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मियां तुम होते कौन हो ?

मियाँ तुम होते कौन हो?

अनिल रघुराज


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मियाँ तुम होते कौन हो?

जतिन गांधी का न तो गांधी से कोई ताल्लुक है और न ही गुजरात से। वह तो कोलकाता के मशहूर सितारवादक उस्ताद अली मोहम्मद शेख का सबसे छोटा बेटा मतीन मोहम्मद शेख है। अभी कुछ ही दिनों पहले उसने अपना धर्म बदला है। फिर नाम तो बदलना ही था। ये सारा कुछ उसने किसी के कहने पर नहीं, बल्कि अपनी मर्जि से किया है। नाम जतिन रख लिया। उपनाम की समस्या थी तो उसे इंदिरा नेहरू और फिरोज खान की शादी का किस्सा याद आया तो गांधी उपनाम रखना काफी मुनासिब लगा। वैसे, इसी दौरान उसे ये चौंकानेवाली बात भी पता लगी कि इंदिरा गांधी के बाबा मोतीलाल नेहरू के पिता मुसलमान थे, जिनका असली नाम गियासुद्दीन गाजी था और उन्होंने ब्रिटिश सेना से बचने के लिए अपना नाम गंगाधर रख लिया था।

वैसे, आपको बता दें कि मतीन के लिए धर्म बदलना कोई बहुत ज्यादा सोचा—समझा फैसला नहीं था। यह एक तरह के झोंक में आकर उठाया गया अवसरवादी कदम था। हाँ, इतना जरूर है कि वह अपनी पहचान को लेकर लंबे अरसे से परेशान रहा करता था। वह सोचता — ये भी कोई बात हुई कि पेशा ही उसकी पहचान है। एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर। इत्ती—सी पहचान उसके लिए काफी तंग पड़ती थी। हिंदुस्तानी होने की पहचान जरूर है। लेकिन हिंदुस्तानी तो एक अरब दस करोड़ लोग हैं। वह उनसे अलग कैसे हैं?

ऐसा नहीं है कि उसे अपने हिंदुस्तानी होने पर नाज नहीं है। वह आँखें बंद कर के देखता तो उसके शरीर में छत्तीसगढ़ के पठार, झारखंड के जंगल, उत्तराखंड की पर्वत शृंखलाएँ और पश्चिम बंगाल का सुंदरवन लहराते लगता, उसकी धमनियों में वेस्टर्न घाट के झरने बहते लगते। मगर, आँखें खोलने पर वह खुद को एकदम रीता, ठन—ठन गोपाल महसूस करता। यह उसके अंदर की सतत बेचौनी थी, जिसे लेकर वह उधेड़बुन में लगा रहता, उसी तरह जैसे मध्यकाल में या उससे पहले कोई योगी या संत अपने स्व को, अहम को लेकर परेशान रहा करता होगा।

लेकिन उसे झटका तब लगा, जब वह लंदन से तीन महीने की छुट्टी लेकर घर आ रहा था। उसके फ्लाइट पकड़ने के दो दिन पहले ग्लासगो में धमाके हो गए और उसकी चमड़ी का रंग, उसके चेहरे की दाढ़ी और उसका मुस्लिम नाम उसके लिए मुसीबत का सबब बन गया। मतीन को हीथ्रो एयरपोर्ट पर चेक—इन से पहले ही ब्रिटिश पुलिस ने शक के आधार पर हिरासत में ले लिया। फिर तो हर तरफ खबर चल गई कि मतीन मोहम्मद शेख कट्टर आतंकवादी है।

उधर, कोलकाता में माँ परेशान थी, बाप परेशान था। मदरसे के मौलवी परेशान थे। कॉलेज के गुरु परेशान थे। पड़ोसी और दोस्त भी हैरान थे कि शांत, मितभाषी, पढ़ाकू और औसत से काफी तेज दिमाग वाला मतीन आंतकवादी कैसे हो सकता है। वह सदाचार, शिष्टाचार और जीवन में नैतिकता का कायल था, लेकिन, मौलवी साहब भी बताते हैं कि, वह कट्टर धार्मिक कभी नहीं रहा, बल्कि वह तो जब से साइंस और गणित की पढ़ाई कर रहा था, तभी से धार्मिक मान्यताओं पर सवाल उठाता रहा था। फिर, जब वह सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया, तब तो उसने हर दिन नमाज पढ़ना भी छोड़ दिया। बस, मन किया तो जुमे के दिन खानापूरी कर दी, वरना वो भी नहीं।

लंदन में हुआ यह कि ब्रिटिश पुलिस ने मतीन मोहम्मद शेख का पासपोर्ट जब्त कर लिया। तेरह दिन तक पूछताछ की। आखि़रकार उसकी कंपनी और भारतीय उच्चायोग की ढेर सारी गुजारिशों और सफाइयों के बाद उसे छोड़ा गया। लेकिन भारत में कदम रखने पर भी मतीन की मुश्किलें कम नहीं हुईं। मुंबई एयरपोर्ट से बाहर निकला तो यहाँ भी उसकी दाढ़ी उसके लिए नई सांसत लेकर आ गई। टैक्सीवाले से जरा—सी कहा—सुनी हो रही थी कि पुलिस ने उसे धर दबोचा। दादर थाने ले गई। दस बजे से लेकर शाम चार बजे तक हवालात में बंद रखा। वो तो दिल्ली से अब्बू के मिनिस्टर दोस्त का फोन आया, तब जाकर उसे छोड़ा गया। नहीं तो वह मुंबई के एंटी टेररिस्ट स्क्वैड के लिए लोकल ट्रेन में धमाकों का एक और अभियुक्त बन ही चुका था।

