बहुत समय पहले की बात है,मेरे दादाजी के एक दोस्त थे जिनका नाम अच्छेलाल था,वें दादाजी के बहुत करीबी थी,इसलिए उनके स्वर्ग सिधारने पर दादाजी बहुत दुखी थे,मैनें उनसे उनके उदास होने का कारण पूछा तो तब उन्होंने मुझे अच्छेलाल जी की कहानी सुनाई थीं.....
वें उस जमाने के मैट्रिक पास थे,उन्होंने बाइस साल की उम्र से साठ साल तक की उम्र केवल चिट्ठियांँ बाँटने में ही गुजार दी थी,उन्हें अपने इस काम से बहुत संतुष्टि थी इसलिए उन्होंने हमेशा अपना पदोन्नति पत्र खारिच करवा दिया,तब ना ही कबूतर के गले में संदेश बाँधे जाते थे और ना ही टेलीफोन का इतना विस्तृत प्रकार से आगमन हुआ था, अपनो का हाल जानने के लिए लोगों के पास एकमात्र सहारा चिठ्ठियाँ ही होतीं थीं,उस जमाने में चिट्ठियांँ कागज का सिर्फ एक टुकड़ा नहीं होती थीं बल्कि एक पूरी संस्कृति होतीं थीं,लोगों की आशाएंँ और निराशाएँ उन चिट्ठियों से जुड़ी होतीं थीं,इसलिए आज का टेलीफोन और मोबाइल तमाम अच्छाईयों के बावजूद भी एक संस्कृति को नष्ट कर देने के इल्जाम से बच नहीं सकता.....
अच्छेलाल जी कहानी भी बड़ी अजीब थी,उस जमाने में बाल्यकाल में ब्याह हो जाते थे और गौना मतलब विदाई लड़का-लड़की के व्यस्क होने पर ही हुआ करता था,तो अच्छेलाल जी के संग भी यही हुआ,लड़की पड़ोस के गाँव की ही थी,तो जब भी अच्छे लाल जी अपनी साइकिल पर सवार होकर उस गाँव की ओर चिट्ठियांँ बाँटने जाते तो अपनी जीवनसंगिनी को भी छुप छुपकर देख लिया करते,वो अच्छे लाल जी को पहचानती नहीं थी लेकिन अच्छे लाल जी उसे पहचानते थे,मजे की बात ये थी कि जब अच्छे लाल जी का उस गाँव जाना होता था तो वें डाकिए की खाकी वर्दी में वहाँ नहीं जाते थे,ऊपर से मुँह पर गमछा लपेट लेते थे ताकि उन्हें कोई पहचान ना पाए और उस गाँव में उनकी दूर की कोई बुआ रहती थी,जिसके घर पर वें अपनी पत्नी के लिए पत्र छोड़कर आते थे,उनकी पत्नी को पढ़ना लिखना नहीं आता था तो वों बुआ के लड़के से ही चिट्ठी पढ़वाकर और लिखवा कर अच्छे लाल जी के लिए उन्हीं के घर छोड़ आती थी,पहले का जमाना ऐसा था कि ब्याह होने के बावजूद भी पति पत्नी मिल नहीं सकते थे,जब तक कि गौना ना हो जाएं,अच्छेलाल जी की पत्नी थी भी बहुत सुन्दर इसलिए उस उम्र में अच्छे लाल जी अपना सर्वस्व अपनी पत्नी को सौंप चुके थे,वें चिट्ठियों में अपनी विरह वेदना लिख कर उन्हें पहुँचा देते थे,जिस वेदना को चन्दा दूसरे के मुँह से सुनकर शर्म से लाल हो जाती थी...
