क्षमा करना वृंदा - 6 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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क्षमा करना वृंदा - 6

भाग -6

जब मैं पहुँची तो मुझे बता-बता कर हँसते-हँसते, लोट-पोट होंने लगी। कहा, “तुम्हारा बेटा बहुत स्मार्ट है। तुमने उसे उसकी एक्चुअल एज से तीन गुना ज़्यादा बड़ा कर दिया है।

“अब जल्दी से जल्दी इसकी शादी भी कर दो, नहीं तो ये ख़ुद ही कर लेगा। या कहीं मैं ही इस स्मार्ट बॉय को दिल न दे बैठूँ, और कर लूँ शादी। देखने में ज़रूर नन्हा-मुन्ना है, लेकिन वास्तव में स्मार्ट हस्बैंड बन जाएगा।”

उसकी बातें सुनकर मैं भी हँसी। लेकिन सच यह था कि भीतर-भीतर मेरा मन रो था। फिर भी ऊपरी मन से साथी से कहा, “ठीक है, मेरे बेटे से बनाओ मैरिज। बन जाओ मेरी बहू।”

हँसी-मज़ाक के बाद मैंने उसे बताया कि “इसे मेल-फ़ीमेल का अंतर बताया था। लेकिन मुझसे ग़लती यह हो गई कि इसे यह नहीं समझाया कि यह बात वह किसी और से नहीं करेगा।”

मैंने तृषा से सॉरी बोला, तो उसने कहा, “अरे इसमें सॉरी-वारी की कोई बात ही नहीं है। वह इतना मासूम है, उसे क्या मालूम यह सब। इस बेचारे के साथ तो ख़ुद ही इतना बड़ा मज़ाक हुआ है। इसके साथ हुए मज़ाक के सामने तो, दुनिया के सारे मज़ाक बौने हैं।”

यह कह कर उसने लियो के माथे को चूमते हुए कहा, “तुम इसके लिए किसी देवदूत से कम नहीं हो फ़्रेशिया। तुम इसकी नाक-कान, आँखें सब हो। तुम्हारे ही सहारे वह इस दुनिया को देख रहा है। मैं इतना ज़रूर कहूँगी कि इस दुनिया की ख़ूबसूरती ही इसे दिखाना। बदसूरती दिखाकर इसका मन मत दुखाना।”

मैंने कहा, “नहीं तृषा, इसे दोनों दिखाना ज़रूरी है। नहीं तो ये ख़ूबसूरती का महत्त्व नहीं समझ पाएगा।”

तभी लियो ने ताली बजाई। मतलब वह मुझसे कुछ कहना चाहता था। मैंने अपनी हथेली उसके हाथ से स्पर्श कराई, तो लियो ने टॉयलेट लिखना शुरू किया ही था कि मैं उसे टॉयलेट लेती गई।

मैंने घर आकर रोज़ की तरह उसकी पढ़ाई आगे बढ़ाई। सबसे पहले उसे समझाना शुरू किया कि बाहर किसी को टच नहीं करना है। यह ग़लत है। जब उसने ऑफ़िस में ताली बजाई थी, तभी मैंने यह भी महसूस किया था कि आवाज़ ज़्यादा तेज़ थी। इससे कोई नाराज़ हो सकता है। बुरा मान सकता है।

फिर मैंने कुछ सोचकर उसे हवा में ही शब्दों को लिखना सिखाना शुरू किया। एक तो हर समय स्लेट चॉक साथ रखना मुश्किल होता था, दूसरे हाथ पर कम जगह के कारण वह ठीक से लिख भी नहीं पाता था।

मैंने सबसे पहले उसे सॉरी लिखना सिखाया। स्पर्श-लिपि की तरह इस वायु-लिपि को सीखने में उसे ज़्यादा दिक़्क़त नहीं हुई थी। मैंने उसे समझाया कि हॉस्पिटल में चलकर आंटी को सॉरी बोलना। अगले दिन मेरा ऑफ़ था, तो उसे अच्छे से सिखाने का पर्याप्त समय मिल गया था।

लियो ने जब हॉस्पिटल पहुँच कर अपनी तृषा आंटी को हवा में लिखकर सॉरी बोला, तो वह समझ ही नहीं पाईं। और प्रश्न-भरी दृष्टि से मुझको देखने लगी, तो मैंने कहा, “ये परसों की बात के लिए तुमसे सॉरी बोल रहा है। वही लिख रहा है एस ओ आर . . .

