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तुमसा नहीं देखा..

ये बात सन् १९८० की है,तब हम लोग उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के छोटे से कस्बे अतर्रा में रहा करते थे,मेरे पापा वहाँ के हिन्दू इण्टर काँलेज में अध्यापक थे,मैं उस समय बी.ए.पास करके एम.ए. में गया था और मेरा दोस्त पुरूषोत्तम पाण्डेय भी मेरे साथ ही बचपन से पढ़ा था,हमारी दोस्ती पूरे अतर्रा में मशहूर थी,हम दोनों एक दूसरे बिना कहीं ना जाते थे,फिर वो चाहे शादी हो या फिर किसी का श्राद्ध,हम पढ़ाई भी साथ साथ ही किया करते थे और हमारे अंक भी लगभग एक जैसे ही आया करते थे, हाँ बस कभी दोनों के अंक एक या दो अंक आगें पीछे हो जाया करते थे....
पुरुषोत्तम के पिता जी इलाहाबाद बैंक में मैनेजर थे,इसलिए उसके बहुत जलवे थे और वो था भी बहुत हँसमुख,हम कक्षा में साथ बैठते तो हमें जरूर डाँट पड़ती थी क्योंकि पुरूषोत्तम कुछ ना कुछ ऐसी बात कर देता था कि मुझे हँसी आ जाती थीं और सर से डाँट पड़ जाती थी,वो मजाक करने के लिए किसी को भी नहीं छोड़ता था,यहाँ तक कि उसने कई बार अपने पिता जी के साथ भी मज़ाक किया था,मजाक के मामले में वो किसी से भी नहीं डरता था,एक बार की बात है हम दोनों बी.ए.प्रथम वर्ष में थे,हमें एक सर पढ़ाते थे जो "स" को "फ" बोलते थे,तो एक बार उनके पढ़ाते वक्त हम सभी बातें कर रहे थे इस बात से सर परेशान होकर बोले....
"जिफे ना पढ़ना हो तो वो यहाँ फे जा फकता है"
तब पुरूषोत्तम अपनी जगह से उठा और उनसे बोला....
"हमें भी आपफे पढ़ने का कोई फौक नहीं है"
इतना सुनकर हम सभी हँसने लगे और पुरूषोत्तम कक्षा से बाहर चला गया और उसके बाद उसकी कम्प्लेन प्रधानाध्यापक के पास भी पहुँची,पुरूषोत्तम बहुत ही मजाकिया किस्म का था..
तो एक बार हम दोनों को बैंक की प्रतियोगी परीक्षा देने झाँसी जाना था,प्रतियोगी परीक्षा रविवार को थी और हम दोनों ने शनिवार को जाना तय किया था,साथ में यह भी विचार किया था कि शनिवार की रात हम दोनों पुरूषोत्तम की बुआ के यहाँ रुक लेगें जो कि झाँसी में ही रहती थीं,ये कार्यक्रम हम दोनों ने पाँच दिन पहले ही बना लिया था लेकिन वृहस्पतिवार आते-आते एक दुर्घटना हो गई,मेरे साथ या पुरूषोत्तम के साथ नहीं,पुरूषोत्तम के मौसा जी के साथ जो कि बाँदा में रहते थे,उनका स्कूटर से एक्सीडेंट हो गया था ,इसलिए शुक्रवार की सुबह पुरूषोत्तम को बाँदा जाना पड़ा और उसने मुझसे कहा कि शनिवार को पैसेंजर से तुम झाँसी के लिए निकलो और मैं तुम्हें बाँदा स्टेशन पर मिल जाऊँगा,मैनें कहा ठीक है....
