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चिरनिद्रा

चिरनिद्रा

हरे रामा हरे कृष्णा हरे कृष्णा हरे रामा,

हरे कृष्णा हर रामा हरे कृष्णा हरे रामा ।

मैं आहिस्ता -आहिस्ता सुरमयी सुबह के इन सुरों की डोर में बंध रही थी... उड़ रही थी दूर तक फैले गहरे नीले क्षितिज में ... मेरे आसपास अनगिनत खुशबुएँ तैरने लगी थीं ... मेरे नेत्र मुँद रहे थे और मैं अपने शरीर के बोध से अनभिज्ञ थी ... स्थान और समय के बोध से भी अनभिज्ञ ...बस कुछ तरंगें और मैं... इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।

इन तरंगों के वशीभूत होती मैं .. इन तरंगों की पीठ पर सवार मैं एक मन्त्र हो रही थी और धीरे-धीरे एक अज्ञात लोक की ओर बढ़ रही थी ।

हमेशा ऐसे ही होता है ये पंक्तियाँ जब भी अपनी लय के साथ विचरती हैं, हवा की तरह गमकती हैं तो मुझे पूरी तरह सम्मोहित कर लेती हैं।

नहीं, मैं राम या कृष्ण की भक्ति में नहीं हूँ और न संगीत की साधिका पर फिर भी न जाने क्यूँ इन सुरों में बिंधती चली जाती हूँ ... जी चाहता है न इन सुरों का संगीत रुके, न मेरे नेत्र खुलें और न मेरा शरीर बोध लौटे । मैं बस डूबती रहूँ, डूबती रहूँ, एकात्म होती रहूँ,होती रहूँ।

ये प्रभात फेरी है... क्योंकि सोसायटी के मन्दिर में आज सभी भगवानों की पत्थर की मूर्तियों की स्थापना है । सुबह के चार बजे हैं ... चाँद तारों की रोशनाई में नहाया ब्रह्म मुहूर्त का पावन समय ...।

हवा के साथ तैरते ये सुर सुबह के उस एकान्त को तोड़ते प्रतीत नहीं हो रहे थे बल्कि एकाकार होते प्रतीत हो रहे थे ... बाहर अभी अंधेरा था पर रोशनी की आहट सुनाई पड़ रही थी ... उजास की हल्की सी पदचाप प्रभात फेरी के उस संगीत के सुर में सुर मिला रही थी।

इच्छा हुई कि शामिल हो जाऊँ प्रभात फेरी में, फिर लगा शायद यूँ सुनना अधिक आनन्ददायी है ... फिर बिना नहाए ... इतनी सुबह नहाना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा ... मैंने एक छोटा सा स्टोल लिया और लपेट कर पार्क में आ गई ।

पार्क के पैरलल ही वह सोसायटी की सड़क है जिस पर प्रभात फेरी चल रही थी।

महकी हुई सुबह मुझे एक उमंग से भर रही थी । मैं अभिभूत थी ... लगा जैसे संगम हो रहा है... पंछियों का मधुर गान, भोर की सुरीली तान और पार्क में चारों ओर घास पर लेटी शबनम के आलाप ...।

नरम दूब से तनिक हटकर चलने लगी... कैसे कुचल देती अपने पैरों तले आलाप लेती उस शबनम को ।

मैं सामने एक बैंच पर बैठ गई ... अद्भुत समां था... हल्की ठंडक... स्टोल में बाजुओं को एक दूसरे में फँसाए मैं गहरी साँस लेने लगी .... मेरी आँखें फिर मुंदने लगीं ... भीतर फिर उसी ताल से ताल मिलाने लगा ।

''सुबह-सुबह ही तो हम बुड्‌ढों को नींद आती है और सुबह-सुबह ये भक्त .... बिना लाउडस्पीकर क्या प्रभात फेरी नहीं हो सकती ?'' एक बूढ़े अंकल बुड़बुड़ाते हुए वहाँ से गुज़र रहे थे, गुस्से में थे, मुझे लगा वो प्रभात फेरी वालों को डाँटने जा रहे हैं।

