Badal Chhat Gaye books and stories free download online pdf in Hindi

बादल छट गए


बादल छँट गए

अलका प्रमोद


© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as MatruBharti.

MatruBharti has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

MatruBharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

बादल छँट गए

उस पत्र पर उकेरे चिरपरिचित अक्षर देख कर, अतीत के धुँधलके से विस्मृत हुए चित्र उभरकर सामने आ गए जिन्होंने कनु को क्षण भर के लिए निस्पंद कर दिया। इस लिखावट को वह कैसे भूल सकती है, इसी लिखावट को लिखने वाले ने उसकी जीवन पत्री के चंद पन्ने ऐसे लिखे जिन्हें स्मरण करने मात्र से उसके मुंह का स्वाद कसैला हो जाता है। आज उसी के द्वारा लिखा पत्र पता नहीं किस झंझावात की पूर्व सूचना है। यद्यपि पत्र सारा के नाम था और युवा बेटी के निजी जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप के वह नितान्त विरुद्ध थी पर इस पत्र को लेकर उत्पन्न उत्सुकता, व्याकुलता और चिन्ता ने उसके सिद्धातों को परे ढकेल कर पत्र पाने को विवश कर दिया, कनु ने कांपते हाथों से पत्र खोला। वह पत्र क्या, एक झंझावात का संदेश ही था जिसने उसके मन के वातायन को झटके से खोल कर सब कुछ अस्त व्यस्त कर दिया था।

पत्र असीम का था जिन्होंने आज से सोलह वषोर्ं बाद अपनी वयस्क हो चुकी पुत्री सारा को उसके वास्तविक जनक से परिचित कराया था और इतने वषोर्ं का प्यार एक साथ उडेल दिया था तथा उसे अपने पास बुलाने का आग्रह किया था।

क्षण भर को उसकी सोचने समझने की शक्ति निचुड गई थी और वह विचलित हो गई। उसका किसी कार्य में मन नहीं लग रहा था मन में बस एक ही प्रश्न सिर उठा रहा था कि यदि सारा सच में असीम के पास चली गई तो उसका विछोह तो वह सह लेगी पर पुनीत से कैसे दृष्टि मिलाएगी, उसके सामने तो कनु का सिर सदा के लिए झुक जाएगा।

इसी उधेढबुन में उलझी वह अनिच्छा से खाना बनाती रही। तभी पुनीत आ गए, उसका सफेद चेहरा देख कर घबरा कर बोले, क्या हुआ कनु? फिर कनु के अश्रुपूरित नेत्र देख कर बोले, ष्सारा तो ठीक है न? उसका सारा के लिए इस प्रकार चिन्तित होना देख कर कनु के हृदय में हूक सी उठी, उसने बिना कुछ कहे पत्र पुनीत की ओर बढा दिया। पत्र पढकर पुनीत भी कुछ देर स्तब्ध हो कर विमूढ से बैठे रह गए। कनु ने सुझाव दिया कि क्यों न वह फाढ कर फेंक दे, पत्र सारा को दे ही नहीं यह सुन कर पुनीत गंभीर स्वर में बोले ष्यह तो पलायन हुआ, रेत में सिर छिपा लेने से तूफान टल नहीं जाता फिर आज नहीं तो कल असीम सारा तक अपना संदेश पहुँचा ही देंगे, तब सारा क्या सोचेगी हमारे बारे में? कनु ने अधीर हो कर कहा, फिर क्या करें? असीम ने दृढ स्वर में कहा, कनु सत्य यही है कि असीम सारा के पिता है, उनको मिलने से रोकने का अधिकार हमें नहीं है, उचित तो यही है कि इसका निर्णय सारा पर छोड दें।

द्वार पर घंटी बजी, कनु चौंकी, आज यह ध्वनि इतनी कर्णभेदी क्यों लगी जबकि प्रतिदिन इसी ध्वनि का माधुर्य उसे उल्लासित कर देता था और वह आगन्तुक बेटी के स्वागत में यों दौडती थी मानो बेटी कुछ घंटों नहीं, कई घंटों के बाद लौटी हो। आज उसके पैर भारी हो रहे थे तभी द्वार पर पुनः घंटी बजी। उसने द्वार खोला तो सारा बोली, ओहो ममा कितनी देर में दरवाजा खोला। फिर उसका मुरझाया हुआ चेहरा देख कर बोली, मम्मा एनी थिंग रांग? कुछ गडबड है, कनु ने स्वयं को व्यवस्थित करते हुए कहा, कुछ नहीं हाथ मुँह धो लो, मैं खाना लगाती हूँ।