“ओह, बेटा, बेटा तुमने ऐसा कुछ नहीं किया कि तुम्हें सॉरी बोलना पड़े। तुम्हारे जैसा प्यारा बच्चा कोई शैतानी कर ही नहीं सकता कि उसे सॉरी बोलना पड़े।”

फिर उसने मुझको देखते हुए कहा, “यार तुमने प्यारे से बच्चे को बेवजह परेशान किया। मुझे बहुत दुख हो रहा है।”

मैंने कहा, “दुख वाली कोई बात नहीं है। तुम अपनी हो, तुम्हें शुरू से सारी बातें मालूम हैं। लेकिन सब तो नहीं जानते न। कहीं और किया तो सोचो कितनी समस्या हो सकती है। कल को और बड़ा होगा, तब ऐसा करेगा तो इसकी जान भी ख़तरे में पड़ जाएगी। मैं तुम्हारी एहसानमंद रहूँगी कि तुमने बताया और मेरा ध्यान इस तरफ़ गया।”

“क्या यार, कैसी एहसान-वैसान की बात कर रही हो। आपस में इन बातों की कोई ज़रूरत नहीं है। तुमने तो ऐसा अनोखा काम कर दिया है, और आगे बढ़ा रही हो, जिसका दुनिया में दूसरा उदाहरण ही नहीं है।

“मैंने कभी न सुना है, न पढ़ा है कि किसी अनमैरिड यंग लेडी ने किसी अपरिचित के बच्चे को ऐसे अपनाया हो और उसके लिए अपने सुख-दु:ख को भूल कर, उसी की परवरिश में एक-एक पल बिता रही हो।

“तुम्हारा काम तो इसलिए और भी ज़्यादा ग्रेट है, क्यों कि तुमने एक स्पेशल चाइल्ड को अपनाया है। जबकि बहुत से सगे पेरेंट्स भी ऐसे होते हैं, जो अपने स्पेशल चाइल्ड को कहीं इधर-उधर छोड़ कर उनसे छुटकारा पा लेते हैं। मैं तो कहूँगी कि इसके लिए तुम्हें नोबेल या इससे भी बड़ा पुरस्कार मिलना चाहिए।”

“बस भी करो यार, कभी देव-दूत बना देती हो, तो कभी नोबेल दिला देती हो। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है कि ऐसे महान सम्मान पाने की अधिकारी बन जाऊँ। क्योंकि लियो के लिए न ही मैंने अपना सुख-चैन खोया है, न ही कुछ और। बल्कि लियो के लिए जी कर मुझे अच्छा लगता है। सुख मिलता है।”

मैंने जितनी गंभीरता से अपनी बात कही, तृषा ने उतनी ही गंभीरता से जवाब दिया कि “चलो जो भी हो, इतना तो ज़रूर कहूँगी कि तुम अद्भुत महिला हो।”

मैंने एक हल्की मुस्कान के साथ उसे देखा, और लियो को उसके पास छोड़कर ड्यूटी पर चली गई।

लियो जैसे-जैसे बढ़ रहा था, मैं उसको स्वावलंबी बनाने के लिए उससे भी कहीं ज़्यादा मेहनत कर रही थी। उतनी ही ज़्यादा मेरी चिंता भी बढ़ती जा रही थी।

वह जब क़रीब बारह साल का हुआ, तो मुझे अमेरिका के एक हॉस्पिटल से मिले जवाब से आशा की कुछ किरणें दिखाई दीं।

वहाँ से आई मेल में लियो और पेरेंट्स की कुछ जाँचें इंडिया में ही करवा कर, उसकी रिपोर्ट्स भेजने के लिए कहा गया था। साथ ही पेरेंट्स के बारे में और कई बातें भी पूछी गई थीं।

मैं समझ नहीं पा रही थी कि पेरेंट्स के बारे में क्या डिटेल्स भेजूँ। अंततः जो जाँचें लियो की करवानी थीं, उसको करवा कर रिपोर्ट्स, साथ ही पेरेंट्स, लियो और अपने बारे में सारी सही बातें लिख कर मेल कर दीं।

