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कोलाज

कोलाज

शाम के धुंधलके में खिड़की से बाहर मैं क्या देख रही थी मुझे भी नहीं पता। थोड़ी देर में आकाश एक काली गुफा हो जाएगा बिल्कुल ब्लैक होल जैसा.....अंधेरा धीरे-धीरे सारी सृष्टि को अपने आगोश में भर लेगा। मुझे भी। हल्की ठंडक की चादर सारा शहर ओढ़ लेगा, मैं भी ओढ़ लूंगी। पर भीतर कुछ गरमाता रहेगा जो मुझे रात भर सोने नहीं देगा। मैं उस हल्की ठंडक की चादर को ओढ़ कर गहरी नींद सोना चाहती हूँ पर नहीं, रात भर करवटें लेते ही बीतेगी।

रात भर देह और मन लड़ते-झगड़ते रहेंगे और मैं समय के महीन धागों से उलझती रहूँगी। सालों से रातें इसी तरह बीत रही हैं। हर रात बस एक अनसुलझा सवाल।

सुबह की सुनहरी आभा सब ओर पारदर्शी मोती बिखरा देगी और मैं उन मोतियों को देखती भर रहूँगी........दूर से........चुनने और माला बुनने का प्रयास ही नहीं करूँगी........हाथ ही नहीं उठेंगे। बस खिड़की के पास खड़े-खड़े आँखों की झिल्ली के नीचे और मन की परतों में सब तिरता रहेगा। सालों से सुबहें इसी तरह बीत रही हैं। हर सुबह बस एक उलझा सवाल।

कल का दिन भारी सिल की तरह मेरे दिलो दिमाग पर हावी है। मैं सोच रही थी क्यों नहीं हम किसी लम्हे को अपने जीवन में आने से रोक पाते हैं या कुछ समय के लिए आगे सरका पाते हैं? क्यों वक्त के आगे एक बोर्ड पर नहीं लिख पाते ‘‘रुको, हम पल भर रुकना चाहते हैं, सांस लेना चाहते हैं।’’

कल मेरी रिटायरमेंट है। साठ पूरे। यानि मेरे जीवन के संध्याकाल का आरम्भ। पर जीवन का ऊषा काल कब था मुझे पता ही नहीं चला। मुझे तो बस अपरान्ह ही अपरान्ह दिखा। तपती रेत पर पैर झुलसते ही रहे और अब एकाएक संध्याकाल यानि रात्रि की ओर अग्रसर।

किसी गिद्ध की बदहवास उड़ान की तरह मन व्याकुल हो उठा। मन की सांय-सांय को पल भर का विराम नहीं था। इतनी व्यस्त रही कि एक काल के आरम्भ और दूसरे काल की समाप्ति की आहटें भी नहीं सुन पाई.........पदचाप की ध्वनि तरंगें कानों को छू ही नहीं पाई।

बहुत कोशिश की गिरीश सचदेव और पवित्रा ने पर मैं तो बस एक ही दिशा में आगे बढ़ती रही........पवित्रा ने तो कानों में जोर-जोर से चीख-चीख कर कहा था.........रुको, और कुछ भी देखो..........पर मैं तो कर्तव्यबोध की उन कंकरीली पथरीली अडिग सीढि़यों पर बढ़ती ही जा रही थी। गिरीश तो इंतजार करते रहे बस मेरे एक कदम का, वो तो सारी सृष्टि नाप लेते पर आज लग रहा है क्यों नहीं कदम बढ़ाया..........हर बार एक ही बहाने से फोन करते रहे, ‘आर्ट आॅफ हैप्पी लिविंग’ का कैम्प अटैण्ड कीजिए, अद्भुत अनुभव प्राप्त करेंगी आप.......चरम आनन्द.......मैडिटेशन जरूर सीखिए।

हर बार मैं हाँ करके फिर ना कर देती। ‘आर्ट आॅफ हैप्पी लिविंग’ तो एक बहाना था, असली कारण तो मैं थी, मेरे सान्निध्य की चाह थी.........पर आज लगता है क्या गलत था। मैं ही मूर्खा थी, भागती रही, भागती रही, बिना सोचे समझे एक सुनसान पगडंडी पर, अनजानी दिशा में, एक अदृश्य बोध के साथ। तभी तो पपड़ी जमती गई सारे वजूद पर और हर बार परत-दर-परत और सख्त होती गई और आज स्थिति है कि असहनीय पीड़ा से भर उठा है पूरा का पूरा वजूद।

‘‘बुआ, क्या मैन्यू है पार्टी का। कुछ अच्छा हुआ तो आऊँगा नहीं तो मम्मी पापा आएँगे।’’-भतीजा था। ‘‘पता नहीं मैन्यू तो मुझे।’’ मैंने स्पष्ट सा जवाब दिया था।

‘‘बुआ, रात को फाइव स्टार में ट्रीट। मम्मी-पापा तो कभी वहां के दर्शन कराएँगे नहीं.....आप ही करा सकती हैं। सुना है आपको हैवी चैक मिलने वाला है। फाइव स्टार में ट्रीट तो बनती है न बुआ।’’

‘‘तुझे फाइव स्टार के अलावा कुछ सूझता भी है।’’

‘‘नहीं सूझता बुआ.....नहीं सूझता.....मेरी अच्छी बुआ......और मेरी इस इच्छा को पंख सिर्फ़ आप ही दे सकती हैं। मम्मी-पापा तो ठन-ठन गोपाल। मम्मी की कंजूसी तो वैसे भी जग जाहिर है.....तभी तो ले दे के आप ही नज़र आती हैं।’’

‘‘देखते हैं, कुछ फाइनल नहीं है।’’ मैंने पीछा छुड़ाया।

भतीजे की नित नई ख्वाहिशें मुझे गुस्सा दिलाने लगी थीं। पहले सब लाड अच्छे लगते थे अब मैं उक्ताने लगी थी।

तरस जाती थी वायुमंडल की रिक्तता पाने को। घर में सब ओर उड़ती, तैरती सबकी इच्छाओं, ख्वाहिशों की मक्खियाँ देखकर छटपटाहट होने लगती। मैं बहुत कोशिश करती इन मक्खियों को हाथ से उड़ा-उड़ा कर बाहर निकाल दूँ और घर को इनकी भिन-भिन से बिल्कुल खाली कर दूँ पर नहीं, कुछ नहीं कर पाती थी।

पहले यह चिड़चिड़ाहट थोड़ी-थोड़ी देर के लिए होती थी पर अब दिनों दिन बनी रहती बरसाती काई की तरह।