प्रतिदिन खाने की मेज पर जब तीनों बैठते तो उत्सव का सा वातावरण होता था पर आज खाने की मेज पर असामान्य रूप से शान्ति थी, जो किसी तूफान के आने का संकेत दे रही थी। प्रत्यक्ष में तो कनु खाना खा रही थी पर उसके मन में अनेक प्रश्न सिर उठा रहे थे, क्या सारा मुझे छोडकर जा सकती है, क्या पुनीत का प्यार वह भूल जाएगी? फिर उसका मन विरोध करता, नहीं ऐसा नहीं हो सकता, पर दूसरे ही क्षण आकांक्षा पुनः सिर उठाती। इसमें असीम का रक्त भी तो बह रहा है फिर खून तो जल से गाढा होता ही है, क्या पता वह असीम की बातों से आकर्षित हो जाए। फिर असीम ने उसे नसिर्ंग होम खुलवाने का वादा भी तो किया है। अपने में ही उलझी कनु सारा के मुख मंडल पर अपने प्रश्नों के उत्तर ढूँडने का असफल प्रयास कर रही थी। सारा ने असामान्य वातावरण देख कर कहा, ष्मम्मा कहाँ हो तुम! कब से पहली रोटी लिए बैठी हो, पापा आप भी चुप बैठे हैं, कोई मुझे कुछ बताता क्यों नहीं!ष् कनु ने वह पत्र ला कर सारा को दे दिया, पुनीत इस अवांछित स्थिति से बचने के लिए अपने कमरे में चले गए। कनु उस छात्रा के समान, जिसका प्रश्न पत्र बिगड़ गया हो, धड़कते हृदय से परिणाम जानने की प्रतीक्षा करने लगी।

सारा ने पत्र पढा और लापरवाही से एक कोने में फेंक कर अस्पताल की ओर चल दी, जैसे वह पत्र साधारण सा कोई समाचार देने वाला पत्र हो। उसने इस विषय में कनु से चर्चा की आवश्यकता भी नहीं समझी। कनु खीज गई, यहाँ प्राण निकल रहे हैं और इसे अस्पताल जाने की पी है। पर अपनी ओर से कुछ पूछने का साहस वह नहीं कर पाई और सारा चली गई।

कनु का पुनीत का सामना करने का साहस नहीं था। न जाने क्यों वह स्वयं को उसका अपराधी अनुभव कर रही थी अतः बाहर के कमरे में जा कर लेट गई। उसका मन अतीत के सागर में गोते लगाने लगा।

असीम ने उसके रूप और लावण्य पर मोहित हो कर उसका वरण किया था। वह बात दूसरी है कि विवाह के बाद दोनों को अनुभव हुआ कि वह दोनों झरने की उन दो धाराओं के समान हैं जो विपरीत ढलानों पर गिरती हैं और उनके मध्य इतनी विशाल चट्टान है जिसे काट कर दोनों धाराओं को समाहित करना असंभव नही तो दुष्कर अवश्य है। कनु जितनी सरल और स्वाभाविक थी, असीम उतना ही व्यवहारिक और महत्वाकांक्षी, वह सदा आडम्बरों और दिखावे के बाह्य आवरण में छिपे रहने में विश्वास करता था। उसे कनु की सहजता और सरलता मूर्खता लगती। वह ऊपर चढने हेतु अवैधानिक सीडियों के प्रयोग में भी नहीं हिचकता था तो कनु के लिए सिद्धान्त ही उसकी पूंजी थे।

असीम कभी निकली हीरों के हार को असली हार के रूप में प्रस्तुत करता और सरला कनु उसका मूल्य और दुकान बता कर अनचाहे ही उसका पोल खोल बैठती, तो कभी उसके मित्रों के समक्ष बिना प्रसाधन के ही आ जाती। कनु को कभी समझ नहीं आया कि अपनी आर्थिक स्थिति अधिक बताने में कौन से सुख निहित है और क्या मनुष्य ईश्वर से भी बड़ा चितेरा है जो उसके द्वारा प्रदत्त सौंदर्य में अपना हस्तक्षेप करें। इन्हीं छोटी छोटी बातों में उनमें प्रायः वाक्युद्ध हो जाता।

