सदफ़िया मंज़िल - भाग 2 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

सदफ़िया मंज़िल - भाग 2

भाग -2

रफ़िया की बात पूरी होते ही हँसली ने कहा, “चल चुप कर, भूख से मरेंगे। देख हम लोग भूख से तो नहीं मरेंगे ये पक्का मान, बाक़ी चाहे जिससे मरें। समाचार में कई दिन से बोला जा रहा है कि अब की अनाज पीछे के सारे रिकॉर्ड तोड़ कर उससे भी ज़्यादा पैदा हुआ है। गवर्नमेंट सबको राशन दे भी रही है, वह भी एकदम मुफ़्त। और बताऊँ, जब-तक शाखा बाबू जैसे लोग दुनिया में हैं, तब-तक तो कोई खाने बिना तो नहीं ही मरेगा।”

हँसली की बात से रफ़िया को जैसे कुछ याद आ गया। उसने तुरंत उससे पूछा, “अरे हाँ, तुमने बताया नहीं तुम्हारे शाखा बाबू ने क्या कहा कि तुम अपना कलेजा उन्हीं को देकर बिना कलेजे के ही चली आई।” 

“अरे हाँ, जब चाय, दारू नहीं मिलेगी तो दिमाग़ तो भूलेगा ही। शाखा बाबू ने कहा, ’हँसली जिस दिन चूल्हा नहीं जलेगा, उस दिन हम-सब मिलकर जलाने की कोशिश करेंगे। सब मिलकर कोशिश करेंगे तो चूल्हा जलेगा और ख़ूब जम के जलेगा। तुम सब एकदम निश्चिंत रहो। हम, हमारे बच्चे खाना तभी खाएँगे जब हम तुम्हें खिला लेंगे। आख़िर तुम भी हमारे ही हो। सब लोग एक ही परिवार के हैं। वसुधैव कुटुम्बकम हम लोग ऐसे ही थोड़ी ना लिखते बोलते चले आ रहे हैं।’ फिर उसने पीठ थपथपाते हुए कहा, ’अच्छा चलता हूँ, खाना लेकर आऊँगा।’ और फिर ऐसे मुस्कुराता हुआ चला गया जैसे उसके सामने कोई मुश्किल है ही नहीं। मैं खड़ा देखता ही रह गया। ताली ठोंकना भी भूल गया। खड़ा सोचता रहा कि वाह रे, क्या दिलदार आदमी है तू। अब तू बता, तू होती मेरी जगह तो कलेजा साथ लिए आ पाती या वहीं छोड़े आती।” 

उसे ध्यान से सुन रही रफ़िया बोली, “सही कहा तुमने, वह बात ही नहीं, काम भी कलेजा निकालने वाला ही कर रहें हैं। एक तरफ़ वह लोग हैं, जो उजाले में हम लोगों के पास खड़ा भी नहीं होना चाहते, नफ़रत से मुँह फेर लेते हैं, थूक देते हैं, और जब अँधेरे में, छिप-छिपा के आएँगे तो नासपीटे न जाने क्या-क्या करेंगे। कहाँ-कहाँ घुस जाएँगे कुछ पता ही नहीं रहता। 

“ऐसे दोगलों से कलेजा फट जाता है। मन करता है कि उन्हें उठाकर नीचे फेंक दूँ। अपने पास फटकने भी ना दूँ। अपनी छाया भी न छूने दूँ। इन सबसे ज़्यादा इनके मुँह पर थूक दूँ। लेकिन हम-लोगों की बदक़िस्मती देखो। यही दोगले हमारे कस्टमर हैं। 

“दो महीने से नहीं आ रहे हैं तो हमारे खाने-पीने के लाले पड़ गए हैं। राशन तीन-चार दिन से ज़्यादा का नहीं बचा है। मन बड़ा निराश हो रहा है, टूट रहा है, लेकिन शाखा बाबू जैसे बन्दे भी हैं। जो कलेजा निकाल लेते हैं। ऐसे कुछ लोगों के कारण ही उम्मीदें बनी रहती हैं कि जैसे-तैसे गाड़ी खिंच ही जाएगी।”