फोेन फिर बज उठा।

‘‘माॅसी, क्या पहनूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा। कोई ड्रैस है ही नहीं।’’

‘‘कुछ भी पहने ले बड़ी सिम्पल सी पार्टी होगी, तू किसी शादी में नहीं जा रही, रिटायरमैंट पार्टी में जा रही है, समझी।’’

बुरी तरह खीझ उठी थी मैं।

‘‘कुछ भी कैसे पहन लूँ। पार्टी तो है न। पार्टी में भी न पहनो तो कब पहनो। पर माॅसी आप की रिटायरमैंट की खुशी में एक अच्छी सी शानदार डैªस तो बनती ही है न। शाम को लेंगे माॅसी। पक्का है न।’’

फोन काट दिया था मैंने। फिर मक्खियों की भिन-भिन।

‘‘ओ आसा, इधर तो आ।’’ माँ थी।

कम से कम पचास साल हो गए माँ को ‘आशा’ का सही उच्चारण सिखाते, पर नहीं।

मैं जस की तस बैठी रही। इच्छा ही नहीं हुई उठने की। नहीं चाहती थी कोई मुझे बुलाए, मुझसे बात करे। अदृश्य हो जाना चाहती थी। सूक्ष्मतम हो जाना चाहती थी और आकाश में उड़ जाना चाहती थी।

कभी-कभी हर चीज बेमानी लगने लगती, अपना जीवन, सारे रिश्ते, अपने सारे कर्म और कर्तव्य। हवा में उड़ते बुढि़या के बालों की तरह, आकाश में उड़ते हल्के-फुल्के आवारा बादलों की तरह, सरसराते हुए पेड़ों की आवाज की तरह और वीरानी की सनसनाहट की तरह सब अर्थहीन लगता। भीतर न आह होती न वाह।

‘‘आसा, सुनाई नहीं दिया क्या?’’

चली गई थी माँ के पास।

‘‘हाँ, माँ, क्या हुआ।’’

‘‘कुछ ना हुआ, सुना कल तेरी नौकरी का आखिरी दिन है। अब कोई और काम न पकड़ लियो। मुझे तो बड़ा चैन मिला। तू आस-पास रहेगी तो मन को शान्ति रहेगी। बहू को तो लाख आवाज दे दो पर एक भी सुनाई ना दे।’’

‘‘पानी दूँ।’’ मैंने पूछ लिया माँ से।

‘‘ना, प्यास ना है।’’

‘‘आसा, मैंने सुना बड़े पैसे मिलने वाले कल तुझको। सालों की जमा पूँजी। सुना कई लाख रूपये।’’

मैं एकटक माँ का चेहरा देख रही थी। जी चाह रहा था कह दूँ कि तुम सब पैसे रख लो और मुझे बख्श दो पर कहा कुछ नहीं। मुझे लगता मुझे बार-बार कोई ताप छू जाता है। कुछ लिजलिजा सा चिपक जाता है जो बस एक तनाव उत्पन्न करता है।

‘‘सुन बेटी, किसी अच्छे से अस्पताल में बस आँखें दिखा दे। बस थोड़ा ठीक से देख पाऊँ तो जीना आसान हो जाए। मैंने सुना आॅपरेशन से आँखें ठीक हो जाएं। बस इन आँखों का कुछ कर दे।’’

‘‘माँ, इस उम्र में आॅप्रेशन के लिए डाॅक्टर मना कर रहे हैं। दिखाया तो था अस्पताल में।’’

‘‘अब किसी बड़े अस्पताल में दिखा दे।’’

‘‘वह भी बड़ा अस्पताल था माँ।’’

‘‘उससे बड़े में दिखा दे क्या पता आँख ठीक हो जाएं।’’

चुप हो गई थी मैं। मुझे लगता इस घर में रोज अपने धीरज का इम्तहान देना पड़ता है। समझ नहीं पाती माँ को कैसे समझाऊँ। शरीर की अपनी सीमाएँ हैं, उम्र की अपनी और इलाज की भी अपनी। सूख के अकड़ चुके पत्ते सिर्फ टूटते हैं।

कभी माँ के नजरिए से सोचती तो ग्लानि से भर उठती। अपनी चिड़चिड़ाहट पर गुस्सा आने लगता। बुढ़ापा अपने आप में एक बीमारी है। जर्जर तन-मन को घसीटता, शहतीर सा भारी बुढ़ापा।

सुबह स्कूल में शानदार समारोह था.........छोटा पर प्यार भरा.......स्कूल की फि़ज़ा में अब कभी आशा मैडम का नाम नहीं महकेगा।

मेरी कर्मठता, सादगी और मेहनत पर प्रशस्ति पत्र पढ़े गए। सारे स्टाफ की तरफ से ढेर सारा प्यार लुटाया गया। शर्मा जी ने पैंतीस लाख का चैक दिया।

फिर शानदार लंच।

फिर मैं सब के साथ घर आ गई।

कल से मैं कहीं नहीं जाऊँगी।.....जीवन जैसे ठहर जाएगा.....नहीं, शायद जीवन ठहरता नहीं बस गति कम ज्यादा होती है। सुबह कोई भागमभाग नहीं, कोई हड़बड़ी नहीं, बसों के पीछे भागती मेरी दिनचर्या को पूरी तरह से विराम।

पर मैं खुश क्यों नहीं हूँ। बस यही समझ नहीं आ रहा। मैं तो शुरू से यही चाहती थी कि सुबह योगा करूँ, सैर करूँ, मैडिटेशन करूँ। इस नौकरी में सबसे बुरा यही लगता कि अपनी सुबह को अपनी तरह कभी जी नहीं पाई। पर अब....। अब तो चारों पहर अपने हैं। पूरी तरह से अपने.......अब तो इन्हें मुट्ठी में दबा कर रख सकती हूँ। फिर अब क्यों कुछ उमग नहीं रहा भीतर। हर अहसास किसी फिसलती सिल पर जा पड़ता है। हर झोंका मन को सूखे पत्ते की तरह उड़ाए लिए जा रहा है।

सुबह आँख खुली तो अंधेरा था। पांच बजे थे......मैं आँख बंद कर पड़ी रही......आज तो बस नहीं पकड़नी थी......माँ को थोड़ी देर से नहला दूँगी.......दलिया भी थोड़ी देर में ही बनाऊँगी......बिल्कुल ताजा.......ताजा चीज़ खाने का मजा ही अलग है।

उठते ही पार्क जाऊँगी। आज से योगा क्लास ज्वायन करूँगी। योगा के बाद वाॅक और मैडिटेशन। दो घंटे पार्क में ही बिताकर लौटूंगी। बस यही सोचते-सोचते उठ खड़ी हुई थी।

मैं बाहर बरामदे में खड़ी थी। बरामदे में जब भी खड़ी होती हूँ आकाश बहुत सिमट जाता है। चैकौर सा आकाश हल्की नीलिमा लिए खुशगवार दिखाई पड़ रहा था। मुझे लग रहा था यह तो मेरा आकाश है.......मेरा और सिर्फ़ मेरा......। मैं इसे छू सकती हूँ, मैं इसे पकड़ सकती हूँ.......मैं इसके विस्तार को अपनी भुजाओं में समेट सकती हूँ।

घर से बाहर निकलने ही लगी थी कि

‘‘आसा, किधर है बेटी?’’

