैद्य’ कुछ वर्ष पूर्व श्री अमृत पय्यर मुत्तू स्वामी, ( जो इस लेख को लिखने के समय दतिया शासकीय स्नातक महाविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर काम कर रहे हैं,) मंदसौर में थे, वहाँ कुछ लोग दिखाई दिये, जिनकी मात्र गरीबी ने उनका ध्यान आकर्षित नहीं किया, बल्कि उनकी भाषा ही आकर्षण का केन्द्र बनी, यद्यपि श्री स्वामी उसे भली प्रकार और पूरी तरह नहीं समझ पा रहे थे, पर उन्हें सुनकर लगता था कि वे अपनी मातृभूमि तंजावर (तमिलनाडु) मंेे अपने लोगों के बीच हों। उन व्यक्तियों ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 4
ग्राम अभिधान और ’’पुरातत्व’’ राधारमण वैद्य भाषा-विज्ञान और पुरातत्व पारस्परिक सहयोगी हैं। केवल ग्राम नामावली और यत्र-तत्र बिखरी पुरा-सामग्री का सम्बन्ध और उसकी संगति पर विचार करना है। इसी प्रकार जातीय आस्पद भी इसमें सहायक सिद्ध होते हैं। समाजशास्त्र के अध्येताओं द्वारा यदि उस क्षेत्र के मूल निवासियों के प्राचीन रीति-रिवाज का अध्ययन किया गया है, जो उस अध्ययन में इसकी भी सहायता ली जा सकती है। इस प्रकार एक मिला-जुला प्रयत्न किया जाय तो बहुत-सी ज्ञान की अज्ञात परतें पलटी जा सकती हैं। विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागाध्यक्ष यदि किसी क्षेत्र को पकड़कर इस प्रकार का मिला जुला प्रयत्न ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 5
उत्तरी मध्यप्रदेश का गौरवशाली स्थल- ‘‘ इतिहास का भूला’-बिसरा पृष्ठ ‘‘भर्रोली ’’ राधारमण वैद्य अभी हर स्थान अपने इतिहास के लिखे जाने की प्रतीक्षा में है, विशेष रूप से विन्ध्यभूमि का वस्तुनिष्ठ और समग्र इतिहास तो अभी भी लिखा जाना शेष है। यह प्राचीनतम भूमि न जाने क्या-क्या अपने आप में सहेजे हुए चुपचाप पड़ी है। इसकी चोटियाँ, उपत्यकाएँ और तलहटी अगर खँगाली जाये, तो बहुत सा अतीत मुखर हो उठेगा,।केवल सही सूत्रों को पकड़कर उन स्थानों की व्याख्या भर प्रस्तुत कर दी जानी है, इसमें अपने आग्रहों और निरर्थक का व्यामोह काम न करे, यह शर्त है। ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 6
‘‘ बुन्देलखण्ड की प्राचीन मूर्ति व वास्तु कला ’’ भारत के केन्द्रीय प्रदेश बुन्देलखण्ड की ‘‘कीरत के विरवा’’ की जडं़ अति प्राचीन है। भौगोलिक दृष्टि से इस क्षेत्र का अधिकांश भू-भाग दक्षिण के पठार में है। इसकी पुरातात्विक महत्ता आदिमानव तक को छूती है और इसकी परम्पराएँ सम्पूर्ण देश को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। इस भू-भाग को कभी मध्यदेश के नाम से जाना गया है। यह सब जानते हैं कि उत्तरप्रदेश के पाँच और मध्यप्रदेश के बाइस जिलों में इसका फैलाव है। इन जिलों का अधिकांश भू-भाग 21.250 से 26.580 उत्तरी अक्षांश और 76.500 से 81.500 पूर्वी ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 7
सनकादि सम्प्रदाय, सनकुआ और सेंवढ़ा स्थान-नाम, भाषा की जीवन्त शब्दावली है, जो घिस-मँजकर रूपान्तरित होते हुए शताब्दियों तक अपना मूल्य स्थिर रखते हैं और जन-आस्थाओं के आधार बन जाते हैं, उनमें इतिहास स्थिर रहता है, जन श्रुतियाँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को यह सम्पदा सौंपती चलती हैं। सब जानते हैं कि सनकुआ सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार, जो ब्रह्मा के मानस पुत्र कहे गये हैं, की तपस्या भूमि है। असल में विन्ध्यावटी, जिसे महाभारत के वनपर्व में घोर अटवी, दारूण अटवी, महारण्य और महाघोर वन से स्मरण किया गया है, तपस्यिों के लिए विशेष आकर्षण का ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 8
