बुढ़ापे से जवानी की ओर - 4 (सच्ची घटना)
आर० के० लाल
रुक्मणी के साथ भी वैसा ही हुआ जैसा अक्सर अन्य लोगों के साथ होता है। रुक्मणी केंद्रीय विद्यालय में प्रधानाचार्य के पद पर कार्यरत थी और दो साल पहले सेवा-निवृत हुई थी। इन दो वर्षों में ही वे बहुत उम्र वाली लगने लगी थी । सेवाकाल की एक्टिवनेस, चुस्त-दुरुस्त स्टाइलिश साड़ी ड्रेपिंग सहित लुभावना मेक-अप न जाने कहाँ विलुप्त हो चुका था। पड़ोसी भी कहते क्या ये वही प्रिंसिपल साहिबा हैं जिनका कभी रुतबा हुआ करता था । बड़ी इज्जत थी उनकी । उनकी बात काटने की किसी में भी हिम्मत नहीं होती थी। शहर के नेता, अफसर और बड़े-बड़े गणमान्य अपने बच्चों का एडमिशन कराने के लिये उनकी मिन्नते करते थे । रुक्मणी ने अपने विध्यालय की रेटिंग इतनी उच्च जो कर रखी थी । उनके पति भी सचिवालय में एक उच्च अधिकारी थे। गाड़ी , नौकर, पैसा, इज्जत सब था मगर दोनों के रिटायर होते ही उन्हें लगने लगा कि जैसे अचानक उनका सब कुछ छिन गया । बच्चों में से कोई उनके साथ नहीं था सब बाहर चले गये थे । बच्चे उन्हें बुलाते पर रुक्मणी कभी नहीं जा पाती थी और कहती कि इतना बड़ा मकान उनके जी का जंजाल बन गया है , न छोड़ते बनता है और न रहते। अक्सर वे कहती, “जिंदगी हमेशा हमें धोखे में रखती है कुछ भी स्थायी नहीं रखती । देकर भी कब छीन ले कहा नहीं जा सकता । शायद इसी गम में रुक्मणी निराश, बीमार और कटे पेड़ की तरह डंप हो गई थी।
दोनों पति-पत्नी का स्वास्थ्य पहले जैसे नहीं रह गया था । उन्हें अब अक्सर क्लिनिक का चक्कर लगाना पड़ रहा था वह भी अकेले । रुक्मणी बहुत दुखी रहती थी क्योंकि शहर में सभी लोग अपने से मतलब रखते थे । एक दिन रुक्मणी ने अपने पड़ोसी से चर्चा की तो उन्होँने समझाया, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप अपने आस-पास के लोगों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, वे अपनी ज़रूरतों और मूड के अनुसार आपको पसंद करेंगे” ।उनकी पड़ोसी बोली कि चार दिन गायब होकर देख लीजिए लोग आपका नाम भूल जाएंगे । उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता जैसे नौकरी के दिनों जो आपके सच्चे दोस्त लगते थे नौकरी छोड़ते ही वे नकारा लगते हैं ।
एक दिन रुक्मणी के पति के गांव से उनका भतीजा आया और इन लोगों को गांव में सेटल होकर कुछ नया करते रहने की सलाह दी जहाँ उनका मकान और खेती अभी भी थी, मगर रुक्मणी जाने को तैयार नहीं हो रही थी। वे कह रही थी कि वहां तो एक डॉक्टर भी नहीं मिलेगा अगर कुछ हो गया तो क्या होगा? पता है गांव में रहना कितना कठिन होता है। अब इस उम्र में कुछ क्या करना? जीने के लिये पेंशन काफी है । कोई नया जीने का तरीका अपनाना कहाँ की अक्लमन्दी होगी ।
गांव से आये उस व्यक्ति ने रुक्मणी को कहानी सुनाई, “एक व्यक्ति अपने बेटे को कार चलाना सिखाते समय कह रहा था कि सड़क पर अगर बच्चे आ जाए तो गाड़ी उनके पीछे से निकालना परंतु कोई बुजुर्ग आ जाए तो उनके आगे से, क्योंकि युवा आगे की ओर बढ़ते हैं जबकि बुजुर्ग पीछे की तरफ भागते हैं । शायद इसी कारण से बुजुर्ग दुखी रहते हैं । उन्हें चाहिए कि पुरानी यादों को छोड़ कर नये तरीके से आगे बढ़े । जी हाँ, गांव चलिये , फिर जितना चाहे अपनी पसंद का काम कीजिये, खूब बागवानी कीजिये। अपना ही काम जारी रखिये और लोगों को शिक्षित कीजिये । आपके पास सभी बातों के लिए समय ही समय होगा। उनके पति ने भी उन्हें समझाया कि वे कुछ न कुछ व्यवस्था कर लेंगे , गांव में पुराने संगी-साथी तो हैं ही। रुक्मणी मान गई और गांव चली गई।
रुक्मणी के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी इसलिए गांव में उन्होंने सारी व्यवस्था आसानी से कर लिया । कुछ दिनों में रुक्मणी को वहां रहने की आदत हो गई । शांत वातावरण में उन्होंने अपना समय पूजा-पाठ में लगना शुरू कर दिया और सारे काम अपने आप करने लगी । गांव की स्वच्छ हवा, शुद्ध भोजन एवम अपनी फुलवारी में ही पैदा हुई बिना केमिकल की सब्जी से उनका स्वास्थ्य सुधारने लगा । उनके जाम हो गये घुटने अब काम करने लगे थे । रोज सुबह पास के मंदिर तक टहलने जाती ।
एक दिन उनके पति ने कहा कि चलो अब शहर चलते हैं तो रुक्मणी ने साफ मना कर दिया कि मुझे शहर नहीं जाना है अब तो मुझे दवा की भी आवश्यकता नहीं है खाना भी शुद्ध मिल रहा है । वहां तो अकेले रहना है यहां बहुत सहेलियां बन गई है । अब तो मैं उर्जावान मह्सूस करने लगी हूँ इसलिये मैं बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल भी चलाने की सोच रही हूं ।
रुक्मणी फिर से अपने स्कूल में ही प्रिंसिपल बन गयी थी । अब वे कहती हैं कि लोग रिटायर होते ही स्वयं अपनी वोल्टेज घटा लेते हैं जिससे उनके जीवन की रोशनी घट जाती है । फिर ऐसे बल्ब को तो सभी बदल देना ही चाहेंगे इसलिये आगे की तरफ ही बढो।
अब तो रुक्मणी के चेहरे पर बुढ़ापा न जाने कहाँ गायब हो गया था ।
-------