नन्हीं सारा के जन्म ने उसके मध्य युद्ध के और भी कारण सहज उपलब्ध करा दिए थे। उसके पालन पोषण और संस्कारों को ले कर उनके मध्य अच्छा खासा मतभेद रहता था। असीम सारा को अंग्रेजी सिखाता। वह बताता कि, हैन्की में नोजी पोंछ लो और अंकल आंटी बोलो। तो कनु हिन्दी में चाचा चाची कहना सिखाती। उसे अंकल आंटी में बनावटी पन की अनुभूति होती और चाचा चाची जैसे संबोधनों में आत्मीयता छलकती लगती। उसका तर्क था कि पहले बच्चे में मातृभाषा को ज्ञान तो हो, समय के साथ अंग्रेजी तो सीख ही जाएगी।

असीम बिगड़ जाता, तुम पडी लिखी गँवार हो, उच्च वर्ग में जाने लायक नहीं हो। यह कनु को अपना अपमान लगता। ऐसा नहीं कि उसे अँग्रेजी आती नहीं पर वह अपनी भाषा बोलने में सहजता और आत्मीयता का अनुभव करती। सज सँवर कर पार्टियों में जाना और अपने आभूषणों और कपडों का प्रदर्शन करना उसे हास्यास्पद और अरुचिकर लगता।

एक बार असीम कनु और सारा को ले कर अपने उच्च अधिकारी के घर गए, वहाँ सारा को लघुशंका की आवश्यकता हुई तो कनु ने बॉस की पत्नी से पूछ लिया, भाभी जी टॉयलेट कहाँ है? सारा को सू सू कराना है। यह सुन कर असीम अपमान से लाल भभूका हो उठा। उसे ऐसा लग रहा था जैसे भरी भीड में उसे चोर सिद्ध कर दिया गया हो पर बास के घर पर मात्र कनु पर आँखें तरेर कर रह गया। बॉस के घर से निकलते ही वह कनु पर बुरी तरह बरस पडा और क्रोधावेश में दंडस्वरूप नन्हीं सारा के कोमल कपोलों पर भी अपनी पाँचों उंगलियाँ छाप दीं। वह मासूम तो यह भी नहीं समझ पाई कि यदि उसे सू सू जाना था तो उस में उसका क्या अपराध था। बात सामान्य सी थी पर घर का वातावरण कई दिनों तक असामान्य रहा। इसी प्रकार की नित्य प्रति की छोटी छोटी बातों से उनके संबंधों की डोर का तनाव चरम सीमा तक पहुँच चुका था, अब तो बस एक छोटा सा आघात ही उसे तोडने के लिए सक्षम था। अन्ततः वह घडी आ ही गई।

एक दिन कनु ने परिवार में एक और नए आगन्तुक के आने की सूचना दी। असीम के भौतिक साधनों को जुटाने की वृहद योजना में एक और प्राणी की परिवार में बडने की सामर्थ्य न थी अतः उस अनचाहे गर्भ को असीम की उन्नति के मार्ग का व्यवधान बनने का दंड भुगतना पड़ा। कनु अनिच्छ से गर्भ समापन करवा कर शिथिल मन से लौटी ही थी कि उसे पापा के न रहने का सुखद समाचार मिला। एक पापा ही थे जिनसे वह मानसिक रूप से सबसे निकट थी। मम्मी तो पहले ही नहीं थीं अतः पापा के न रहने की सूचना पाकर वह पूर्ण रूप से बिखर गई पर कालचक्र के प्रहारों को सहना तो हमारी विवशता है। कनु और असीम उसी दिन कनु के मायके गए, असीम तो लौट आए पर कनु तीन दिन क्रियाकर्म सम्पन्न होने के बाद लौटी, उस समय असीम कार्यालय गए थे। दोपहर में जब वह आए तो कनु का चेष्टा से रोका गया दुख का बाँध ढह गया और वह उसके कंधे लग कर रो पडी। इस समय उसे एक आत्मीय सांत्वना की आवश्यकता थी पर उसकी भावना को किनारे रख कर असीम अव्यवस्थित घर और अस्त व्यस्त सारा को देख कर क्रोधावेश में चिल्ला पडा, ष्क्या गंवारों की तरह रो रही हो, तुम्हें पता है कि सारा बिना चप्पल के बिखरे बालों में बाहर खेल रही है, कालोनी के लोगों ने देखा होगा तो हम लोगों को कितना फूहडा समझा होगा। फिर बोले, ष्आज मिस्टर शर्मा शाम को आएँगे, उनके सामने अपना रोना चेहरा ले कर मत आ जाना।ष् कनु विस्फरित नेत्रों से असीम को देखने लगी, आज वह सोचने को विवश हो गई कि वह ही मूर्ख है जो इस भावना शून्य व्यक्ति में भावनात्मक सम्बल ढूँड रही थी। वह स्वयं से प्रश्न करने लगी कि क्यों वह सब सह रही है जबकि वह स्वयं ही सक्षम है कि अपना और सारा का आर्थिक भार उठा सके। जिस समाज में असीम रहते हैं उससे वह तारतम्य बैठा नहीं सकती। भावनात्मक पोषण की आशा अब पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी थी। सम्पूर्ण दिन और रात के विचार के बाद उसने स्वाभिमान से जीने का निर्णय ले लिया। असीम इस अप्रत्याशित निर्णय पर चौंके अवश्य पर उन्हें पूर्ण विश्वास था कि कनु सारा के साथ अकेले जीवन पथ पर नहीं चल पाएगी और लौट ही आएगी अतः उन्होंने उसे रोकने का विशेष प्रयास नहीं किया।