मेरा ध्यान क्षण भर को भंग हुआ पर फिर आँखें मुँदने लगीं।

''एक्सक्यूज़ मी आंटी।''

एक बच्चा था सामने वाली बालकनी में, मैंने देखा तो ''आंटी,एक रिक्वैस्ट है आंटी ।' ' आँखों में एक अनुरोध था।

''हाँ, बोलो । ''मैं उठकर उसके पास चली गई ।

वह थर्ड फ्लोर से बोल रहा था।

''आंटी, मेरा दस बजे एग्ज़ाम है ... मुझे सब रिवाइज़ करना है... आप प्लीज़ उन्हें कह देंगी वॉल्यूम कुछ कम कर लें, प्लीज़ आंटी।''

''ओके कह देती हूँ ''

'' थैंक्यू आंटी, थैंक्स ए लॉट । ''

बच्चा अन्दर चला गया।

मैं असमंजस में थी ... क्या वो मेरी बात मानेंगे ?.... पर कहना तो ज़रूरी है ...बच्चे की परीक्षा का सवाल है ।

अंकल और बच्चा उस ताल और सुर के बीच की कड़ी को हिलाने लगे थे ... ज़ोर-ज़ोर से सितार के तार हिलने लगे थे ... हवा में एक खलबली सी मच गई ।

मैं तेज़ - तेज़ कदमों से चलकर प्रभात फेरी में शामिल हो गई थी । मुझसे पहले अंकल जी पहुंच चुके थे और उन्हें डाँट रहे थे, मैंने भी पहुंचकर कहा तो वॉल्यूम कम कर दिया गया ।

मैं वहीं उनके साथ चलने लगी । बिना नहाए, नाइट सूट में ... । अब मैं प्रभात फेरी का एक हिस्सा थी पर मन अभी भी एग्ज़ाम वाले बच्चों के बारे में सोच रहा था ... मैंने वॉल्यूम कुछ और कम कराने की कोशिश की ।

धीरे -धीरे चलते हुए हम मन्दिर पहुँच गए ... मैं थोड़ा हट कर खड़ी हो गई ... मन फिर उसी धुन में रमने लगा .... लग रहा था भीतर अभी भी वही धुन गूँज रही है ... सामने श्यामा तुलसी की पत्तियाँ थिरक रही थीं और विपरीत दिशा में खड़ा पीपल भी भक्ति में लीन था ।

हल्का उजाला होने लगा था । चिड़ियों का संगीत, खुलती कुण्डियों का आह्वान, आकाश में धीरे-धीरे फैलती सतरंगी आभा की घुँघरूओं की खनक, रात को रुख़सत करती फ़िज़ाएँ, मन्दिर में बजती आरती,बीच-बीच में बजती घण्टियाँ और शंखनाद, आस्था में झुके माथों और जुड़े हाथों का मांगलिक मिलन, सच सब बड़ा आकर्षक और मनोरम था।

लोग जुटने लगे थे ... मन्दिर भर चुका था ... अब बाहर ही खड़े हो रहे थे लोग।

मैं अब भी एक कोने में खड़ी थी ।

''ओ३म् साईं राम । '' चन्द्रा थी ।

''ओ३म् साईं राम। ''

वह भी मेरे साथ बाहर ही खड़ी हो गई, अन्दर तो जगह ही नहीं थी ।

''तुझे पता है आज की मूर्ति स्थापना के बाद ये मन्दिर बड़ा भव्य मन्दिर बन जाएगा ...सारी मूर्तियाँ पचास हज़ार से भी ऊपर की हैं ... बीस हज़ार के तो इनके कपड़े बने हैं ... तुझे पता है चाँदनी चौक में कोई स्पैशल टेलर है । दो-दो जोड़े बने हैं कपड़ों के ...जब एक जोड़ा धुलेगा तो इतनी देर भगवान जी नंगे तो नहीं छोड़े जा सकते न ... इसलिए दो - दो जोड़े सिलवाए हैं ...लोगों ने बड़े मन से चन्दा दिया है .... अकेले वर्मा जी ने दस हज़ार दे दिया । ''