इस तरह होते—हवाते वह कोलकाता पहुँचा तो हफ्ते दस दिन तक सदमें में रहा। बस, खाता—पीता और आई—पॉड पर गाने सुनता। शहर से बाहर गारुलिया कस्बे के पास भागीरथी नदी से किनारे उसकी तीन मंजि़ला पुश्तैनी कोठी थी। उसने कोठी के सबसे ऊपर के कमरे में खुद को कैद कर लिया। कभी—कभी देर रात तक खुली छत पर टहलता रहता। अम्मी बड़ी परेशान हो गईं तो उसने उन्हें समझा दिया कि अब सब ठीक हो चुका है। नौकरी की थकान बची है, वह भी उतर जाएगी। लेकिन सदमें से निकलते ही उस पर हिंदू बनने का भूत सवार हो गया और एक दिन वह इसी मसले को लेकर अपने अब्बू से भिड़ गया।

मतीन की आवाज में तल्खी थी और उलाहना भी।

— अब्बू, आप ही बताओ। आठ पीढियाँ पहले हम क्या थे? एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण, जिनके भाई—बंधु अब भी कन्नौज के किसी इलाके में जहाँ—तहाँ बिखरे हुए हैं। जाने क्या हादसा हुआ होगा, जाने किस बात पर तकरार बढ़ी होगी कि हमारे पुरखों ने खून का रिश्ता तोड़ दिया होगा। कैसी बेपनाह नफरत या मजबूरी रही होगी कि घर ही नहीं, धर्म तक बाँट लिया। जरा सोचिए, मन का तूफान थमने के बाद वो अपनों से जुदा होने पर, खून के रिश्तों के टूटने पर कितना कलपे होंगे। सालोंसाल तक एक टीस उन्हें सालती रही होगी। फिर, धीरे—धीरे वो वक्त आ गया कि अगली पीढियाँ सब भूल गईं। जो कभी अपने थे, वे पराये होते—होते एक दिन काफिर बन गए। अब्बू, भाइयों का बँटवारा एक बात होती है। लेकिन जेहन बँट जाना, मजहब बँट जाना बेइंतिहा तकलीफदेह होता है।

— मतीन बेटा, खून के रिश्तों में वक्त के साथ फासलों का आना, बेगानापन आना बेहद आम बात है। फिर, सदियों पुरानी इन बातों को आज उधेड़ने से क्या फायदा?

— बात इतनी पुरानी भी नहीं है अब्बू। जरा याद करो, दादीजान कैसे अपनी कोठी से सटे पीपल के पेड़ में छत पर जाकर जल दिया करती थीं। हालाँकि इस बहाने कि छत पर दातून करना उन्हें अच्छा लगता है। फिर बाल्टी से लोटे में साफ पानी निकाल कर छत से सटी पीपल की डाल पर गिरा दिया करती थीं, वह भी बिला नागा। ऊपर आसमान की तरफ देखतीं, शायद सूरज से जिंदगी का उजाला माँगा करती थीं।

मतीन बोलता जा रहा था। उस्ताद अली मोहम्मद शेख अभी तक चुप थे। लेकिन एक खीझ उनके अंदर उभरने लगी। पारा चढ़ने लगा। भौंहें तनने लगीं। मतीन इससे बेखबर अपनी रौ में डूबता—डूबता बचपन में जा पहुँचा।

— और, वह पीपल का पेड़ भी कैसा था। कभी नीचे जमीन से जामुन और पीपल के पौधे एक साथ बढ़ना शुरू हुए होंगे। लेकिन बढ़ते—बढ़ते वे एक—दूजे में ऐसे समा गए कि तने आपस में गुँथ गए। कहाँ से पीपल की शाख निकलती थी और कहाँ से जामुन की, पता ही नहीं चलता था। पीपल के पत्तों के बीच जामुन के पत्ते। जामुन के पत्तों के बीच पीपल के पत्ते...

मतीन छोटा था तो अपने दोनों हाथों और पैरों को किसी योगमुद्रा के अंदाज में लपेट कर कहता — देखो, मैं दादीजान का पेड़ बन गया।

उस्ताद का गुस्सा अब फट पड़ने को हो आया। लेकिन उन्होंने काबू रखते हुए कहा — बेटे, तुमको अंदाजा नहीं है कि हमारे पुरखों ने किस तरह की जिल्लत, किस तरह की तंगदिली से आजिज आकर नए मजहब को अपनाया था। उस समय इस्लाम सबसे ज्यादा इंसानी तहजीब और मोहब्बत का धर्म था। हमारे पुरखों का फैसला इंसानियत को आगे बढ़ाने का फैसला था। तुम्हें तो इस पर फख्र होना चाहिए। अगर तुम आज अपने मजहब को पाखंड मानने लगे हो तो एक पाखंड को छोड़कर सनातन पाखंड का दामन थामना कहाँ तक वाजिब है?

— तो क्या आप चाहते हैं कि मैं उस मजहब में पड़ा रहूँ, जो आज सारी दुनिया में आतंकवाद का दूसरा नाम बन गया है, जेहाद के नाम पर खून—खराबे का मजहब बन गया है। आपके खुदा और मोहम्मद साहब से बहुत दूर चला गया है इस्लाम। मैं ऐसे इस्लाम का लबादा ओढ़कर नहीं रहना चाहता जहाँ लोग आपको हमेशा शक की निगाह से देखते हैं। क्या लेना—देना है मेरा अल—कायदा या लश्कर—ए—तैयबा से। लेकिन पराए मुल्क में ही नहीं, अपने मुल्क में भी मेरे साथ ऐसा सुलूक किया गया जैसे मैंने ही धमाके किए हों या धमाका करनेवालों को शेल्टर दिया हो।

यहीं पर फट गया उस्ताद का गुस्सा। बोले — खुदा का कुफ्र टूटे तुझ पर। काफिरों के बहकावे में तेरा दिमाग फिर गया है। अभी इसी वक्त मेरी नजरों से दूर हो जा, वरना मेरा हाथ उठ जाएगा।