‘‘हाँ, माँ बोलो।’’

‘‘कहीं घुमा ला बेटी, किसी ऐसी जगह जहाँ साँस आ सके। खुली हवा में ले चल, सारा दिन कमरे में जी घुटे।’’

‘‘पार्क चलोगी, मैं योगा कर लूंगी, आप बैंच पर बैठना।’’

‘‘ठीक है, ले चल, पर मेरे आस-पास ही रहियो।’’

भ्रामरी प्राणायाम में इतना आनन्द कभी नहीं आया। भीतर रोम-रोम एक गुंजन में लीन हो गया और पल भर मैं उसी प्रकम्पन में डूबी रही।

अनोखा अनुभव था।

‘‘आसा, ओ आसा।’’ माँ की आवाज उस प्रकम्पन से खींच लाई थी......मैं धड़ाम....श्वास की गति छिन्न-भिन्न। मैं खुरदरी पथरीली ज़मीन पर।

‘‘क्या हुआ माँ।’’

‘‘थक गई बैठे-बैठे, घर ले चल।’’

कुढ़ गई थी मैं।

कुढ़ते-कुढ़ते घर ले आई। फिर वापिस जाने का मन नहीं हुआ।

पलंग पर लेटते ही फिर बोली थीं ‘‘आसा, आज ही ले चल किसी डाॅक्टर के पास जो मेरी आँखें ठीक कर दे।’’

मैं जानती हूँ जितनी बूढ़ी होती जाएंगी उतनी अशक्त होती जाएंगी और जितनी अशक्त होती जाएंगी उतनी सशंकित और अविश्वासी होती जाएंगी।

मुझे लग रहा था जिजीविषा और आशा दो बहनें हैं जो जीवन की कोख से जन्मी हैं।

जाने क्यूँ कई दिन से लग रहा है किसी सफ़र पर हूँ.........बिल्कुल अकेली......सब हैं पर कोई नहीं..........कोई मेरा नहीं.........कोई मेरे साथ नहीं..........कोई जिसे मुझसे पैसा न चाहिए हो.........कोई जो पल भर रुक कर पूछे ‘‘आशा, कैसी हो? सब ठीक तो है?’’

कभी किसी ने पूछा ही नहीं। जीवन जैसे खरपतवार है।

पार्क वाले योगा टीचर को फोन था। योगी योग सीखने हरिद्वार जा रहे हैं। वो साथ चलने को कह रहे थे।

मेरा मन खुशी से भर उठा।

पर पल भर में लगा आकाश में उड़ने की कोशिश कर रही हूँ....। बिना पंखों के। दस दिन के लिए कोई जाने नहीं देगा।

न माँ जाने देगी न भाई भाभी क्योंकि माँ की जिम्मेवारी वे लेंगे नहीं।

लगा लोहे की जंजीरों से भी मजूबत जंजीरें हैं जो न कट सकती हैं न निकल सकती हैं शायद जन्म भर। मन हुआ भाग जाऊँ कहीं या अदृश्य हो जाऊँ। कुछ दिन सब परेशान होंगे फिर अपने आप अभ्यस्त हो जाएंगे क्योंकि जीवन तो रुकेगा नहीं। वह तो बहेगा......चाहे कोई चाहे, चाहे न चाहे।

आज भी वह दिन याद है जब पिताजी नहीं रहे थे और माँ ने भी वैधव्य का कवच ओढ़ लिया और मुक्त हो गई सब उत्तरदायित्वों से.......पर जीवन तो बहता रहा फिर भी। लेकिन अबाध गति से बहना अलग चीज है और रुकते, गिरते, पड़ते चलना अलग बात है।

फिर मन में आया यदि मैं नहीं रही तो.......। अमरता का पट्टा तो नहीं लिखवा कर आई हूँ न......तब भी तो जिएंगे न ये सब। माँ भी अपने दिन तो काटेगी ही......भाई-भाभी भी चाहे बेमन से माँ को देखेंगे ही।

आसानी से मिली हुई सुविधा को कौन छोड़ना चाहता है। मैं जानती हूँ मैं सब के लिए एक सर्वसुलभ सुविधा हूँ। एक ऐसा विश्वसनीय आधार जिस पर हर कोई अपने उत्तरदायित्वों का बोझ डाल सकता था।

अपना महत्व जताना कभी नहीं आया। जब छोटी बहन का रिश्ता आया तो मुँह बाए देखती रही थी बुआ को। भीतर उठे आँसुओं के सैलाब को आँखों के पीछे ही रोके रही थी। एक बार भी नहीं जताया कि सबसे बड़ी हूँ शादी पहले मेरी होनी चाहिए। सबने सुनिश्चित किया मेरे लिए कर्तव्य की बलिवेदी पर चढ़ना और मैं चढ़ गई.......मूक.......रुदन था वह भी मूक.....। कुछ न जताने की तटस्थता।

गिरीश सचदेव ने कितने संकेत दिए थे.......अपनी सीमाओं में रहते हुए......मेरी गरिमा का ध्यान रखते हुए.......पर कहाँ उतरी मैं उस बलिवेदी से.....चढ़ी रही उसी पर.....जी चाहता था चली जाऊँ.....पर चाहती रही कोई कह दे......कौन कहता, क्यों कहता.......पर मैं....मैं भी तो कह सकती थी पर नहीं......जाने क्या जकड़ा रहा। हिचक या कर्तव्यबोध.......बस समय की धारा बहती रही।