क्षण भर वह मन्दिर की काँच की दीवारों से भीतर सब देखती रही फिर बोली ''साईं बाबा की मूर्ति मैंने दान दी है, जब इसकी स्थापना मेरे हाथों हो रही होगी तो तू यहीं रहियो, मेरी पिक्स तुझे ही लेनी हैं । ''

भीतर से आवाज़ आई फँस गई पर अब कुछ नहीं हो सकता।

''कब होगी मूर्ति स्थापना ? ''

'' बस थोड़ी देर में आरती,फिर हवन, फिर मूर्ति स्थापना ।''

मुझे लगा अब घर ही चलना चाहिए ... नाइट सूट में खड़ी हूँ ... ऊपर से ओढ़ा हुआ ये स्टोल रात की सुस्ती को हल्का ढक भर सकता है,सुबह की ताज़गी तो नहीं ही दे सकता है न चेहरे से रात की सुस्ती के निशान मिटा सकता है ।

चन्द्रा की पिक्स भी तो लेनी हैं ... घर जाकर, नहा धोकर, बच्चों को नाश्ता कराकर फिर लौटना होगा ...नहीं पहुँची टाइम से तो सारा साल ताने मारती रहेगी ... इस बात को इतना खींचेगी कि मैं कुढ़ने लगूँगी । इसलिए इसकी बात मान लेने में ही भलाई है ... वैसे दिल की अच्छी है, सब की मदद करती है ।

मन्दिर से घर आते हुए बीच में सोसायटी ऑफिस आता है ... कुछ जमावड़ा सा था ... चेहरे भी भक्ति में लीन नहीं थे ... शक्लें बता रही थीं कोई विकट समस्या है । मैंने वहीं से झांका तो हल्का तनाव तो था ... कुछ तो था ... सोसायटी के माली और स्वीपर एकजुट थे ... मैनेजर के साथ ऊँची आवाज़ में बात हो रही थी ... इतनी दूर से शब्द सुनाई नहीं पड़ रहे थे ... बस हाथ उठा उठा कर बोलते माली और स्वीपर नज़र आ रहे थे ... सोचते-सोचते मैं उधर ही बढ़ चली ।

माली भीमा था '' दिन रात मेहनत करते हैं हम,इस पूरे एरिया में ऐसा पार्क नहीं होगा, ऐसी देख - रेख नहीं होगी पौधों की, ऐसी हरियाली नहीं होगी, आपके रहने की जगह को साँस लेने लायक हमने ही बना ररवा है .... जब तनख्वाह बढ़ाने की बात करते हैं सबको साँप सूँघने लगता है ... हज़ार रुपया महीना बढ़ाने की ही तो कह रहे हैं कौन जायदाद माँग रहे हैं ... तीन हज़ार रुपये महीने में पूरा नहीं पड़ता ... चार साल से हमारे पैसे नहीं बढ़े । ''

रामदीन भी आवेश में बोल रहा था ''हम दिन रात मेहनत करते हैं, सोसायटी को लकदक चमकाए रखते हैं, हम काम करना छोड़ दें तो यहाँ कोई एक दिन भी नहीं रह सकता । ''

मन्दिर से आती मन्त्रों की आवाज़ माहौल की गरमी के ऊपर से निकलकर आगे बढ़ती जा रही थी ।

''हमारे भी घर-परिवार हैं ... उनकी भूख भी है और प्यास भी, ज़रूरतें भी हैं और इच्छाएँ भी, दिल भी है और भावनाएँ भी,बच्चे एक - एक चीज़ को तरसें नहीं देख सकते, नहीं कहा जाता कि हमेशा अपनी ज़रूरतों को स्थगित करते जाएँ, नहीं हैं हमारे ऐसे पाषाण हाथ कि उनकी हर इच्छा की मसलते जाएँ, जिन्दगी किसी सूरत तो ज़िन्दगी जैसी लगनी चाहिए । ''