मतीन बैठकखाने से उठा और सीधे छत पर अपने कमरे में चला गया। उसे लगा कि अपने दो खास दोस्तों — इम्तियाज मिश्रा और शांतनु हुसैन के बारे में अब्बू को बताकर उसने ठीक नहीं किया। वैसे, वह खुद भी नहीं जानता था कि ये दोनों हिंदू हैं या मुसलमान। कभी पूछने की जरूरत ही नहीं समझी कि उनके माँ—बाप में से कौन हिंदू था और कौन मुसलमान। खैर, मतीन को पूरा यकीन था कि अपने भावुक तकोर्ं और बुद्धिसंगत बातों से अब्बू को आसानी से मना लेगा। लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ। और, उसने हमेशा की तरह ठीक अब्बू के कहे का उल्टा करने का निश्चय कर लिया। एक आर्यसमाज मंदिर में जाकर हिंदू धर्म की दीक्षा ली। हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी अखबारों में नोटिस छपवाई और एक हफ्ते के भीतर मतीन मोहम्मद शेख से जतिन गांधी बन गया।

उधर नोटिस छपते ही ये खबर अखबारों की सुर्खियाँ बन गई। उस्ताद के पास फोन पर फोन आने लगे। रिश्तेदारों से लेकर नेताओं और संगीतकार बिरादरी तक में कुतूहल फैल गया। पूरा तहलका मच गया। उस्ताद ने आखिरी कोशिश की और मतीन की अम्मी को उसे बुलाकर लाने को कहा।

आपको बता दें कि अम्मी का नाम कभी मेहरुन्निशा खातून हुआ करता था। लेकिन शादी के बीते चालीस सालों में उनका नाम मतीन की अम्मी, असलम की बुआ और सईद की खाला ही बनकर रह गया है। उस्ताद किसी जमाने में उन्हें बेगम कहकर बुलाते थे। लेकिन मतीन के जन्म, यानी पिछले तेइस सालों से मतीन की अम्मी ही कहते रहे हैं। मेहरुन्निशा का कद यही कोई पाँच फुट एक इंच था, उस्ताद से पूरे एक फुट छोटी। दूसरी बंगाली औरतों की तरह उस नन्हीं जान ने कभी पान नहीं खाया। हाँ, उस्ताद के लिए पनडब्बा जरूर रखती थी। बच्चों के अलावा किसी ने बगैर पल्लू के उनका चेहरा नहीं देखा। हमेशा उस्ताद के हुक्म की बांदी थी। लेकिन आज मतीन के पास वे उस्ताद के हुक्म से ज्यादा अपनी ममता से खिंची चली गईं।

— नन्हकू, तू हमेशा मुझसे दूर रहा। कभी पढ़ाई के लिए तो कभी नौकरी के लिए। फिर भी दिल को तसल्ली रहती थी। लगता था कि तू पास में ही है। कभी न कभी तो आएगा। लेकिन इस बार तूने कैसा फासला बना लिया कि कोई आस ही नहीं छोड़ी।

— नहीं, अम्मी। बस यों ही... मतीन ने अम्मी का हाथ पकड़ कर कहा। लेकिन हाथ झटक दिया गया। अम्मी की आवाज तल्ख होकर भर आई।

— क्या हम इतने ज्यादा गैर हो गए कि एक झटके में खर—पतवार की तरह उखाड़ फेंका। एक बार भी नहीं सोचा कि इन तन्हा माँ पर क्या गुजरेगी।...फिर, तू अकेला कहाँ—कहाँ भटकेगा, कैसे सहन कर पाएगा इतना सारा कुछ। ये सोचकर ही मेरा कलेजा चाक हुआ जाता है।

ये कहते हुए मेहरुन्निशा के आँसू फफक कर फूट पड़े। अंदर का हाहाकार हरहरा कर बहने लगा। मतीन ने खुद को सँभाला, अट्ठावन साल की मेहरुन्निशा खातून को सँभाला।

— अम्मी, तू मेरी फिक्र छोड़ दे। सहने की ताकत मैंने तुझी से हासिल की है। फिर, मैं कहीं दूर थोड़े ही जा रहा हूँ। जब चाहे बुला लेना। अम्मी यह मेरी लड़ाई है, मुझे ही लड़ने दे। मुझे कमजोर मत कर मेरी अम्मा।

अम्मी ने आँसू पोंछ डालें। पल्लू सिर पर डाला और बोली — चलो, अब्बू से मिल लो। नीचे बुलाया है।

मतीन नन्हें बच्चे की तरह माँ के पीछे—पीछे दूसरी मंजिल पर अब्बू के उस कमरे में पहुँच गया, जहाँ वो सितार की तान छेड़ा करते थे, रियाज किया करते थे। अब्बू पिछले कई घंटे से वहीं बैठे हुए थे।

— श्श्तो जतिन गांधी, कल तक हमारे रहे मतीन मियाँ, सब कायदे से सोच लिया है न।

लेकिन मतीन की जुबान पर जैसे ताले लग चुके थे।

— मतीन, आखिरी मर्तबा मेरी बात समझने की कोशिश करो। तुम तहजीब और मजहब में फर्क नहीं कर रहे। काश, तुमने मेरा कहा मानकर संगीत में मन लगाया होता तो आज इतने खोखले और कन्फ्यूज नहीं होते। तहजीब ही किसी मुल्क को, किसी सभ्यता को जोड़कर रखती है। वह नदी की धारा की तरह बहती है, कहीं टूटती नहीं। मजहब तो अपने अंदर की आस्था की चीज है, निजी विश्वास की बात है। मुश्किल ये है कि तुम्हारे अंदर से आस्था का भाव ही खत्म हो गया है। न तुम्हें खुदा पर आस्था है और न ही खुद पर। मजहब बदलने से तुम्हारी कोई मुश्किल आसान नहीं होगी। तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं मिलेगा।

— अब्बू, आप जैसा भी सोचें, आपको कहने का हक है। लेकिन मेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है। मुझे तो लड़—भिड़ कर इसी दुनिया—जहाँ में अपनी जगह बनानी है। मैं अपनी ताकत इस लड़ाई में लगाना चाहता हूँ। फिजूल की परेशानियों में इसे जाया नहीं करना चाहता। बस...मैं आपसे और क्या कहूँ?