और फिर शनिवार को मैं अतर्रा से झाँसी जाने वाली पैंसेजर ट्रेन में चढ़ा और एक डेढ़ घण्टे के बाद बाँदा रेलवें स्टेशन पर पहुँच गया,ये वो जमाना था जब ट्रेन में कोयले वाला इन्जन हुआ करता था और झाँसी स्टेशन पर कोयले वाला इन्जन चेंज होकर डीजल इंजन लगा करता था,उस समय टेलीफोन की सुविधाएं भी नहीं हुआ करतीं थीं,इक्का दुक्का अमीर घरों में ही टेलीफोन हुआ करते थे,तो मैं बाँदा पहुँचा और स्टेशन पर उतरा,तब प्लेटफार्म भी बहुत नीचे हुआ करते थे,आजकल की तरह नहीं होते थे ,उस समय प्लेटफार्म पर उतरने के लिए बहुत जुगत लगानी पड़ती थी,मैं स्टेशन पर उतरकर पुरूषोत्तम को खोजने लगा लेकिन मुझे पुरूषोत्तम कहीं ना दिखा,फिर ट्रेन ने सीटी दी और मैं ये सोचकर ट्रेन में चढ़ गया कि ऐसा ना हो कि पुरूषोत्तम किसी और वोगी में चढ़ गया हो और यही सोचकर मैं फिर से अपनी सीट पर आ बैठा,आषाढ़ का महीना था ,जामुन का मौसम चल रहा था इसलिए कुछ महिलाएंँ ट्रेन के भीतर अपने सिर पर रखी डलिया में जामुन बेंच रहीं थीं,तो मैनें टाइम पास के लिए कुछ जामुन खरीदें,तभी देखता हूँ कि एक महिला मेरी बगल वाली सीट पर घूँघट ओढ़े आ बैठी और मुझसे दबी आवाज़ में बोली....
"माफ कीजिएगा!मुझे खिड़की वाली सीट चाहिए,मेरे पति बाँदा स्टेशन पर उतरे थे लेकिन अभी तक नहीं लौटे,हो सकता है वें किसी और वोगी में चढ़ गए हो और अगले स्टेशन में मुझे ढ़ूढ़ते हुए इधर आएं और अगर मैं खिड़की के पास रहूँगी तो वें मुझे आसानी से ढूढ़ लेगें"
मैं उस महिला की बात टाल ना सका और उसे खिड़की वाली सीट देकर मैं अपनी जामुन पर कन्सन्ट्रेट करने लगा,अब अगला स्टेशन महोबा आने वाला था और मुझे बहुत जोर की भूख भी लग आई थी,महोबा स्टेशन आया तो मैनें वहाँ उतरकर भी पुरूषोत्तम को तलाश किया लेकिन वो मुझे महोबा स्टेशन पर भी नहीं मिला,फिर मैनें अपने पेटराम की क्षुधा शांत करने के लिए पाँच समोसे और अमिया की खट्टी-तीखी चटनी खरीदी और पलक झपकते ही डकार गया और मेरे पास बैठी महिला मुझे घूरती रही ,मुझे थोड़ा अजीब लगा लेकिन मैनें उसे समोसे के लिए नहीं पूछा,अब ट्रेन ने सीटी दी और ट्रेन चल पड़ी और अब मेरे पास बैठी महिला तो गुहारी मार-मार कर अतर्रा वाली भाषा में रोने लगी....
"तुम कहाँ चले गए,अब मैं तुम बिन का करिहो....हाय....दय्या....अम्मा....,कहाँ चले गए कल्लू के पापा...
मैं मर जहिओ...तुम बिन...."
अब उस महिला का रोना देखकर वोगी की कुछ बुजुर्ग महिलाएं इकट्ठी हो गईं और उस महिला को शांत करवाने लगी,एक बोली....
"चुप हो जाओ बुइआ(बिटिया),आ जइहे तुम्हार मालिक,दूसर डिब्बा में चढ़ गए हुइहे"(तुम्हारे मालिक आ जाऐगें,दूसरे डिब्बा में चढ़ गए होगें)
दूसरी बोली...
"चिन्ता ना कर बहुरिया!हम पंचे तो हैं तोहार संगे"(चिन्ता ना करो बहू ,हम सब हैं ना तुम्हारे साथ)
तीसरी बोली....
"मनई जात इन तान की ही होत ही,भाग गया हुई कोहू और के साथे"(आदमी जात इसी तरह की होती है भाग गया होगा किसी और के साथ)
अब ये सब उस महिला ने सुना तो और गुहार मार मार कर रोने लगी,अब उन उस महिला को सम्भालना उन बुजुर्ग महिलाओं के वश में ना रह गया था ,तब मैनें उस महिला से कहा....