ऐतिहासिक एवं भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में सनकादि सम्प्रदाय राधारमण वैद्य मध्यप्रदेश, जिसकी सीमा मनुस्मृति के अनुसार विनशन (सरस्वती) के पूर्व प्रयाग से पश्चिम, हिमालय से दक्षिण और विन्ध्याचल से उत्तर निश्चित की गई है 1 विनय पिट जिसका विस्तृत वर्णन करते हुए कहता है- मध्यदेश सब देशों में अग्रगण्य है, ईख और धान की वहाँ प्रचुरता है तथा गाय-भैंसों से वह भरा-पूरा है, भिक्षुओं के समूह वहाँ बड़ी संख्या में विचरते हैं, जहाँ पुण्या, मंगलकारिणी तथा अत्यन्त पवित्र गंगा नदी बहती है, जो अपने दोनों तटों की भूमि को सिंचित करती है .........जहाँ की भूमि में ऋषि लोगों में ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 9
समय और समाज सापेक्ष रीतिकाल राधारमण वैद्य किसी रचनाकाल के साहित्य-विवेचन में उस काल-खण्ड की दृष्टियों, शैलियों, तत्कालीन-सामाजिक रूचियों, आर्थिक दशा और राजनीतिक घात-प्रतिघात का पता चलता है। सामाजिक और राजनीतिक दशा और दिशा का बोध होता है। रीतिकाल को आचार्य शुक्ल ने विक्रमाब्द 1700 से 1900 तक माना है। इन दो सदियों तक फैले विवेच्य काल से पूर्व संवत 1600 से 1700 तक इसका प्रस्तावना काल और बादमें 1900 से 1975 विक्रमी तक उपसंहार काल कह सकते हैं। इन दिनों मुगल-साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया था। यथा राजा तथा प्रजा। मुगलों की अधीनता में ही अपना हित ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 10
केशव का युग और शाक्त मत राधारमण वैद्य भारतीय वाङमय में सम्प्रदाय का पोषण और साम्प्रदायिक परम्पराओं का खण्डन-मण्डन खूब हुआ है पर उसे उच्च साहित्य का लेबिल लगाकर प्रस्तुत नहीं किया जा सका। यह सब होते हुए भी उच्च साहित्य पर तत्कालीन परिस्थितियों की छाप पड़े बिना भी न रही वे अनजाने प्रतिबिम्बित हो गई अथवा उसमें वे बरवश व्य´्जित हो उठी हमारा धार्मिक परिवेश ही सामाजिक गठन करता रहा है फिर समाज की विचारधारा एक दिन में न तो बनती है और न बिगड़ती है। कबीर से भक्ति काव्य की छठा निखरनी आरम्भ हुई। यद्यपि विद्यापति पदावली ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 11
तुलसी के ’’मानस’’ की पृष्ठभूमि राधारमण वैद्य कलियुग के बाल्मीकि, मुगल काल का सबसे महान् व्यक्ति, बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक, सर्वतोमुखी ’’प्रतिभा’’ तथा निरन्तर विषपान करके आशा और विश्वास की अद्भुत वाणी बोलने वाल, तुलसी जैसा जागरूक समाज द्रष्टा, स्नेहमयी सशक्त वाणी में उद्बोधन का अमर मंत्र देने वाला एक युग निर्माता भारत को सहस्त्रों सदियों बाद मिला था। शुक्रनीति का ऐसा अनुशासन है कि ’’कलाकार आलेख्य के प्रति उसे लिखने के पहले समाधिस्थ हो, जब समाधि में उसका वह सांगोपाग दर्शन कर लेगा, जब आलेख्य प्रत्यक्षमूर्त उसकी समाधि में उठ जायेगा, तभी वह अपने विषय के ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 12