उस्ताद तैश में आ गए।

— तो ठीक है। कर लो अपने मन की। मुझे भी अब तुमसे कुछ और नहीं कहना है। बड़ा कर दिया, पढ़ा—लिखा दिया। काबिल बना दिया तो उड़ जाओ इस घोंसले से क्यों कि तुम्हारा यहाँ मन नहीं लगता, तुम्हारे लिए यह तंग पड़ता है। छोड़ जाओ, इस फकीर और उस तन्हा औरत को, जो सिफ तुम्हीं में अपनी जन्नत देखती रही है। कौन रोक सकता है तुम्हें...

— अब्बू, इमोनशल होने की बात नहीं है। मेरी अपनी जिंदगी है, मुझे अपनी तरह जीने दें।

— तो जी लो ना। इमोशन का तुम्हारे लिए कोई मतलब नहीं तो ये भी समझ लो कि ये तुम जो ऐशोआराम झेलते रहे हो, ये जो पुश्तैनी जायदाद है, इसमें अब तुम्हारा रत्ती भर भी हिस्सा नहीं रह जाएगा।

— अब्बू, उतर आए न आप अपनी पर। आप तो गुजरात की उस रियासत से भी गए—गुजरे निकले जिसने अपने बेटे के गे (समलैंगिक) हो जाने पर उसे सारी जायदाद से बेदखल कर दिया था। अरे, मैं कोई गुनाह करने जा रहा हूँ जो आप मुझे इस तरह की धमकी दे रहे हैं।

अब अब्बू के बगल में बैठी अम्मी से नहीं रहा गया। वो पल्लू से आँसू पोंछते हुए तेजी से बाहर निकल गईं। उस्ताद के लिए थोड़ा सँभलना अब जरूरी हो गया।

— मतीन बेटा, मुझे अपनी नजरों में इतना मत गिराओ। तुम्हें जो करना है करो। बस, मेरी ये बात याद रखना कि बाहर हर मोड़ पर शिकारी घात लगाकर बैठे हैं। वो तुम्हें अकेला पाते ही निगल जाएँगे।

बाप—बेटे में बातचीत का ये आखिरी वाक्य था। अंतिम फैसला हो चुका था। मतीन को जाना ही था। विदा—विदाई की बेला आ पहुँची थी। उस दिन मतीन उर्फ जतिन गांधी अपने कमरे में पहुँचा तो रात के सवा बारह बज चुके थे। उस्ताद अली मोहम्मद शेख के परिवार में ऐसा पहली बार हुआ था कि सभी लोग इतनी रात गए तक जग रहे थे। नहीं तो दस बजते—बजते अम्मी तक बिस्तर पर चली जाया करती थी। ये भी पहली बार हुआ कि उस्ताद का सितार रात के तीसरे पहर तक किसी विछोह, किसी मान—मनुहार का राग छेड़े हुए था।

मतीन ने अपने कागज—पत्तर सँभाल लिए। एक सूटकेस, हैंडबैग...बस यही वह अपने साथ लेकर जानेवाला था। बड़े जतन से खरीदी गई ज्यादातर किताबें तक उसने वहीं अपने कमरे में छोड़ दीं। उसे पता था कि इस घर और इस कमरे में लौटना अब कभी नहीं होगा। फिर भी, उसने बहुत कुछ यों ही बिखरा छोड़ दिया जैसे कल ही उसे लौटकर आना हो। वैसे, उसे ये भी यकीनी तौर पर पता था कि उसके चले जाने के बाद उसके कमरे में अम्मी के सिवाय कोई और नहीं आएगा, कमरे को उसके पूरे मौजूदा विन्यास के साथ किसी गुजर गए अपने की याद की तरह आखिर—आखिर तक सहेज कर रखा जाएगा।

यही कोई सुबह के चार—सवा चार बजे रहे होंगे, जब मतीन अपने कमरे से हमेशा—हमेशा के लिए नीचे उतरा। दिल्ली की गाड़ी सुबह आठ बजकर दस मिनट पर छूटती थी। लेकिन उससे घर में और ज्यादा नहीं रुका गया। नीचे उतरा तो अब्बू से लेकर अम्मी तक के कमरे की लाइट जली हुई थी। लेकिन कमरे में कोई नहीं था। अब्बू अम्मी को साथ लेकर कहीं चले गए थे। मतीन को लगा, ये अच्छा ही हुआ। नहीं तो बेवजह का रोनाधोना होता। वह वक्त से दो घंटे पहले हावड़ा स्टेशन पहुँच गया।

पुराना सब कुछ छोड़ने से पहले वह दिल्ली जा रहा था, अपनी बहन सबीना से मिलने क्यों कि वही तो है जो उसे इस घर में सबसे ज्यादा समझती है। सबीना राज्यसभा की सदस्य है। सरकारी बंगला मिला हुआ है। काफी पढ़ी—लिखी आधुनिक विचारों की है। पूरा दिन और पूरी रात के सफर के बाद वह सुबह जब दिल्ली पहुँचा तब तक उस्ताद अली मोहम्मद शेख उसे अपनी पूरी विरासत और जायदाद से बेदखल कर चुके थे। लेकिन इतना सब कुछ बदल जाने के बावजूद मतीन का घर का नाम नन्हें ही रहा।

सबीना हमेशा की तरह मतीन से दौड़कर नहीं मिली। उसने उसे आधे घंटे से भी ज्यादा इंतजार करवाया। असल में सबीना को भी सारा कुछ जानकर काफी ठेस लगी थी। अब्बू और अम्मी ने इस सिलसिले में उससे कई बार बात की थी। इसलिए आज वो मिलना चाहकर भी मतीन से नहीं मिलना चाहती थी। शायद अपने दिल के जज्बातों को सँभालने के लिए थोड़ा वक्त चाहती थी। वैसे, बंगले के अंदर से बाहर दीवानखाने में आई तो पुराने अंदाज में ही बोली — तो नन्हें मियाँ को बहन की याद आ ही गई।