असीम का अहम्‌ झुक गया, कनु ने एक बार पैर बाहर निकाले तो मुडकर नहीं देखा। उसे एक कालेज में प्रवक्ता की नौकरी मिल गई। जीवन पथ सहज न था पर उसका आत्मसम्मान सुरक्षित था। उसे दिन रात प्रताडित नहीं किया जाता था, सारा भी इस शान्त वातावरण में अपेक्षाकृत प्रसन्न थी। असीम से विच्छेद हो गया। असीम ने फिर कभी इन दोनों के विषय में जानने का प्रयास नहीं किया। उसे भय था कि कहीं सारा के दायित्व वहन करने में उसकी भागीदारी न ठहरा दी जाए।

शनैः शनैः जीवन के अंधेरे कम होते गए और एक दिन उसके जीवन में अंधकार का स्थान प्रकाश पुंज ने ले लिया। पुनीत उसी कालेज में प्रवक्ता थे, धीर गंभीर, संवेदनशील और संयमित। कनु को हर पग पर उन्होंने निस्वार्थ सहयोग दिया, जितना अनु ने चाहा उससे लेश मात्र भी आगे नहीं बडे। कनु की सादगी संस्कार और क्षमताओं के प्रशंसक पुनीत की प्रेरणा से असीम प्रदत्त व्यंग्यों से खोया आत्मविश्वास पुनः लौट आया। पुनीत ने ही उसे अनुभव कराया कि उसका स्वर कितना मधुर है जिससे प्रेरित होकर उसने संगीत सीखना प्रारम्भ किया। आज उसे अनेक कार्यक्रमों में निमंत्रित किया जाता है।

पुनीत जब भी घर आते तो सारा से इतने घुल मिल जाते कि वह उन्हें सरलता से न जाने देती। अब तो स्थिति यह थी कि यदि चार दिन भी पुनीत न आते तो कुछ सूना सा लगता। वह कनु और सारा की आवश्यकता बनते जा रहे थे और एक दिन उन्होंने स्थायी रूप से कनु और सारा का दायित्व उठा लिया। पुनीत ने जिस प्रकार सहजता से सारा के पिता के कर्तव्यों का भार अपने कंधों पर वहन कर लिया। वह देखने वाले को संशय भी न होने देता कि पुनीत सारा के जनक नहीं हैं। यदि सारा बीमार पडती तो कनु को भले झपकी आ जाए पर पुनीत की रात आँखों में कटती। सारा पुनीत के बिना नहीं रह पाती। जब भी कोई मतभेद होता पिता पुत्री एक हो जाते, कहने को तो कनु रूठ जाती कि तुम दोनों एक हो कर मुझे अलग कर देते हो, पर यह रूठना तो झूठा आवरण था। सत्य तो यह था कि कनु का रोम रोम पुनीत का उपकृत था जिसने एक उजड़े हुए उपवन को अपने प्यार की उर्वरा से इतना पोषित किया कि वह पहले से भी अधिक पल्लवित हो उठा।

आज अचानक वह माली जिसने कभी उपवन की ओर दृष्टि उठाकर भी न देखा था, उस पर अपना अधिकार चाहता था। आज असीम ने कितनी निर्लज्जता से लिखा था...

