क्षमा करना वृंदा - 14 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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क्षमा करना वृंदा - 14

भाग -14

मेरी उस स्थिति को देखने वाला मुझे पागल ही कहता। मेरे दिमाग़ में लॉक-डाउन को लेकर ग़ुस्से का ज्वालामुखी फूटता था। मैं बार-बार वृंदा को फ़ोन करती। उससे कहती कि इस बंदी को लॉक-डाउन कहना पूरे देश को धोखा देना है। यह तो लोगों को सरकारी शक्ति, सख़्ती से हॉउस-अरेस्ट करना हुआ।

लॉक-डाउन में लोग क्या करें, क्या न करें, आप ऐसी एक गाइड-लाइन जारी कर दीजिए और लोगों के विवेक पर छोड़ दीजिए कि वो उसका पालन करें या न करें, या कितना करें।

मैं कहती हूँ कि सभी अपने आप बचने की पूरी कोशिश करेंगे। हाँ जो आत्म-हत्या करने पर ही तुला होगा वो ज़रूर लापरवाही करेगा . . . मैं धारा-प्रवाह न जाने क्या-क्या बोले चली जा रही थी, तो वृंदा ने मुझे समझाते हुए कहा, “फ़्रेशिया, फ़्रेशिया, ये क्या हो गया है तुम्हें, सम्भालो अपने आपको, ऐसे परेशान थोड़ी न हुआ जाता है।

“दुनिया में समय-समय पर महामारियाँ आती रहीं हैं। लोगों ने उनका बहादुरी से सामना किया और हर बार जीते भी। इस बार भी ऐसा ही होगा। गवर्नमेंट जो कुछ कर रही है, हम-सब के भले के लिए कर रही है। एक्सपर्ट्स की बड़ी-बड़ी टीमों से बात करके ही यह सब किया जाता है।

“इसलिए लॉक-डाउन को हॉउस अरेस्ट कहना स्वयं को और ज़्यादा तनाव में डालने के सिवाय और कुछ नहीं है। तुम्हें ऐसा कुछ सोचने की ज़रूरत ही नहीं है। तुम लियो अपना ध्यान रखो, सब ठीक हो जाएगा। किसी चीज़ की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मैं हर हाल में तुम्हारे साथ हूँ।”

वृंदा ने मुझे बहुत समझाया। सब-कुछ समझी भी। समझी क्या, जानती ही थी सब-कुछ। लेकिन लियो और लॉक-डाउन से मिली क़ैद, नौकरी को लेकर असुरक्षा की भावना ने मुझे इतना भ्रमित और चिड़चिड़ा बना दिया था कि मैं सही ग़लत का अंतर ही नहीं कर पा रही थी।

जैसे ही खाने-पीने की मनचाही चीज़ों को लेकर समस्या होती, लियो को उसके मन का कुछ न दे पाती, वैसे ही मेरी खीझ, मेरा ग़ुस्सा सारी सीमाएँ तोड़ देता।

मैं गवर्नमेंट को अपशब्द कहती हुई बड़बड़ाती, ‘कब-तक पाउडर दूध से काम चलाऊँ। सब्ज़ी के नाम पर वही आलू, प्याज़, छोला, राजमा, खाऊँ। वृंदा की बात न मानती तो यह सब-कुछ भी नहीं होता। ओह गॉड, ओह गॉड किस हाल में छोड़ दिया है हमें। यह क्या कर दिया है, किसी एक की ग़लती की सज़ा सबको क्यों? ‘इससे ज़्यादा डरावनी बात और क्या होगी कि संक्रमण का ख़तरा न्यूज़ पेपर तक से बना हुआ है। पढ़ने को तो सारे पेपर मोबाइल पर ही पढ़ या देख लूँ, लेकिन पेपर का मज़ा तो प्रिंट में ही है।’

एक महीना बीतते-बीतते मैं बहुत ही ज़्यादा ऊबने लगी। लियो के साथ कितना लगी रहती। फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम भी चला-चला कर थक जाती। लेकिन उस समय तो मेरी आत्मा ही काँप उठती जब लियो को दौरा पड़ता और मैं कुछ न कर पाती, उसके पास विवश बैठी रोती रहती।

एक-एक करके पहाड़ से क़रीब पचास दिन बीत गए। नौकरी, लियो की बिगड़ती हालत, न्यूज़ में दुनिया भर में कोविड से भयावह होती स्थिति को देखकर मुझे लगता कि कहीं मैं ख़ुद ही अवसाद की शिकार न हो जाऊँ।

