सत्तर - तीस dilip kumar द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सत्तर - तीस



“सत्तर -तीस”
बाढ़ का पानी उतरते ही बाढ़ राहत सामग्री बंटने की बारी आ गयी। ग्राम सभा बड़ी थी जिसमें पांच मजरे थे , तीन मजरों में बाढ़ का पानी इतना ज्यादा आया था कि वाही -तबाही जैसे हालात हो गए थे।
उन मजरों के घरों की छत तक डूबने की कगार पर थी , हँसता -बसता गांव का वो हिस्सा किसी बियाबान की तरह उजाड़ और तबाह नजर आता था बाढ़ के कहर से।
यूँ तो बाढ़ से राब्ता नदी तट पर बसे इस गाँव का हर साल होता था, मगर इस बार प्रलय थी ।
गांव के बाकी दो मजरों में बाढ़ का पानी भरा तो था मगर घरों की दहलीज पार नहीं कर पाया था ।
प्रशासन ने छह सौ पैकेट बाढ़ पीड़ितों के गांव में भिजवाए थे । पात्र और पीड़ित चुनने की ज़िम्मेदारी प्रशासन ने तहसीलदार को दी , तहसीलदार ने ये जिम्मेदारी कानूनगो को दी ,कानूनगो ने ये ज़िम्मेदारी लेखपाल को दी , लेखपाल ने ये जिम्मेदारी घूँघट में रहने वाली और अंगूठा लगाकर प्रधानी करने वाली महिला ग्राम प्रधान के पति को दी । प्रधान पति दो -चार जमातें पढ़ा था मगर उसका घमंड बहुत बड़ा था क्योंकि गांव से जुड़े सरकारी अमले के लोग मोहर -अंगूठा लगवाने उसके ही पास आते थे , महिला ग्राम प्रधान तो कभी घर की चौखट भी नहीं लांघ पाई ।
ग्राम प्रधान के पति ने, जिन दो मजरों में पानी नहीं भरा था उनके नामों से बाढ़ पीडितों की पूरी लिस्ट भर दी , बाढ़ के विकराल प्रकोप से बचे दो मजरों से ही पांच सौ लाभार्थियों का चयन करने के बाद सौ ऐसे अन्य लाभार्थियों का चयन कर लिया गया जिन्होंने प्रधान को वोट भी नहीं दिया था मगर उनकी जाति के थे । क्योंकि अपनी जाति को लेकर प्रधानपति के मन में विशेष साफ्ट कार्नर था ।
बाढ़ पीड़ितों को बाँटने के लिये आया हुआ सामान स्कूल में रखा गया ।
स्कूल में भी प्रधान पति का सिक्का चलता था , क्योंकि सरकारी स्कूल में “मिड डे मील” योजना में हेडमास्टर के साथ ग्राम प्रधान सह खातेदार होता था ,बच्चों के खाना बनने को आया हुआ सरकारी पैसा और गल्ला आधा प्रधान ही रख लेता था।
खाये -अघाये, पक्के घरों में रहने वाले और बाढ़ से बचे हुए लोगों को कटौती करके बाढ़ राहत सामग्री दे दी गयी। बाकी तीन मजरों के लोग रोते -,गिड़गिड़ाते रह गए मगर उन्हें बाढ़ राहत का कोई सामान नहीं मिला ।
क्योंकि प्रधानपति का मानना था कि उन तीन मजरे के लोगों ने उसे वोट नहीं दिया था, वो तो उसने पैसा देकर उन तीन मजरों में अपने दो डमी प्रत्याशी चुनाव में उतार दिए थे जिससे उन तीन मजरों का वोट अपने ही जाति के डमी प्रत्याशियों के बीच बंट गया और प्रधानी का चुनाव उसने जीत लिया , अगर ये दांव न चलता तो वो चुनाव ही न जीत पाता।
बाढ़ पीड़ितों हेतु आयी हुई सामग्री के वितरण के बाद प्रधानपति और हेडमास्टर ने गणना की । कटौती किये हुए सामान को देखकर सरकारी स्कूल के हेडमास्टर ने कहा –
“खाना बनने का बहुत सामान बच गया है ,इससे तो महीनों स्कूल का खाना बन सकता है “।
प्रधानपति ने मुस्कराते हुए कहा –
“हां ,हमें स्कूल के लिये मिले राशन को कोटेदार से लेने की जरूरत नहीं , और ना ही खाना बनवाने के लिये तेल,दाल, सोयाबीन , वगैरह की जरूरत है । इसी से दो -तीन महीने बच्चों का खाना बन जाएगा। अब स्कूल का खाना बनवाने का हमारा पैसा भी बचेगा और गल्ला भी ,समझ गए ना आप “।
हेडमास्टर ने सहमति से सिर हिलाया।
प्रधानपति ने कहा –
“ आप कल चेक बना लाना, हम इस पैसे को एडजस्ट कर लेंगे इसी बाढ़ की कटौती किये गए सामान से ।इस बार सत्तर परसेंट मेरा और तीस ही परसेंट आपका ,क्योंकि इस बार सब सेटिंग और मेहनत मेरी है तो फिफ्टी-फिफ्टी नहीं बंट सकता “।
अपने कमीशन की कटौती की बात सुनने पर हेडमास्टर के चेहरे पर असमंजस के भाव आये , उसकी असमंजस की मनोदशा को ताड़ते हुए प्रधानपति ने कहर भरी नजरों से हेडमास्टर को देखा। हेडमास्टर ने सोचा गांव में नौकरी करनी है तो प्रधानपति से पंगा लेना “जल में रहकर मगर से बैर लेना “वाली बात हो जायेगी।
उसने फंसे हुए स्वर में सहमति दी और बोला-
“ठीक है “।
प्रधानपति ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और चलने को हुआ तो हेडमास्टर ने कहा –
“आप कहाँ जा रहे हैं “?
“मैं जाकर कोटेदार से इस महीने का स्कूल का पूरा राशन उठवा लेता हूँ ,आप बाढ़ के बचे हुए सामान से खाना बनवाना”।
प्रधानपति ने कहा और मोटरसाइकिल लहराते हुए चला गया ।
उसके जाने के बाद हेडमास्टर सोच रहा था कि कितने का चेक बनाऊं और कितना एडजस्ट करूँ तो कितना मुझे मिलेगा।
प्रधानपति कोटेदार से राशन लाते जाते समय सोच रहा था कि काश ये बाढ़ हर साल आये तो उसकी आमदनी फिफ्टी -फिफ्टी के बजाय सत्तर -तीस के अनुपात में बढ़ती रहे ।
समाप्त