मतीन जैसे भरा बैठा था। इतनी मामूली—सी अपनापे की बोली सुनकर फफक कर रो पड़ा। सबीना भी अपने आँसू नहीं रोक पाई। करीब आधे घंटे तक प्यार—दुलार चलता रहा। फिर करीब एक घंटे तक मुँह—हाथ धोने और चायपानी का सिलसिला चला। इसके बाद फौरन असली मुद्दे पर बातचीत शुरू हो गई। सबीना ने दिन भर के सारे अप्वॉइंटमेंट रद्द कर दिए। बात चलती रही, लगातार। खूब जिरह हुई। लेकिन सबीना पर मतीन के तकोर्ं का कोई असर नहीं हुआ।

मतीन कह रहा था — श्श्मैं अपने इतिहास को इतना छोटा नहीं कर सकता। हम भले ही मुसलमान हो गए लेकिन अपना इतिहास तो काटकर नहीं फेंक सकते। क्या मोहम्मद साहब से पहले हमारी कोई वंशबेल नहीं थी? हम वेद, उपनिषद, महाभारत, गीता, रामायण या बुद्ध और महावीर को कैसे नकार सकते हैं? क्या मोहनजोदड़ो या हड़प्पा की सभ्यता से हमारा कोई वास्ता नहीं है? क्या हम कहीं आसमान से टपक कर नीचे आ गिरे? मैं खुद को इतना छोटा, इतना अकेला नहीं महसूस करना चाहता, न ही मैं ऐसा अब और ज्यादा कर सकता हूँ।श्श्

लेकिन सबीना ने मतीन की बातों को फूँक मारकर उड़ा दिया।

— श्श्तुमसे किसने कह दिया कि इस्लाम धर्म में रहकर तुम छोटे और अकेले हो जाते हो। इस्लाम किसी को उसकी विरासत से अलग नहीं करता। अपने को दलित मानो या ब्राह्मण, इसकी आजादी तुम्हें है। हम तो आदम—हौवा से अपनी शुरुआत मानते हैं। पैगंबर मोहम्मद तो बस दूत थे, एक कड़ी थे। फिर हिंदू बनने की बात करते हो तो चले जाओ पाकिस्तान, क्यों कि सिंधु नदी अब वहीं बहती है और सिंधु नदी के किनारे बसने वालों को ही हिंदू कहा जाता था। वैसे, इन बातों से अलग हटकर मेरा मानना है कि इतिहास कुछ नहीं होता। इतिहास, खानदान या जिसे तुम वंशबेल कह रहे हो, इनकी बातें असल में वहीं तक सही हैं, जहाँ तक इनकी याददाश्त हमारे जींस में दज होती है। बाकी सारा इतिहास तो सत्ता का खेल है। सत्ता के दावेदार अपने—अपने तरीके से इतिहास की व्याख्या करते हैं। बच्चों को वही पढ़वाते हैं, उनके दिमाग में वही भरवाते हैं, जो उनके माफिक पड़ता है।

सबीना ने मतीन के सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से कहा — श्श्नन्हें मियाँ, बावले मत बनो। इतिहास—उतिहास कुछ नहीं होता। इतिहास की टूटी कडियों या अतीत की याददाश्त की बातें अपने जींस पर छोड़ दो। बाकी सब बकवास है, दिमाग का फितूर है।

मतीन ने दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में फँसाकर चटकाईं, दीवारों पर जहाँ—तहाँ नजर दौड़ाई। उसे कहीं गहरे अहसास हो गया कि बहन भी उसका साथ नहीं देनेवाली।

सबीना जिस तरह इतिहास को खारिज कर रही थी, उससे लगता था कि इतिहास से कहीं उसको कोई गहरा व्यक्तिगत गुरेज हो, जैसे किसी इतिहास से उसका बहुत कुछ अपना छीन लिया हो। वह बोलती जा रही थी।

— मैं तो कहती हूँ कि बच्चों को तब तक इतिहास नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, जब तक वे समाज को देखने—समझने लायक न हो जाएँ। बारहवीं से भले ही इतिहास को कोर्स में रख दिया जाए, लेकिन उससे पहले बच्चों के दिमाग को पूर्वाग्रह भरी बातों से धुँधला नहीं किया जाना चाहिए। बच्चों को सेक्स पढ़ा दो, मगर इतिहास मत पढ़ाओ। उन्हें आज की हकीकत से जूझना सिखाओ, जिंदगी का मुकाबला करना सिखाओ, आगे की चुनौतियों से वाकिफ कराओ। बीती बातें सिखाकर कमजोर मत बनाओ। पुरानी बातों को लेकर कोई करेगा क्या? तुमने तो साइंस पढ़ा है। दिमाग में न्यूरॉन्स मरते रहते हैं, नए नहीं बनते। स्टेम कोशिकाएँ वही रहती हैं, लेकिन इंसान का बाहरी जिस्म, उसकी शरीर की सारी कोशिकाएँ चौबीस घंटे में एकदम नई हो जाती हैं। तो...मन को नया करो, उसे अतीत की कंदराओं में निर्वासित कर देने का, गुम कर देने का क्या फायदा!

— मगर चमड़ी का रंग—रूप तो आपके इतिहास—भूगोल और खानदान से तय होता है। फिर... इंसान कोई तनहा अलग—थलग रहनेवाला जानवर नहीं है। उसका तो वजूद ही सामाजिक है। वह समाज से कटकर अकेला रह सकता है। समाज भी उसकी अनदेखी कर दे, लेकिन जो समाज उसके अंदर घुसा रहता है, वह उसे कभी नहीं छोड़ता। इंसान अपने दिमाग का क्या करे। वह तो सामाजिक सोच से बनता है। और...इंसान का आज तो गुजर गए कल की बुनियाद पर ही खड़ा होता है।