लियो की तमाम गतिविधियों की भी मैंने कई वीडियो, स्टिल फोटोग्राफी आदि जो इसी उद्देश्य से तैयार की थी, उनको भी भेज दिया। हॉस्पिटल्स से आई जवाबी मेल में मेरी इन तैयारियों आदि की बड़ी प्रसंशा की गई, प्रोत्साहित भी किया गया।

यह भी कहा गया कि यदि रिपोर्ट में उन्हें कोई पॉज़िटिव फ़ैक्टर मिल गया तो मुझे बुलाएँगे। कम से कम दस दिन रुकना पड़ सकता है। इसके साथ ही ट्रीटमेंट की अनुमानित फ़ीस भी बता दी गई। जो मेरे लिए बहुत ही ज़्यादा थी।

लेकिन फिर भी मैंने हार नहीं मानी और पी. एफ़. में जितना कुछ था, वह सब निकाल लिया। इसके बावजूद फ़ीस की आधी रक़म भी इकट्ठा नहीं हो पाई थी। कोई रास्ता न देखकर मैंने मकान के पेपर्स तैयार किए।

उस समय मैंने अपने नाना-नानी को ख़ूब धन्यवाद दिया कि उन्होंने अपने रहते ही मकान मेरे नाम ट्रांसफ़र कर दिया था। मैंने मकान बैंक को गिरवी रख कर, काम-भर से थोड़ा ज़्यादा लोन लेने की तैयारी कर ली। दौड़-भाग कर बैंक से लोन अप्रूव भी करवा लिया।

मैं यह बात किसी को नहीं बताना चाहती थी। अपनी दो-तीन क्लोज़ फ़्रेंड को भी नहीं। लेकिन जब बैंक ने काग़ज़ी कार्रवाई पूरी करने के क्रम में हॉस्पिटल फ़ोन करके इंक्वायरी की, तो बात लोगों को पता चल गई।

सब ने यही कहा कि मकान पर रिस्क नहीं लो। ऐसे इमोशनल होकर कोई डिसीज़न नहीं लिए जाते। आगे-पीछे सब ध्यान से सोच लो। तभी कोई क़दम बढ़ाओ।

मैंने सभी को एक ही जवाब दिया, “मैं अपने बेटे के लिए कुछ भी कर सकती हूँ। मैं जो कुछ भी करने की कोशिश कर रही हूँ, यह सब तो मुझे कम ही लगता है।” मैं लोगों को संक्षिप्त सा जवाब देकर चैप्टर तुरंत ही क्लोज़ कर देती थी।

इस विषय पर लोगों की ऐसी बातें मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आ रही थीं। लोगों ने भी मेरी भावना को समझते हुए चुप्पी साध ली। मैंने अपना, लियो का पास-पोर्ट भी बनवा लिया। कोई क़ानूनी अड़चन न आए, इसके लिए लियो को अपना अडॉप्टेड सन लिखा। स्वयं को सिंगल पेरेंट।

कई शपथ-पत्रों की आवश्यकता पड़ी, मैंने वह भी कचहरी में नोटरी से बनवा कर रख लिए। अपने और पुलिस विभाग से भी कई सपोर्टिंग डॉक्यूमेंट तैयार करवाए। अमेरिकन हॉस्पिटल की इमेज भी लगानी पड़ी। जी-जान से लगकर मैंने सारे काम पूरे कर लिए। और बड़ी व्यग्रता से अमरीका से बुलावे का इंतज़ार करने लगी।

हफ़्ते दो हफ़्ते के अंदर एक रिमाइंडर भी ज़रूर भेज देती थी। लेकिन दो महीने की प्रतीक्षा के बाद वहाँ से आई एक मेल ने सेकेण्ड-भर में मेरी सारी मेहनत, आशाओं पर पानी फेर दिया। हॉस्पिटल ने साफ़-साफ़ मना कर दिया कि अब कोई सम्भावना नहीं दिखती। नेत्र प्रत्यारोपण की भी नहीं।

अपनी शुरूआती मेल में ही मैंने यह भी लिखा था कि नेत्र प्रत्यारोपण की स्थिति में मैं अपना नेत्र डोनेट करूँगी। संयोग से मेरा, लियो का ब्लड-ग्रुप भी एक था। मगर सब-कुछ सेकेण्ड-भर में समाप्त हो गया। मैं कई दिन बहुत रोई। हॉस्पिटल में भी मेरे आँसू निकल ही आते थे।