चमकीले पानी के झाग की झालरों की बीच खड़ी-खड़ी भी मैं एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा पाई......जम गए थे पाँव या चिपक गए थे नहीं जानती। अपने वजूद को कतरा-कतरा होकर नमकीन पानी में घुलकर सागर के बीच भंवर में गड़प होते देखती रही......अपनी यात्रा को एक अर्थहीन महत्वहीन यात्रा में तब्दील होते आँखे फाड़े देखती रही......भीतर कुछ छिजता, रिसता रहा और निजत्व की हिलती दरदराती दीवार और जोर-जोर से हिलने लगी।

सालों बाद पवित्रा आई। आते ही ज़ोर से मिली गले लग कर। भीतर कुछ पिघला और मैं रो दी।

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, तेरे लिए बहुत उदास थी।’’

‘‘तो भी तो बुलाया नहीं एक बार भी।’’

‘‘हाँ, तेरी कसूरवार हूँ। पता नहीं क्यों जो करना चाहती हूं वह भी नहीं कर पाती हूँ। यहां तक कि फोन भी। हर पल भीतर बस सांय-सांय होती रहती है।’’

‘‘तू बहुत थक गई है। कुछ दिनों के लिए कहीं चली जा। कुछ रैस्ट कर। यही हालत रही तो तू डिप्रैशन में चली जाएगी और तेरे ये तथाकथित अपने, जिनके लिए तू सारी जिंदगी मरती रही। कोई नहीं पूछेगा तुझे। अपने लिए भी कोई कर्तव्यबोध होता है या नहीं।’’

पवित्रा गुस्से में फड़फड़ा रही थी।

हम दोनों का सदा से यही झगड़ा रहा है।

‘‘मैं दस दिन के लिए आनन्द नगर जा रही हूँ। गुरू जी के दर्शन करने। दस दिन का मैडिटेशन कैम्प है। तू चले तो तेरी भी टिकटें बुक करा दूँ।’’

‘‘माँ का क्या होगा?’’

‘‘तू नहीं सुधरेगी। मैं बात करती हूँ।’’

‘‘नमस्ते आंटी, पाय लागू।’’

‘‘कौन पवित्रा है न, आवाज नहीं बदली तेरी।’’ माँ पहचान गई।

‘‘और सब ठीक है, बड़े समय में आई।’’

‘‘लड़ाई हो गई थी आपकी बेटी से।’’

आंटी मेरी बात सुनो, मैं आशा को दस दिन के लिए अपने साथ ले जा रही हूँ।’’

‘‘ना बेटा, मेरा क्या होगा। अब तो दिखाई भी न देता है और सुनता भी ऊँचा है।’’

‘‘आप चिन्ता न करें आन्टी, आपकी सेवा के लिए एक लड़की मैं रख दूंगी। आपकी सेवा भी करेगी और घर के काम भी करेगी।’’

‘‘आशा को भी तो मन की करने का हक है। सारी जिन्दगी उसने ऐसे ही काट दी, उसका किसी ने न सोचा।’’ पवित्रा ने सबकी बोलती बन्द कर दी, भाई-भाभी भी कुछ न कह सके।

पवित्रा ने टिकट बुक करा दी और मुझे ले उड़ी। मैं सचमुच आजादी के आकाश में उड़ रही थी, सब ओर तितलियाँ थी और भीनी-भीनी खुशबू।

टेªन में बैठते ही जाने क्यों ‘आर्ट आॅफ हैप्पी लिविंग’’ के साथ गिरीश सचदेव याद आ गए। विस्मृतियों के गहरे सागर से एक दम बाहर निकल आए। मैं सचमुच हैरान थी। यकायक उनसे जुड़ी छोटी-छोटी बातों, छोटे-छोटे वार्तालापों का एक कोलाज बन गया।

सेमिनार के पहले ही दिन जब पंत की सौन्दर्यानुभूति पर बोले तो जाने क्यों पंत के सौन्दर्य पर आ कर टिक गए।

‘‘बाल बड़े मशहूर थे पन्त जी के बिल्कुल मैडम आशा जैसे।’’ मैं तो जैसे सकुचा गई थी थोड़ी सी आँखें उठा कर देखीं तो गिरीश मुझे ही देख रहे थे।

उस दिन घर पहुँचते तक एक गुदगुदाहट सी होती रही थी। गिरीश सचदेव का आकर्षण उनकी आँखों में बंधा था जो वे बड़ी आसानी से छुपा गए थे।

उस समय मैं पैंतीस की थी। ये भी जवान थे। खूबसूरत और स्मार्ट थे। मुझसे दो तीन साल ही बड़े रहे होंगे। युनिवर्सिटी में लैक्चरर थे और अच्छे कवि भी थे।

‘‘मैडम पवित्रा, एक मिनट रुकिए।’’ छुट्टी के समय जाते-जाते गिरीश बोले थे। हम दोनों साथ थी, रुक गई थीं।

‘‘आप आर.के.पुरम सेक्टर दो में हैं या तीन में।’’

पवित्रा से ही बोले थे पर जाने क्यों मुझे लग रहा था बात करना तो एक बहाना है।

‘‘सर सेक्टर दो में हैं हम दोनों।’’

‘‘फिर तो आपको एक छोटी सी तकलीफ दूँगा।’’

‘‘बताइए सर, मैं आपके लिए क्या कर सकती हूँ।’’ सीढि़यों से उतरते-उतरते पवित्रा और गिरीश बात कर रहे थे और मैं पवित्रा के साथ दीवार की तरफ चुपचाप चल रही थी।

‘‘आपके स्कूल में ईवनिंग शिफ़्ट में सहदेव शर्मा हैं।’’

‘‘जी सर हैं। मैं उन्हें अच्छी तरह जानती हूँ। बहुत विद्वान हैं।’’

‘‘उनके पास कुछ पुस्तकें पहुँचानी हैं और उनका फोन नम्बर लाना है।’’

‘‘हो जाएगा सर, लाइए किताबें दीजिए।’’

‘‘कल ले आऊँगा।’’

‘‘ध्यान से मैडम आशा’’ और अगले ही पल सब कैसे हुआ पता नहीं।

मेरा सिर गिरीश की हथेली पर था और गाल कलाई पर। हमारे बीच से हवा की निकासी जितनी जगह भी नहीं थी। उनकी गरम साँसें मेरे भीतर उतर गई थीं। मेरा एक हाथ उनकी छाती पर था ठीक दिल की जगह पर और उसकी धड़कन को मैं महसूस कर पा रही थी। सब इतनी जल्दी हो गया कि पता ही नहीं चला।