अपनी जिस भी साथी को फ़ोन करती सब का हाल एक ही था, बस वृंदा को छोड़ कर। रोज़ ही उससे कई-कई बार बात होती, मगर वह हर बार मुझे हिम्मत बँधाती, प्रोत्साहित करती, यह कहना बिलकुल न भूलती कि “किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो निःसंकोच तुरंत बताओ। मेरे हस्बेंड सब मैनेज कर देंगे।”

हस्बेंड से भी बात कराती, वह भी उसी की तरह हर मदद को एक पैर से खड़े मिलते। एक साथी नर्स की तो उन्होंने अपनी, परिवार की ज़िन्दगी ख़तरे में डाल कर मदद की।

उस साथी का परिवार बड़ा था, खाने-पीने की चीज़ें ख़त्म हो गईं, तो वह पता नहीं कैसे पुलिस की अनुमति लेकर महीने भर का सामान पहुँचा आए।

मगर इस साथी के सामने बड़ी समस्या तो तब आई, जब दो दिन बाद ही उसकी माँ का देहांत हो गया। तब उन्होंने इस साथी की कैश की समस्या हल की और वह लॉक-डाउन की परवाह किए बिना पति बच्चों के साथ अपनी गाड़ी से मायके के लिए चल दी। लेकिन मेन-रोड पर पहुँचते ही पुलिस ने उसे रोक लिया। लॉक-डाउन तोड़ने के अपराध में चालान कर दिया।

उसने, उसके हस्बेंड ने बहुत रिक्वेस्ट की, पैसा भी देने की कोशिश की, वह बहुत रोई-धोई लेकिन पुलिस टस से मस नहीं हुई। बल्कि हमेशा के विपरीत उन्हें बड़े अपनत्व के साथ समझाया कि ‘देखिये जो नहीं रहे, उन्हें तो कोई नहीं ला सकता। लेकिन जो सुरक्षित हैं, उन्हें किसी भी हालत में मौत के मुँह में नहीं जाने दे सकते।

इस दुःख की घड़ी में हमारी पूरी सहानुभूति आपके साथ है, लेकिन आप-लोग बात को गंभीरता से समझिये, वहाँ जाकर आप लोग अपना, अपने बच्चों के साथ-साथ और बहुत से लोगों का भी जीवन ख़तरे में डालेंगे . . . ’

अंततः उसे बीच रास्ते से घर वापस आना पड़ा। माँ की अंतिम यात्रा को वीडियो कॉल पर ही देख कर संतोष करना पड़ा। ऐसी हालत में वह, उसकी बराबर हर तरह से मदद करते रहे।

उनकी बातों, कामों को देख कर मैंने अपने चिड़चिड़ेपन पर बहुत हद तक नियंत्रण पा लिया। मगर इन्हीं दिनों में मुझे एक और समस्या परेशान करने लगी। आतंकित भी। मेरे दाहिने स्तन के एक हिस्से में रह-रहकर तेज़ दर्द, हर दूसरे तीसरे दिन महसूस हो रहा था।

यह दर्द होता तो कुछ ही देर को था, लेकिन मैं बुरी आशंका से सिहर उठती। मैंने शीशे के सामने स्वयं ही जांचने, समझने की कोशिश की, कि स्तन के किसी हिस्से में कोई गाँठ वग़ैरह तो नहीं बन रही।

कभी मुझे निचले हिस्से में दो जगह लगता कि जैसे वह जगह कुछ सख़्त हो रही है। कभी लगता नहीं, ऐसा नहीं है। अपने इस भ्रम के चलते मैं खीझ उठती। मन ही मन कहती, कितना आसान होता है डॉक्टर्स का महिलाओं को यह सलाह देना कि अपने ब्रेस्ट को घर पर ही समय-समय पर चेक करती रहिए। कोई गाँठ महसूस हो तो तुरंत डॉक्टर से मिलिए। जब एक नर्स होकर मेरी समझ में नहीं आ रहा, तो बाक़ी कहा से समझ लेंगी।

इस उलझन, डर से जब मैं बहुत परेशान होने लगी तो सोचा कि वृंदा से बात करूँ, देखूँ वह क्या कहती है। वृंदा को फ़ोन किया, लेकिन एक अजीब से संकोच के चलते इधर-उधर की बातें करने लगी। मुद्दे की बात ज़ुबान पर आ-आ कर ठहर जाती। वृंदा ने एक बार पूछा भी कि “क्या बात है फ़्रेशिया? कुछ परेशान लग रही हो? लियो तो ठीक है न?”

