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दारुण के जंगल

दारुण के जंगल, बहुत ही घने, गहरे, देवधर के वृक्ष से सजे रहते है। साल के किसी भी मौसम का उनपर कोई असर नहीं होता है। बारिश में भीग कर भी सधे रहते, कोहरे, बर्फबारी के थपेड़े भी सहते रहते परंतु आह भी न करते। हिरण, बारासिंगा, नीलगाय, पहाड़ीतहर, सियार, खरगोश न जाने कितने पशुओं के यह संरक्षक है। भांति-भांति की वनस्पति, जड़ी-बूटी, फल-फूल, पत्ते-बूटे से सुसज्जित दारुण के जंगल मानो प्रकृति के फेपड़े है। मानव हो या पशु-पक्षी सब इनके कृतज्ञ है।

जंगल के अधोभाग में कुछ आदिवासी जन-जातियां रहती है और जंगल से सटे गांव-बस्तियां भी इन्हीं जंगलों पर निर्भर है अपनी दैनिक जरूरतों के लिए।

गांव के बरगद से बूढ़े दादा के मुंह से अक्सर जंगल की डरावनी कहानियां सुनी है। लोगों का मानना है कि हर मास की पूर्णमासी और अमावस्या को जंगल से अजीबो-गरीब आवाजे आती हैं। कुछ लोगों ने जंगल से अद्भुत प्रकाश, आकाश की ओर जाता देखा है और कुछ लोगों ने तो परछाइयों को भी नाचते देखा है। पंरतु वे लोग कौन हैं? और क्या करते है? यह जानने की हिम्मत किसी ने नहीं करी।

न जाने क्यों, इस बार मेरा जिज्ञासु मन मुझसे कह रहा है कि मुझे इस जंगल में जाना चाहिए और सच्चाई का पता लगाना चाहिए। तो बस! इस अमावस्या मैं निकल पड़ी जंगल की ओर। शुरुआत में तो जंगल, बहुत खुबसूरत लगा पंरतु धीरे धीरे सांझ गहराने लगी और भयानक आवाजे मुझे डराने लगी। साहस जोड़, मैं कदम से कदम मिला आगे बढ़ने लगी और जंगल के बीचों-बीच पहुंच गई। झट से पेड़ पर मैंने अपने लिए एक मचान बांध ली। जंगली जानवर मुझ तक पहुंचे उससे पहले मैंने पेड़ पर चढ़ कर रात बिताने की तैयारी कर ली। अब तक मुझे ऐसा कुछ नहीं दिखाई दिया जिसके बारे में लोग बोल रहे थे या डर रहे थे। इसी तरह कुछ घंटे बीत गए और मेरी आंख लग गई।

अचानक पत्तों की सरसराहट होने से मेरी आंख खुल गई और मैंने देखा की सामने नीचे एक विचित्र प्राणी खड़ा है। त्रिकोणा चेहरा, बटन सी आंखे, लंबे पतले टहनियों से हाथ जिनमें उंगलियों के स्थान पर सफ़ेद मोती लगे हुए है। शरीर छोटा चौकोर सा और पैर लंबी दो लकड़ियों-से लग रहे है। वह अचानक ऊपर आसमान की ओर देख अपने हाथों को ऊपर कर, उंगलियों से अद्भुत प्रकाश निकालने लगा तथा विभिन्न आवाजे निकालने लगा। करीब दो घंटे तक वह इस तरह पेड़ों के चक्कर काटता रहा। पंरतु मुझे उससे डर नहीं लगा अपितु सहानुभूति की भावना उत्पन्न हुई। तभी अचानक मेरा मोबाइल फोन बज पड़ा और उसकी आवाज़ सुनते ही वह अद्भुत जीव आनन-फानन में यहां-वहां भागने लगा और मेरी नजरों से ओझल हो गया। मैं भी सुबह होते ही घर को लौट आई।

मैं अभी भी इस कश्मकश में हुं कि मैंने उस रात हकीकत में ऐसा कोई अद्भुत प्राणी देखा था या यह मेरा नींद में देखा गया सपना था। मैं आज भी घंटो यहीं सोचती रहती हूं की वह कोई आत्मा थी या की कोई एलियन? पर जैसे भी है, बहुत खुबसूरत है यह दारुण के जंगल।

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