आखिरी सीढ़ी से उतरे हुए जैसे ही गैलरी की ओर मुड़ना था वहीं बड़ा सा लैटर बाॅक्स था जो अगर गिरीश देख न लेते तो सीधा मेरे सिर को घायल करता। उसे देखते ही फुर्ती से आगे बढ़ कर उस लैटर बाॅक्स के निचले कोने पर उन्होंने हाथ रख दिया ताकि वह मुझे लहूलुहान न करे। वह क्योंकि एकदम आगे आ गए सो मैं उनके इतने करीब आ गई जैसे चिपटी खड़ी होऊँ। मुझे पता ही नहीं चला कहाँ मेरे हाथ हैं कहाँ मेरा चेहरा।

जब संभली तो उन्हें इतने करीब पाया कि मैं हतप्रभ और शर्मिन्दा।

‘‘ठीक तो हैं न मैडम आशा, मुझे शुक्रिया कहिए नहीं तो कल इन्हीं खूबसूरत बालों पर सफेद पट्टी होती।’’

मैं छिटक कर दूर हो गई थी।

मेरा दिल जोर-जोर से धड़क रहा था।

‘‘थैंक्यू सर।’’ उनकी तरफ देखा तो दो छोटी-छोटी आशाएं उनकी हल्की भूरी सम्मोहित सी छोटी-छोटी आंखों में उड़ कर जा बैठी थीं। मैं अभी भी काँप रही थी।

आज तक किसी पुरूष के इतने करीब न तो गई और न किसी को आने दिया। वह हाथ का गरम और स्पन्दित स्पर्श अभी भी सिर पर अपना प्रभाव जमाए था और धड़कते दिल पर मेरा हाथ जैसे उस धड़कन को पी रहा था। उनके शरीर की गंध से आलिंगन भीतर एक आलोड़न उत्पन्न कर रहा था और उनकी गरम साँस जैसे मेरी साँस को चुम्बन करके अलग खड़ी तमाशा देख रही थी।

‘‘अच्छा सर, चलें।’’ पवित्रा ने इजाज़त ली।

गिरीश भी पार्किंग की ओर बढ़ गए थे।

‘‘और मैडम आशा, कैसी रही। हाथ मारा भी तो सीधे दिल पे।’’

‘‘पागल है क्या, मुझे पता ही नहीं चला, कब वह एकदम आगे आ गए मैं संभलती तब तक पता नहीं कहां क्या था।’’

हंस दी जोर से पवित्रा।

‘‘चिपकू कहीं का। अब मेरे बालों के पीछे ही पड़ गया। कल से क्लिप लगा कर आऊँगी। पन्त के बाल जैसे देख के आया हो।’’

‘‘अब झूठ-मूठ की नाराज़गी मत दिखा। गुस्सा तेरी आँखों में नहीं है।’’

उस दिन सारा दिन उस प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाईं उस दिन का सारा अनुभव आज पंद्रह साल बाद भी हूबहू तरोताजा है। उस रात को बिस्तर पर गिरीश की उत्तेजक गंध और उसकी प्रेमालोडि़त गरम साँसों के गुलाबी अहसास में कैद रही। रात भर भीतर कुछ गुदगुदाता गरमाता रहा। मन की वीणा के तार भीतर एक संगीत उत्पन्न कर रहे थे और मैं मदमस्त उन तरंगों पर नाच रही थी। गिरीश का स्पर्श ऐसा मायावी मायाजाल था जिसमें मैं पूरी तरह जकड़ी थी।

‘‘आसा, बेटी आसा। पेट में गैस हो रही है थोड़ी अजवायन तो ले आ।’’ माँ ने उस मायाजाल से बाँह खींच कर बाहर निकाल लिया था। मैं उठी और अजवायन पानी के साथ माँ को दी।

मैं समझ रही थी इस रास रंग की मेरे जीवन में कोई जगह नहीं। वीणा के तारों का संगीत सब अस्त-व्यस्त कर देगा। इस अहसास की भीतर मन की तहों में गहरी गठरी बांँध कर रख देना ही उचित होगा। यह गुलाबीपन मुझे ले डूबेगा कहीं का नहीं छोड़ेगा। अभी तो सिर्फ रानी की शादी हुई थी। दो भाईयों को सैटल करना था। फिर माँ के लिए तो मुझे आजीवन इस अहसास से दूर रहना होगा।

अगले दिन से ही एक ज़बर्दस्त तटस्था से बाँध दिया था अपने आपको। बड़े प्रयत्न से लहरों को निकल जाने देती, स्पर्श भी नहीं करने देती। गिरीश की तरफ से कई खामोश निमंत्रण मिले थे पर मैं उन्हें अनदेखा करती रही। बड़े अरमानों से बहती हवाएं मेरे पास आतीं और मैं उन्हें लौटा देती। पवित्रा हर बार चिढ़ उठती।

वे सब किताबें श्री श्री रविशंकर की थीं।

मुझे हर बार गिरीश फोन करते।

मैंने एक बार विस्तार से अपनी समस्याएं बता दी थीं। तब से हमेशा मेरी प्रशंसा करने के लिए फोन करते। बार-बार यही कहते ‘‘आप जैसे लोग आजकल नहीं मिलते। अपने परिवार के लिए इतना बड़ा त्याग।’’ फिर धीरे-धीरे फोन आने बन्द हो गए।

ट्रेन में ऊपर की बर्थ पर लेटे हुए लगता है सारी दुनिया से बहुत ऊपर आ गए। पवित्रा खर्राटे ले रही थी।

मैं भीतर कहीं राहत का अनुभव कर रही थी। कोई रात में नहीं उठाएगा, कोई विचारों के इस प्रवाह को नहीं तोड़ेगा। कभी ग्लानि होती अपनी सोच पर। पर सोच तो सोच थी।

आज जी चाह रहा था बार-बार गिरीश के बारे में सोचूँ। ऊपर की बर्थ मेरे लिए एक संसार था जो सिर्फ़ मेरा था जिसमें आज बरसों बाद मैं अपने मन में सहेज कर रखी बन्द गठरियाँ खोल-खोल कर करीने से रखूँगी।

हर गठरी अपनी गंध से सराबोर, अपने असर से भरपूर मेरी बर्थ पर सजी थी और मैं अपने जीवन के इन दस्तावेज़ों को खोल कर पढ़ना चाहती थी, इनमें डूबना चाहती थी, इनकी तहों को खोलना चाहती थी जो तहें बरसों पहले मैंने खुद लगाई थीं कभी न खोलने के लिए।