“ये तो तुम सही कह रही हो, लेकिन मैं ये सोच रही हूँ कि ऐसी उम्मीदों से गाड़ी घिसट भर सकती है दौड़ नहीं। एक बात बताऊँ, मैं दो-चार दिन से बार-बार सोच रही हूँ कि हम-लोगों को भी कुछ और रास्ते ढूँढ़ने की कोशिश करनी चाहिए। किसी ऐसे काम-धंधे को किया जाए जिससे इस नरक के जीवन से भी फ़ुर्सत मिले। 

“वैसे भी कमाठीपुरा अब तब से और भी ज़्यादा तेज़ी से सिकुड़ता जा रहा है जब से लिपी-पुती चेहरों वाली धंधे को ऑनलाइन ही हमसे छीनने लगी हैं। देखती नहीं हो कि आए दिन किसी कोठे, किसी होटल, न जाने कहाँ-कहाँ छापे में एक से एक पुते चेहरों वाली, लंबी-लंबी गाड़ियों वाली पकड़ी जा रही हैं। 

“कितनी तो ऐसी हैं जो निकली हैं पढ़ने, लेकिन साथ ही हमारे धंधे में भी कटिया डाल कर हमारी कमाई छीन लेती हैं, लगती हैं कमाने। जो नौकरी कर रही हैं उनमें भी कई कटियाबाज़ी में भी लग जाती हैं। हमारे धंधे पर भी हाथ साफ़ कर हमें ही किनारे लगाने पर तुली रहती हैं। जैसे हम-सब को तो कुछ चाहिए ही नहीं।”

हँसली अपनी भड़ास निकाल ही रही थी कि तभी ज़किया सभी के लिए ग़िलास में चाय लेकर आ गई। उसे देख कर रफ़िया ने हँसली से कहा, “लो चाय पियो। वैसे बात तो तुम सही कह रही हो। कमाठीपुरा, और हमारा धंधा दोनों ही सिमटते जा रहे हैं। एक समय इतनी कमाई होती थी कि पूरी कोठी चमकती थी। अब तो जो कुछ टूट-फूट रहा है, वैसे ही पड़ा रह जा रहा है, न रंगाई-पुताई न मरम्मत, ये दरवाज़ा देख ही रही हो, कोई ठिकाना नहीं कि कब ऊपर ही आ गिरे। यह सब तो एक तरफ़ अब तो दवा-दारू का भी पैसा नहीं रहता। रही-सही कसर इस नामुराद कोरोना ने पूरी कर दी। फरवरी से ही ग्राहक आधे होने लगे थे। लॉक-डाउन के बाद तो एकदम सूखा पड़ना था, तो वो पड़ा है। यह एकाध महीना और ऐसे ही लगा रहा तो फ़ाँका-कशी की नौबत आ जाएगी।”

रफ़िया की बात पूरी होते ही ज़किया ने सुर्र-सुर्र आवाज़ करती हुई चाय सुड़क रही हँसली को देखते हुए कहा, “लॉक डाउन के बाद ग्राहक आने लगेंगे यह भूल ही जाओ। इस बीमारी के ख़ौफ़ से जब लोग घर से बाहर निकलने में ही काँप रहे हैं, दस हाथ दूर से मिल रहे हैं, तो ऐसे में कोठे पर आने की सोच कर ही उनकी रूह काँपेगी। अब ये धंधा समझ लो ख़त्म ही हो गया। ये जो कह रही हो कुछ और करने की सोची जाए, तो सच बताऊँ, अब सोचने का वक़्त ही नहीं बचा है। अब ख़ाली कुछ और करने का वक़्त रह गया है। और कुछ क्या होगा ख़ाली वो तय करो।”

ज़किया की बात पर हँसली ने चाय का ग़िलास स्टूल पर रख कर दनादन तीन-चार तालियाँ ठोंक कर कहा, “अरे चुप कर मूई, सबको इतना डराती काहे को है। मेरा मतलब यह नहीं था कि सब कुछ तुरंत ही ख़त्म हो जाएगा। पहले तो ये बात गाँठ बाँध ले कि ये तन का धंधा कभी बंद नहीं होगा। यह तो जब-तक आदमी जात है, तब-तक चलेगा। क्योंकि इस तन को दोनों तरह का खाना चाहिए। ठंडा गोश्त भी और गरम गोश्त भी। इनमें से एक भी बंद नहीं होगा, क्योंकि इनके बिना आदमी ज़िंदा ही नहीं रह सकता। इसलिए वह इन दोनों ही तरह के गोश्त का इंतज़ाम कर ही लेता है। बाक़ी कोई और काम करे या ना करे। और कुछ छूटता है तो भले ही छूट जाए। 

“देखती नहीं साले परिवार का खाना-पीना, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, सब-कुछ किनारे कर सारा पैसा बटोर के चले आते हैं गर्म गोश्त खाने। तू ही बता, क्या तेरे पास अक़्सर ऐसे कस्टमर नहीं आए होंगे, जिनकी हालत देखकर तुझे उन पर पर शक हुआ होगा कि पता नहीं तेरा पूरा पैसा दे भी पाएगा कि नहीं।”

यह कहती हुई हँसली ने फिर चाय का एक लम्बा घूँट सुर्र की ज़ोरदार आवाज़ के साथ सुड़का। उसे ध्यान से सुन रही ज़किया ने कहा, “हाँ यह तो है। लेकिन अपनी जान से सब डरते हैं। इस बीमारी की तो बात ही कुछ और है। इतना ख़ौफ़ इस दुनिया में कभी ना रहा होगा, जितना आज है। ना कोई फ़ौज, न फाटा। मगर कोई दरवाज़ा तक नहीं खोल रहा, पेपर, दूध तक नहीं बिक रहा है। डर के मारे बड़े-बड़े मांस-मछली खाने वाले घास-फूस साग खाने लगे हैं। दस रुपए किलो चिकन सुना है कभी। इस से पाँच गुना महँगा तो साग बिक रहा है।”

इतना सुनते ही हँसली बोली, “आय, हाय हाय हाय हाय, क्या ज़ुबान है रे तेरी। बस बीस-बाइस साल की उम्र में इतना सब-कुछ जान गई। दिन भर मोबाइल में घुसी जाने क्या-क्या देखती रहती है। सब की नानी बन गई है।” 

हँसली ने ज़किया की बातें सुनकर यह कहा ही था कि तभी सदफ़िया ने कोई लंबी सी बात अपने पोपले मुँह से कह डाली। जिसे सब ने समझा लेकिन हँसली को फिर कुछ समझ में नहीं आया तो झल्लाती हुई ताली ठोंक कर बोली, “अरे बुढ़िया तू दाँत लगवाएगी नहीं, बोल तेरे साफ़ फूटेंगे नहीं, बात मेरे समझ में आएगी नहीं तो मैं तेरी बात का जवाब क्या दूँ। समझ में नहीं आ रहा है कि गाली दे रही है या कुछ और कह रही है।”

तभी ज़किया खिलखिला कर हँसती हुई बोली, “मुक़द्दर को कोस रही हैं। गालियाँ दे रही हैं बीमारियों को कि बार-बार आकर जीवन बर्बाद किये रहती हैं। नसीब को अँधेरे में धकेल देती हैं। जब यह अठारह की थीं, तब भी आई थी ऐसी ही एक बीमारी। उस बीमारी में भी बहुत सारे लोग मारे गए थे। जब से कोरोना चालू हुआ है तब से जब भी बोलेंगी, अपनी जवानी का कोई न कोई अफ़सान बताने लगेंगी। ना जाने कौन-कौन सा अफ़साना बताती हैं। आधा समझ में आता है, आधा लॉक-डाउन की तरह पहेली बन जाता है। बूझते रहो, समझते रहो पहेली।”

हँसली ने ज़किया की बात सुनने के बाद रफ़िया की तरफ़ देखते हुए पूछा, “ए कोई मसालेदार अफ़साना बताती है क्या। बताओ ना, थोड़ा टाइम ही कटे। वैसे भी अब गला साफ़ हो गया है। कान भी भन-भना क्या रहा है धुँआ निकल रहा है उसमें से। इसने चाय में इतनी काली मिर्च, अदरक, लौंग और न जाने क्या-क्या डाला है कि भले धुँआ निकल रहा हो लेकिन मज़ा भी ख़ूब आ रहा है।”