— ये तुम जो सामाजिक सोच और कल की बुनियाद की बात कर रहे हो, इसी की शिनाख्त में तो लोचा है। इसे तय करते हैं सत्ता के लिए लगातार लड़ रहे सामाजिक समूह। यहाँ कुछ भी अंतिम नहीं होता। आज गांधी सभी के माफिक पड़ते हैं तो सब उनकी वाह—वाह करते हैं। यहाँ तक कि हिंदुस्तान के बँटवारे के लिए गांधी को दोषी ठहराने वाले संघ परिवार ने भी सत्ता में आने के लिए गांधीवादी समाजवाद का सहारा लिया था। लेकिन हो सकता है कि देश में किसी दिन ऐसे लोगों की सरकार आ जाए जो दलाली के दलदल मे धँसी आज की राजनीति के लिए सीधे—सीधे गांधी नाम के उस महात्मा को जिम्मेदार ठहरा दे और हर गली—मोहल्ले, यहाँ तक कि संसद से गांधी की मूर्तियों को हटवा दे। क्या चीन और रूस में ऐसा नहीं हुआ कि माओ की तस्वीरें हटा दी गईं, लेकिन की कब्र को तोड़ दिया गया।

सबीना ने महात्मा शब्द को थोड़ा जोर देकर कहा था। मतीन समझ नहीं पाया कि वह गांधी की तरफदार है या निंदक। उसने पेज—थ्री की सेलेब्रिटीज में शामिल हो चुकी अपनी बड़ी बहन की बातों को खास तवज्जो नहीं दी। वह तो अपने में ही खोया हुआ था।

बोला दृ श्श्आपा, मुझे इससे मतलब नहीं है कि कल क्या होगा, या क्या हो सकता है। मुझे तो अपनी परवाह है। आज मुझे नींद में भी डर लगता है कि कोई मुझे दाढ़ी पकड़कर घसीटता हुआ ले जाकर हवालात में बंद कर देगा। फिर अनाप—शनाप धाराएँ लगाकर मुझे आतंकवादी ठहरा देगा। सड़क पर घूमते हुए मुझे लगता है कि हर कोई मुझे ही घूर रहा है। मौका मिलते ही सादी वर्दी में टहल रहा कोई सरकारी एजेंट मुझे दबोच लेगा। और, इसके लिए मैं अपने नाम मतीन मोहम्मद शेख, अपने मजहब इस्लाम और अपने खानदान से मिली पहचान को गुनहगार मानता हूँ। मैं अभी तक बेधड़क जीनेवाला शख्स था, किसी से भी डरता नहीं था। लेकिन आज हर वक्त अनजाने डर के साये में जीता हूँ। आपा, मैं पूरी शिद्दत से ऊपर वाले की दी हुई ये खूबसूरत जिंदगी बेखौफ जीना चाहता हूँ, बेवजह मरना नहीं चाहता।

— नन्हें मियाँ, इतनी बेमतलब और खोखली बातें मत करो। मियाँ, तुम होते कौन हो, उस मजहब और खानदान पर तोहमत लगानेवाले, जिसने तुम्हें तुम्हारी पहचान दी है। इनके बगैर तुम आज जो कुछ भी हो, वो कतई नहीं होते। रही, खौफ, बहादुरी और जज्बे की बात तो एक बात जान लो कि इसे पीछे तुम्हारे शरीर का बिगड़ा हुआ हार्मोनल बैलेंस है। तुम्हारा गुबार, तुम्हारी घबराहट, सारी जेहनी उठापटक और तुम्हारा अकेलापन, इस सारी सेंटीमेंटल चीजों को तय करते हैं तुम्हारे शरीर के हार्मोन्स।

मतीन पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया। उसे लगा जैसे सरेआम चौराहे पर उसके सारे कपड़े उतार दिए गए हों। लगा, जैसे पाँच फुट ग्यारह इंच का कद मोम की तरह पिघलकर सड़क किनारे गिरे हुए पत्तों के ढेर में गुम हो गया। वह सोचने लगा कि अगर ऐसा ही है तो उसका वजूद क्या है, उसके होने का मतलब क्या है। सब कुछ हारमोन्स ही तय करते है तो क्या वह कुदरत के हाथ की महज कठपुतली है? मतीन चाहकर भी इन बातों को हवा में नहीं उड़ा सका। ये बातें क्यों कि सबीना ने कही थीं, इसलिए इनकी अहमियत उसके लिए काफी ज्यादा थी।

असल में सबीना मतीन से बारह साल तीन महीने बड़ी है। वह अब्बू और अम्मी की पहली संतान है, जबकि मतीन को पेट—पोंछन कहा जाता था क्यों कि वह अपने माँ—बाप की पाँचवीं और अंतिम संतान है। अम्मी और सबीना दोनों ही उसे छुटपन से बेहद प्यार करती थीं। लेकिन सबीना ने बकइयाँ—बकइयाँ चलने से लेकर उसे अपने पैरों पर दौड़ना तक सिखाया है। ककहरा सिखाया, दुनिया—जहान का ज्ञान कराया। अब्बू को अपने संगीत कार्यक्रमों, देश—विदेश के दौरों और रियाज से कभी फुरसत ही नहीं मिली कि नन्हें (मतीन) के सिर पर हाथ फेरते। यहीं से कुछ ऐसी अमिट दूरी बन गई कि मतीन अब्बू की बातों को सिर्फ़ चुपचाप सुनता था, लेकिन हमेशा उनकी बातों का ठीक उल्टा करता था। संगीत न सीखना इसकी एक छोटी—सी मिसाल है। अब्बू कहते रहे, लेकिन उसने कभी भी संगीत की तरफ हल्का—सा भी रुझान नहीं दिखाया। दूसरी तरफ अम्मी और सबीना की हर बात का पलटकर जवाब देना मतीन की जैसे आदत बन गई। लेकिन आज सबीना की बात का उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। इसलिए उसने मुद्दे से हटे बगैर बात को हल्का करने की कोशिश की।

— एक खुदा से मेरी साँस घुटती है। न उसकी कोई सूरत है, न कोई मूरत। लेकिन यहाँ तो कहीं श्रीकृष्ण है, कहीं शंकर तो कहीं गदाधारी हनुमान। पूरे तैंतीस करोड़ देवता हैं। जिसको मन चाहे, अपना हमनवाँ बना लो, सहारा बना लो। ऊपर से चाहो तो और देवता भी गढ़ सकते हो।

— बरखुरदार, तुम भगवान का सहारा खोजने निकले हो या फैशन स्ट्रीट या मॉल में शर्ट खरीदने। खुद को और अपने सवालों को समझने की कोशिश करो। तुम्हारी समस्याएँ नई हैं। इनका समाधान पीछे की सोच या दर्शन में कैसे हो सकता है। अगर राह चलते तुम्हारी कोई चीज खो गई तो तुम उसे पीछे लौटकर ढूँढ़ सकते हो। लेकिन तुम्हारा तो कुछ भी खोया नहीं है, बल्कि तुमने बहुत कुछ नया देखा और पाया है। तुम्हें नई उलझनों के तार सुलझाने हैं। आखिर क्यों पुराने रास्ते पर लौटकर इन्हें और उलझाना चाहते हो?