मैं बीते दो महीनों से लियो को लेकर हर रविवार को चर्च भी जाती थी। ईसा मसीह, मरियम से प्रार्थना करती थी कि मेरे लियो को ठीक कर दें।

निराशाजनक मेल से मैं इतनी दुखी हुई कि अगले कई रविवार घर से बाहर ही नहीं निकली। मैं लियो के लिए तरह-तरह के ऐसे खिलौने ले आती, जिनसे वह कुछ जान-समझ सके, सीख सके। उसके लिए एक छड़ी भी ले आई, जिससे वह ज़रूरत पड़ने पर बिना मेरी उँगली पकड़े भी घर में इधर उधर मूव कर सके।

अमेरिका से निराशा हाथ लगने के बाद भी मैं नेट पर रूस, स्वीडेन, फ़्रांस, जापान, जर्मनी आदि तमाम देशों के डॉक्टर्स, हॉस्पिटल्स खंगालती रहती। लैंग्वेज की समस्या आती तो अपनी डिटेल्स को गूगल के ज़रिए वहाँ की भाषा में ट्रांसलेट कर लेती। साथ में अँग्रेज़ी वर्जन ज़रूर भेजती।

यह खोज-बीन करते-करते एक बार जापान की, एक हाई-टेक कम्पनी की इलेट्रॉनिक छड़ी के बारे में पता चला तो वह भी मँगाई। जिसको लेकर चलने पर यदि कोई अवरोध सामने होता, तो वह वाइब्रेट करने के साथ-साथ बीप-बीप की तेज़ आवाज़ भी करती, जिससे सामने यदि कोई लापरवाह व्यक्ति है, तो उसका ध्यान नेत्रहीन व्यक्ति की तरफ़ चला जाए।  लियो के लिए यह छड़ी बड़ी मददगार साबित हो रही थी। उसके लिए वह एक खिलौना भी बन गई थी। उसे लेकर चलता, और बार-बार मुझसे उसके सामने आ जाने को कहता। मेरे सामने पड़ने से वह वाइब्रेट करती, तो उसे मज़ा आता। बीप-बीप की आवाज़ सिर्फ़ मैं ही सुन पाती थी।

लियो हर चीज़ को बड़ी जल्दी सीख लेता था। जब वह घर में छड़ी लेकर इधर-उधर टहलता, चलता तो मेरे आँसू निकल आते। मैंने उसकी बड़े स्टाइलिश हेयर स्टाइल बनवाया था। गोरा रंग, स्वस्थ शरीर, वह बहुत सुंदर लगता था।

मैं उसे हर तरीक़े से, ज़्यादा से ज़्यादा सब-कुछ सिखा देना चाहती थी। जिससे वह किसी पर डिपेंड न रहे। देखते-देखते वह चौदह साल का हो गया। लंबाई में वह मुझसे ऊपर दिखने लगा था। अपने साथ हॉस्पिटल ले जाने के लिए जब उसे तैयार करती, तो उस पर इतना प्यार आता कि बार-बार उसको चूम लेती।

मुझे बड़ी तकलीफ़ होती, जब वह हॉस्पिटल में बैठे-बैठे ऊबने लगता। थक जाता तो बेंच पर ही टटोल-टटोल कर लेट जाता था। एक दिन वह बेंच भी कोई और उठा ले गया। मैं उसे अपने साथ लंच कराती थी।

उस दिन जब मैं लंच के लिए लौटी तो वह ज़मीन पर ही पेपर बिछा कर उसी पर सो रहा था। मैं उसको ऐसी हालत में देखती रह गई। मेरे आँसू निकल आए। तभी वृंदा आ गई। उसने मुझे देखते ही कहा, “फ़्रेशिया तुम लंच कर लो। मैंने देखा तुम्हें देर हो रही है और लियो भूखा है, मुझे भी भूख लग रही थी, तो हम-दोनों ने लंच कर लिया है।

“लंच के बाद इसे बड़ी तेज़ नींद आने लगी। कुर्सी पर बैठे-बैठे कभी बाएँ, कभी दाएँ हो रहा था। कुछ न देखकर मैंने सोचा चलो पेपर ही सही। इसे आराम तो मिलेगा। बेंच पता नहीं कौन कमीना उठा ले गया, नहीं तो इसे कुछ तो आराम मिलता।”