''छः ही तो लोग हैं हम, हज़ार रुपया बढ़ाने को ही कह रहे हैं । ''

रामदीन के मुंह से फूटता एक-एक शब्द सत्य था ...अक्षरश: सत्य ... उसका भोगा हुआ सत्य ... अनुभूत किया हुआ ... गहरे तक तपा हुआ सत्य ... जाने कब तक उसकी आत्मा चीखती रही है और वो इस चीख़ को अनसुना करता आया है पर आज ...?

आज तो सब फट पड़ा भरे बादल की तरह ... नदी सीमाएँ लाँघ गई।

रामदीन सबकी आवाज़ था।

बोल भीमा और रामदीन रहे थे पर शेष चारों की आँखों में समर्थन भी था और नौकरी जाने का डर भी । शायद शोषण सहते - सहते कटी फटी हवा में साँस लेने की आदत पड़ गई है...खुली हवा में फेफड़ों को पूरा खोलकर लम्बी साँस लिए एक मुद्दत होने को आई ... भूल गए शायद ।

मैनेजमैंट की हाय हाय के नारे रामदीन ने लगाए, पीछे - पीछे फुसफुसाती ध्वनि में साथी बोल रहे थे ।

''बोल क्यों नहीं रहे ... अपनी लड़ाई सबको खुद लड़नी पड़ती है ... मैं सब के लिए लड़ रहा हूँ कम से कम आवाज़ तो बुलन्द करो... कल रात क्यों आए थे सब मेरे पास ? क्यों बोले तुम आवाज़ उठाओ हम तुम्हारी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाएंगे ... अब क्यों साँप सूंध गया सब को ।''

आवाज़ बुलन्द होने लगी ।

छहों सोसायटी से बाहर चले गए और शीषम के पेड़ के नीचे डेरा डाल कर बैठ गए ।

रामदीन की जागरूक आवाज़ का भारीपन मन्दिर के शंखनाद के साथ मेल खाता प्रतीत हो रहा था ।

हवा में एक बेमेल स्पन्दित पल उड़ता फिर रहा था ... अस्तित्व हीन सी रुँधी हुई आशा डगमगाती हुई चल रही थी ... लड़खड़ाते विश्वास के कदम इतने भारी हो चुके थे कि आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा था।

प्रैज़ीडैन्ट साहब ने एकदम मैनेजमैंट की मीटिंग बुलाई ... आज तो सोसायटी में भगवानों की मूर्तियों की स्थापना है ... इतना बड़ा लंगर है ... सोसायटी की सफाई भी ज़रूरी है और भाग -भाग कर हर आदेश का पालन भी तो यही करते हैं ...प्रैज़ीडैन्ट के घर आए महमानों के लिए समोसे लाने हों या सैक्रेटरी के घर के परदे धोने हों, ट्रैजरार के घर की सब्जी लानी हो या इनके और ढेरों काम सब इनके भरोसे ही तो हो पाते हैं ।

मीटिंग के बीच में ही मिसेज़ प्रैज़ीडैन्ट का फोन आया था,प्रैज़ीडैन्ट साहब ने अचकचाते हुए उठाया भी था।

''सुनो जी, इनके पैसे बढ़ा दो, आज दीदी जीजा जी आ रहे हैं, मेरी दो सहेलियाँ आ रही हैं .... कैसे होगा सब ? सारा बाज़ार का काम आपको करना पड़ेगा इसलिए बेहतर होगा उनके पैसे बढ़ा दो ... हजार रुपये ही तो माँग रहे हैं ... मैं ज़्यादा काम करवा लूँगी ... तुम्हारा कोई नुकसान नहीं होने दूँगी ...पर ये जाने नहीं चाहिए । आपकी पोकेट में से तो जा नहीं रहा सोसायटी फण्ड में से ही तो जाएगा । ''