शक्ति के प्रतीक हनुमान: ’हनुमान बाहुक’ पर एक दृष्टि राधारमण वैद्य मनीषियों का ऐसा मत है कि नाम-रूप से व्यक्त सभी पदार्थो में शक्ति तत्व धर्म, और गुण रूप से व्यक्त हो रहा है, इसी से पदार्थ का परिचय होता है। इस शक्ति तत्त्व की उपासना अनादि काल से संसार में होती आ रही है। इसी प्रकार शिव तत्व की उपासना भी अति प्राचीन है। पर यह शक्ति तत्त्व और शिव तत्त्व अपना नाम बदलता रहा, यद्यपि रहा सदैव ही पूजनीय और सर्वोपरि ही। और यह बदलते हुए नाम ही भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय कहलाने लगे तथा अपनी-अपनी पुष्टि में शास्त्र ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 13
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘‘आलोक पर्व ’’ राधारमण वैद्य परम्परा, लोक और शासन समन्वित संस्कृति विवेचन आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी बहु प्रतिभा के धनी थे, उनका अवदान मध्यकालीन साहित्य और साधना का विश्लेषण, हिन्दी साहित्य के इतिहास को देखने की एक नई दृष्टि, सिद्ध-नाथ कवियों का विवेचन, अभिनव उपन्यास लेखन, ललित निबंधों की चिन्तन युक्त, माधुर्य-सम्पन्न देन, गहन समीक्षा शैली और सम्पूर्ण भारतीय संस्कृत वाङमय का पुनर्पाठ माना जाता है, जिस सबकी स्पष्ट झलक इस विवेच्य पुस्तक ‘‘आलोक पर्व” में है। उनके समस्त लेखन पर समग्र दृष्टि डाली जाए तो बिना किसी अतिश्योक्ति के मानना पड़ेगा कि ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 14
केशव कृत ’विज्ञान-गीता’: परम्परा-पोषण और युग चित्रण राधारमण वैद्य केशव की काव्य-साधना कई रूपों में प्रकट हुई। केशव के मुक्तक, जहाँ शास्त्रीय रस-रीति और भक्ति क्षेत्रीय रति-रीति में सामंजस्य उपस्थित करते हैं, वहाँ उनके प्रबन्ध काव्य भी त्रिधा विभक्त हैं- 1. चरित काव्य धारा, 2. महाकाव्य धारा, तथा 3. रूपक नाटय काव्य धारा। केशव की ’विज्ञान गीता’ इसी रूपक विधा के अन्तर्गत आती है। इसमें केशव ने शुद्ध नाटय रूपक विधाा को ग्रहण न करके, इसे संवाद-बहुल काव्य का रूप दिया है, पर नाट्य की आत्म-इसमें अक्षुण्ण मिलती है। कथा का आरम्भ नाटकीय शैली में ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 15
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य-में ऐतिहासिकता के ब्याज से समसामयिकता का चित्रण राधारमण वैद्य श्री जय शंकर प्रसाद (1889-1937 ई0) में धकियाकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि चुपचाप सब के बाद धीरे से-अज्ञात रहकर- आगे बढ़जाने का भाव है, आरंभ से ही भावों की ससज्ज-सलज्ज स्थापना में प्रसादजी का सचेत व्यक्तित्व स्पष्ट हुआ है, फिर भी उसकी बहुमुखी प्रतिभा बहुविधि प्रकट होती रही है, वे प्रकृति और मनुष्य के सौन्दर्य को पूर्ण रूप से उपभोग्य बनाने वाले कवि हैं।(1) उनका आत्म-गौरव, देश-प्रेम और दार्शनिक दृष्टिकोण सर्वत्र प्रकट होता रहा है। वे काव्य-जगत में रहस्य रोमांस, नाटक और कहानी ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 16