उनकी पत्नी ने उन्हें कभी नहीं देखा था लेकिन वें भी उन्हें ही अपना सर्वस्व मान बैठीं थीं,ऐसे ही दिन गुजरे अब चन्दा अठारह की हो चली थी और अच्छे लाल जी चौबीस के,तब तय हुआ कि अब दोनों का गौना हो जाना चाहिए,दोनों बहुत खुश थे क्योंकि दोनों के गौने की घड़ियाँ नजदीक आ गई थीं,तब तक दोनों के पास एक दूसरे की बहुत सी चिट्ठियाँ इकट्ठी हो गईं थीं लेकिन होनी को तो कुछ और ही मंजूर था गौने के दो दिन पहले ही उनकी पत्नी चन्दा को एक विषैले साँप ने डस लिया और वें स्वर्गसिधार गईं,ये अच्छे लाल जी की जिन्दगी का सबसे बुरा समय था,इसके बाद अच्छे लाल जी की जिन्दगी बिलकुल से डावाडोल हो गई,वें बेहाल से रहने लगे,लेकिन उन्होंने दूसरा ब्याह नहीं रचाया,बेटे के शोक में बूढ़ा पिता भी चल बसा,माँ तो उनके बचपन में ही गुजर गई थी और फिर उन्होंने अपना तबादला कहीं और करवा लिया,फिर वें वहीं के होकर रह गए,मतलब मेरे दादाजी के गाँव में,इसके बाद अच्छे लाल जी ने चिट्ठियों का साथ नहीं छोड़ा और ना ही उस गाँव का और ना ही दूसरा ब्याह किया और ना ही दूसरी साइकिल खरीदी,उनकी जिन्दगी की जमापूँजी उनकी मृत पत्नी की चिट्ठियांँ और वो साइकिल थी,
अच्छेलाल जी पूरे गाँव के एक ही इन्सान थे जो लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट लाते थे,कितने लोगों के पंजाब-दिल्ली से आएं मनीआर्डर पाकर उनकी मेहरारू खुश हो जातीं थीं,तो किसी मनीआर्डर से उन लड़को के बूढ़े माँ बाप की आँखों से खुशी के आँसू ढ़ुलक जाते,तो कोई नवविवाहिता घूँघट से पूछती कि हमार चिट्ठी आई का,जब उसके हाथों में परदेश से आई उसके पति की चिट्ठी पहुँचती तो उसकी आँखों से खुशी के आँसू बह चलते और उन घूँघट वालियों को देखकर अच्छे लाल जी सोचते कि हमार चन्दा भी हमारी चिट्ठी पाके ऐसी ही खुश होती रही होगी, किसी की बेटी की चिट्ठी होती कि ससुराल वाले उसे दहेज के लिए तंग करते हैं तब अच्छे लाल जी से ही उस लड़की के ससुराल वालों को चिट्ठी लिखने को कहा जाता तब अच्छेलाल जी एक अन्तर्देशीय पत्र में लड़की के ससुराल वालों को खूब खरी खोटी सुनाते जैसे कि अपनी ही बेटी ससुराल में परेशान हो,वें लोगों की शादियों का कार्ड भी बाँट आते थे,शादियों में पूरा भंडार वही सम्भालते,गांँव के कई नए युग के छोरों की बिना टिकट लगी बैरंग प्रेम-पत्री उनकी प्राणप्यारियों तक पहुँचाते,सीधे-सादे गांँव के लोग प्रेम के प्रदर्शन में भले कुछ अधूरे हों लेकिन प्रेम में पूरे थे और वें इन सबके साक्षी थे ,
अच्छे लाल जी पोस्टऑफिस में ही रहा करते थे,अकेले का ही तो पेट पालना था इसलिए कोई तामझाम नहीं रखते ,उनके पास,एक चारपाई, एक दरी,सर्दियों के लिए एक रजाई,एक बाल्टी, एक लोटा,एक थाली,एक बटलोई, एक स्टोव, एक ढिबरी, दो जोड़ी धोती-कुर्ता, उनकी पत्नी चन्दा की चिट्ठियाँ और साइकिल बस इतनी ही सम्पत्ति थी ,सरकार जो तनख्वाह देती थी वो पर्याप्त थी उनके लिए,उन्होंने कभी पैसा जमा करने की कोशिश नहीं की, उल्टे जिस महीने किसी का मनीआर्डर आने में देरी हो जाती तो कुछ पैसे अपने जेब से निकाल कर दे उन्हें दिया करते,वें लोगों से अक्सर कहा करते थे कि,
"डाकिए की संपत्ति तो वो आंँखें हैं जो मेरे आने की बाट जोहती हैं और मेहनताना वो दो बूंँदें हैं जो मुझे देखकर उन आंँखों से टपक पड़ती हैं" वें अपने नाम के अनुरूप ही थे....