सबीना उस दिन सुबह से लेकर देर रात तक मतीन को तरह—तरह से समझाती रही। कभी प्यार से तो कभी गुस्से से। हालाँकि उसका गुस्सा ज्यादातर बनावटी था। आखिर में उसने दो—टूक फैसला सुना दिया।

— तुम जाकर अब सो जाओ। कल भोर में मैं बाहर जा रही हूँ। मतीन शेख बनकर रहे तो लौटकर आने पर मिलूँगी और जतिन गांधी बनने की जिद पर कायम रहे तो खुदा—हाफिज। बस, उसके बाद समझना कि सारे रिश्ते खत्म। फिर मिलने भी कभी मत आना।श्श्

मतीन के सीने से एक हूक निकलकर गले से बाहर निकलने को हुई। आँखों के आँसू पलकों में पसीज आए। सबीना उठकर चली गई। लेकिन मतीन वहीं होंठ भींचकर भीतर ही भीतर कई घंटों तक बिलखता रहा।

मन में तरह—तरह के भाव, तरह—तरह की इमोशन का रंदा चल रहा था। मतीन कहीं अंदर से टूटने लगा।

— श्मेरी बहन तक मुझे नहीं समझ रही। जिसने मुझे गोंदी में खिलाया, उँगली पकड़कर चलना सिखाया, जिसकी बातों और किताबों ने मेरा नजरिया बनाया, वही बहन आज मुझसे कभी न मिलने की बात कह रही है। सिर्फ़ इसलिए कि मैंने उसके मजहब को छोड़कर अलग मजहब अपनाने का फैसला कर लिया? क्या सचमुच खून के रिश्ते कच्चे इतने होते हैं, उनमें इतना बेगानापन छिपा होता है? लेकिन पहले तो ऐसा नहीं था।

मतीन को याद आया, तकरीबन पाँच साल पहले का वो दिन, जब वह लंदन से रातोंरात फ्लाइट पकड़कर दिल्ली पहुँचा था। दोस्त का फोन आया था कि बहन अस्तपाल में उसका हाथ पकड़कर रोई थी कि किसी तरह नन्हें को बुला दो, मैं अब बचूँगी नहीं। उस समय सबीना को शादी के कई सालों बाद पहला बच्चा होनेवाला था। मतीन की नौकरी को अभी पंद्रह दिन भी नहीं हुए थे, लेकिन वह बगैर अपने करिअर की परवाह किए सचमुच उड़कर बहन के पास पहुँचा था। और, आज वही बहन खुदा—हाफिज...

मतीन खुद को रोक न सका और फफक कर रो पड़ा। रात भी बाहर रो रही थी। घड़ी की सुइयाँ बिना रुके—टिके टिक—टिक कर नियत गति से घूमती रहीं। सबीना भोर में एयरपोर्ट के लिए निकली तो उसने घर के खास नौकर नदीम को हिदायत दी कि नन्हें जब तक घर में रहे, उसका पूरा खयाल रखना। लेकिन नदीम ने बताया कि भैया तो करीब एक घंटे पहले ही अपना सामान लेकर चले गए। सबीना ने पलटकर नदीम की तरफ नहीं देखा। गाढ़े रंग का चश्मा लगाया और सीधे जाकर कार में बैठ गई, एयरपोर्ट चली गई।

मतीन बंगले के बाहर एक बड़े पेड़ की छाया में खड़ा था। सबीना की कार निकल गई तो वह भी निकल गया। पहुँच गया नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास पहाड़गंज के एक गुमनाम से होटल में। न कुछ खाया, न पिया। बस बिस्तर पर लेटे—लेटे खुद को समझाने में कोशिश में लगा रहा कि जिंदगी है, सब चलता है। अभी तो न जाने क्या—क्या होना बाकी है। इसलिए मन को इतना कमजोर करने की रत्ती भर भी जरूरत नहीं है। लेकिन सबीना की बातों ने उसके अकेलेपन के अहसास को बेहद नाजुक मोड़ तक, ब्रेक डाउन तक पहुँचा दिया था। यह एक ऐसा अहसास था जो पराए मुल्क में रहते हुए पहली बार उसके जेहन में आया था। थेम्स नदी के किनारे बैठे हुए उसे भोर का उगता सूरज भी पराया लगता था। यहाँ तक कि कांव—कांव करते कौए भी उसे अंग्रेजी बोलते दिख रहे थे। ऐसा लगा था कि इन कौओं और अपने भारत के कौओं की प्रजाति अलहदा है।

आज जतिन गांधी बन चुके मतीन शेख को फिर बड़ी शिद्दत से लगने लगा कि समाज में सभी की अपनी—अपनी गोलबंदियाँ हैं। सभी अपने—अपने गोल, अपने—अपने झुंड में मस्त हैं। कहीं कौए मस्त हैं तो कहीं हंस मोती चुग रहे हैं। लेकिन वह किसी गोल में नहीं खप पा रहा। सच कहें तो वह न अभी न पूरा हिंदू बना है, न ही मुसलमान रह गया है। बहुत ज्यादा कामयाब नहीं है, लेकिन खस्ताहाल भी नहीं है। फिलहाल हालत ये है कि न तो वह कौओं की जमात में शुमार है और न ही हंसों के झुंड का हिस्सा बन पा रहा है। ये भी तो नहीं कि उसके बारे में कहा जा सके कि सुखिया सब संसार है खावै और सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै। फिर वह आखिर चाहता क्या है?