मैं इत्मीनान से अपनी बर्थ पर उन फुहारों के साथ थी जो मुझे धीमा-धीमा भिगो रही थीं। मैं चाहती थी भीगना, भीगना और भीगना। सिर्फ़ भीगना नहीं डूबना चाहती थी गर्दन तक नहीं पूरी। आपादमस्तक। क्योंकि जैसे-जैसे गठरी खुलती गिरीश के कोलाज में एक और कतरन जुड़ जाती।

जब नई सड़क गई थी छोटे भाई के लिए किताबें लेने तो वहीं मिल गए थे। अजीब इत्तफ़ाक था। उसी दुकान पर पहले से मौजूद थे।

‘‘आप इतना करती हैं अपने परिवार के लिए, घर में सब बहुत मानते होंगे आपको।’’ कहकर नज़रें उन्होंने मेरे चेहरे पर गढ़ा ली थीं।

‘‘यू आर ग्रेट।’’ पल भर में फिर बोले।

मैं मुस्कुरा दी थी।

‘‘आपकी ये स्माइल भी बालों की तरह बहुत खूबसूरत है।’’ इतनी सहृदयता और आत्मीयता तो अपने घर के लोगों से भी नहीं मिली थी।

मैं हर गठरी खोल रही थी। मुझे एकाएक लगने लगा कि गिरीश का कोलाज नहीं पूरा चित्र बनेगा, पूरी तस्वीर।

मैं ट्रेन में लेटे-लेटे गिरीश की गर्म साँसों और धड़कते दिल के आगोश में डूबना चाहती थी। इतना गहरा उतरना चाहती थी कि वह काल्पनिक होने के बावजूद वास्तविकता का बोध दे।

सुबह हम वहाँ पहुँच चुके थे। आश्रम में बहुत भीड़ थी। मैं चाहती थी पवित्रा गिरीश के बारे में कोई बात करे। इतने सालों बाद? पर चाहना समय की सीमाओं में नहीं बँधती। वह तो असीम, अपार अविच्छिन्न धारा है जो न रुकती है न बँधती है।

फोन बजा था।

‘‘बुआ, मुझे अपनी चादर में घुसा लो।’’ भतीजा था।

‘‘क्या बोल रहा है मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा।’’

‘‘बुआ, मुझे नया लैपटाॅप चाहिए उससे मेरा बहुत टाइम बचेगा पर ये मम्मी पापा एक ही रट लगाए हैं पुराने से काम चलाओ। जितनी चादर है उतने पैर फैलाओ।’’

‘‘ठीक कह रहे हैं।’’

‘‘बुआ, अपनी चादर में घुसा लो प्लीज।’’

मैंने फोन काट दिया।

‘‘भूल जा अब दिल्ली को, यहाँ का आनन्द उठा।’’ पवित्रा शायद सचमुच किसी आनन्द में थी।

भाई का फोन आया था, माँ ठीक थी, उस लड़की से खुश थी। मेरे लिए सबसे राहत की बात यही थी।

आश्रम सचमुच धरती पर स्वर्ग था।

कतारों में करीने से कटाई किए पेड़ सचमुच समाधिस्थ ऋषि लग रहे थे। प्रकृति में अद्भुत सम्मोहन था, चिडि़यों की चहचहाहट में ऐसा रिदम मैंने कभी अनुभव नहीं किया। कृत्रिम झरने चिडि़यों के सुर में सुर मिला रहे थे और गिलहरियाँ थीं कि उस सुर पर फुदक-फुदक कर ताल दे रही थीं, भंवरों की गुंजन खुला निमंत्रण था जीवन की महक का, जीवन के रस का।

लोग थे, भीड़ थी पर जैसे शांत समुद्र, लहर दर लहर आस्था की माला में पिरोए मोती, सब ओर भ्रातृत्व का गूंजता संगीत जिसकी स्वर तंत्रियों में हर इंसान डूब रहा था।

पवित्रा के कदम दोगुनी गति से चल रहे थे। जल्दी से सामान कमरे में पटककर वह हाॅल की तरफ लगभग भाग रही थी।

मैं पीछे-पीछे उसकी दुम की तरह।

हाॅल में अभी ज्यादा लोग नहीं पहुँचे थे पर सैशन शुरू हो चुका था।

पवित्रा ने किसी तरह आगे की पंक्ति में जगह झपट ली थी। मुझे भी बिठा लिया।

सामने गुरू जी बड़े से सिंहासन पर विराजमान थे। शांत चित्त, श्वेतवर्णी तपस्वी श्वेतवस्त्र में लिपटे साधना में लीन। भक्ति संगीत में डूबा अपार जन समूह।

भजनमंडली पर नज़र पड़ी तो एकदम सामने गिरीश सचदेव आँखे बंद किए संगीत की ताल पर अपने ही घुटने पर ताल दे रहे थे। बीच-बीच में ताल देना बंद कर देते जैसे भीतर कहीं गहरे उतर गए और फिर कुछ क्षण बाद फिर वही ताल।

उन्हें देखते ही मैं उल्लसित हो उठी। मेरी नज़र उनके चेहरे से नहीं हट रही थी। उनके मुंदे नेत्र मुझे आमंत्रित कर रहे थे। जी चाह रहा था उन्हें भरपूर नज़र से देख लूँ। भर लूँ आँखों में भी और मन में भी। इतनी बार मिले हैं पर कभी उनके चेहरे को ध्यान से नहीं देखा। कभी देखने की कोशिश की तो मुझे लगातार देखती उनकी नज़र का सामना ही नहीं कर पाती थी।

कैसा मासूम चेहरा है गिरीश सचदेव का। धीर गम्भीर साधक की मुद्रा पर चेहरे की मासूमियत खुले दूर तक फैले आकाश के आँचल पर जगह-जगह सिल दिए गए सफेद-सफेद बादलों के गुच्छों का सौन्दर्य उत्पन्न कर रही थी।

भजन खत्म होने वाला था मैं समझ गई थी। अब गिरीश आँखे खोलेंगे और मुझे यूँ आँखें फाड़े घूरते देख लेंगे तो बहुत बुरा लगेगा। मैंने फौरन आँख मूँद ली। मेरा अंदाजा सही था।

सामने बैठे गिरीश की आँखें खुलते ही उनकी नज़र मुझ पर पड़ी। मुस्कुराहट के साथ हल्का सा अभिवादन सस्नेह गिरीश की ओर से था। मैंने भी प्रतिदान स्वरूप मुस्कुराहट के साथ हल्का सा अभिवादन उनकी ओर ससम्मान पहुँचा दिया।