आज की कहानी और आलोचक के नोट्स राधारमण वैद्य ’’एक शानदार अतीत कुत्ते की मौत मर रहा है, उसी में से फूटता हुआ एक विलक्षण वर्तमान रू-ब-रू खड़ा है--अनाम, अरक्षित, आदिम अवस्था में खड़ा यह मनुष्य अपनी भाषा चाहता है, अपनी मानसिक और भौतिक दुनिया चाहता है ........’’ यह नयी कहानी की भूमिका है। इस कहानी को केवल जीवन के संदर्भो से ही समझा जा सकता है, युग के सम्पूर्ण बोध के साथ ही पाया जा सकता है। वह पहले और मूल रूप में है भी जीवनानुभव, सही रूप में अनुभूति की प्रामाणिकता। तो क्या इन पंक्तियों ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 17
अस्तित्व रक्षण की रचनात्मक गूँज-दर्दपुर राधारमण वैद्य उपन्यास केवल साहित्यिक रूप नहीं है, वह जीवन-जगत को देखने की एक विशेष दृष्टि है और मानव-जीवन और समाज का विशिष्ट बोध भी। कश्मीर का इतिहास मिली-जुली संस्कृति और साम्प्रदायिक सौहार्द का रहा है। घाटी में उग्रवाद का उभार हुआ तो भाईचारे के ताने-बाने टूटने लगे और आखिरकार वहाँ के हिन्दुओं को राज्य के बाहर पनाह लेनी पड़ी। धार्मिक आतंकवाद और पड़ोस से प्रेरित अलगाववाद ने वहाँ कहर ढाया, सारा वातावरण विषाक्त हो गया, समरसता बिखर गयी। राजनीति ने भी अपने स्वार्थ के डैने फैलाये, इकतरफा तुष्टिकरण के दांव से परिस्थिति ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 18
एक अद्भुत प्रभावी कृति-गुरदयालसिंह का ‘‘परसा’’ ‘ राधारमण वैद्य पंजाब के स्वाभिमान, अक्खड़पन, आत्म गौरव और सधुक्कड़ी स्वभाव को उजागर करता यह ‘‘परसा’’ नामक उपन्यास अपने ढंग का, एक अलग चरित्र चित्रित करता है। इसमें पंजाब के ही एक खण्ड विशेष मालवा क्षेत्र को केन्द्र बनाकर गुरदयाल सिंह ने अपने इस ‘‘परसा’’ की खूबियों को फैलाया है। संतराम का बेटा सरूपे और सरूपे का बेटा परसा अपनी पैतिृक उदारता, सदाशयता और मानवी धर्म का आगे बढ़ाता है। कर्म की गरिमा को वह पहचानता है और जब जो ठीक समझता है/करता है वह इसके लिए यह सोचकर कि लोग ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 19
दतिया अध्यात्म साहित्य और दर्शनीयता के वातायन अध्यात्म- दतिया धर्म और अध्यात्म की प्रसिद्ध साधना भूमि रही है। यहां के विभिन्न अंचल सनक सनन्दन की सनातन भूमि सनकुआ, जैन तीर्थ सोनागिर बौद्धों के समय के अवशेषों की बड़ौनी, उनाव का बरम बालाजी का सूर्य मंदिर तथा जगह विखरी अनेक मूर्तियाँ शैव, शाक्त, वैष्णव, बौद्ध तथा जैन आस्थाओं के प्राचीन प्रमाण हैं। दतिया के अनेक राजाओं और उनकी रानियों ने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया। यहाँ दसनामी सम्प्रदाय की एक शाखा गिरि के साधु भी निवास करते रहे। दतिया के शिवगिर वैष्णव रामानुजी अपनी साधना से तपोपूत उन्होंने यहाँ ...और पढ़े
राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 20 - अंतिम भाग
सुधाकर शुक्ल और ’’देवदूतम’’ -राधारमण बैद्य विल्हण पंडितराज जगन्नाथ के बाद म्लान काव्य के मन को पुनः प्रमुदित करने वाले श्री ’’सुधाकर’’ न केवल प्रदेश की विभूति हैं, वरन सम्पूर्ण संस्कृत जगत को अपनी स्निग्ध और कमनीय क्रांति से धवलित बनाये हैं। कवित्व पर अद्भुत और अखण्ड अधिकार शब्द भण्डार और अर्थो की मौलिक मनोरमता पर अनुपम आधिपत्य उनमें कालिदास की संकेत प्रधान व्यंजकता, भारवि का अर्थ गौरव, मेध का अधिकृत माधुर्य और श्री हर्ष का प्रतिपद प्रयुक्त भानुप्रासिकता तथा दार्शनिक मतों को संकेत करने वाली उक्तियां अनायास परिलक्षित हों उठती हैं। प्रगल्भ प्रतिभा के धनी संस्कृति ...और पढ़े