जतिन गांधी ने बाहर जाकर सैलून में दाढ़ी—मूछ साफ करवाई। अपना चेहरा आईने में देखकर मुँह इधर—उधर टेढ़ा करके थोड़े मजे लिए। नहाया—धोया। खाया—पिया और बिस्तर पर आकर लेट गया। लेकिन उसके तमाम सवाल अब भी अनुत्तरित थे। वह सोचने लगा कि आखिर उसके भारत में पैदा होने का मतलब क्या है? अगर इसका ताल्लुक महज पासपोर्ट से है तो चंद पन्नों के इस गुटके को पाँच—दस साल बिताकर दुनिया के किसी भी देश से हासिल किया जा सकता है। अगर ये महज एक भावना है, इमोशन है तो बड़बोले लालू का भारत, चिंदबरम का भारत निर्माण और मनमोहन सिंह की इंडिया ग्रोथ स्टोरी उसे अपनी क्यों नहीं लगती? मुलायम के समाजवादी स्वांग, अमर सिंह के फरेब, तोगडिया—आडवाणी या नरेंद्र मोदी के मुस्लिम विरोध का वह भागीदार कैसे बन सकता है? उसे तो भारत के नाम पर अपने अब्बू—अम्मी और सबीना नजर आती हैं। अपने दोस्त दिखते हैं। अब्बा का सितार दिखता है। घर से सटा पीपल—जामुन का पेड़ दिखता है।

मगर, उसने खुद से सवाल पूछा कि क्या देश अपने अवाम और भूगोल का समुच्चय भर होता है? खुद ही जवाब भी दे डाला दृ कोई भी देश संविधान, सेना, सुरक्षा तंत्र और सरकार को मिलाकर बनता है। किसी का अमूर्त देश कुछ भी हो, लेकिन असल देश तो यही सब चीजें हैं जिनसे अभी तक उसका कोई तादात्म्य नहीं बन पाया है। जतिन गांधी ये सब सोच—सोचकर खुद को और ज्यादा अलग—थलग महसूस करने लगा। उसे लगा कि वह अपने वतन में रहते हुए भी निर्वासित है। दोनों हाथों की उँगलियों से सिर के बालों को खींचकर खुद से झल्लाकर बोला दृ मैं स्टेडियम में बैठकर क्रिकेट मैच देखनेवालों में शुमार क्यों नहीं हूँ? ऐसे ही उमड़ते—घुमड़ते कई सवालों ने नए—नए हिंदू बने जतिन गांधी का पीछा नहीं छोड़ा। उसकी हालत पुनर्मूषको भवरू वाली थी। जहां से शुरू किया था, वहीं घूम—फिर कर वापस आ गया था।

जतिन पहाड़गंज के उस होटल में करीब दस दिन तक रहा। इस दौरान कई बार उसके मन में आया कि अम्मी के पास लौट जाए, अब्बू से माफी माँग ले। ये न हो सके तो सबीना के पास ही चला जाए। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया क्यों कि कदम आगे बढ़ाकर इतनी जल्दी पीछे खींच लेना, किसी काम को अंजाम पर पहुँचाए बिना छोड़ देना उसकी फितरत में नहीं था।

उसके पास लंदन वापस लौटकर पुरानी नौकरी पर डट जाने का भी विकल्प खुला था, क्यों कि अभी तो तीन महीने में से उसकी बमुश्किल चालीस दिन की छुट्टी पूरी हुई थी। लेकिन इस विकल्प को उसने एक सिरे से खारिज कर दिया। वह फिलहाल अकेलेपन से निजात पाने के लिए खुद को भीड़ में खो देना चाहता था। लिहाजा मुंबई आ गया। किस्मत का धनी था। इसीलिए खुद को अक्सर ईश्वर का राजकुमार बताता था। मुंबई में एक इंफोकॉम कंपनी में अच्छी—खासी नौकरी मिल गई। वहीं पर एक प्यारी—सी लड़की पहले दोस्त बनी और दो साल बाद बीवी। संयोग से उसका नाम नुसरत जहाँ था। कुछ सालों बाद उनके घर किलकारियाँ गूँजी तो बच्ची का नाम रखा जैनब गांधी। बच्ची की पहली सालगिरह पर उसने लंदन से अपने दो खास दोस्तों इम्तियाज मिश्रा और शांतुन हुसैन को भी सपरिवार बुलवाया था, आने—जाने की फ्लाइट का टिकट भेजकर।

इस तरह मतीन मोहम्मद शेख के जतिन गांधी बनने की कहानी एक सुखद मोड़ पर आकर खत्म हो गई। लेकिन उसकी असल जिंदगी यहीं से शुरू हुई। धर्म उसे कोई पहचान नहीं दे सका। पेशे और काबिलियत ने ही उसे असली पहचान दी। उसी तरह जैसे अजीम प्रेमजी के बारे में कोई नहीं सोचता कि वह कितने अजीम हैं और कितने प्रेमजी। जैसे कोई शाहरुख, सलमान या आमिर के मुस्लिम होने की बात सोचता ही नहीं। सलमान राम का रोल करें तो टीवी के आगे आरती करने में किसी को हिचक नहीं होगी। हाँ, जतिन को जिन चीजों ने पहचान दी, उनमें बंगाली, उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी पर उसकी अच्छी पकड़ का भी योगदान रहा। इस दौरान वह कोलकाता या दिल्ली भी आता—जाता रहा। अम्मी—अब्बू और सबीना से मिला कि नहीं, ये पता नहीं है। लेकिन लगता है, मिला ही होगा। मुस्लिम होने की बात वह काफी हद तक भुला चुका है। लेकिन दंगों की बात सोचकर कभी—कभी वह घबरा जाता है कि कहीं दंगाइयों ने उसकी पैंट उतारकर उसके धर्म की पहचान शुरू कर दी तो उसका क्या होगा? खैर, जो होगा सो देखा जाएगा। जब ओखली में सिर दिया तो मूसल का क्या डर?

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