कीर्तन मण्डली की अध्यक्षा तुरत - फुरत ऑफिस की ओर आती दिखाई दीं .... ''सुन मोए रामदीन, तैनू ऐ स्यापा अज ई करना सीगा, अज ते पुण्य कमा सगदा सी गा, भगवान जी खुश हो जांदे ते तेरे सारे संकट टल जाणे सीगे। ''

तभी बत्रा जी भी आ गए, ''वर्मा जी कुछ तो कीजिए, कल मेरे घर में शादी है.... बढ़ा दीजिए इनके पैसे या फिर आज ही इन्हें निकालकर और रख लीजिए, बहुत मिल जाएँगे। ''

चिन्ता की रेखाएँ तो थीं चेहरों पर परन्तु अपने - अपने स्वार्थों और निजी कारणों के छल्लों के दायरों में फँसी हुई ... आबो हवा में उनके लिए हिकारत भरी दृष्टि के तंज भी थे और हैरत भी कि ये नाली के कीड़े बिलबिलाना छोड़कर सीना तान कर खड़े भी हो सकते हैं ।

मैंने गेट से बाहर झांका तो छहों नीचे अखबार बिछाकर सामने वाले शीषम के पेड़ के नीचे बैठे थे ।

ये जमावड़ा अपने समय की करवट बदलने की कोशिश कर रहा था । गम्भीर मुद्राओं में बैठे ये छहों मन ही मन अपने जीवन को भी टटोल रहे थे और एकाएक उभर आई इस समस्या के बहाव को भी अनुभव कर रहे थे । सबसे परेशान सत्या था ... उसका पोलियो ग्रस्त बच्चा उसे मजबूरियों की ऐसी रस्सी पर टाँगे रखता था कि वह खुलकर साँस लेना भूल गया था .... कुछ सोचना, हिम्मत से कोई निर्णय लेना बस उसे भयभीत किए रखता था।

मैं फिर धीरे-धीरे मैनेजमेंट वालों को घेरकर खड़े लोगों के पास खिसक आई ।

एक बूढ़े अंकल हिदायत दे रहे थे, ''गरीब आदमी हैं, हज़ार रुपया बढ़ाने को कह रहे हैं बढ़ा दो, इतनी महँगाई है, उनके भी तो घर परिवार हैं,बच्चे हैं, जहाँ इतने खर्च होते हैं वहाँ इन गरीबों की झोली में कुछ चला जाएगा तो क्या हुआ, साल में जितने पैसे इस मन्दिर पर खर्च करते हो उसमें से कुछ इन्हें दे दो,साल में दो लंगर कम कर लेना । ''

एक-एक कर मैनेजमैंट वाले खिसकने लगे ...अंकल जी की बात तीर सी चुभ रही थी।

मैं अभी अंकल जी की बात के बारे में सोच ही रही थी कि मिस्टर सरदाना अपने भारी डील डौल के साथ सोसायटी ऑफिस की ओर आते दिखाई दिए ... ये भूतपूर्व प्रैज़ीडैन्ट हैं ... इनका काम हर एक के फटे में टाँग अड़ाना है।

उन्हें देखते ही मुझे लगा अब समस्या सुलझेगी नहीं बल्कि और पेचीदा हो जाएगी ।

धूप चढ़ने लगी थी। घर में सब उठ गए होंगे .... मन्दिर में कीर्तन समाप्त हो चुका था .... सत्यनारायण के पाठ के बाद हवन के साथ मूर्ति स्थापना होगी और उसके बाद लंगर ।

जिन सुरों में बंधी मैं चली आई थी वे अब फ़िज़ाओं में कहीं नहीं थे .... मैं निश्चिंत थी कि चलो आज लंच नहीं बनाना ।