यह सुनते ही मेरे चेहरे, आवाज़, दोनों पर उदासी ज़्यादा गहरी हो गई। मैंने कहा, “क्या बताऊँ, लियो की स्थिति बड़ी तेज़ी से बिगड़ती जा रही है। दवाओं से कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है। डॉक्टर से फ़ोन पर बात की, तो उन्होंने कहा फिर से चेकअप करने के बाद ही कुछ कह पाऊँगा।

“अब तुम्हीं बताओ, घर से निकल नहीं सकते, तो चेकअप कैसे कराऊँ। दूसरे उनके परिवार में सभी संक्रमित हो गए हैं। उनकी मदर डायलिसिस पर हैं। हॉस्पिटल जा नहीं सके तो किसी को घर पर ही बुला कर करवा रहे थे। उन्हीं में से किसी को था। तो पहले मदर, फिर पूरे परिवार को हो गया। पूरा घर क्वारेंटाइन है। मदर सीरियस हैं। उनकी पूरी कॉलोनी रेड ज़ोन में है।

“अंदर बाहर हर जगह स्थितियाँ ऐसी बनी हुई हैं, कि लगता है अगले कई महीनों तक मैं लियो का न चेकअप करवा पाऊँगी, न ही उसका ट्रीटमेंट हो पाएगा। क्या करूँ कुछ समझ नहीं पा रही हूँ।”

मैंने ऐसी ही और तमाम बातें कीं, लेकिन अपनी जिस समस्या पर डिस्कस करने के लिए फ़ोन किया था उस बारे में एक शब्द न बोल पाई। तभी वृंदा ने पूछा, “तुम्हारी कॉलोनी रेड, ऑरेंज, ग्रीन, किस ज़ोन में है?”

मैंने कहा, “न्यूज़ देख-देख कर जी घबराने लगता है, इसलिए मैंने ऐसी न्यूज़ कई दिन से देखनी बंद कर दी है। पता नहीं किस ज़ोन में है।”

वृंदा फिर समझाने लगी, “देखो फ़्रेशिया, ऐसे घबराने से काम नहीं चलेगा। जो भी प्रॉब्लम है उसे फ़ेस करने, सॉल्यूशन निकालने से काम चलेगा। इसलिए जानकारियाँ रखो, जिससे उसी हिसाब काम कर सको, सावधानियाँ बरत सको। मैं तुम्हें कॉल करने ही जा रही थी, अभी न्यूज़ में देखा, तुम्हारी कॉलोनी रेड ज़ोन में आ गई है।

आज वहाँ दो और लोग पॉज़िटिव पाए गए हैं। उन्हें मेडिकल स्टॉफ़ ने हॉस्पिटल में एडमिट करा दिया है। पूरी कॉलोनी सैनिटाइज़ की जाएगी। तुम भी अपना ध्यान रखना। परेशान होने की ज़रूरत बिलकुल नहीं है, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। बातें करती रहना, ठीक है।”

“ठीक है वृंदा, तुम्हारी बातों से बड़ा सपोर्ट मिलता है।”

मोबाइल रखते ही मैंने दो गिलास पानी पिया। रेड ज़ोन की बात सुनते ही मेरा जी घबराने लगा था। काफ़ी पसीना हो रहा था। मैंने टीवी पर न्यूज़ चैनल लगाने की बजाय म्यूज़िक चैनल ऑन कर दिया।

आवाज़ इतनी तेज़ कर दी कि पूरे घर में सुनाई दे। इसके बाद मैंने पूरे घर को सैनिटाइज़ किया। अपने और लियो के हाथ भी साबुन से ख़ूब देर-तक धोए। मैंने अपने भरसक लियो को ख़ूब समझाया था, ट्रेंड किया था कि वह हर घंटे के बाद स्वयं ही साबुन से हाथ धो लिया करे।

यह सब करते हुए मुझे यह नहीं मालूम था कि रेड ज़ोन घोषित होने के बाद की पहली रात हम-दोनों के लिए बहुत हाहाकारी रात होने जा रही है।