मंच संभाला गिरीश ने।

सच कमाल का बोलते हैं।

अब गुरू जी की स्पीच थी।

उनका एक-एक शब्द गहरे अर्थ रखता था। बरसों का आत्मचिंतन और मनन उनके एक-एक वाक्य के बीच से झांक रहा था। मैं हैरान थी चीजों को हमने कभी उस दृष्टिकोण से क्यों नहीं देखा जिस दृष्टिकोण से देखना ज़रूरी है।

उनकी स्पीच के बाद सभा विसर्जित हो गई। अगला सैशन लंच के बाद था।

‘‘मैडम पवित्रा’’ गिरीश का स्वर था।

हम दोनों रुक गईं।

‘‘बताया नहीं था आप दोनों आने वाली हैं।’’ गिरीश हमारे बिल्कुल करीब आ गए।

‘‘बस एकदम प्रोग्राम बना।’’

‘‘अच्छा हुआ आप मैडम आशा को भी ले आईं। कोई परेशानी हो तो बताइएगा।’’

हम दोनों ने गर्दन हिला दी।

‘‘चलो साथ में लंच करते हैं।’’

बीच-बीच में फोन आते रहे और गिरीश फोन पर ही खाने के साथ-साथ सारी व्यवस्था संभालते रहे।

बीच-बीच में मुझ पर नज़र टिका लेते।

अगला सैशन सचमुच बहुत अच्छा लगा। गीता की गहराई आज तक कभी समझने की कोशिश नहीं की। बेशकीमती अनुभव थे जो मैं संजों रही थी सचमुच जो किसी पूंजी से कम नहीं थे। ज्ञान के हीरों को अपने मस्तिष्क की तिजोरी में बंद कर रही थी। सबसे बड़ी बात मैं रानी बनने की प्रक्रिया से गुजर रही थी, अपने मन-मस्तिष्क की रानी, जो आसान नहीं था। ज्ञान को क्रियात्मक रूप में जीवन में उतार पाना कितना आसान होगा ये तो कर्मभूमि दिल्ली में आकर ही पता चलेगा। सकारात्मकता को पूरी तरह अपने जीवन में धारण करना कितना सम्भव हो पाएगा, नहीं जानती, पर प्रयास में कमी नहीं होगी।

तीसरे दिन का सैशन मेरे जीवन के अनमोल लम्हे थे। हर पल जैसे अवचेतन में गहरे नीचे जमे पड़े मलबे को खुरचना था और उस खुरचन को सावधानी से उठाकर अवचेतन मन से बाहर फेंकना था और इतनी दूर फेंकना था कि उसका कोई अवशेष भी आसपास न रह जाए।

‘‘नेत्र आहिस्ता से बंद कीजिए।’’ गिरीश कमैन्ट्री दे रहे थे।

‘‘हल्का छोड़ दीजिए अपने मन-मस्तिष्क को, दिमाग की सारी जकड़न को बह जाने दीजिए, बहुत कुछ जमा पड़ा है अन्दर.....। शिकवे, शिकायतें, नाराज़गियाँ, पश्चाताप, ग्लानि, नफरतें। बस यही सब हमने जमा कर रखा है गठरी बनाकर बल्कि संभाल कर रखा है बड़े जतन से। इसे हम हिलने भी नहीं देते अवचेतन की अलमारी से। खोल दीजिए उस अलमारी के किवाड़.......एक-एक कर सब गठरियाँ निकालिए और रखते जाइए प्रभु के सम्मुख खोलकर......विनम्रतापूर्वक उसकी शरण में जाइए......उसके चरणों में बैठकर सब समर्पित कर दीजिए........सब नाराज़गियाँ कह डालिए.......यकीन कीजिए, न वह नाराज़ होंगे, न गुस्सा करेंगे, न किसी से कहेंगे, लड़ना है लडि़ए वे पलटकर वार नहीं करेंगे, रोना है रोइए, अपना सारा दुःख बहा दीजिए..........विश्वास कीजिए वे चुपके से आँसू पोंछ देंगे, प्यार से सिर पर हाथ रख देंगे, बस आप अनुभव कीजिए उसे...।’’

और मैं सचमुच किसी से अपनी व्यथा कह रही थी, खूब रोई थी, बहते रहे थे आँसू। बार-बार एक ही सवाल पूछा था ये एकाकीपन मेरे ही जीवन में क्यों? सचमुच लगा कोई सामने है और मैं उससे सब बाँट रही हूँ बल्कि उसे ही दे रही हूँ.......मुक्त हो रही हूँ......हल्की हो रही हूँ......बेडि़याँ खुल रही हैं........कुछ है जो रिक्त कर रहा है। लड़ी भी थी लेकिन कोई जवाब प्रभु से नहीं मिला। न किसी का हाथ मैंने अपने सिर पर अनुभव किया।

करीब पंद्रह मिनट कोई स्वर नहीं था। गिरीश की कमैंट्री भी नहीं थी। सब अपने में थे। ओ३म् शान्ति शान्ति। आह्वान था लौट आने का।

कुछ लोग अभी भी वहीं थे, अवचेतन मन में कुछ ढूँढ रहे थे या प्रभु के साथ या अपनी पीड़ा के साथ। मैं भी अवचेतन मन की पगडंडियों में भटक रही थी।

सैशन खत्म हो गया।

खानी की टेबल पर हम तीनों साथ थे। पर मौन।

मेरे लिए खाना भी पवित्रा लेकर आई।

पूरा समय हम तीनों मौन थे।

रात में सैर पर गिरीश मिले।

‘‘कैसा लग रहा है।’’ मुझे पता था यही सवाल होगा।

‘‘हल्का महसूस कर रही हूँ। उस समय तो लग रहा था कोई अकेलेपन की गुफा से बाहर खींच रहा है कोई मुझे निकालना चाहता है दुःख के सागर से। पर प्रभु का हाथ मैंने अपने सिर पर अनुभव नहीं किया। मैं शायद आपके सामने.......। या फिर अपने आप के सामने या फिर......मैं नहीं जानती।’’

‘‘संदेह की धुंध भी शीघ्र हट जाएगी। हल भी मिलेंगे, जब प्रभु चाहेंगे तभी और वे तभी चाहेंगे जब हमारे लिए उचित समझेंगे।’’

‘‘ये तो कंडीशनिंग है माइंड की।’’

