नींद में चलती कहानी... - 5 Babul haq ansari द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नींद में चलती कहानी... - 5

सुधीर की आंखों में अब पहली बार शांति थी। वह रात, जब उसने हवेली में जाकर कहा — “अब मुझे रोका नहीं जाएगा” — उसके बाद से वो किसी गहरी नींद में सोया। कई दिनों बाद वो बिना किसी डर, बिना नींद में चलने की आदत के, सुबह उठा। मां के चेहरे पर मुस्कान थी, लेकिन भीतर अब भी आशंका की लकीरें थीं।

गांववालों को लगने लगा कि कहानी अब खत्म हो गई है। अजय की आत्मा शायद शांति पा चुकी है। लेकिन मुकुंद जी को ऐसा नहीं लगा। उन्होंने सुधीर से अकेले में पूछा — “क्या अब भी वो आवाजें आती हैं?”  
सुधीर ने चुपचाप सिर हिलाया — “अब आवाजें नहीं आतीं, पर कभी-कभी लगता है जैसे कोई देख रहा हो… एक परछाईं, जो सिर्फ मेरी नहीं, सबकी निगाहों से दूर है।”

मुकुंद जी ने पुराने रिकॉर्ड्स फिर खंगाले। उन्हें एक अखबार की कतरन मिली — *“भारत के एथलीट अजय चौहान की गुमशुदगी रहस्य बनी हुई है। कहा जा रहा है कि उसने कोई गुप्त रिपोर्ट प्रतियोगिता समिति को सौंपने की कोशिश की थी।”*  
इस रिपोर्ट का कोई अता-पता नहीं था। क्या वही रिपोर्ट सुधीर को अब भी खोजनी थी?

इसी बीच, गांव में एक मेला लगा। सुधीर भी गया। वहाँ एक पुरानी किताबों की दुकान पर उसकी नजर एक पीली फाइल पर पड़ी — उस पर नाम था **“Running Against the Ghost”** — यानी *“भूत के विरुद्ध दौड़”*.  
सुधीर ने जैसे ही वह फाइल उठाई, उसके भीतर की एक पर्ची ज़मीन पर गिरी। उस पर लिखा था:  
**“जो सच दौड़ से बाहर कर दिया गया था, वो अब हर दौड़ में मौजूद रहेगा।”**

सुधीर वहीं बैठ गया, उसका सिर भारी होने लगा। कुछ देर बाद उसने दुकान के मालिक से पूछा — “ये फाइल कहाँ से आई?”  
वह बोला — “कई साल पहले एक बूढ़ा आदमी छोड़ गया था, बोला था कि जब सही समय आए, कोई खुद ढूंढ़ लेगा।”

सुधीर समझ गया — यह संयोग नहीं, संदेश था। उसने फाइल लेकर मुकुंद जी को दी। अंदर की बातों से स्पष्ट हुआ कि अजय ने अंतरराष्ट्रीय खेल संस्था के खिलाफ साक्ष्य इकट्ठे किए थे, लेकिन वह सब दबा दिया गया।

अब सवाल था — **क्या सुधीर को इस सच्चाई को आगे बढ़ाना चाहिए?**  
वो सिर्फ एक माध्यम था या अब खुद भी एक किरदार बन चुका था?

उस रात सुधीर ने पहली बार जागकर माँ से कहा —  
**“माँ, अब मैं सिर्फ नींद में नहीं चलूँगा… अब मैं जागकर दौड़ूंगा — उस सच्चाई के लिए, जो किसी ने कभी पूरी नहीं की।”**
अगली सुबह सुधीर ने फाइल को फिर से पढ़ा। हर शब्द जैसे अजय की आत्मा की आवाज़ था।  
उसने मन में ठान लिया कि अब यह सब केवल किताबों में कैद नहीं रहेगा।  
मुकुंद जी ने कहा, “बेटा, ये सच्चाई अगर दबा दी गई, तो न जाने कितनी आत्माएँ यूँ ही भटकती रहेंगी।”

तभी गाँव में एक पत्रकार आया — उसने सुना था कि अजय चौहान की असल कहानी अब सामने आने वाली है।  
सुधीर ने उसे सबकुछ बताया, और वो पत्रकार फौरन राष्ट्रीय चैनलों से जुड़ गया।  
अगले ही हफ्ते, टीवी पर हेडलाइन चली —  
**“गुमनाम ओलंपियन का सच सामने लाया एक गाँव के लड़के ने।”**

गाँव में पहली बार अजय का नाम खुलेआम लिया गया।  
माँ ने सुधीर को सीने से लगाया, और कहा —  
**“आज तू सिर्फ मेरा बेटा नहीं… तू एक कहानी का आखिरी किरदार भी बन गया।”**

(अब आएगा भाग-4...)