"चुप हो जाइए बहनजी!,आपके पति मिल जाऐंगे,"
"मिलना होता तो मिल गए होते ना!उसने अपनी नाक सुड़कते हुए कहा"
उस महिला की आवाज़ मुझे कुछ अजीब सी लगी ,फिर मैनें उससे पूछा...
"कहाँ जाना है आपको"?
"जी!झाँसी तक"
तब मैनें उससे कहा....
"जी!मैं भी झाँसी तक ही जा रहा हूँ,मैं आपको सही सलामत आपके घर तक पहुँचा दूँगा"
मेरी बात सुनकर वो औरत बिफर पड़ी और उन बुजुर्ग महिलाओं से बोली...
"देखो तो अम्मा!ये आदमी कैसीं बातें कर रहा है?"
तब उनमें से एक बुजुर्ग बोली...
"काहे!दादू(बेटा)!का बात है"
तब मैं बोला...
"अम्मा!मैं तो इन बहनजी से इनकी मदद करने को कह रहा था"
तब वो महिला बोली...
"नाही!अम्मा!इस आदमी की नीयत ठीक नहीं है"
और ऐसी ही बहस चल रही थी कि वहाँ और लोग भी इकठ्ठे हो गए,फिर उनमे से एक बोला....
"उतारो हरामखोर को गाड़ी से नीचे,अभी गाड़ी की चेन खीचों"
दूसरा बोला....
"ठहरो...ठहरो...मऊरानीपुर आने वाला है इसे वहाँ पुलिस के हवाले कर देगें....
सबके बीच ऐसे ही बहस हो रही थी और लोंग मुझे रसिया,लम्पट,लफंगा,कमीना और ना जाने क्या क्या कह रहे थे और जैसे ही मऊरानीपुर स्टेशन आया तो मेरी तो जैसे जान ही निकली जा रही थी,बस रह रहकर यही ख्याल आ रहा था कि कि ना जाने आज कौन सी मनहूस घड़ी में घर से निकला था,अब मऊरानीपुर स्टेशन भी आ पहुँचा था और एक ने मेरी शर्ट की काँलर पकड़कर कहा....
"उतर गाड़ी से नीचे ,अब हम दिखाते हैं कि किसी महिला को छेड़ना क्या होता है?"
ये सुनकर मेरे होश उड़ गए,जिन्दगी में पहली बार ऐसा कोई दाग लगने जा रहा था मेरे चरित्र पर,मेरे पिताजी जी सुनेगें तो शरम से मर ही जाऐगें कि मैं ट्रेन में किसी लम्बी चौड़ी मुसण्ड महिला को छेड़ते हुए पकड़ा गया,मैं शरम से मरा जा रहा था और वो महिला अब भी घूँघट में अपना मुँह छुपाएं बैठी थीं,ट्रेन रुकी तो लोंग मुझे घसीटकर ले जाने लगे और तभी वो महिला बोलीं....
"ठहरो!इनका कोई दोष नहीं है"
"तो बहनजी!फिर अब तक क्यों ना बोलीं आप"?,एक ने पूछा...
"क्यों कि मैं मजे ले रहा था"
और इतना कहकर उस महिला ने अपना घूँघट उठाया,अपने बदन से साड़ी हटाई और मेरे सामने पैंट-शर्ट पहने हुए पुरूषोत्तम हाजिर था,पुरूषोत्तम को देखकर मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं उससे बोला....
"तो तू था,मुझे इतने देर से परेशान करके रखा था,शरम नहीं आई,आज तेरी वजह से मैं जेल जाते जाते बचा,ऐसी दिल्लगी कोई करता है भला,आज तो जान ही निकाल दी तूने मेरी...
मेरी बात सुनकर पुरूषोत्तम कुछ ना बोला बस खड़ा हँसता रहा और फिर थोड़ी देर बाद मुझे गले लगाकर बोला...
"माँफ कर दे यार!लेकिन मजा बहुत आया"
और फिर पुरूषोत्तम को मेरे गले लगता देखकर भीड़ के लोंग भी बोलें...
"भाई!दोस्त तो देखें दुनिया में लेकिन तुमसा नहीं देखा.....

समाप्त....
सरोज वर्मा....


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