घर आते हुए बार-बार रामदीन की एक ही बात दिलो दिमाग में गूँज रही थी कि बच्चों की हर इच्छा को स्थगित नहीं कर सकते ... कैसी तड़प थी उसकी आवाज़ में।

उस आक्रोश की चिंगारियों की तपिश से मैनेजमैंट का तो पता नहीं पर मैं अवश्य विचलित थी ।

घर आई तो सब उठ चुके थे ... नाश्ते का इंतज़ार हो रहा था |

पति महोदय को बताया कि मन्दिर पर तो लगभग एक लाख रुपये और उन के लिए छह हज़ार भी नहीं तो जाने क्यों एकदम भड़क उठे और बोलने लगे '' ये तो सदा से दुनिया में चलता आ रहा है ... कोरी सहानुभूति दिखाने से क्या फायदा .... उनके लिए कुछ कर सकती हो तो करो ... तुम कर भी क्या सकती हो ?.... कोई कविता लिख दो गी, कोई कहानी या फिर ज्यादा से ज़्यादा फेसबुक पर एक बढ़िया सी वाहवाही लूटने वाली पोस्ट .... इन समस्याओं की जड़ें बहुत गहरी हैं । '',पतिदेव का भड़कना मेरी समझ में नहीं आया ...।

सबको नाश्ता कराकर, नहा धो कर मैं फिर मन्दिर में ... भक्तिभाव से नहीं चन्द्रा की फोटोग्राफर बनकर ।

मैं पहुँची तो पण्डित जी मन्त्र पढ़ रहे थे और मूर्तियों को दूध से स्नान करवा रहे थे ... वहीं खड़े सत्या की निगाहें दूध की उस नदी पर एक नौका की तरह फिसल रही थीं ... नाली में बहता दूध जैसे विसंगति की तरह उसे चिढ़ा रहा था ।

क्षण भर रुक कर वह चला गया ... मैं उसे जाते हुए देखती रही ... लग रहा था आक्रोश शस्त्र धारण करने जा रहा है । बार-बार एक ही विचार उठ रहा था कि क्या होगा इनका ? इन्हें इनका हक मिलेगा ? क्या ये कानून का सहारा नहीं ले सकते ? पर कानून भी तो मुफ़्त में नहीं मिलता तो फिर ये ...? इसका मतलब कुछ नहीं ...? सिहर उठी मैं फिर पति महाशय की बात याद आ गई ।

मेरा ध्यान पुजारी जी द्वारा किए जा रहे कर्मकाण्डों की ओर जाने लगा ।

मन्त्रोच्चारण, आहुतियाँ, जलती हवन सामग्री के साथ उठता हुआ धुँआ और खुशबू मिलकर भी माहौल को भक्तिमय नहीं बना पा रहे थे .... बच्चे कोने में थे ज़रूर पर लंगर का इंतजार करते-करते अपने-अपने मोबाइल पर थे... महिलाएँ मन्त्रोच्चारण से ऊबती दिखाई पड़ रही थीं ... अति धार्मिक, मूर्तियों के लिए हज़ारों रुपये देने वाले पुण्य से झोली भरने की खुशी से फूले नहीं समा रहे थे।

चन्द्रा की साईं बाबा की मूर्ति दूध से धुल रही थी ... चन्द्रा नरम हाथों से पण्डित जी के द्वारा उच्चरित मन्त्रों के साथ मूर्ति को स्नान कराकर गर्व का अनुभव कर रही थी ...। मैंने हर पोज़ में, हर कोण से उसकी फोटो खींची ... अभी लंगर खत्म होते ही ये सारी पिक्स फेसबुक पर नज़र आएँगी ।

चन्द्रा खुश थी ... आज का दिन अच्छा गया ... ढेर पुण्य मिला और फेसबुक पर भी ढेर वाहवाही मिलेगी।

राधा की मूर्ति पण्डित जी के हाथ में कुछ अटपटी लग रही थी ... मूर्ति इस प्रकार पकड़ी हुई थी कि राधा का वक्ष पण्डित जी की भुजाओं को स्पर्श कर रहा था ... मुझे नहीं पता यह मैंने ही नोटिस किया या औरों ने भी।