सारा!

तुम्हारा असली पिता तो मैं ही हूँ, तुम मेरा खून हो और वयस्क हो, तुम अपनी मम्मी और उसके पति को छोड़ कर आ जाओ, मैं तुम्हारा साथ दूँगा, तुम्हें शानदार नसिर्ंग होम खुलवाऊँगा। मैं शाम को आऊँगा तैयार रहना।

तुम्हारा अपना

पापा

इन पंक्तियों ने पुनः कनु के हृदय में असीम के प्रति इतने दिनों की सुप्त घृणा को जागृत कर दिया था। वह भली भाँति समझ रही थी कि बाह्य आडंबर में विश्वास करने वाले असीम को अपनी पुत्री से प्यार मात्र इसीलिए उमड़ा था कि वह आज एक योग्य डाक्टर बन गई है और वह अपने तथाकथित उच्च समाज में सिर उठा कर गर्व से उसका परिचय करा सकता है।

अतीत के सागर से किनारे तो वह तब लगी जब पुनः द्वार की घंटी बजी। उसने घड़ी देखी, संध्या के पाँच बज चुके थे। अवश्य सारा लौट होगी उसने सोचा। सारा आई तो सीधे अपने कमरे में चली गई। जब कुछ देर सारा बाहर नहीं आई तो उसका निर्णय जानने हेतु वह उसके कमरे की ओर गई। उसने देखा कि सारा अपनी अलमारी से अपने बाल्यकाल के पुराने खिलौने निकाल कर एक बैग में रख रही थी। कनु के पैरों के तले धरती खिसक गई, तो क्या सारा अभी तक असीम के साथ बिताए क्षणों की स्मृति सँजोए थी? अब उसका विश्वास डगमगा गया। वह समझ गई कि सारा को उसके खून की पुकार आकर्षित कर रही है। वह दबे पाँव लौट कर बैठक के पास वाले कमरे में बैठ गई। आज वह स्वयं को पूर्णतः पराजित अनुभव कर रही थी। तभी किसी के आने की आहट हुई, वह समझ गई कि असीम आ गए हैं। वह यूँ ही बैठी रही, उसे क्या सरोकार जिससे मिलने और लेने आए हैं वही उनका स्वागत करे। उसने सुना सारा कह रही थी, ष्आइए मि असीम!

बेटी मैं तेरा पापा हूँ।ष् असीम ने चौंकते हुए कहा, पर उनकी बात बीच में ही काटते हुए सारा बोली, मुझे पता है, मैं कुछ भी नहीं भूली हूँ, अभी तक तो मुझको आपसे यही शिकायत थी कि आप मुझसे कभी मिलने नहीं आए। पर मन के एक कोने में आप सदा स्थापित थे जिसका सबूत है मेरे द्वारा संभाल कर रखे गए आपके लाए खिलौने, पर आज इस पत्र ने मेरे सम्पूर्ण भ्रमों से आवरण हटा दिया। इसके पूर्व आपको कभी अपनी बेटी की याद नहीं आई? आपने कभी नहीं सोचा कि मुझे क्या चाहिए? मेरे हर सुख दुख का जिसने ध्यान रखा, पग पग पर संरक्षण दिया वही मेरे असली पापा हैं। उन्हें मैं छोड़ दूँगी ऐसा आपने सोचा भी कैसे, काश आपने यह अधिकार पहले दिखाया होता। आज मैं आपको आपके दिए सारे खिलौने लौटा रही हूँ, आज आप मेरे मन के उस कोने से भी निष्कासित हो गए। अब मेरे ये पापा ही मेरे पापा हैं जिनका प्यार मेरी सफलता से नहीं, मुझसे हैं। कनु ने किसी के चुपचाप थके पैरों से लौटने की पदचाप सुनी। वह दौड़ कर पुनीत के कमरे में यह शुभ समाचार देने गई। पर शायद उन्होंने भी सम्पूर्ण वार्तालाप सुन लिया था क्योंकि उनका संतोष और प्रसन्नता उसके चेहरे पर प्रतिबिम्बित हो रहा था। अब काले बादल छँट गए थे और धूप के उजास में सब कुछ धुला धुला और स्पष्ट लग रहा था।

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED