साँसत में काँटे - भाग 2 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साँसत में काँटे - भाग 2

भाग -2

इसके बाद तो आतंकवादियों को जैसे और छूट दे दी गई। वहाँ भूले से भी तिरंगा दिखना न सिर्फ़ बंद हो गया, बल्कि जलाया भी जाने लगा। लेकिन उसके बाद समय ने करवट ली, कांग्रेसी सत्ता से बेदख़ल कर दिए गए, जिस नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने उन्नीस सौ बानवे में आतंकवादियों की लाख धमकियों के बाद भी अभिशप्त लाल-चौक पर तिरंगा लहराया था, उसी ने देश की कमान सँभाल ली और देश के माथे पर लगा कलंक, अभिशप्त धारा ३७०, ३५ए जैसी धाराओं को समाप्त कर दिया। 

जिनके कारण जम्मू-कश्मीर देश के अंदर ही एक अलग क्रूर जेहादी राष्ट्र की तरह व्यवहार करता था, सनातनियों का नर-संहार करता था। उन्हें वहाँ से भगाने के लिए नारे लगाते थे, “असि गछि पाकिस्तान बटवरोअस्त बटनेव सान।” यानी कि हमें पाकिस्तान चाहिए पंडितों के बग़ैर पर उनकी औरतों के साथ। मस्ज़िदों से लाउड-स्पीकर पर चिल्लाते थे, पंडितों यहाँ से भाग जाओ पर अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ। 

‘यहाँ क्या चलेगा? निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा।’ रालिब ग़ालिब या चालिब अर्थात्‌ हमारे साथ मिल जाओ यानी इनके जैसे नर-पिशाच दहशतगर्द बन जाओ नहीं तो मरो या भागो। और आख़िर पूरे षड्यंत्र के साथ उन्नीस सौ नब्बे के क़रीब सनातनियों का सामूहिक नरसंहार शुरू कर दिया, घाटी सनातनियों की शवों से पट गई, वो पलायन कर गए, घाटी सनातनियों से रिक्त हो गई। 

तीन दशक पहले कांग्रेस द्वारा पुष्पित-पल्लवित इस तथा-कथित जेहादी राष्ट्र में आतंकवादियों पर नए शासक ने इतने व्यापक हमले किए कि उनकी कमर टूट गई है। 

जब-तक उनकी कमर नहीं टूटी थी तब-तक आतंकवादियों का ख़ौफ़ हर तरफ़ था, हर रोज़ उनकी और सेना की गोलियों, बमों के धमाकों से जम्मू-कश्मीर की वादियाँ दहलती रहती थीं, केसर नहीं बारूद की गंध फ़ज़ाओं में बनी रहती थी, और बारूद की इस गंध के बीच ही उसके अब्बाजान चाहते थे कि उनकी आठवीं संतान किसी तरह पढ़-लिख कर नौकरी करे, और आतंकियों की इस बस्ती से दूर किसी और राज्य में चला जाए। 

वह यह देख सुन कर थर-थर काँपने लगते थे कि आतंकवादी छुपने के लिए लोगों के घरों में ज़बरदस्ती घुस जाते हैं, उनसे ज़बरदस्ती खाना बनवाते, खाते हैं और उन्हीं के यहाँ रात बिताते हैं, उनके घर की महिलाओं के साथ बलात्कार करते हैं, ज़बरदस्ती उनको अपने साथ सुला लेते हैं, विरोध करने पर परिवार को मार देते हैं। 

इन परिवारों पर दोहरी मार पड़ रही थी, एक तरफ़ आतंकवादियों की और दूसरी तरफ़ सेना की। पुलिस तो ख़ैर उनकी मित्र थी। सेना को जब पता चलता कि आतंकवादी वहाँ पहुँचे हैं, तो वह भी छानबीन करने पहुँच जाती थी, आतंकवादियों को शरण देने, उनका सहयोग करने के अपराधी पाए जाने पर गिरफ़्तार कर लेती, मुक़द्दमा चलता, सजा होती। 

उसके अब्बा बच्चों को निकलने नहीं देते थे, पूरा परिवार ही हमेशा लुका-छिपा रहता था। संयोग से बड़ी जल्दी-जल्दी उन्होंने तीन लड़कियों का निकाह कर दिया। वह तीनों अपने-अपने शौहर के साथ दिल्ली में जा बसीं, उनके शौहर वहीं कुछ काम-धंधा करते थे। 

बाक़ी बची तीन बहनों के लिए भी वह लड़कों की तलाश में थे। उसके दो भाई अब्बू के साथ काम-धंधे से जुड़ चुके थे। सबसे छोटा भाई पढ़ने में बहुत तेज़ था। इसीलिए उसका और उसके अब्बू का भी ख़्वाब था कि वह पढ़-लिख कर एक डॉक्टर बने। भाई जहाँ ज़्यादातर समय पढ़ने-लिखने में जुटा रहता वहीं, अब्बू ज़्यादा से ज़्यादा कमाई करके पैसा इकट्ठा करने में। पैसे सही रास्ते से आएँ या ग़लत इससे उन्हें कोई लेना-देना नहीं था। जैसे भी हो, पैसा आना चाहिए बस। 

उनकी कमाई किसी की निगाह में न आए, ख़ास-तौर से आतंकवादियों के, इसलिए वह और घर के बाक़ी सदस्य हमेशा ही फटेहाल बने रहते थे। बदली परिस्थितियों में अब उनका एक-एक दिन दहशत में बीतता था। 

आख़िर जब पेड़ बबूल के बोए थे तो काँटे की जगह फूल कहाँ से आते। उसका छोटा भाई जो डील-डौल से बहुत लंबा-चौड़ा हो गया था, हमेशा पढ़ाई में लगा रहता था, पता नहीं कब आतंकवादियों की नज़रों में चढ़ गया। 

वह भी जाड़े की एक रात थी। देश हफ़्ते-भर बाद ही गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारी में जुटा हुआ था, और आतंकी धमाका करने की तैयारी में। उसके परिवार को भी कोई भी राष्ट्रीय-पर्व मनाने से घृणा थी। 

परिवार खा-पीकर रजाई में दुबका हुआ था। मगर उसका छोटा भाई हमज़ा अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई की तैयारी में लगा हुआ था। अब्बू अम्मी अगली बहन के निकाह को लेकर, उसकी तैयारी के लिए सलाह-मशविरा कर रहे थे। जल्दी ही हमज़ा को छोड़कर सब सो गए, वह पढ़ता रहा। 

क़रीब एक बजे होंगे कि दरवाज़े पर रहस्यमयी अंदाज़ में दस्तक हुई। इतनी भयानक ठंड में आधी रात को दस्तक ने पूरे परिवार की धमनियों में ख़ून जमा दिया। दस्तक बराबर होती जा रही थी। उसके अब्बू ने सबसे पहले लड़कियों, बेगम और हमज़ा को घर के भीतरी कोने में छुपाया। अकेले ही दरवाज़ा खोलने जाने लगे, मगर बड़ा बेटा एक हाथ में तमंचा, दूसरे में छूरा लेकर उनके साथ हो लिया। 

लेकिन दरवाज़ा खुलते ही उस पर इतना तेज़ दबाव पड़ा कि वह दोनों पीछे गिरते-गिरते बचे, जब-तक सँभले तब-तक सामने चार आतंकवादी एके-47 राइफ़ल ताने सिर पर सवार दिखे। एक ने तुरंत दरवाज़ा बंद कर दिया और एक दबी ज़बान में बोला, “हम अल्लाह के बंदे हैं, हमारी बात मना की तो जहन्नुम में पहुँचा देंगे।” 

इसके साथ ही तुरंत पूरे घर की तलाशी लेकर, परिवार के सारे सदस्यों को एक ही कमरे में इकट्ठा किया। दहशत के मारे परिवार के किसी भी सदस्य के मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी। उसकी अम्मी बेहोश हो गई थीं। तो एक दहशतगर्द बोला, “ये कहे दे रहा हूँ कि किसी तरह का लफड़ा बर्दाश्त नहीं करेंगे।”

उसने घर भर के सारे मोबाइल लेकर उनके स्विच ऑफ़ करके अपने पास रख लिए। घर के मुख्य कमरे में चारों जम गए। इस बीच उसकी अम्मी के मुँह पर पानी की छींटें मार कर उन्हें होश में लाया गया। 

इसी समय उन सबके हुकुम के चलते उनके लिए एक बहन ने चाय बनाई। जिसे लेकर बड़ा भाई उनके पास पहुँचा। चाय पीते हुए उन्होंने तुरंत रोटी और मटन बनाने का हुकुम दिया। 

उसके अब्बू ने अल्लाह का वास्ता देते हुए कहा, “इस समय गोश्त तो नहीं है, कुछ सब्ज़ी और दाल है, वह बन जाएगी।” उनकी बात पूरी होने से पहले ही उनमें से एक ने राइफ़ल तानते हुए कहा, “हमें मटन रोटी चावल ही चाहिए, चाहे जैसे भी, नहीं तो मरने के लिए तैयार हो, हम मज़हब के लिए काफ़िरों से लड़ रहे हैं, हमें यह अख़्तियार है कि हम तुमसे कुछ भी करने के लिए कह सकें, और उसे हर हाल में करना तुम्हारा फ़र्ज़ है। वह तुम करो। अगर तुम सब ने बात नहीं मानी तो यह अल्लाह के काम में रुकावट डालना है, कुफ़्र है, और फिर हमें या अख़्तियार होगा कि हम तुम सब को मार दें।” 

यह सुनते ही परिवार की जान हलक़ में आ लगी। उसके अब्बा ने कहा, “अल्लाह के वास्ते थोड़ा वक़्त दो, बाहर जाकर कुछ इंतज़ाम करता हूँ।”

लेकिन वह सब किसी को भी बाहर जाने देने के लिए तैयार नहीं थे। अंततः घर में कुछ मुर्गियाँ थीं, उन्हें ही बना कर उन्हें चिकन रोटी चावल खिलाया गया। इस दौरान वह तीनों भाइयों को मज़हब के रास्ते पर चलने, मज़हब की हिफ़ाज़त के लिए हथियार उठा कर, अपने संगठन में शामिल होने के लिए समझाते रहे। उन्हें अल्लाह का ख़ौफ़ दिखाते रहे।