तभी उसका ध्यान मेरे आँसुओं की तरफ़ गया तो वह बोली, “ओह फ़्रेशिया ये क्या, ऐसे परेशान नहीं हो। क्या करोगी, दुनिया में तमाम तरह के लोग हैं। तुम जैसे अच्छे लोग हैं तो, जान-बूझ कर बेंच उठा ले जाने वाले पर-पीड़क भी हैं। इसलिए परेशान नहीं हो। निश्चिन्त होकर लंच करो।”

“पता नहीं यार वह कैसा आदमी है, दूसरों को कष्ट में देख कर ही ख़ुश होता है। तुम्हारे रहते मैं निश्चिंत रहती हूँ। सोच रही हूँ कि कुछ ऐसा इंतज़ाम करूँ कि यह घर पर ही आराम से रह सके। अब यह काफ़ी कुछ सीख चुका है।”

तभी वृंदा ने कहा, “लेकिन फ़्रेशिया एक मैड तो रखनी ही पड़ेगी, अभी इसे अकेला नहीं छोड़ा जा सकता।”

“हाँ, मैं भी यही सोच रही हूँ। अच्छा आओ, थोड़ा सा लंच मेरे साथ भी कर लो।”

मैं लियो के लिए कुछ भी करने से पहले सौ बार सोचने-विचारने के बाद ही आगे बढ़ती थी। बहुत माथा-पच्ची करने के बाद मैंने तय किया कि जो भी हो जाए, भले ही इसे थोड़ी तकलीफ़ होती रहे, लेकिन इसे अपनी आँखों से दूर नहीं करूँगी। नौकरानी, नौकरानी होती है। न जाने इस मासूम के साथ क्या करे?

उसी दौरान मेरे चार संडे ऐसे भी बीते कि मुझे छुट्टी नहीं मिली। मैं स्वयं से ज़्यादा लियो की तकलीफ़ को लेकर परेशान रहती थी कि बेचारा हफ़्ते में एक दिन भी आराम नहीं कर पा रहा है। थोड़ा घूम-फिर लेता था, वह भी नहीं हो पा रहा है।

मैं उसे हर हफ़्ते कहीं ना कहीं घुमाने, किसी अच्छे रेस्त्रां में खिलाने ज़रूर ले जाती थी। हर महीने सैलरी मिलने पर उसके लिए नई ड्रेस, खिलौने ज़रूर लेती थी। जब से ट्रीटमेंट को लेकर हर जगह से न हुई थी, निराशा मिली थी, तब से मैं बचत की जगह खुलकर उस पर पैसे ख़र्च करने लगी थी। कपड़े भी वह स्पर्श करके अपने हिसाब से पसंद करने लगा था। जब वह मॉल में अपनी पसंद बताता तो मुझे बड़ी ख़ुशी होती थी।

एक दिन सुबह वह नहा-धोकर आया तो बड़ा घबराया हुआ था। उसने एक बार फिर मुझे वैसी ही स्थिति में डाल दिया, जैसी मेल-फीमेल के अंतर को समझने के समय डाली थी। छुट्टी का दिन था, मैं लैप-टॉप पर अपने पुराने मिशन में जुटी हुई थी कि कहीं से कोई उम्मीद की किरण दिखाई दे।

लियो अपनी दोनों हथेलियाँ सामने कर बार-बार ऊपर इस तरह कर रहा था, जैसे उनमें रखी छोटी-छोटी गेंदें उछाल रहा हो। मुँह से खुरखुर करती आवाज़ आ रही थी। उसे इतना घबराया हुआ मैंने पहले कभी नहीं देखा था।

जल्दी से लैप-टॉप को किनारे रखा। लपक कर उसके पास पहुँची। दोनों हाथ पकड़ कर पूछा क्या हुआ? फिर लियो ने जो कुछ बताया उससे मेरे चेहरे पर एक संकोच भरी मुस्कान फैलती चली गई।

मैंने दोनों हाथों से उसके दोनों गालों को सहलाते हुए समझाया कि कुछ नहीं हुआ। अपने हाथ के अंगूठे और आख़िरी ऊँगली से उसके होंठों के दोनों सिरों को फैलाते हुए समझाया कि कुछ भी नहीं हुआ तुम हँसो।