अच्छे लाल जी आजीवन अपनी पत्नी की विरहाग्नि में जलते रहे,दशकों बीत चुके थे उनकी पत्नी को लेकिन अच्छे लाल जी कभी उन्हें भुला नहीं पाएं, साल भर में एक-आध बार चन्दा की चिट्ठियां निकालकर जरूर पढ़ते, इतने सालों बाद भी उनमें वही खुशबू विद्यमान थी , जब भी वें चिट्ठियों को खोलते तो यकायक साठ की उम्र से सीधा अपनी तरुणाई में पहुंँच जाते, ढिबरी की मद्धिम रोशनी में एक चलचित्र सा चलने लगता था उनके मन में कि वें कैसे शर्म के मारे झाड़ियों में छिपकर अपनी चन्दा को घास काटते देखते थे... कैसे सड़क पर जाती हुई पत्नी के बगल से साइकिल तेजी से निकाल कर बिना पीछे मुड़े बढ़ जाया करते थे... वो सभी दृश्य उनकी आंँखों के आगे एकदम जीवन्त हो उठते थे,कई बार वें यह भी सोचा करते थे कि, "मैंने तो उसे देखा था पर क्या होता जो उसने भी मुझे देखा होता,कहीं अपना चेहरा ना दिखाकर मैंने कोई गलती तो नहीं कर दी, वो तो बेचारी यह देखे बिना ही मर गई कि जिससे वह प्रेम करती है वह कैसा दिखता है, निःस्वार्थ प्रेम करती रही होगी शायद, उसका प्रेम निश्चय ही मेरे प्रेम से कहीं ज्यादा गहरा था,"
फिर थोड़ी देर कश्मकश़ में रहने के बाद खुद को सम्भालते हुए कहते...
"नहीं!अच्छा ही हुआ जो उसने मुझे नहीं देखा,नहीं तो मृत्यु उसके लिए बहुत ज्यादा कष्टदायक होती, उसकी टूटती सांसें मेरा नाम ही पुकारतीं, मरकर भी शायद शांति ना मिल पाती उसे"
उन दोनों का रिश्ता शारीरिक सीमाओं से परे था,वो रिश्ता रूहानी था,जिस प्रेम के लिए वें आजीवन तड़पते रहे इसलिए उन्होंने हमेशा कोशिश की कि दूसरों को ये दर्द ना झेलना पड़े,क्योंकि उन्हें लगता था कि उनकी पत्नी की आत्मा को इसी से शांति मिलेगी,जिससे वो हमेंशा डरा करते थे वो था उनका रिटायरमेंट,वें सोचा करते थे कि कैसे रहेंगे चिट्ठियों के बिना, चिट्ठियांँ अब उनके जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं, उन्होंने जो जिन्दगी नहीं जिई वह पोस्टकार्ड की ही भांति सीमित रही और जो जिन्दगी उन्हें जीनी पड़ी वह अंतर्देशीय पत्र की तरह विस्तारित रही,चिट्ठियांँ ही तो उनके जीवन की कहानी थीं, वह उनसे अलग हो ही नही सकते थे,इसलिए रिटायरमेंट से एक रात पहले ही उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया,उनकी सम्पत्ति... उनकी वो चिट्ठियांँ थी... जिनमें उनकी प्रियतमा थीं... उनके साथ ही उनकी चिता में जला दी गई क्योंकि उन्होंने ऐसा कहा था, चन्दा की चिट्ठियों में ही उनकी आत्मा बसती थी,जब उनकी देह ही ना रही तो फिर आत्मा को भी तो मुक्त करना आवश्यक था,इतना गहरा प्रेम शायद ही किसी ने किसी से किया होगा जितना कि अच्छे लाल जी ने चन्दा से किया था,जो सिलसिला चिट्ठी से शुरु हुआ था वो चिट्ठी पर ही खतम हो गया....
समाप्त....
सरोज वर्मा...