मन्दिर की काँच की दीवारों के बाहर सब दिखाई पड़ रहा था ....कन खियों से पण्डित जी ने मुझे देख लिया था सो फटाफट मूर्ति महिलाओं को पकड़ा दी ... महिलाएं बॉम्बे डाइंग के झक सफेद तौलिए से मूर्तियाँ पोंछ रही थीं और उन्हें कपड़े पहना रही थीं ।

मूर्तियाँ जीवन्त हो उठी थीं... जीते जागते, सुन्दर कपड़ों से सज्जित, दूध से नहाए, गोरे - चिट्टे भगवान स्थापित हो चुके थे ।

आरती आरम्भ हो गई ... बस आरती के बाद भोग और लंगर ... आरती शुरू होते ही भूख और बढ़ने लगी । आरती और भोग का समय भी भारी लगने लगा। मैं गेट की तरफ़ बढ़ने लगी।

छ्हों बाहर बैठे थे ...अन्दर मीटिंग चल रही थी।

क्षण भर बाद ही पण्डित जी का असिस्टेंट आया और मैनेजमैंट के सदस्यों को संदेशा देकर गया कि लंगर शुरु हो गया है।

मैं भी खाने चली गई ... आज पहले की बजाय रवाने का मैन्यू ज़्यादा था ... सब्जियों भी ज़्यादा और डैज़र्ट भी ज़्यादा ।

मन्दिर के दूसरी तरफ़ खाने के बाद फेंकी जा रही डिस्पोज़ेबल कटोरियों, प्लेटों और गिलासों का बड़ा सा ढेर बनने लग गया था।

धूप घिरने लगी थी पर सर्दी की गुनगुनी धूप सबको भा रही थी ... सब खा पी कर पार्क में पसरने लगे थे, ग्रुप में बैठने लगे थे । औरतें विटामिन डी लेना चाहती थीं,बच्चे घर जाकर माँ की टोका - टोकी से कुछ समय और निजात पाना चाहते थे, पुरुष छुट्टी के दिन की गपशप का आनन्द लेना चाहते थे ।

खाना खाकर मैं फिर गेट की ओर बढ़ आई ... छहों शान्त बैठे थे ... हृदय में तूफान थे ... आँखों में उम्मीद नाउम्मीद के जाले तैर रहे थे ... चेहरों पर मायूसी और आक्रोश के बादल कभी छाते कभी छितरा जाते ।

सोसायटी ऑफिस से लोग निकले तो थे पर निर्णय अभी बताया नहीं था... उनके चेहरों पर विजय का दर्प था ।

मूर्ति स्थापना का उत्सव समाप्त हो गया था ... पण्डित जी अपनी स्कूटी पर गेट से निकल रहे थे ।

'' और पण्डित जी, भगवान जी की स्थापना हो गई क्या ?''सत्या आगे आकर पण्डित जी से पूछ रहा था ।

''हाँ भाई, मन्दिर अब मन्दिर लग रहा है। ''

''तनिक हम भी दर्शन कर लें पण्डित जी । ''

''अभी तो नहीं कर सकते ... अभी तो भगवान सो रहे हैं ... हम भी घर जा रहे हैं ... अब शाम को छह बजे आ के हम मन्दिर के द्वार खोलेंगे और उनको उठाएंगे तब दर्शन कर लेना ।'' कहकर पण्डित जी आगे बढ़ गए ।

सत्या पण्डित जी को देखता रहा ... उसके पेट में कुलबुलाहट बढ़ती जा रही थी ... उसके कानों में पण्डित जी के शब्दों की अनुगूँज खलबली मचाए थी । उसे लग रहा था वाकई भगवान सो रहे हैं ... सृष्टि बना के शायद लम्बी नींद सो गए ... जाने उठेंगे भी या नहीं।

प्रतिभा

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