‘‘नहीं, सिर्फ कंडीशनिंग नहीं है, ये वो दृष्टिकोण है जो हमें सुख के रास्ते पर ले जाता है।’’

क्षण भर चुप रह कर फिर बोले थे, ‘‘मैंडम आशा, शीघ्र आपकी सब उलझनों का हल होगा, यह विश्वास दिलाता हूँ।’’ चले गए गिरीश।

दस दिन कैसे निकले पता नहीं। आज आखिरी रात है आश्रम में।

‘‘आशा मैडम, नीचे आइए अहाते में।’’ गिरीश का फोन था।

‘‘जी, आती हूँ।’’

पवित्रा समझ गई थी।

‘‘कुछ कहे तो अक्खड़ों की तरह मना मत करियो। तुझे पता है वो तुझे पसन्द करता है। आंटी की प्राब्लम साॅल्व हो चुकी है। तुझे जीवन के इस सुख को अनुभव करने का हक है। ऐसा इंसान नहीं मिलेगा, बस यही याद रखियो। हे ईश्वर, इसे सद्बुद्धि देना।’’

पवित्रा का हर शब्द जैसे अंकित हो गया था दिलो दिमाग पर।

नीचे पहुँची तो गिरीश इंतजार कर रहे थे।

‘‘चलिए पार्क में टहलते हैं।’’

मैं गिरीश के साथ चल दी।

हम दोनों चुप थे पर बहुत से शब्द थे दोनों के दिल की ज़बान पर जो आपस में बतिया रहे थे।

पार्क में कोने में बैंच पर हम बैठ गए। बिल्कुल एकान्त था। यह पार्क आश्रम के पीछे की ओर छोटी सी नदी के किनारे था।

‘‘कितना एकान्त है यहाँ।’’ गिरीश दूर शून्य में निहार रहे थे।

‘‘हाँ।’’

‘‘आप जानती हैं, इस एकान्तता का अपना संगीत है जो सब को सुनाई नहीं देता। इसे मैं सुन पा रहा हूँ। इसे आप भी सुन पा रही होंगी।’’

क्षण भर चुप रह कर फिर बोले थे।

‘‘आपके भीतर भी एक तपोवन है जिसमें ऐसी ही एकान्तता है। उसमें सदा यही संगीत गूँजता रहता है। बिल्कुल अनहद नाद। अगर आप इस संगीत को सुनने की, इसको गुनने की आदत डाल लेंगी तो कभी जीवन का एकाकीपन खलेगा नहीं। आप कभी अपने को अकेला पाएंगी ही नहीं। हर पल डूबी रहेंगी उसमें।’’

मैं गिरीश की आँखों में देख रही थी। उसकी आँखों में दो छोटी-छोटी आशाएँ थीं।

‘‘इस अवस्था तक पहुंचने में थोड़ा समय लग सकता है तब तक हम आपके अकेलेपन को दूर करने को तैयार हैं। अन्यथा मत लीजिएगा। मैं आपको हर्ट नहीं करना चाहता बस आपकी मदद करना चाहता हूँ। जिस भी प्रकार आपके काम आ सकूँ। शारीरिक रूप से या मानसिक रूप से। कभी भी किसी प्रकार का सहयोग कर पाऊँ आपको तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा। हृदय से आपका सान्निध्य चाहता हूँ। शरीर से नहीं हृदय से। विश्वास दिलाता हूँ आपकी गरिमा सदा बनी रहेगी।

मैं अभिभूत थी गिरीश की सदाशयता पर।

‘‘मुझे भी आपके सान्निध्य की उतनी ही जरूरत है जितनी आपको।’’ आखिर कह ही दिया। पवित्रा का एक-एक शब्द नृत्य कर रहा था श्रवण तंत्रियों के आस पास।

‘‘अब कभी एकाकीपन नहीं होगा आपके जीवन में। आप कभी भी आवाज दे सकतीं हैं।’’

‘‘आज भीतर अनोखा सकून है। इन दस दिनों में आपसे बहुत कुछ सीखा है और जीवन भर सीखने की इच्छा है।’’

‘‘हम भी हाजिर रहेंगे सदा।’’

मैं उल्लसित थी। ऐसा उल्लास मन में कभी नहीं जगा। फिर एकाएक माँ का ख्याल हो आया और अपनी उम्र का। इस बुढ़ापे का।

‘‘मैं माँ की जिम्मेवारी से बँधी हूँ।’’

‘‘हम भी बँधे हैं जवान बेटी की जिम्मेदारी से। हम अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं रहे हैं, बस एक दूसरे को इन जिम्मेदारियों को निभाने में मदद कर रहे हैं। मैं माँ को छोड़ने को नहीं कह रहा। कभी थक जाओ तो मेरा सहारा ले सकती हो। आप जैसे इंसान का साथ भीतर की शक्ति को दस गुना बढ़ा देगा। कभी-कभी चलते-चलते किसी साथी की जरूरत होगी तो इस ख्याल से ही खुशी होगी कि वह साथी आप हैं।’’

‘‘लोग क्या कहेंगे बुढ़ापे में।’’

‘‘प्यार तो जवानी का ही है। परवान बुढ़ापे में चढ़ा है। फिर बुढ़ापे का प्यार तो रात की रानी जैसा होता है जो सारी फि़ज़ा को महकाता है।’’

‘‘परिवार?’’

‘‘परिवार को बताना चाहें तो हम हाजिर हो जायेंगे।’’

‘‘नहीं, माँ के रहते तक नहीं, वो कभी स्वीकार नहीं कर पाएँगी, जीते जी मर जाएँगी।’’

‘‘मुझे कोई आपत्ति नहीं, जैसा जो आप चाहेंगी वैसा ही होगा। आप मुझसे बात करेंगी बस इतना ही काफी है।’’

क्षण भर हम दोनों अपने-अपने सुकून के साथ थे।

‘‘चलें, यह सैशन मेरे जीवन की एक महान उपलब्धि है।’’

‘‘मेरे लिए भी।’’

हम अपने-अपने कमरों की ओर चल दिए थे। भीतर एक आकाश उमड़ आया था जिसमें ढेरों तारे महक रहे थे और मैं उन तारों के आगोश में थी। सारे आकाश में महक थी तो गिरीश की, संगीत था तो गिरीश के हृदय का, गुनगुनाहट थी तो प्रेम के गीत की, गिरीश का कहा एक-एक शब्द मुझे चुम्बन कर रहा था और उसकी सदाशयता के आलिंगन में मैं बद्ध थी।

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